वर्तमान से संवाद - हिज़ड़े : भारत माँ के ये अनाथ बच्चे
“हम सब असल में एक सामंती मानसिकता या कहें कि लिंगधारी मानसिकता वाले समाज में रह रहे हैं. हमारे भीतर लिंग को लेकर गहरे तक गर्व का भाव है. यही कारण है कि मानसिक रूप से ग्रस्त बच्चों को तो हम 70-70 साल तक करोड़ों रूपए खर्च कर पालते हैं, लेकिन लिंग अस्पष्टता वाले बच्चे को हम तुरंत परिवार से बाहर कर देते हैं| हमारा पौरुष और हमारी मर्दानगी अच्छे काम के बजाय जब तक मूंछों से तय होगी तब तक इस मानसिकता से छुटकारा संभव नहीं|”
तीसरी ताली- प्रदीप सौरभ
दरअसल, जिस समाज और संस्कृति में पुत्र ही भवसागर का एकमात्र खेवैया हो और पुत्र हेतु ही पत्नी की आवश्यकता हो 'पुत्रः प्रयोजनो भार्या’ उस समाज में लिंग वंचित व्यक्ति की पीड़ा को थाह पाना संभव नहीं| दो लिंगी समाज के अभ्यस्त प्राणी तीसरे लिंग के बारे में सोच ही नहीं सकते हैं| इस समाज को तो बस मुक्तिदाता लिंग चाहिए और इस मुक्तिदाता पुरुष लिंग को प्राप्त करने का माध्यम एक अदद स्त्री लिंग चाहिए| अगर कहीं इन दो लिंगो के अतिरिक्त कोई तीसरा लिंग आ टपके तो उसकी फिर खैर नहीं| पितृसत्ता का अबेध्य कील-कवच हिज़डा रुपी तीसरे लिंग को बर्दाश्त नहीं कर सकता| हिज़डा बच्चा पैदा करने वाला पिता अपने को हिज़डा समझने लगता है और अपने अपराजेय पौरुष को प्रश्नांकित करने वाली संतान का अस्तित्व वह सदा के लिए मिटा देना चाहता है|
पकिस्तान की फिल्म ‘बोल’ के निर्देशक शोएब मंसूर ने फिल्म में पितृसत्ता के इस विकृत और विद्रूप मानसिकता को अत्यंत साहस और बेबाकी से फिल्मांकित किया है. ‘खुदा के लिए’ फिल्म से मशहूर हुए शोएब मंसूर दीन-धर्म के नाम पर समाज में फैले स्वीकृत पापाचार पर सुलगते सवाल खड़े करते रहे हैं| फिल्म ‘बोल’ बेटे के लिए तड़पते उस हकीम साहब की कथा है जो बेटे की प्रतीक्षा में दनादन सात बेटियों के पिता बनने का ‘गौरव’ प्राप्त करते हैं| घर में अभाव का यह आलम है कि बेटियों को भरपेट रूखा-सूखा भी नसीब नहीं होता और अब्बाजान हैं कि कहते हैं ‘जिस अल्लाह ने मुह दिया है पेट भी वही भरेगा’| हकीम साहब को उस दिन ख़ुशी का ठिकाना नहीं जिस दिन उनके घर बेटे का आगमन होता है, किन्तु यह ख़ुशी मातम में तब बदल जाती है जब उन्हें पता चलता है कि वह नवजात शिशु ना तो लड़का है ना लड़की| उनके पाँव तले की जमीन खिसक जाती है| उन्हें अपने पौरुष पर संदेह होने लगता है और जीवन व्यर्थ| हकीम उस हिज़डा बच्चे को मार देने में ही भलाई समझते हैं, किन्तु माँ की ममता आड़े आ जाती है. इस मर्दवादी समाज में, ‘ऊंची नाक’ के लिए बेटे की अनिवार्यता वाले समाज में सीधे जन्नत की राह दिखाने वाले बेटे के बदले हिज़डा बच्चा पाकर हकीम के सारे सपने तितर-बितर हो जाते हैं|
एक दिन तंग आकर उनकी बेटी जैनब धर्म के नाम पर घोर अत्याचार करने वाले पिता की हत्या कर देती है| जैनब अपनी अंतिम इच्छा के रूप में फाँसी के वक्त जनता से संवाद करने की इच्छा जाहिर करती है| इस प्रेस कांफ्रेस में वह कहती है, ‘मैं कातिल तो हूँ लेकिन गुनाहगार नहीं हूँ|’ पूरी फिल्म धर्म की आड़ में पुरुषसत्ता के खेल को बेनकाब करती चलती है और एक हिज़ड़े की व्यथा-कथा को अथाह मानवीय करुणा से भर देती है| फिल्म ‘बोल’ एक हिज़ड़े के असाध्य संघर्ष की महागाथा है| फिल्म के केन्द्रीय चरित्र किन्नर सेफुल्ला का कई बार बलात्कार होता है| ऐसे यातना दायक क्षण में भी उसके लिए चीखना मना है. इस लिंग उन्मत्त समाज में कई लोग हिजड़ों की देह पर अपना अधिकार समझते हैं| सुप्रसिद्ध नृत्यांगना किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने अपनी आत्मकथा ‘मैं लक्ष्मी...मैं हिज़डा’ में रोंगटे खड़े हो जाने वाली सचाइयों से से हमें रूबरू कराया है| बार-बार बलात्कृत होने की मर्मान्तक पीड़ा को व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है, “वो क्या कर रहा है, ये समझने के लिए मैं बहुत छोटा था. पहले ही कमजोर, उसमें अभी अभी बीमारी से उठा हुआ| दवाइयां जारी ही थी, इस वजह से थोड़ी दवाइयों की मदहोशी भी थी| मैंने उसका प्रतिकार किया या नहीं, पता नहीं| मुझे कुछ याद नहीं; पर उसने जब मेरे अन्दर घुसेड़ा तो मुझे बहुत तकलीफ हुई और चक्कर आ गया| बस इतना-सा कुछ याद है| उसने बहुत प्रयासों के बाद मुझे जगाया और धमकाया कि अगर किसी को कुछ बताया तो देख लेना|”
इस धुप्प अंधेरे में उम्मीद की एक किरण यह दिखी है कि उच्चतम न्यायालय ने इन्हें तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दी है। साथ ही सरकार को इनके लिए विशेष सुविधाएं उपलब्ध कराने का निर्देश भी जारी किया है, जिसमें उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था भी है। राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे हिजड़ा समाज के लिए एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा है। कई सालों से हिजड़ों, समलैंगिकों और उभयलिंगी लोगों को समाज में बराबरी के अधिकार दिलाए जाने के लिए काम कर रहे दुबईवासी पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ता मोहसिन सईद ने डी डब्ल्यू को दिए अपने एक साक्षात्कार में इस फैसले को दक्षिण एशिया के लिए एक बड़ा कदम बताया है। उन्होंने कहा कि, “यह अपने आप में एक क्रांतिकारी फैसला है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का संविधान बहुत प्रगतिशील है, जिसमें सभी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और हर धर्म के लोगों को समान अधिकार मिले हुए हैं|”
इसमें दो राय नहीं कि न्यायालय के उक्त फैसले से इन्हें कुछ राहत तो मिलेगी किन्तु इन्हें अपने हक और अधिकार प्राप्ति के लिए अन्य विमर्शों की तरह हिजड़ा-विमर्श चलाये जाने की आवश्यकता है। (आलेख में सायास किन्नर शब्द के प्रयोग से परहेज किया गया है क्योंकि हिमांचल प्रदेश और अन्य स्थानों पर रहने वाले किन्नर समुदाय के लोगों को हिजड़ों के लिए किन्नर संबोधन से घोर आपत्ति है और हिजड़े स्वयं के लिए किन्नर कहलाना पंसद नहीं करते हैं) सघन विमर्श ही इनके मुद्दे को केन्द्रीयता प्रदान कर सकता है और विषय को पूरी जटिलता के साथ उपस्थित कर सकता है। विमर्श के लिए आवश्यक है अधिक से अधिक साहित्य का लिखा जाना, नाटकों का मंचित होना, डॉक्यूमेंटरी तथा व्यापक स्तर पर फिल्में बनाना और उनका प्रचार -प्रसार करना। ऐसा नहीं है कि इन दिशाओं में काम नहीं हुए हैं। लेकिन जो काम हुए हैं एक तो वे अत्यल्प हैं ओर दूसरा इस समुदाय के प्रति घोर उपेक्षा के कारण लोगों ने इन कामों को नजरअंदाज कर दिया है।
देश विदेश में कई फल्में हिजड़ा की समस्याओं और दुश्चिंताओं को केन्द्र में रखकर बनी हैं। इस दृष्टि से चीनी निर्देशक अन हुई द्वारा बनायी गई फिल्म ‘माई वे’ रेखांकन योग्य है। इस समुदाय के प्रति तिरष्कार-भाव के कारण ही कदाचित इस फिल्म को चीन की मुख्यधारा की फिल्मों में शामिल नहीं किया गया तो यूट्यूब के संस्करण ‘याअकू’ पर इसे प्रदर्शित किया गया। इस फिल्म के प्रदर्शन के साथ ही चीन में हिजड़ों की समस्या पर सार्थक बहस चली। बंगला देश में बनी फिल्म ‘कॉमन जेंडर’ ने बंगला देश के लोगों को अंदर तक हिला दिया। इस फिल्म में सुस्मिता नाम के हिजड़े को एक हिन्दू लड़के से प्रेम हो जाता है। पूरी फिल्म में प्रेम न पाने की छटपटाहट को विलक्षण कलात्मकता के साथ निर्देशक नोमेन रॉबिन ने फिल्माया है। फिल्म की खासियत यह है कि प्रेमी की बेबसी और घुटन को निर्देशक ने अथाह करुणा में ढाल दिया है। यह फिल्म दर्शकों को सोचने पर विवश करती है कि क्या एक हिजड़े को प्रेम करने का भी अधिकार नहीं है? प्रकृति ने जब उसे मनुष्य बनाया है तो उसका भी दिल किसी के लिए धड़क सकता है। ऐसी हालत में वह क्या करे। जाये तो कहां जाये?
नोमेन रॉबिन ने इस फिल्म के माध्यम से हवा-हवाई बात नहीं की है, बल्कि किन्नरों के प्रेम को बहुत करीब से उन्होंने देखा है| हरियाणा के करनाल शहर की रहनेवाली किन्नर मनीषा महंत अपने एकतरफा किन्तु बेपनाह प्यार की अनुभूति को व्यक्त करते हुए लिखती है, “एक दिन मैं अपने ही वहीँ किसी कार्यक्रम में गई और मुझे वहाँ एक व्यक्ति दिखाई दिया और मैं सारे कार्यक्रम को भूलकर बस उसको ही देखती रही और न जाने क्यों मैं चाहकर भी उस व्यक्ति से अपनी नज़रें हटा नहीं पायी और न ही नज़रंदाज़ कर पायी| वहाँ से आने के बाद भी मेरे दिल और दिमाग में बस उसका ही ख़याल आता रहा| फिर मैं हर रोज सिर्फ उसको देखने के लिए उस जगह पर चली जाती थी और अब तो जैसे मुझे इसकी आदत-सी हो चुकी थी| फिर धीरे-धीरे इस व्यक्ति को भी ये एहसास हो चुका था, आखिर मैं उसको क्यों देखती रहती हूँ| अब मैं मेरे साथ हो रहे मेरे परिवार और लोगों के व्यवहार को तक़रीबन भूल सी जाती थी, मानो जैसे उसको देखते ही मेरे सारे दर्द मिट जाते थे| लेकिन जब मैंने उस व्यक्ति को बताया कि मैं आपसे प्रेम करती हूँ तो उस व्यक्ति ने मेरा बहुत मज़ाक उड़ाया और शायद उसके मज़ाक उड़ाने का कारण था, मेरा अधूरापन|” जब एक साक्षात्कार में डॉ फ़िरोज़ और डॉ शमीम ने इनसे प्यार के बाबत पूछा तो किन्नर मनीषा ने साफ़ लहज़े में कहा, “मैं किन्नर हूँ तो क्या हुआ? हूँ तो मैं भी इंसान ही और मेरे अन्दर भी दिल है, कुछ भावनाएं हैं| प्रकृति ने प्रेम करने का अधिकार सभी को दिया है, प्यार के मामले में इंसान भेदभाव कर सकता है, लेकिन प्रकृति नहीं| ये बात इंसान सोच सकता है कि ये वेश्या है, ये प्यार के लायक नहीं, ये किन्नर है, ये प्यार के लायक नहीं| प्रकृति ऐसा कभी नहीं सोचती| मैंने भी किसी से प्यार किया था, तब मैं बहुत ही कम उम्र की थी, तक़रीबन 14-15 साल की| तब के बाद न कभी उससे मिले और न कभी उससे बात हुई|” (वांग्मय, जुलाई-दिसम्बर 2017,थर्ड जेंडर विशेषांक-तीन)
सामाजिक व्यवहार में देखी गई एक घटना ने नोमेन रॉबिन को ‘कॉमन जेंडर’ फिल्म बनाने के लिए विवश किया। यह घटना जिसे दुर्घटना कहा जाना चाहिए अत्यंत मारक थी। एक हिजड़े ने किसी सार्वजनिक स्थान पर महिला शौचालय का उपयोग किया, तो लोगों ने उसकी जमकर पिटाई कर दी। सैकड़ों लोगों ने उस बेबस हिजड़े को पिटते देखा लेकिन किसी ने इसका प्रतिकार नहीं किया। जब सर्वत्र दो ही प्रसाधन होते हैं- एक पुरुष के लिए और दूसरा महिला के लिए तो हिजड़ा ऐसी स्थिति में किस शौचालय का उपयोग करे। उन्हें इसकी आवश्यकता आ पड़ेगी तो उस दारुण अवस्था में वे क्या करें?
‘मामूली चीजों के देवता’ उपन्यास की लेखिका अरुंधति राय का ताजा उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ का केन्द्रीय चरित्र अंजुम एक हिज़डा है. वह हिजड़ों का एक ख्वाबगाह बनाता है जहाँ सभी हिज़ड़े अपनी तरह से जिन्दगी बिताते हैं. अरुंधती अपनी अपूर्व कल्पनाशीलता और मनमोहक गद्द से हिज़ड़ों की अद्भुत दुनिया रचती हैं. अरुंधती की संवेदनशीलता हिज़ड़ों के बारे में एक विशेष तरह का ख्याल रखनेवाले पाठकों को झकजोर जाती है. फिल्म ‘दरमयां: इन बिटविन’ की त्रासदी भी दर्शकों को झकजोर जाती है. हिजड़ों की संवेदनशीलता पर बनी यह एक लाजवाब फिल्म है। कल्पना लाजमी ने अपनी अन्य फिल्मों की तरह इसे भी काफी सिद्दत से तराशा है। फिल्म के मुख्य चरित्र ही नहीं छोटे से छोटे चरित्रों की अहम और सार्थक भूमिका दर्शकों के दिलो दिमाग पर लंबे समय तक छायी रहती है। कल्पना लाज़मी विषय पर ही नहीं, चरित्र और संगीत पर भी विशेष ध्यान देती हैं। यह फिल्म जहां एक ओर 1940 के आसपास की फिल्मी दुनिया (बालीवुड) के उजले, काले और धूसर दुनिया के सच को उजागर करती है, वहीं हिजड़े की मनोदशा और उसकी संवेदनशीलता को विलक्षण कलात्मकता के साथ रेखांकित भी करती है। सिने जगत में व्याप्त स्वार्थलिप्सा, तनाव और विफलताओं को एक ही कथासूत्र में पिरोकर प्रस्तुत करने की कला फिल्म को महत्वपूर्ण बना जाती है। पूरी फिल्म की पृष्ठभूमि में हिजड़ा इम्मी (आरिफ जकारिया) के स्वभाव की तरलता और उसके अंदर की घुटन कविता के टेक की पंक्ति की तरह आवृत्ति में चलती है।
बालीवुड की सुपर स्टार अभिनेत्री जीनत बेगम (किरण खेर) को जिस दिन यह पता चलता है कि उसकी संतान हिजड़ा है तो उसके सारे सपने मानो तितर-बितर हो जाते हैं। एक तरफ वह अपनी संतान को हिजड़ा समुदाय को देना नहीं चाहती और दूसरी तरफ दुनिया के सामने इस सच को उजागर भी नहीं होने देना चाहती। इस समस्या का समाधान वह अपनी उस हिजड़ा संतान को सौतेली मां को देकर करती है। इससे उसकी संतान इम्मी हमेशा उसकी आंखों के सामने रहती है और दुनिया के सामने वह इम्मी की बहन बनी रहती है। संतान पीड़ा और अति दंभी स्वभाव उसे नशे के ऐसे दलदल और एकाकीपूर्ण जीवन के अंध गलियारे में ले जाता है, जहां से उसका पतन अवश्यमभावी हो जाता है। इम्मी अपनी मां को पल-पल उस दलदल में गिरते देखता है, और खून के आंसू रोता है। वह अपनी मां को बचाने की सारी कोशिशें करता है, किन्तु बचा नहीं पाता। जीनत बेगम का प्रेमी इन्द्र (शाहबाज ख़ान) भी उसका पल्लू छोड़ कर नयी अभिनेत्री चन्द्रा (तब्बू) का दामन थाम लेता है। इन्द्र की बेवफाई जीनत बर्दाश्त नहीं कर पाती और टूटकर पूरी तरह बिखर जाती है। इम्मी साये की तरह अपनी मां से लगा रहता हैं। निर्देशक कल्पना लाजिमी ने इम्मी के रूप में एक हिजड़ा में करुणा का अथाह सागर उड़ेल दिया है। इम्मी मां के पूर्व प्रेमी इन्द्र से भी सहायता की भीख मांगता है। अपने गुमनाम पिता से भी मां को बचाने के लिए आर्थिक सहायता की याचना करता है। लेकिन सहायता भी जीनत को बचा नहीं पाती।
फिल्म में किरण खेर की सशक्त भूमिका सराहनीय है। यह उनकी श्रेष्ठतम फिल्मों में से एक है। तब्बू और शाहबाज ख़ान ने छोटी-सी भूमिका में ही रंग जमा दिया है। तब्बू के छोटे किन्तु सधे संवादों ने फिल्म में जान डाल दिया है। आरिफ जकारिया ने हिजड़ा की भूमिका बखूबी निभायी है। फिल्म में आरिफ का एक दृश्य तो हिन्दी सिनेमा के इतिहास में कुछ बेहतरीन दृश्यों में एक है। उस दृश्य में वह अपनी अक्षम यौनिकता से टकराता है। घटना यह है कि जब चारों ओर से इम्मी की यौनिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया जाता है तो उसकी मां जीनत वास्तविकता से परिचित होने के बावजूद इस भयावह सत्य से साक्षात्कार करना नहीं चाहती और कहती है कि मेरा बेटा पूर्ण पुरुष है। लोग उसे चुनौती देते हैं तो वह उस चुनौती को स्वीकार कर लेती है। बगैर इम्मी को बताये रात में उसके कमरे में एक स्त्री को भेज दिया जाता है। वह स्त्री इम्मी की यौनिकता को जगाने का पूरा प्रयास करती है। आरम्भ में तो इम्मी डरता है किन्तु धीरे-धीरे वह भी अपनी यौनिकता जगाने का नाकाम प्रयास करता है। इस कार्य में सफल न हो पाने की पीड़ा और बेबसी को जिस कलात्मक ऊंचाई से आरिफ जकारिया ने अभिनीत किया है, उसे शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है। निश्चित रूप से इस दृश्य संयोजन में कल्पना लाजमी की निर्देशकीय दृष्टि का योगदान रहा होगा। किन्तु निर्देशक की कल्पना को अभिनेता ही मूर्तिमान करता है। और इस कठिन दृश्य को आरिफ ने अत्यंत सफल अभिनेता की तरह बरता है। भूपेन हजारिका का मधुर संगीत और उनकी दुर्लभ आवाज ने फिल्म को जहां एक ओर गंभीर बनाए रखा है वहीं सरस भी।
हिजड़ा विमर्श के माध्यम से इनके प्रति समाज में व्याप्त रूढ़ मानसिकताओं के खिलाफ आवाज उठाई जा सकती है और देश के ही नहीं समस्त विश्व के हिजड़ों को लामबंद कर अपनी समस्या से दो - दो हाथ करने के रास्ते तलाशे जा सकते हैं। इस तरह की फिल्में हिजड़ा विमर्श में हमारी सहायता कर सकती हैं। इस विमर्श को सैद्धांतिक आधार देने के लिए देश के बुद्धिजीवी और संगमा जैसी संस्थाएं जो हिजड़ा समुदाय के लिए काम करती हैं आगे आ सकती हैं। यद्यपि इस समुदाय के लोगों ने ‘आधासच’ नाम से अपना ब्लॉग आरम्भ किया है, जिसमें वे अपने अनुभव और विचार शेयर करते हैं। इस ब्लॉग के माध्यम से उन्होंने साफ कहा है कि हमें किन्नर न कहा जाय। ‘किन्नर, किन्नर किन्नर...अरे हम किन्नर नहीं लैंगिक विकलांग हैं, जिन्हें तुम हिजड़ा कहते हो’ में लिखते हैं, “प्रेम, आदर, सहानुभूति जैसे भावों के चलते ही सही पर हमें किन्नर कह कर संबोधित करा जाता है जो कि किसी भी तरह से हमारी स्थिति की व्याख्या नहीं करता। न ही यह शब्द हमें न्याय दिला पाता है कि हम समाज में बराबरी का दर्जा पा सकें|”
अभी भी प्रचलित विमर्शों में आत्मालोचन की पर्याप्त गुंजाइश नहीं बन पायी है किंतु उनके इस ब्लॉग को अगर देखा जाय तो इसमें काफी विचारोत्तेजक आत्मालोचन देखने को मिलता है। मुंबई में 2010 में हिजड़ों का विश्व सौंदर्य प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। इस संदर्भ में ब्लॉग में लिखा गया, “विकलांगों को जोड़ने का एक यही रास्ता है? सौंदर्य स्पर्द्धाओं के बाद ये कहां खो जाते हैं? सेलिना जेटली की तरह मॉडलिंग या फिल्मों में आकर सम्मानपूर्वक जीवन क्यों नहीं जी पाती हैं? क्यों नहीं लैंगिक विकलांग बच्चों के लिए आज तक लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी या शबनम मौसी ने स्कूल की मांग करी या खुद ही खोल दिया। क्यों नहीं ये आगे आकर क्राई जैसी संस्थाओं का सहयोग लेकर बच्चों को पढ़ाती लिखाती हैं? क्यों नहीं इन आयजकों ने मुंबई में ट्रेन में भीख मांगने या कमाठीपुरा में सेक्स के भूखे दंरिदों की भूख मिटाकर अपने पेट की भूख मिटाकर दर्दनाक जीवन जीने वाले मासूम लैंगिक विकलांगों को इस आयोजन की सूचना तक न दी? ये कहेंगे कि हमने तो अखबारों में सूचना दी थी तो जरा ये कुटिल बतायें कि कितने हिजड़े अखबार पढ़ने लायक बनाए आज तक इन लोगों ने??? आखिरी सवाल कि इन आयजकों ने कैसे निर्धारित करा कि सारे प्रतिभागी लैंगिक विकलांग (हिजड़ा) ही हैं, क्या कोई डाक्टरी सर्टिफिकेट था? यदि नहीं तो लाली पाउडर लगाकर तो शाहरुख ख़ान से लेकर अमीर ख़ान तक सभी भाग ले सकते थे।...इस दिशा में कोई प्रयास न करा जाएगा कि लैंगिक विकलांगता के चिकित्सीय पैमाने निर्धारित हों और इस आधार पर उन्हें शिक्षा से लेकर नौकरियों में वरीयता दी जाय, आरक्षण दिया जाय|”
सवाल दर सवाल। और वे भी अपने ही समाज के लोगों से। ऐसे लोगों से जिन्होंने कुछ मुकाम हासिल कर लिया है। यह विमर्श आश्वश्त करता है कि इनके ये विमर्श भविष्य में प्रमुखता प्राप्त करेंगे। इनकी वैचारिकी, बातों की लाक्षणिकता और भाषा का तेवर उम्मीद जगाने वाला है।
विगत वर्ष रामजस कॉलेज के इतिहास विभाग की ओर से ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ नाम से दो दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी होनी थी, किन्तु अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के विद्यार्थियों के हंगामे और मारपीट की वजह से यह संगोष्ठी संभव नहीं हो पायी। इस संगोष्ठी में सुप्रसिद्ध रंगकर्मी मायाकृष्ण राव ‘बॉडी इज प्रोटेस्ट’ विषयक पर्चा पढ़ने वाली थी जिसमें वह ट्रांसजेंडर के बारे में विस्तार से बात करने वाली थीं। उनका मानना है कि कुछ लोगों की ‘बॉडी’ ही अपने आप में प्रोटेस्ट हो जाता है। इतना ही नहीं इस संगोष्ठी में क्वियर एक्टिविस्ट विक्रमादित्य सहाय हिजड़ा विमर्श को आगे बढ़ाने वाले थे, किन्तु ऐसा हो न सका।
2005 में योगेश भारद्वाज निर्देशित फिल्म शबनम मौसी एक चरित्र प्रधान (बायोपिक) फिल्म है, जिसमें हिजड़ा शबनम के संघर्ष को रूपहले पर्दे पर उकेरने की कोशिश की गई। शबनम ने सन् 1998 में मध्यप्रदेश (शहडोल, अनुपुर जिला) विधान सभा का चुनाव जीतकर दरअसल हिजड़ा दुनिया का इतिहास रच डाला था। जब देश भर के लोगों ने रेडियो, टेलीविजन और समाचार पत्रों में यह खबर पढ़ी कि मध्यप्रदेश में एक हिजड़ा विधान सभा का चुनाव जीत गया तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। क्योंकि हिजड़ों के बारे में उनकी बनी-बनायी सारी धारणा इस एक खबर ने ध्वस्त कर दी थी। बाद में लोगों ने इस ऐतिहासिक परिघटना को भी हास-परिहास और अपवाद की घटना मानकर इसको विस्मृत कर दिया। नितांत हाशिए के लोगों की उपलब्धियों का विलोपन या विस्मरण वर्चस्वशाली तबकों की सोची-समझी साजिश रही है। अपनी उपलब्धियों को ताड़ (पेड़) और अन्य की उपलब्धियों को तिल बनाना इन लोगों का आजमाया नुस्खा है। शबनम भी इसका शिकार हुआ। इसके बाद तो कई हिजड़ों ने महत्वपूर्ण पद प्राप्त कर इस मिथ को तोड़ डाला कि हिजड़े कुछ कर ही नहीं सकते।
शबनम मौसी फिल्म का मुख्य किरदार शबनम (आशुतोष राणा) हिजड़ा होकर ‘भी’ गांव के हिजड़ेपन को ललकारती है। आत्मविश्वास से लबरेज शबनम उस इलाके के सबसे वर्चस्वशली राजनेता (गोविंद नामदेव) और सुपारी किलर (मुकेश तिवारी) से सीधे-सीधे टकरा जाती है। आरंभ में तो ये गुंडे, मवाली और इनके ‘पर्याय’ राजनेता शबनम को बहुत हल्के में लेते हैं, लेकिन बहुत जल्दी उन्हें पता चल जाता है कि शबनम आत्मविश्वासी, साहसी और ताकतवर ही नहीं बल्कि बहुत चालाक और बुद्धिमान भी है। फिल्म के कुछ संवाद अत्यंत प्रभावशाली बन पड़े हैं जो यथा अवसर शबनम के मुंह से कहलवाए गए हैं। जब सरेआम गुंडागर्दी को गांव वाले देख रहे होते हैं लेकिन कुछ बोल नहीं पाते हैं तो शबनम कहती है, “अरे हम तो शरीर से हिजड़ा हैं, लेकिन तुम सब तो मन से हिजड़े हो। असली हिजड़ा तो तुम लोग हो|”
फिल्म हिजड़ा की संवेदनशीलता को उतना पल्लवित नहीं कर पायी है जिनता राजनीति की कुटिलता और छल-छद्म को। राजनीति की उठा-पटक और साजिश-षड्यंत्र में फिल्म का मूल स्वर कहीं खिसक गया है और अंत में हड़बड़ी में फिल्म को समेट लेने का प्रयास स्पष्ट दीखता है। इसमें दो राय नहीं कि शबनम मौसी के किरदार में आशुतोष राणा ने जबर्दस्त अभिनय क्षमता का परिचय दिया है। वैसे भी राणा काफी सशक्त अभिनेता हैं। शबनम के किरदार को निभाने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है। फिल्म के अंत में शबनम चुनाव में वजयी होती है और पूरे गांव में उल्लास का माहौल पसर जाता है।
श्याम बेनेगल लीक से हटकर गंभीर और कलात्मक फिल्म बनाने के लिए मशहूर हैं| हिज़ड़ों की समस्याएं और संवेदनशीलता को फिल्म ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ में उनके कैमरे ने विलक्षण ढंग से कैद किया है| वैसे तो यह एक हास्य-कॉमेडी फिल्म है, लेकिन हिज़ड़ों से माध्यम से जिस त्रासद से बेनेगल हमें साक्षात्कार कराते हैं, वह अत्यंत कारुणिक है| इसीलिए बेनेगल साहब ने इस फिल्म को ‘ब्लैक कॉमेडी’ की संज्ञा दी है| एक अन्य कारण से भी फिल्म की नोटिस ली जानी चाहिए| मेरी जानकारी में इस फिल्म में कदाचित पहली बार नायक और नायिका का नाम निम्न जाति सूचक रखा गया है| फिल्म में नायक का नाम महादेव कुशवाहा और नायिका का नाम कमला कुम्हारिन है| जातिगत समस्याओं और दमन से तो यह फिल्म दो-दो हाथ करती ही है साथ ही हिज़ड़ों के प्रति समाज में आए बदलाव को भी रेखांकित करती है| मध्यप्रदेश में किन्नर शबनम का भारी मतों से विधायक बनना एक सांकेतिक प्रतीक है. इस प्रतीक के हवाले बेनेगल यह दिखाना चाहते हैं कि किस तरह भारतीय राजनीति से अच्छे लोगों का मोहभंग हुआ है| जिस तरह से राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण हुआ है, लोग हिज़डा मुन्नी में संभावना की तलाश करते हैं| दूसरी तरफ़ फिल्म इस कटु सत्य से टकराती है कि जिस किन्नर को समाज के अधिकांश लोग छक्का, वैश्या, निर्लज्ज न जाने क्या क्या कहकर उपेक्षित और प्रताड़ित करते हैं, वह भी आखिर मनुष्य है, पूर्ण मनुष्य| उसमें भी ज्ञान, विवेक और कर्मशीलता किसी मनुष्य से कम नहीं होती|
फिल्म में हिज़डा मुन्नीबाई अपनी पारंपरिक व्यवहार के साथ जिस शालीनता और गंभीरता का परिचय देती है, वह ऐसे लोगों के मुह पर एक जोरदार तमाचा है जो हिज़ड़ों को हेय और घृणित समझते हैं. निर्देशक ने मात्र दो पत्रों के हवाले से परस्पर दो विरोधी स्थितियों को स्पष्ट किया है. एक पत्र राजनीति को अपनी लुगाई समझने वाले नेता यशपाल शर्मा का है| वह अंगूठा छाप है लेकिन नेतई के गुमान में वहाँ के डीएम को दो कौड़ी का नहीं समझता. अत्यंत अभद्र भाषा में डीएम को पत्र लिखकर हिज़डा मुन्नी का चुनाव रद्द करने का आदेश फरमाता है, क्योंकि उसकी राय में ‘एक हिज़डा चुनाव जीतकर पूरे गाँव को हिज़डा बनाकर रख देगा’| इसके ठीक विपरीत उस नेता की दादागिरी से तंग आकर मुन्नी अत्यंत शालीन भाषा में डीएम को पत्र लिखती है| उसका पत्र समाज में हिज़ड़ों के प्रति बद्धमूल धारणा को ध्वस्त करता है और एक सहज, सरल विवेकशील मनुष्य के रूप में उसकी पहचान स्थापित होती है. उसका पत्र दर्शकों को सोचने के लिए विवश कर जाता है. वह लिखती है- “डी एम साहब, हम हिज़ड़े भी इंसान होते हैं| ये लोग हमें ऐसे धमका रहे हैं, जैसे हम रावण हैं. क्या हमको दुःख नहीं होता? हमसे लोग क्यों नफ़रत करते हैं? क्या हम इंसान नहीं हैं? आपकी और सबकी – मुन्नीबाई|” इस पत्र की विशेषता यह है कि यह सामान्य पत्र न रहकर हिज़ड़ों को मनुष्य का दर्ज़ा देने का मांगपत्र बन जाता है|
इन फिल्मों के अतिरिक्त भी हिजड़ों की समस्याओं और मुद्दों पर कुछ बेहतरीन फिल्में बनी हैं, जिनमें दुर्भाग्यवश कुछ तो अचर्चित ही रह गईं। यह हमारे तथाकथित सभ्य समाज की असंवेदनशीलता का ही परिचायक है कि इस तरह की फिल्मों की हम नोटिस ही नहीं लेते। नोटिस लेने की आवश्यकता ही क्या है? हम तो उन्हें बदमाश, गुंडा, निर्लज्ज और वेश्या ही समझते हैं। लेकिन एक मिनट के लिए यह नहीं सोच पाते हैं कि अगर वे ऐसे हैं तो क्यों हैं? जब हमने उन्हें समाज से ही अलग कर दिया, अपने पास फटकने तक नहीं देते, पढ़ने-लिखने नहीं देते, सभ्य बनने नहीं देते तो अगर वे असभ्य हैं, जाहिल हैं, तो इसमें उनका क्या दोष? भारत माँ के ये अनाथ बच्चे सभ्य बनने और संस्कारित होने के लिए जाये तो कहां जायें? इन असुविधाजनक सवालों से टकराने वाली फिल्मों में थर्ड मैन (तेलगु, इन्द्रमोहन) क्वीन्स डेस्टिनी ऑफ़ डांस (डेविड एटकिन्स), अदर्स (लघु फिल्, प्रदीप सरकार), ट्रेफिक सिग्नल (मधुर भंडारकर), तमन्ना (महेश भट्ट), रज्जो (महेश मांजरेकर), सड़क (महेश भट्ट ), क्या कूल हैं हम आदि का नाम लिया जा सकता है|
हिजड़ा समुदाय की इन्हीं दारुण स्थितियों को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने उनके पक्ष में इतना बड़ा फैसला लिया है। स्थिति की गंभीरता को न्यायालय की संवेदनशील भाषा से समझा जा सकता है। न्यायालय अपने फैसले में हिन्दुस्तान के नागरिकों को संबोधित करते हुए कहता है, “शायद ही कभी हमारा समाज इस ओर ध्यान देता हो कि जिस मानसिक आघात, घोर वेदना और पीड़ा से हिजड़े समुदाय के लोग गुजरते हैं, उसकी कद्र की जाय। दरअसल उस समुदाय के सदस्यों की सहज अनुभूति विशेषतः उनके दिमाग,शरीर और जैविक लिंग की कद्र न करना उनकी अवमानना है। हमारा समाज कार्यस्थल, दुकान, मौल, सिनेमा तथा अस्पताल जैसे सार्वजनिक स्थलों पर हिजड़ों का मजाक बनाता है, गालियां देता है, दरकिनार करता है और अस्पृश्यों की तरह व्यवहार करता है। समाज की यह नैतिक विफलता ही है कि हम भिन्न लैंगिक अस्मिता को अपने में समावेशित नहीं कर पाते हैं, जो हमारे बीच के हैं, हमारा समाज उन्हें अंगीकार नहीं कर पाता। यह एक खास तरह की मानसिकता की अभिव्यक्ति है, जिसे हमें बदलना है|”
किन्नर मनीषा महंत से जब हिज़ड़ों की दुर्दशा का कारण पूछा गया तो वह अत्यंत दुखी होकर कहती हैं, “क्योंकि किन्नर तो इस समाज और देश में उस अनाथ बच्चे की तरह हैं, जिसकी कोई माँ नहीं है वो कितना भी रोए या कुरलाए उसको कोई दूध पिलाने वाला नहीं, उसको तो खुद ही अपने लिए दूध माँगना होगा या रो-रो कर मर जाना होगा|”
(बया के अप्रैल-जून हिंदी सिनेमा में हाशिये का समाज : 1)
(बया के अप्रैल-जून हिंदी सिनेमा में हाशिये का समाज : 1)
समाज का एक ऐसा स्याह पक्ष जिसमे झांकने तक का भी कोई साहस नही करता, उसे आपने अपनी कलम से आवाज़ दी है।
ReplyDeleteहमे इस कड़वी सच्चाई से रुबरू कराने के लिए आपका धन्यवाद।
बहुत बहुत शुक्रिया
DeleteBahut acha aakekh
ReplyDeleteशुक्रिया सर
Deleteकाली दुनिया की हकीकत पर आपकी कलम हीरे की कनी 🙏
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