विद्यापति मोर कतय गेलाह
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने विद्यापति को आदिकाल के अंतर्गत ‘फुटकल’ खाते में रखा है.
कदाचित शुक्लजी ने विद्यापति के ‘नचारी’ और ‘महेशवाणी’ के पदों को देखा होता तो वे
उन्हें न तो फुटकल खाते में रखते न ‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे’ वाली बात कहते. यह
निर्णय उन्होंने विद्यापति के राधा-कृष्ण सम्बन्धी श्रृंगारिक पदों के आधार पर
लिया होगा.
आरम्भ से ही विद्यापति अध्ययन की सारी दिशाएँ बंगाली-बिहारी और श्रृंगार-भक्ति में उलझकर रह
गई. इसके बदले विद्यापति पदावली का अध्ययन ‘कीर्तिलता’, ‘भूपरिक्रमा’ और ‘लिखनावली’
सदृश्य उनकी अनोखी दृष्टिसंपन्न पुस्तकों के सन्दर्भ में की जाती तो हम निश्चित
रूप से एक दूसरे विद्यापति की तलाश कर चुके होते.
कदाचित हिंदी साहित्य का भक्ति काल कुल मिलाकर वैष्णव भक्ति का पर्याय न होता तो शैव
भक्त विद्यापति भक्तिकाल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवियों के रूप में समादृत होते.
एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि किसी कवि का कोटि निर्धारण उस कवि के पदों की संख्या
के आधार पर हो या पदों की गुणवत्ता के आधार पर? कदाचित विद्यापति के विलक्षण
सामाजिक- सांस्कृतिक सरोकार संपन्न भक्ति पद नचारी और महेशवाणी की
गुणवत्ता की तलाश की जाती तो वे भक्तिकाल के प्रथम भक्त कवि के रूप में हमारे
सामने उपस्थित होते.
विद्यापति के अनूठे श्रृंगारिक पदों को सिर्फ
मनबहलाव का श्रृंगार न समझकर
पितृसत्तात्मक समाज में दमित स्त्रियों की यौनिकाता की विलक्षण अभिव्यक्ति के रूप
में देखने की कोशिश की जाती तो विद्यापति यत्किंचित ‘अश्लील’ कवि के रूप में न जाने जाते.
आध्यात्मिक रंग के चश्मे बनाम विक्टोरियन नैतिकता
का चश्मा
विद्यापति का उचित मूल्यांकन न तो हिंदी आलोचना कर पाई है और न ही
मैथिली आलोचना. दोनों भाषाओं के अधिकांश विद्वान विद्यापति के अकुंठ श्रृंगार भाव
के कारण संकोच में दिखते हैं. यही कारण है कि आचार्य रामचंद्र
शुक्ल विद्यापति को भक्त कवि की श्रेणी में खुले चित्त से नहीं रख पाते हैं. दूसरी
और मैथिली भाषा के विद्वान् उनके नितांत लौकिक श्रृंगार वर्णन पर रहस्यात्मकता का
आवरण चढ़ा कर बलात भक्त कवि सिद्ध करने पर आमदा दिखते हैं.
विद्यापति के श्रृंगारिक पदों को शैव भक्ति की परम्परा में देखने से कई समस्याएँ हल हो सकती
हैं, क्योंकि वे मूलतः शैव भक्त थे. शैव भक्ति में श्रृंगार-तत्व जीवनोत्सव के रूप
में आता है. योनि में रखे लिंग की अवधारणा का संकेत बहुत स्पष्ट है. यहाँ
स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को लेकर कोई कुंठा भाव नहीं है. श्रृंगार तत्व तो वैष्णव
भक्ति की भी रीढ़ है. समस्या भक्ति और श्रृंगार की आपसी एकमेकता या दोनों के बीच
अन्योनाश्रय सम्बन्ध की नहीं है, समस्या आलोचकों की साहित्य में नैतिकता की तलाश
में है. दरअसल जिस समय विद्यापति और अन्य भक्त कवियों का मूल्यांकन कार्य आरम्भ हो
रहा था, उस समय हिंदी क्षेत्र में विक्टोरियन नैतिकता और नवजागरणवादियों की पुरुष
केन्द्रित नैतिकता का जोर था. रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद द्विवेदी सरीखे हिंदी
के पुरोधा नैतिकता का चश्मा लगाकर साहित्य में दाखिल-खारिज अभियान चला रहे थे. एक
वाक्य में कहा जाए तो विद्यापति इसी अभियान के शिकार हो गए. इन आलोचकों की दृष्टि
में कालिदास, जयदेव से लेकर खजुराहो की विलक्षण शिल्प भी अश्लील ही कहे जाएँगे. अंग्रेजी विक्टोरियन नैतिकता और भारतीय
अभिजात्य वर्ग के नैतिक पाखण्ड को चारू गुप्ता की पुस्तक ‘सेक्सुअलिटी,
ओबसिनिटी एंड कमुनिटी’ और कुमकुम सारंग की पुस्तक ‘पॉलिटिक्स ऑफ़ पॉसिबल’
के माध्यम से जाना जा सकता है. इन पुस्तकों में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि हिंदी
साहित्य के इतिहास लेखन का समय बीसवीं सदी के कुछ पहले दशक का है, जब हिन्दू
सवर्णवादी पवित्रता के विचार और कैथोलिक नैतिकता के विचार गलबहियाँ डाले स्त्री शिक्षा
को अनुकूलित करने का प्रयास कर रहे थे. यही वजह है कि जब कुछ विद्वान विद्यापति के
पदों की व्याख्या भक्ति पद के रूप में कर रहे थे तो शुक्ल जी का नैतिक शिक्षक रूप सामने आता है, और वे अपने ‘हिंदी
साहित्य के इतिहास में’ में लिखते हैं, “’आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत
सस्ते हो गए हैं, जिन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीतगोविन्द’ के पदों को
आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को|’” यह लिखते हुए
कदाचित शुक्लजी यह भूल जाते हैं कि बंगाल
के सबसे बड़े भक्त चैतन्य महाप्रभु विद्यापति के इन पदों को गाते हुए भक्ति की चरम
अवस्था में पहुँच जाते थे. चैतन्य महाप्रभु के चश्मे में खोट की गुंजाइश नहीं है.
आसाम के सबसे बड़े भक्त कवि शंकरदेव पर विद्यापति का गहरा प्रभाव सर्वविदित है.
विद्यापति अध्ययन की विडम्बना यह है कि उनकी शैव भक्ति पर आधारित पदों की सायास या अनायास
उपेक्षा हुई. ये शैव भक्तिपरक पद ‘नचारी’ और ‘महेशवाणी’ कहलाती हैं. यद्यपि इनकी
संख्या कम हैं, फिर भी शोधार्थियों ने सौ से अधिक पदों का हवाला दिया है. इन पदों
में भक्ति की सहजता और सरलता चमत्कृत करने वाली है. इन पदों में भगवान् और भक्त के
बीच की सीमारेखा समाप्त हो जाती है. ‘मो सो सौं कौन कुटिल छल कामी’ (तुलसी) और
‘राई को पर्वत करे पर्वत राई माही’ वाली भक्ति यहाँ नहीं है. भक्त की दैन्यता और
ईश्वर माहत्म्य से परे यह भक्ति है. यह अनायास नहीं है कि बल्लभाचार्य ने सूर के
दैन्य पदों को देखकर निर्देशित करते हुए कहा था कि ‘सूर ह्वे के ऐसे क्यों घिघियात
हो’. विद्यापति के नचारी और महेशवाणी में भक्ति का समभाव है. इसमें हास-परिहास,
उपालंभ, शिकायत सबकुछ निष्ठा के अटूट तार में पिरोए गए हैं.
कहने की आवश्यकता
नहीं कि शिव का रूप विचित्र है, वे तो
औघड़ हैं. लेकिन पार्वती का मन तो इसी औघड़ पर आ गया है. जब शिव पार्वती के घर विवाह
हेतु आते हैं तो उनका यह विचित्र रूप देखकर पार्वती की माँ मैना अचेत हो जाती हैं.
वह ठान लेती है कि इस वृद्ध बहुरूपिये से अपनी बेटी की शादी नहीं होने देंगी. सखी
के माध्यम से वह अपने पति को कहती है कि यदि इससे मेरी बेटी की शादी होगी तो मैं
इस घर में कदापि नहीं रहूंगी. बेटी को लेकर कहीं अन्यत्र भाग जाउंगी-
हम नहि आजु रहब एहि
आँगन, जँ बुढ़ होएत जमाए गे, माई ||
एक तं बइरि भेल बीध बिधाता
, दोसर धिया केर बाप ||...
पहिलुक बाजन डामारू
तोड़ब, दोसरे तोड़ब रुण्डमाल ||
(विद्यापति की
पदावली, संकलन- रामवृक्ष बेनीपुरी, पुस्तक भण्डार, लहेरियासराय, संवत 2040, पृष्ठ-132)
इन पंक्तियों में वह कहती है कि एक तो ‘भाग्य-बिधाता’ बैरी हो गया जो ऐसा दामाद मिला और दूसरा इसके
पिता भी इसके दुश्मन हो गए, जो ऐसा वर ले आए. इस वर (शिव) के हाथ में जो डमरू है, सबसे
पहले उसको तोड़कर फेकूंगी. और गले में जो रुण्डमाल है उसे भी नोचकर फेक दूँगी . इस
शादी की मध्यस्थता करने वाले नारद ब्राह्मण का पोथी पतरा फाड़ कर फेक दूंगी. इतना
ही नहीं उनकी दाढ़ी भी नोच लूंगी. आदि आदि.
अपने अराध्य से इतनी छूट लेना असाधारण बात है. पद में बेटी की शादी को लेकर एक माँ
की सहज चिंता रेखांकन योग्य है. अपनी माँ की अनभिज्ञता पर पार्वती मुसकुराती भर
हैं. भक्ति रस में आपादमस्तक डूबा भक्त अपने आराध्य को बेहिचक अपमानित करवा रहा है. और मजे की बात यह
है कि आराध्य भी अपमानित होने का मजा ले रहा है. ईश्वर के प्रति कोई दिव्यता नहीं,
आलौकिकता नहीं, दैन्य-भाव नहीं, हीनता-बोध नहीं. तुलसी के राम भी मिथिला पहुंचकर
धनुष भंग के बाद ‘बुडबक’ (बेवकूफ) बन जाते हैं. मैथिलानियों के आगे राम का सारा
महात्म्य तिनके के समान उड़ जाता है.
सम्पूर्ण भारतीय
माइथोलोजी में शिव-पार्वती का प्रेम अतुलनीय है. एक कथा के अनुसार के अनुसार शिव स्वंय अपने हाथों गौरी
का श्रृंगार करते हैं. केस विन्यास से लेकर बालों में फूल गूंथने तक. श्रृंगार के
छोटे-छोटे अवयव पर पूरा ध्यान देते हुए. प्रेम के किसी ऐसे ही सघन क्षण में
पार्वती शिव को नृत्य करने का आग्रह करतीं हैं, लेकिन शिव को तो श्रृंगारित
पार्वती को भर मन निहारने का मन है. इस प्रेमपूर्ण निवेदन को ठुकरा तो सकते नहीं,
तो वे बहाना बनाते हैं. विद्यापति की भक्ति का निर्मल श्रोत ऐसे ही विलक्षण पदों
में फूटा है. शिव के बहाने भी उन्हीं की तरह निराले हैं-
आजु नाथ एक ब्रत महा
सुख लागत हे|
तोहें सिव धरु नट
वेष कि डमरू बजाबह हे ||
तोहें गौरी कहेछह
नाचए हमे कोना नाचब हे|
चारि सोच मोहि होए
कोन बिधि बाँचब हे||...
मुंडमाल टुटि खसत,
मसानी जागत हे|
तोहें गौरी जएबह पड़ाए, नाच के देखत हे||
(विद्यापति की
पदावली, संकलन- रामवृक्ष बेनीपुरी, पुस्तक भण्डार, लहेरियासराय, संवत 2040, पृष्ठ-135)
शिव कई बहाने बनाते
हैं, रोचक और तार्किक भी. वे
अपने अंतिम बहाने में कहते हैं कि अगर मैं नाचूँगा तो मेरा बघम्बर (बाघ के छाल का
वस्त्र) खुल जाएगा और सर पर स्थित चन्द्रमा से अमृत टपककर उस वस्त्र पर गिरेगा
जिससे बाघ जीवित हो उठेगा, गले का मुंडमाल जीवित हो उठेगा, भूत-प्रेत जाग जाएंगे, तो
तुम डर कर भाग जाओगी, तो फिर मेरा नृत्य कौन देखेगा? इसलिए मैं अभी नृत्य नहीं
करूंगा. शिव-पार्वती के बीच इस विलक्षण दाम्पत्य प्रेम की इतनी सरल अभिव्यक्ति
भक्ति के बगैर संभव नहीं है|
पार्वती के अंतिम
संस्कार का प्रसंग पत्नी प्रेम की इंतहा है. एक पति दो गज़ पवित्र जमीन की खोज में पत्नी का
शव कंधे पर उठाए पूरे ब्रह्मांड में भटक रहा है, यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ.
दर-दर भटकने में शव का अंग-प्रत्यंग गल-गल कर जहाँ-तहाँ गिर रहा है. इससे बेपरवाह
वह भटक रहा है. पार्वती का अंग जहाँ-जहाँ गिरा है, वे शक्तिपीठ के रूप में जाने
जाते हैं. पूरे देश में विवाह पंचमी (शिव पार्वती का विवाह दें) दाम्पत्य प्रेम की
अमर निशानी के रूप में मनाई जाती है. शिव की ऐसी प्रगाढ़ भक्ति के पद अगर शुक्लजी
से अलक्षित नहीं हुए होते तो वे ‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे’ वाली बात नहीं कहते.
हिंदी साहित्य में
शैव भक्ति : ‘ढूँढ़ते रह जाओगे’
हिंदी साहित्य के
इतिहास में शैव भक्ति का विलोपन अनायास नहीं
है. यह भक्ति की दूरगामी धार्मिक राजनीति
का प्रतिफलन है. वैष्णव और शैव भक्ति का आपसी वैर भारत के धार्मिक इतिहास का सच
है. कई बार यह वैर-भाव हिंसक भी हुआ है. गुप्त साम्राज्य के काल में इनकी लड़ाई
अपने चरम पर थी. इस पृष्ठभूमि में पड़ताल का विषय है कि दक्षिण से उत्तर आनेवाली भक्ति की धारा क्या सिर्फ वैष्णव भक्ति की ही
धरा थी, या इसमें भी कुछ सम्पादन या दाखिल-खारिज वाली बात थी? क्योंकि दक्षिण भारत
में वैष्णव भक्ति और शैव भक्ति दोनों की सुदीर्घ परंपरा रही है. तिरसठ नयनार
भक्तों की वहाँ धूम थी. और अगर शैव-शाक्त
भक्ति दक्षिण से नहीं आयी तो फिर बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर पूर्व भारत
में शैव-शाक्त भक्ति का इतना प्रसार कैसे संभव हो पाया? इन क्षेत्रों में राम और
कृष्ण मंदिर की अपेक्षा शिव मंदिरों की इतनी प्रचुरता क्यों है? वैष्णव क्षेत्र
होते हुए बनारस में इतना प्रख्यात बाबा विश्वनाथ का मंदिर क्यों है? उत्तर भारत और
उसके आसपास जब चहुँ ओर शैव-शाक्त भक्ति की
धमक सुनाई देती है तो फिर हिंदी साहित्य के इतिहास में इसकी अनुगूंज क्यों नहीं
सुनाई पड़ती है? इस चुनी हुई चुप्पी का राज क्या है? शिव-शाक्त भक्ति के प्रति
हिंदी साहित्य के इतिहास की इन खामोशियों को पढ़ने और इसके निहितार्थ को समझने की
जरुरत है.
दक्षिण भारत
(कर्नाटक) में वीरशैव तथा लिंगायत आन्दोलन और लिंगायत विद्वान् कुल्बुर्गी की हत्या के सरोकार क्या कुछ कहते
हैं? एक ओर शिव का अनार्य रूप और दूसरी ओर बारहवीं सदी में समाज सुधारक शैव भक्त
बासबन्ना का हिन्दू जाति व्यवस्था में दमन के ख़िलाफ़ आन्दोलन छेड़ना, वेदों को खारिज
करना, मूर्ति पूजा का विरोध आदि ऐसे गहरे सरोकार हैं, जिसके कारण हिंदी साहित्य
में शिव भक्ति के प्रति एक नकारात्मक भाव चुप्पी के रूप में उपस्थित है. शिव भक्त
विद्यापति को भक्तिकाल से निकालकर आदिकाल में रखना और उनकी भक्ति को संदेह की
दृष्टि से देखना अनायास नहीं है.
शैव भक्ति में शिव
का अनार्य और भेदेस स्वरुप वैष्णव भक्ति के अभिजात्य के विपरीत है. शिव के साथ सभी तरह के लोग हैं. काले,
नाटे, कुरूप और डरावने भी. ये भूत-प्रेत नहीं हैं. इन्हें भूत-प्रेत बना दिया गया
है. ये समाज के नितांत हासिये पर रहने
वाले दरिद्र हैं. शिव का स्वरुप भिखारियों का वैसे ही नहीं है. ये सोमरस की जगह रास्ते
किनारे स्वयं पैदा हो गए भांग और धतूरा खाते हैं और मस्त रहते हैं. शिव भक्ति की
पूरी संरचना बहुलतावादी और बहुरंगी है. इसमें ऊँच-नीच,
अमीर-गरीब, सुन्दर-असुंदर, स्त्री-पुरुष सभी समा जाते हैं. वैष्णव भक्ति की
पवित्रतावादी अवधारणा में,
प्रातः भगवान् को उठाने से लेकर रात में सुलाने तक के अनुष्ठान में, सांगोपांग
भजन-कीर्तन में, घडी-घंटा और घड़ियाल के तुमुल निनाद में शिव भक्ति की सहजता
असुविधा कारक है. हिंदी साहित्य में शिव भक्ति की शून्यता और भक्तिकाल से
विद्यापति के निष्कासन की पृष्ठभूमि में, इन तथ्यों को ध्यान में रखने की आवश्यकता
है.
और भी ग़म हैं...
हिंदी में विद्यापति की मूल पहचान पदावली के रचनाकार के रूप में है. पदावली में भी
श्रृंगार और भक्ति पदों से उनकी पहचान गढ़ी गई है. वैसे पदावली अपने आप में भारतीय
साहित्य की अपूर्व निधि है, लेकिन उनकी अन्य रचनाएँ हमें उनके अद्भुत बौद्धिक
व्यक्तित्व से साक्षात्कार कराती हैं. आवश्यकता है इन पदों को उनकी अन्य रचनाओं के
साथ पढ़ने की. इस तरह हम पदावली को नया अर्थ विस्तार दे सकते हैं, उनकी नई
अर्थछवियाँ तलाश सकते हैं. विद्यापति की ख़ास बात यह है कि वे लगभग सभी विधाओं में
रचना करते हैं. इन रचनाओं में वे एक साथ भूगोलवेत्ता, इतिहासज्ञ, यात्रा-साहित्य
लेखक, और कुशल राजनीतिज्ञ आदि के रूप में हमारे सामने आते हैं. म० म० हरप्रसाद
शास्त्री और भाषाविद नलिनी मोहन सान्याल
का कहना है कि “लोक भाषा में से एक भी विद्यापति ने न लिखा होता तो भी
संस्कृत भाषा में रचे गए ग्रंथों के कारण उनकी गणना एक उज्ज्वल मनीषी के रूप में
होती.” ( पुरुष परीक्षा- सम्पादक- सुरेन्द्र झा सुमन, प्रकाशकीय)
‘भूपरिक्रमा’ विद्यापति की संस्कृत रचना है. इस पुस्तक
को यदि भारतीय भाषा का पहला यात्रा आख्यान और भूगोल की पुस्तक कहा जाए तो
अतिशयोक्ति नहीं होगी. कालिदास रचित मेघदूत की यात्रा जहाँ विलक्षण कल्पनाशीलता के
सहारे बुनी गई है, वहीँ भूपरिक्रमा में यथार्थ का संस्पर्श है. इस पुस्तक में
बलदेव द्वारा की गई भूपरिक्रमा की पौराणिक कथा का वर्णन है. इसमें नेमिषारण्य से
मिथिला तक की यात्रा का वर्णन है. इस वर्णन में रास्ते में पड़ने वाले तीर्थों और
अलग अलग स्थानों के पर्यावरण, जलवायु, पेड़-पौधों आदि का यथार्थ वर्णन किया गया है.
इस पुस्तक में हम एक साथ इतिहास, भूगोल और यात्रा साहित्य के आरंभिक रूप को तलाश
सकते हैं.
‘कीर्तिलता’ विद्यापति की अवहट्ट काव्य रचना है. इसे
विद्यापति ने कहानी की संज्ञा दी है. कीर्तिलता इतिहास की विलक्षण काव्यात्मक
अभिव्यक्ति है. इस रचना की महत्ता को हम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों
में समझ सकते हैं. उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास’ में लिखा
है, “कवि की लेखनी चित्रकार की उस तूलिका के समान नहीं है जो छाया और आलोक के
सामंजस्य से चित्रों को ग्राह्य बनाती हैं, बल्कि उस शिल्पी की टांकी के समान है
जो मूर्तियों को भित्ति-गात्र में उभार देता है, हम उत्कीर्ण मूर्ति की ऊँचाई-नीचाई
का पूरा-पूरा अनुभव करते हैं. उस काल के मुसलमानों का, हिन्दुओं का, सामंतों का,
शहरों का, लड़ाइयों का, सेना के सिपाहियों का इतना जीवंत और यथार्थ वर्णन अन्यत्र
मिलना कठिन है, कवि ने जो भी सामने आ गया, उसका व्योरेवार वर्णन करके चित्र को
यथार्थ बनाने का प्रयत्न नहीं किया है, बल्कि आवश्यकतानुसार निर्वाचन, चयन, और सामंजस्य
योजना के द्वारा चित्र को पूर्ण और सजीव
बनाने का प्रयत्न किया है. इस प्रकार यह काव्य इतिहास की सामग्री से निर्मित होकर भी
केवल तथ्य निरूपक पुस्तक नहीं बना है, बल्कि सचमुच का काव्य बना है.” (हिंदी
साहित्य का उद्भव और विकास- हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, 1952, 21वाँ
संस्करण, पृष्ठ 52)
‘लिखनावली’ संस्कृत में लिखी गई ‘कार्यालयी’ उपयोग की
पुस्तक है. कदाचित इस तरह की यह अपने समय की पहली पुस्तक है. आज की शब्दावली
में कहें तो यह ‘फंक्शनल लैंग्वेज’ या व्यावहारिक भाषा की पुस्तक है. इसमें
अनौपचारिक पत्र लिखने की परिपाटी बताई गई है. राज्यव्यवहार के सम्यक संचालन के लिए
पत्राचार की एक सुनिश्चित पद्धति की
आवश्यकता देखते हुए इस पुस्तक की रचना की गई. राज्य का एक राजा दूसरे राजा को पत्र
कैसे लिखेगा, एक सेनापति एक अधिकार प्राप्त युवराज को किस तरह अपनी बातें सूचित
करेगा, दासों के लिए मुक्ति पत्र किस तरह लिखे जा सकते हैं, आदि आदि. ‘पुरुष
परीक्षा’ (संस्कृत) में सुपुरुष के लक्षण बताये गए हैं. विद्यापति के अनुसार
पुरुष लिंग हो जाने से ही कोई पुरुष नहीं हो जाता. पुरुष होने के लिए सुपुरुष भी
होना चाहिए. उस ज़माने में जब वर्ण ही श्रेष्ठता और गुणवत्ता का सूचक था विद्यापति
के सुपुरुष मूल्यांकन में उच्च, कुल, गोत्र, जाति, मूल और वर्ण का कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं था.
गुण ही श्रेष्ठता और सुपुरुष हेतु
अनिवार्य था. अपने एक पद में विद्यापति कहते हैं- ‘गुनहि बूझिए उच नीच रे’. अर्थात गुण ही किसी व्यक्ति को ऊँचा या नीचा
बनाता है न की वर्ण और जाति. और ये गुण थे- वीरता, विवेक और विद्या. विद्यापति के
अनुसार सुपुरुष के लिए काम विद्या में पारंगत होना अनिवार्य है. इस पुस्तक में इतिहास के ढेर सारे सूत्र भी हैं.
इसमें महमूद गजनवी से लेकर विद्यापति (सन 1450) के समय तक की अनेक वास्तविक घटनाओं का वर्णन है. इसमें तथ्यमूलक
रसात्मकता के साथ स्वाभाविक मानवीय कथा कहते हुए विद्यापति ने लोकस्वभाव का परिचय
प्रस्तुत किया है. जार्ज ग्रियर्सन ने पुरुष परीक्षा का अनुवाद ‘द टेस्ट ऑफ़ ए मैन’
शीषर्क से किया था, जो रॉयल एशियाटिक सोसोईटी, लन्दन से 1935 में प्रकाशित हुआ था.
‘विभागसागर’ (संस्कृत) हिन्दुओं के उत्तराधिकार कानून से सम्बन्धित
ग्रन्थ है. मूल रूप से हिन्दू राजवंश में संपत्ति के बंटवारे और उत्तराधिकार के
नियम इस पुस्तक में बताये गए हैं.
उत्तम खेती मध्यम
बान...
अपनी पदावली में
विद्यापति राज, समाज और संस्कृति के प्रति जितने सजग और चौकन्ने हैं, वह विरल है.
उनकी यह विरल चेतनशीलता उन्हें आदिकाल और मध्यकाल के लगभग सभी रचनाकारों से अलग
करती है. तुलसीदास की रचनाओं में जिस कृषि संस्कृति को देखकर रामविलास शर्मा
उन्हें ‘बड़ा’ कवि सिद्ध करते हैं वह कृषि संस्कृति कुछ अधिक स्पष्ट रूप में
तुलसीदास से बहुत पहले विद्यापति की रचनाओं में भी देखने को मिलती है. विद्यापति
कृषि प्रधान क्षेत्र के कवि हैं. कृषि समस्या और किसानों की चिंता को उन्होंने
बहुत करीब से देखा था. इसलिए उनकी पदावली में कृषि कर्म की महत्ता तथा सूखे और बाढ़
की समस्या बार बार आती है. एक पद में पार्वती शिव से कहतीं हैं कि बार-बार मैं तुमसे
कहती हूँ कि कृषि कार्य में मन लगाओ. भीख मांगने से गुण-गौरव घटता है. तुम अपना
लकड़ी का सोंटा तोड़कर उसका हल बनाओ, त्रिशूल तोड़कर उसका फल (फार) बना लो, बसहा को
बैल और जटा में स्थित गंगाजल से सिंचाई
करो. इस प्रकार कृषि कार्य कर तुम समाज की भी सेवा कर सकते हो-
बेरि बेरि अरे सिब हमे तोहि कइलहुँ, किरिषि करिअ मन लाए |...
खटंग काटि हर हर जे बनाबिअ तिरसुल तोड़ि करु फार|
बसहा धुरंधर हर ले जोतिअ, पाटिअ सुरसरि धार ||
(विद्यापति की
पदावली, संकलन- रामवृक्ष बेनीपुरी, पुस्तक भण्डार, लहेरियासराय, संवत 2040, पृष्ठ-132)
कृषि प्रधान क्षेत्र में बाढ़ और सूखा दोनों किसान के लिए अभिशाप से कम नहीं. विद्यापति
एक पद में भयानक सूखे का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि तालाब सूख गया, कमल सूख गए.
पृथ्वी में दरारें दिखाई पड़ती हैं, जिससे पाताल दिखाई पड़ता है. हे मेघ! अब भी तुम
अपनी धारा धारण नहीं कर रही हो, अर्थात अब भी तुम वर्षा नहीं कर रही हो. तालाब के
पास अनेक प्यासे पथिक आते हैं, किन्तु पानी नहीं रहने से तुम्हारे विचार को देखकर
दुखी हो जाते हैं. तालाब को देखकर पथिकों की लौटी हुई आशा भी खंडित हो जाती है. अब
तुम्ही कहो कि यह गाली किसे मिलेगी-
सूखल सर सरसिज भेल झाल
तरुन तरनि तरु न रहल हाल|
देखि दरनि दरसाब पताल
आबहुँ धराधर धरसि न धार ...
पथिक पिआसल आब अनेक
देखि दुःख मानए तोहर विवेक ...
(विद्यापति पदावली, भाग-2, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1967, पृष्ठ 28-29)
‘लिखनावली’ के कुछ पत्रों में विद्यापति कृषि की
छोटी छोटी बातों पर विचार करते हैं.
एक पत्र में उनकी चिंता यह है कि किस मौसम में कौन सा धान बोएँ जाएँ, बैलों
को किस तरह स्वस्थ रखा जाए. एक दूसरे पत्र में स्वामी अपने कामत को खेती सम्बन्धी
निर्देश देते हुए लिखता है- जिस काम के लिए तुम यहाँ कामत नियुक्त किए गए हो, वहाँ
तुमने किस किस्म का धान बोया और उसमें कितना करेली (धान विशेष) धान है, यह मुझे लिखो,
परती खेत में से कितना खर्च कर कितना तैयार किया गया, यह भी बताओ. विद्यापति का
ध्यान बैलों पर मच्छर के प्रकोप तक जाता है. उक्त पत्र में स्वामी लिखता है- यह
ध्यान रखना कि बैल के रहने का स्थान सूखा
रहे और मच्छरों का प्रकोप न हो. बैलों की इस तरह सेवा करना कि वे दुर्बल न हो
जाएँ.
भक्त कवियों का स्त्री-भय
पदावली स्त्री श्रृंगार की कलात्मक अभिव्यक्ति ही नहीं है, वह स्त्री वेदना की
करुण पुकार भी है. भक्ति काल के अधिकांश कवियों में स्त्री मायास्वरूपा है. वह भक्ति
के कठिन मार्ग में बाधा स्वरूप है. इसलिए भक्तिकाल के कवियों में स्त्री निंदा एक
रूढ़ि सी बन गई. भक्त कवि स्त्रियों से डरते हैं. इन भक्त कवियों ने स्त्री को कभी
नागिन तो कभी नर्क का द्वार वैसे ही नहीं कहा होगा. स्त्रियों को कभी अवगुण का खान
तो कभी अविवेकी कहना स्त्री के प्रति उनके भय को दर्शाता है. चैतन्य महाप्रभु और
तुलसीदास में तो स्त्री विरोध प्रभूत मात्रा में है ही, यहाँ तक कि कबीर भी इससे मुक्त नहीं हैं.
स्त्री के प्रति घोर नकारात्मक भाव कबीर में भी है. आश्यर्य है कि इन भक्त कवियों
से बहुत पूर्व के कवि विद्यापति के सम्पूर्ण काव्य में स्त्री की नकारत्मक छवि
कहीं नहीं है. जबकि उनकी पदावली के केंद्र में यहाँ से वहाँ तक स्त्री ही हैं. यह
सच है कि प्रेम, श्रृंगार और यौनिकता के
मामले में विद्यापति की स्त्रियाँ बहुत बोल्ड हैं. कामक्षेत्र में वह अपने को पुरुष से कमतर नहीं मानतीं.
लेकिन पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री-दुर्गति के संकेत पदावली की विशिष्टता है.
रामविलास शर्मा सम्पूर्ण तुलसी साहित्य में मात्र आधी पंक्ति ‘पराधीन सपनेहूँ सुख
नाहीं’ के आधार पर तुलसी को उनके स्त्री विरोधी रूप से मुक्त कर देते हैं.
विद्यापति में स्त्री पराधीनता और स्त्री दुर्दशा के भाव कम नहीं हैं. इन दिनों
‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ अत्यंत लोकप्रिय हुआ है. इस तरह का भाव चौदहवीं
शताब्दी में विद्यापति व्यक्त कर चुके थे. मिथिला समाज में अनमेल विवाह एक कटु
सत्य रहा है. थोक भाव में मिथिला की स्त्रियाँ अनमेल विवाह की शिकार हो जाया करती
थीं. कभी किशोरी की शादी वृद्ध से तो कभी पूर्ण वयस्क स्त्री की शादी छोटे बच्चे से कर दी जाती थी. एक पद में इसी की शिकार एक
स्त्री कहती है कि मुझे से क्या भूल हुई जो औरत होकर पैदा हुई. मिथिला में कोई
स्त्री होकर पैदा न ले. वह बाट-बटोही से अपने मायके दुःख भरा सन्देश भेजना चाहती
है-
पिया मोर बालक हम तरुनी|
कोन तप चूकि भेलहुँ जननी||...
बाट रे बटोहिया कि तुहु मोरा भाई
हमरो समाद नैहर लेने जाइ
(विद्यापति की
पदावली, संकलन- रामवृक्ष बेनीपुरी, पुस्तक भण्डार, लहेरियासराय, संवत 2040, पृष्ठ-143)
किसी भी स्त्री का जब धैर्य छूटने
लगता है, तभी वह नैहर संवाद भेजेने को विवश
होती है. इस पद में मिथिला की स्त्री की विवशता समझी जा सकती है. एक दूसरे पद में
एक स्त्री कहती है कि अगर किसी स्त्री का दूसरा जनम हो तो औरत होकर ना हो, और अगर
औरत होकर जनम हो ही जाए तो कुलवंती स्त्री होकर न हो-
जनम होअए जनु जँ पुनु होइ,
जुवती भए जनमए जनु कोइ|
होइह जुवति जनु हो रसमन्ती
रसओ बुझए जनु हो कुलमन्ती||...
(गीत विद्यापति- डॉ महेन्द्रनाथ दुबे, साहित्य सहकार प्रकाशन, दिल्ली,
2011, पृष्ठ 740)
इस पद में एक कुलवंती स्त्री के हाहाकार को स्पष्ट रूप से सुना
जा सकता है कि कुलीन घर की स्त्रियों पर कितनी बंदिशें रहती होंगी, मुक्त सांस तक
लेना उनके लिए मुश्किल रहा होगा. प्राचीन मिथिला में शादी होने के कुछ ही दिन बाद
पति छोड़कर चला जाता था. जाने के दो कारण थे. एक तो अविलम्ब दूसरी शादी और दूसरा
कारण रोजगार की तलाश में पलायन. पति से
बिछुड़ी ऐसी ही एक स्त्री कहती है कि इस संसार में स्त्री होकर पैदा हुई, पहली ही
अवस्था में वियोग हो गया अर्थात शादी होते ही वियोग. ईश्वर ने मुझे जनम ही क्यों
दिया, जो इतना खराब मेरा भाग्य है-
एहि जग नारि जनम लेल| पहिलहि वाय विरह भेल||
कथि लए दैव जनम देल | कठिन अभाग हमर भेल ||
(गीत विद्यापति- डॉ महेन्द्रनाथ दुबे, साहित्य सहकार प्रकाशन, दिल्ली,
2011, पृष्ठ 322)
विद्यापति कोई क्रांतिकारी कवि नहीं थे. वे पूर्णतः एक नैष्ठिक
ब्राह्मण थे. नियमित शिव की पूजा-आराधना करने वाले ब्राह्मण. दुर्गाभाक्तितरंगणी
(दुर्गापूजा विधि विधान), शैवसर्वस्वसार (शिव पूजन की विधि विधान) तथा ब्राहमण
समाज के वर्ष भर के धार्मिक अनुष्ठान की पुस्तक ‘वर्षकृत्य’ की रचना की थी. दरभंगा
महाराज के विश्वसनीय सभासद थे, राजकवि तो थे ही. किन्तु धर्म-कर्म उनका निजी मामला
था. पूर्ण धार्मिक होते हुए भी वे धर्म की विषंगतियों के प्रति सचेत थे. अपनी
पदावली में उन्होंने कहीं भी वर्ण-धर्म, वाहयाडम्बर और अनुष्ठानिक कर्म को
महिमामंडित नहीं किया है. उनकी पदावली में राजसी ठाठ-बात नहीं लोक की मुखर
अभिव्यक्ति हुई है. लोक चित्त को उन्होंने विलक्षण लोक भाषा में उतारने की सफल
कोशिश की है. आम जन विशेषकर
स्त्रियों में उनकी कविता जितनी
लोकप्रिय है, कदाचित किसी अन्य भक्त कवि की नहीं. तुलसी और सूर की कविता सामान्यतया
धार्मिक और भक्ति के अवसर विशेष पर ही गाये-बजाए जाते हैं किन्तु विद्यापति के गीत
मिथिला के लोक उत्सवों में तो गाये ही जाते हैं, वैसे भी सभी जातियों में गाये-गुनगुनाये जाते हैं. यही उनकी प्रगतिशीलता
है, उनके आधुनिक भावबोध का प्रमाण है. उनकी व्यापक दृष्टि का सूचक है. और भारतीय
भाषा के एक बड़े कवि होने की निशानी.
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