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परबस जनु हो हमर पिआर

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    कुल गुन गौरव सील सोभाओ | सबे लए चढ़लिहुँ तोहरहि नाओ || (कुल का गुण-गौरव और अपना शील-स्वभाव सब लेकर तुम्हारा संग-साथ कर लिया है) विद्यापति की पदावली में श्रृंगार और उससे भी बढ़कर ' अश्लीलता '  तो रेखांकित हुई किंतु प्रेम के बेहद्दी मैदान में स्त्रियों का अपार साहस रेखांकित नहीं हुआ। जिस प्रकार मीरा राणा की राजसत्ता और सिसोदिया कुल की मर्यादा यानी कुल-कानि को धता बताकर कृष्ण के प्रेम में मतवाली हो कर घर से निकल जाने का साहस दिखलाती है, उसी प्रकार विद्यापति की नायिका ने आज अपने प्रेमी को वचन दिया है। आज उसने अपने प्रेमी से मिलने का ठान लिया है। आज उसे न घर का डर है न गुरुजन का।   आत्मविश्वास से भरी हुई वह कहती है- हे सखी! आज मैं अवश्य जाऊँगी। घर के गुरुजनों (माँ-पिता आदि) का भय नहीं मानूँगी। अपने वचन से नहीं चूकूँगी। स्वच्छ वस्त्र से अपना शरीर ढक लूँगी और धीरे-धीरे प्रियतम के पास जाऊँगी। यद्यपि समूचे आकाश में हजार के हजार चंद्रमा उग   जाएँ,     मेरा जाना स्थगित नहीं हो सकता। ना मैं किसी की दृष्टि का निवारण करूँगी न किसी से ओट करूँगी|   ...