विद्यापति मोर कतय गेलाह

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने विद्यापति को आदिकाल के अंतर्गत ‘फुटकल’ खाते में रखा है. कदाचित शुक्लजी ने विद्यापति के ‘नचारी’ और ‘महेशवाणी’ के पदों को देखा होता तो वे उन्हें न तो फुटकल खाते में रखते न ‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे’ वाली बात कहते. यह निर्णय उन्होंने विद्यापति के राधा-कृष्ण सम्बन्धी श्रृंगारिक पदों के आधार पर लिया होगा. आरम्भ से ही विद्यापति अध्ययन की सारी दिशाएँ बंगाली-बिहारी और श्रृंगार-भक्ति में उलझकर रह गई. इसके बदले विद्यापति पदावली का अध्ययन ‘कीर्तिलता’, ‘भूपरिक्रमा’ और ‘लिखनावली’ सदृश्य उनकी अनोखी दृष्टिसंपन्न पुस्तकों के सन्दर्भ में की जाती तो हम निश्चित रूप से एक दूसरे विद्यापति की तलाश कर चुके होते. कदाचित हिंदी साहित्य का भक्ति काल कुल मिलाकर वैष्णव भक्ति का पर्याय न होता तो शैव भक्त विद्यापति भक्तिकाल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवियों के रूप में समादृत होते....