अपने अपने नामवर
हिन्दी दुनिया में सबके अपने-अपने नामवर सिंह हैं| किसी के पास थोड़ा अधिक तो किसी के पास थोड़ा कम| एक-दूसरे से अलग-अलग नामवर| थोड़ा-थोड़ा नामवर सिंह सबको चाहिए| और सभी उस नामवर को अपने पास बचा कर, सहेजकर रखना चाहते हैं| एक नामवर सिंह राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी आदि के पास हैं तो दूसरे विश्वनाथ त्रिपाठी, निर्मला जैन तथा खगेन्द्र ठाकुर आदि के पास| एक नामवर सिंह विश्वनाथ प्रसाद तिवारी और रामबहादुर राय के पास हैं तो दूसरे अरुण कमल, सदानंद साही और रविभूषण के पास| एक नामवर सिंह जगदीश्वर चतुर्वेदी के पास हैं तो पुरुषोत्तम अग्रवाल के पास भी हैं| एक नामवर सिंह इतिहासकार भगवान जोश, लालबहादुर वर्मा, समाजशास्त्री आनंद कुमार, मराठी लेखक गोविन्द पुरुषोत्तम देशपाण्डे, भालचंद्र नेमाडे, उडिया लेखिका प्रतिभा राय, अंग्रेजी लेखक हरीश त्रिवेदी आदि न जाने कितनी अलग-अलग भाषाओं और अलग अनुशासनों के विद्वानो के हैं| हिन्दी में तो कदाचित ही कोई लेखक या शिक्षक हो जिनके पास थोड़ा-थोड़ा नामवर सिंह न हों| भारतीय भाषाओं के साहित्य में किवदंती बन चुके आलोचक नामवर सिंह इन सबों के पास हैं| किन्हीं के पास अच्छे नामवर हैं तो किन्हीं के पास बुरे नामवर सिंह, तिकड़मी नामवर सिंह| लेकिन मजे की बात यह है की जिनके पास पहले वाले नामवर सिंह हैं उन्हें तो उनके होने का गर्व है ही, जिनके पास दूसरे तरह के तिकड़मी नामवर सिंह हैं उन्हें भी अपने पास नामवर सिंह के होने का गर्व है| यही नामवर सिंह की नामवरी है और यही नामवर सिंह होने का अर्थ भी|
हिंदी परिसर में ‘नामवर कुंठा’ का भी अपना रोचक इतिहास रहा है| बहुत सारे लेखक, शिक्षक ‘नामवर कुंठा’ से ग्रस्त रहे हैं| इन कुंठितों में उनके समकालीन और आगे-पीछे के लेखक और हिंदी-शिक्षक तो रहे ही हैं उनके विद्यार्थी भी रहे है| ऐसे ही उनके एक विद्यार्थी रहे हैं आदरणीय जदीश्वर चतुर्वेदी जी| (इनसे मेरी कोई भेंट-मुलाक़ात या संवाद नहीं है) सोशल साईट पर उनका एक लेख ‘मति का धीर : नामवर सिंह’ (समालोचना, ३ मई 2012) पढ़ने को मिला| ‘अपने-अपने नामवर’ लिखे जाने का मकसद नामवर सिंह को डिफेंड करना नहीं है| क्योंकि एक तो ऐसी क्षमता मेरी है ही नहीं और दूसरा जगदीश्वर चतुर्वेदी जी नामवर सिंह के कृतित्व और व्यक्तित्व से भली-भाँति परिचित हैं और कई जगह उनका शानदार मूल्यांकन भी किया है| चूंकि इस लेख का संबंध नामवर सिंह के शिक्षक रूप से ज्यादे है और मैं भी चतुर्वेदी जी के बहुत बाद ही सही नामवर जी का एक अदना छात्र रहा हूँ| वे कदाचित बहुत आरम्भिक दौर के छात्र रहे होंगे और मेरा सत्र (1991-93) नामवर सिंह का अंतिम सत्र था| अवकाश प्राप्ति के बाद हमलोगों के ‘हठ’ के आगे उन्हें वर्ग लेना स्वीकार करना पड़ा था| छात्र होने के नाते उनके शिक्षक रूप से हमलोग भी परिचित हैं|
‘मति का धीर : नामवर सिंह’ में शीर्षक के अनुसार नामवर जी की मति की धीरता का कोई संकेत नहीं है| इसके विपरीत इस लेख का कुल लब्बोलबाब यह है कि वे भक्त पसंद शिक्षक थे, विद्वान् तो थे किन्तु शिक्षक अच्छे नहीं थे, एक भी मेधावी छात्र उन्होंने नहीं तैयार किया| राजनीति में सक्रिय विद्यार्थी उन्हें नापसंद था, उन्होंने सैकड़ों नियुक्तियाँ कीं, किन्तु अच्छे विद्यार्थियों की नहीं कीं, वे न तो देश में एक भी अच्छा विभाग निर्मित कर पाए न एक भी अच्छा शोध करा पाए| यह लेख हवाई वक्तव्यों (स्वीपिंग स्टेटमेंट), अतार्किक मंतव्यों और परस्पर विरोधी विचारों से भरा पड़ा है| चतुर्वेदी जी दर्जन से अधिक पुस्तकों के मार्क्सवादी लेखक हैं| एक मार्क्सवादी लेखक से इस तरह के लेखन की कल्पना भी दुष्कर है| वे अपने इस लेख में यह स्पष्ट नहीं करते कि नामवर के विद्यार्थी से उनका क्या आशय है? उनसे पढ़ने वाला या उनके निदेशन में शोध करने वाला? मेधावी छात्र से उनका क्या आशय है? उनके लिए मेधावी छात्र का प्रतिमान क्या है? आई ए एस परीक्षा उत्तीर्ण करना या अच्छा शिक्षक बनना? अगर वे स्वंय को अच्छा शिक्षक मानते हैं तो वे भी नामवर जी के शिष्य हैं| हिन्दी से जुड़े सभी लोग उनसे पढ़ चुके ऐसे कई शिक्षकों को जानते हैं जो शब्द के सही अर्थों में अच्छे शिक्षक हैं|
चतुर्वेदी जी उक्त आलेख में लिखते हैं, “उनके सबसे प्रिय छात्र वे ही होते जो उनके अनन्य भक्त थे, ये लोग साहित्य ज्यादे हाँकते थे और राजनीति कम करते थे| वे उन छात्रों से कम प्रेम करते जो उनके भक्त नहीं थे, राजनीति और साहित्य कम करते थे|” हमलोगों ने राजनीति की समझ और समझपूर्ण राजनीति के कई पाठ नामवर सिंह के क्लास व्याख्यान से सीखा है| नामवर जी को ऐसे छात्र-छात्राएँ कम प्रिय न थे जो साहित्य को, कोर्स को उतनी ही गंभीरता से लेते जितनी गंभीरता से राजनीति को| वे साहित्य और पढ़ाई की कीमत पर राजनीति पसंद नहीं करते| जो विद्यार्थी राजनीति का धौंस और दंभ प्रकट कर साहित्य कम अर्थात कम पढ़ाई करते ऐसे विद्यार्थियों के प्रति उनकी कोई सहानुभूति नहीं होती| अन्यथा पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रणय कृष्ण, गोपाल प्रधान, आशुतोष से लेकर बत्तीलाल बैरवा तक उनके सभी शिष्य राजनीति रूप से सक्रिय रहे और उनके प्रिय भी| ‘भक्ति परम्परा’ के विद्यार्थी ये नहीं थे| चूँकि मैं साहित्य और हिन्दी शिक्षण की मुख्य धारा में लम्बे समय तक नहीं रहा हूँ, इसलिए मैं बहुत कम विद्यार्थियों को जानता हूँ| निश्चित रूप से यह सूची काफी लम्बी हो सकती है|
इसी लेख में वे आगे लिखते हैं कि, “यह एक विलक्षण बात थी कि वे मार्क्सवाद का व्यवहार में इस्तेमाल करनेवाले छात्रों को कम पसंद करते थे| उन्हें वे छात्र ज्यादा अच्छे लगते थे, जिनका मार्क्सवाद से प्रयोजनमूलक सम्बन्ध था|...प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी वे थे जिनका मार्क्सवाद से सिर्फ़ पाठ्यक्रम तक का सम्बन्ध था| पाठ्क्रम में जो मार्क्सवाद था उसे तोते की तरह पढ़ते थे|” मार्क्सवाद को व्यवहार में उतारना बड़े-बड़े मार्क्सवादियों के लिए कठिन है, ऐसे में विद्यार्थी किस खेत के मूली थे| दूसरा, व्यावहारिक मार्क्सवाद कोई खेल नहीं है कि नामवर सिंह का विद्यार्थी होने भर से या जे एन यू में नाम लिखाने भर से व्यावहारिक मार्क्सवादी हो जाते| यह एक लम्बी, बहुत लम्बी प्रक्रिया है| मेरी मैथिली भाषा में एक कहावत है ‘केहन-केहन गेला त’ मोछवला एला’| तीसरी बात कि नामवर सिंह का विद्यार्थियों के साथ औपचारिक सम्बन्ध होता| अक्सर क्लास भर का| ऐसे में यह पता लगाना कि कौन व्यावहारिक मार्क्सवादी है, अत्यंत कठिन है| प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी होना आसान तो था ही और व्यावहारिक मार्क्सवादी होने का प्रथम पौदान भी|
जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं, “यह सच है कि नामवर सिंह बहुत बड़े विद्वान हैं| खूब पढ़ते हैं| खूब सुन्दर पढ़ाते हैं| लेकिन सुन्दर मेधावी छात्र तैयार करने की कला एकदम नहीं जानते| विद्यार्थी को तरासना और शिक्षित-दीक्षित करना एकदम नहीं जानते हैं|” एक अच्छे शिक्षक का असली गुण क्या है? खूब पढ़ना और खूब अच्छा पढ़ाना| जब ये दोनों गुण नामवर जी में थे तो फिर मेधावी छात्र कैसे तैयार नहीं हो सकते? खूब अच्छा पढ़ाना ही अपने में पर्याप्त है| यह तो छात्र पर भी निर्भर करता है कि वह मेधावी छात्र बनना चाहता है या नहीं? खूब अच्छा पढ़ाने के बाद अगर कोई मेधावी नहीं बनता है तो यह उस विद्यार्थी का दोष या ‘खूब अच्छा’ पढ़ाने वाले शिक्षक का? ऐसा नहीं है कि उन्होंने मेधावी छात्र तैयार नहीं किये| पूरे देश में अगर हिन्दी के कुछ गिने-चुने अच्छे मेधावी शिक्षक हैं तो उनमें से कई नामवर जी के छात्र रहे हैं| उनके ‘भक्त’ छात्र नहीं रहे और उनसे घोर असहमत उर्मिलेश भी उनकी शिक्षण कला के मुरीद हैं| वे जे एन यू : एक अयोग्य छात्र के नोट्स में लिखते हैं, “साहित्य और समाज को लेकर आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने में डॉ सिंह का एक-एक व्याख्यान हम छात्रों के लिए बेहद महत्वपूर्ण था| कोई शोध छात्र उनका एक भी व्याख्यान छोड़ना नहीं चाहता था| इसके लिए हमलोग सुबह का नाश्ता या दिन का खाना भी छोड़ सकते थे|” उनके मेधावी छात्र रहे पुरुषोत्तम अग्रवाल नामवर सिंह के मेधावी छात्र बनाने की कला पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, “वे पढ़ाते नहीं सिखाते हैं, सजग रूप से भी, अनजाने भी| अपनी उपलब्धियों से भी-असफलताओं से भी| अपनी संभावनाओं से भी, विवशताओं और दुर्बलताओं से भी|” अच्छे शिक्षकों का अकाल हिन्दी की ही समस्या नहीं है| दूसरे विषय में भी अच्छे शिक्षकों का अकाल है| यह एक बहुत बड़ी समस्या है| इसके लिए पूरे शिक्षातंत्र की पड़ताल आवश्यक है|
‘मति के धीर’ में उन्होंने लिखा है कि ‘नामवर सिंह के रहते हुए एक भी बेहतरीन अनुसंधान कार्य विभाग की ओर से सामने नहीं आया|’ ‘बहतरीन अनुसंधान’ से उनका क्या आशय है? विदेशों में हो रहे अनुसंधानों से या देश के हिन्दी विभागों में हो रहे अनुसंधानों से? इस तरह के वक्तव्यों को उन्हें सप्रमाण सिद्ध करना चाहिए| जे एन यू के आलावा अन्य हिंदी विभागों में हो रहे कुछ ‘बेहतरीन अनुसंधानों’ का हवाला देकर इसे समझाया जा सकता था| विभिन्न अनुसंधानों की तुलना कर वे इन बातों को प्रमाणित करते तो पाठकों का ज्ञानवर्धन भी होता| हिन्दी अनुसंधान की कुछ नयी दिशाओं की ओर संकेत हो पाता| नामवर जी के रहते हुए नहीं हुआ तो जहाँ नामवर सिंह नहीं थे वहाँ किस तरह का ‘बेहतरीन अनुसंधान’ कार्य हुआ या उनके नहीं रहते जे एन यू में किस तरह का ‘बेहतरीन अनुसंधान’ हुआ आदि-आदि| यह मार्क्सवादी लेखन पद्धति कतई नहीं है| यह नितांत गैर-मार्क्सवादी पद्धति है| उनके अंतिम सत्र का विद्यार्थी होकर भी मैं नामवर सिंह के निदेशन में संपन्न कुछ बेहतरीन अनुसंधान कार्य को जानता हूँ| पुरुषोत्तम अग्रवाल की बहुपठित पुस्तक कबीर-अकथ कहानी प्रेम की नामवार सिंह के निदेशन में कबीर पर संपन्न शोध कार्य का संशोधित रूप है| वीर भारत तलवार का किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में प्रेमाश्रम का अध्ययन इतना ‘बेहतरीन शोध’ है कि रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक में विस्तार से इसकी चर्चा की है| रामविलास जी ने इसकी चर्चा तब की है जब तलवार जी बिलकुल युवा थे| हम सभी जानते हैं कि रामविलास जी असाधारण चीजों की नोटिस नहीं लिया करते थे| यह अपने आप में रोचक अनुसंधान का विषय हो सकता है कि नामवर सिंह के रहते जे एन यू में किस तरह के अनुसंधान-कार्य हुए| उन्हीं दिनों देश के अन्य हिंदी विभागों में किस तरह के अनुसंधान-कार्य हो रहे थे|
हिन्दी अनुसंधान को कोरी भावुकता और रीति-नीति-श्रृंगार- से निकलकर ठोस अन्तरअनुशासनिक बनाने में नामवर सिंह की लाजबाव शिक्षण-पद्धति और गंभीर शोध-दृष्टि का भारी योगदान है| साहित्यिक शोध को सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों से समन्वित कर उन्होंने हिन्दी शोध को समाजविज्ञान के समकक्ष खड़ा किया, हिन्दी साहित्य को भारतीय भाषाओं से जोड़कर देखने की दृष्टि विकसित कर अनुसंधान को भारतीय संवेदना से संपृक्त करने का बड़ा काम किया| अनुसंधान में परम्परा और आधुनिकता को देखने की नयी दृष्टि पैदा की| उन्होंने परम्परा को रूढ़ियों की जकड़बंदी से निकालकर प्रगतिशील चेतना की निरन्तरता में देखने की शोध-दृष्टि विकसित करने हेतु शोधार्थियों को प्रेरित किया| अनुसंधान में नवीनता और सृजनशीलता के पक्षधर नामवर सिंह ने अपने समय में शोध में आलोचना की प्रवृत्ति को विकसित किया| शोध विषय या शोध रचनाकार से तीखी जिरह करना शोधार्थियों को सिखाया| नामवर जी से पूर्व सामान्यतया जिस रचनाकार पर शोधार्थी शोध कर रहे होते वे उन्हें पूज्य भाव से देखते या उनकी सिर्फ़ तारीफ़ करते| यहाँ शोध से आशय पीएचडी से है| आज भी अधिकांश हिंदी विभागों में पूज्य भाव से ही शोध-कार्य होता है| नामवर जी अपने समय में शोधार्थियों को इस ‘महात्म्य मनोग्रन्थि’ से बाहर निकालने का काम किया| उन्होंने कई विश्वविद्यालयों का हिन्दी का पाठ्यक्रम बनाया, लेकिन पाठ्यक्रम एक सीमा होती है| पाठयक्रम अपने लक्ष्य तभी पूरा कर पाता है जब उसे पढ़ानेवाले उसी योग्यता और गंभीरता से लें| उन्होंने पाठ्यक्रम को वैज्ञानिक और चेतेनशील बनाने का महत्वपूर्ण काम किया| इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है| उन्होंने भक्तिकाल के निर्गुण हिस्से का नाम दिया प्रतिरोध की कविता ( पोएट्री ऑफ़ प्रोटेस्ट) और सगुण कविता को संदर्भ की कविता (पोएट्री ऑफ़ कॉन्टेक्स्ट)| यह नामकरण ही काव्यधारा की पूरी अवधारणा को स्पष्ट कर देता है|
अशोक वाजपयी के नामवर सिंह अचूक अवसरवादी हैं और उनके अनुसार उनमें सत्ता का आकर्षण है| पता नहीं ‘अवसरवादी’ होकर उन्होंने क्या-क्या प्राप्त कर लिया| उन्होंने अथाह संघर्ष, बेहिसाब अध्ययन और विलक्षण अध्यापन से जो कद और बकत हासिल की थी, उसमें ऐसा क्या मिला जो ‘अतिरिक्त’ था, या उनकी कद से बड़ा था| साहित्य अकादमी, महात्मागांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (चांसलर) और राजा राममोहन रॉय लायब्रेरी फाउंडेशन में प्राप्त पद उनके लिए बहुत महत्व नहीं रखता है| उन संस्थाओं की भी गरिमा नामवर सिंह से बढ़ी| जिस तरह सत्तातंत्र में उनकी धाक रही और कई प्रधानमंत्रियों से उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध-सरोकार रहे, उस हिसाब से वे कुछ भी प्राप्त कर सकते थे| लेकिन उन्होंने ‘अतिरिक्त' कुछ नहीं लिया| अगर उन्हें सत्ता का आकर्षण रहता तो वे राज्यपाल या राज्य सभा से सदस्य तो बन ही जाते| वे कुलपति तक नहीं बने| चांसलर शोभा का पद है|
कभी-कभी बड़े रचनाकार भी आवेश में हास्यास्पद बात कह जाते हैं| अशोक वाजपेयी ने लिखा है, “नामवर सिंह अपने बारे में बात करते हुए यह कहा था कि उन्हें लेखक प्रगतीशील लेखक संघ ने बनाया| अगर ये सच है तो भयानक है, क्योंकि हमारे जाने स्वंय संघ ने लेखक बनाने का दावा कभी नहीं किया, लेकिन शायद यह संघ का समर्थन सुनिश्चित किये जाने की एक अवसरवादी हरकत भर है, गंभीर सचाई नहीं|” (हिंदी के नामवर, अनन्य प्रकाशन,दिल्ली, पृष्ठ 211) कवि अशोक वाजपेयी ने भी इस कथन को अविधा में ही ले लिया| नामवर जी ने जे एन यू के विदाई समारोह में कहा था कि ‘विद्यार्थियों ने मुझे नामवर सिंह बनाया| विद्यार्थियों की ओर से अगर मुझे चुनौतियाँ न मिली होती तो मैं नामवर सिंह न होता|’ यह कहकर वे विद्यार्थियों का महत्व रेखांकित कर रहे थे| नामवर सिंह कई शिक्षकों की तरह विद्यार्थियों को तुच्छ नहीं समझते थे| यही बात वे प्रलेस के सम्बन्ध में कह रहे थे| प्रलेस की ओर से विविध कार्यक्रमों में जाना, उसके लिए पढ़ना, तैयारी करना, इसके माध्यम से कला, संस्कृति से जुड़े गंभीर लोगों से जुड़ना, जुड़कर ज्ञान का विस्तार करना, विभिन्न अनुशासनों के शिक्षकों, विद्वानों को सुनना, उनसे मिलना आदि ने निश्चित रूप से उन्हें ‘नामवर सिंह’ बनने में मदद की होगी| इसी को लक्ष्य करते हुए, संस्था को सम्मान देते हुए, उसकी गरिमा बढ़ाते हुए उन्होंने कहा होगा कि मुझे प्रगतिशील लेखक संघ ने बनाया| यह कहीं से किसी कोण से ‘भयानक’ नहीं है|
अब अगर निंदा करने के लिए निंदा की जाए तो उसका कोई अंत नहीं| निंदा की अतिशयता ही ‘कुंठा’ को जन्म देती है| निंदा की झोंक में वाजपेयी जी कह गए कि “नामवर जी ने अपने ही प्रिय लेखकों जैसे मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, निर्मल वर्मा, रघुवीर सहाय आदि पर ऐसा कुछ नहीं लिखा है, जो इन लेखकों को समझने-बुझने के लिए पढ़ना अनिवार्य लगे|” लिखने का मतलब पृष्ठों की संख्या है या दृष्टिपूर्ण लेखन| अगर किसी रचनाकार पर दृष्टिपूर्ण ढंग से 5-10 पृष्ठ लिखे जाएँ तो वह दृष्टिहीन पोथी पर भारी पड़ेगा| उनकी किताबों के अतिरिक्त मैंने उनका कुछ ख़ास नहीं पढ़ा है|आलोचना का सम्पादकीय थोड़ा बहुत| लेकिन इतना तो जानता ही हूँ कि नागार्जुन विशेषांक में उन्होंने नागार्जुन पर जो लम्बी भूमिका ‘कविता की जमीन और जमीन की कविता’ लिखी वह कई पुस्तकों से अच्छी है| नागार्जुन की कविता को समझने के लिए जो अंतर्दृष्टि वह भूमिका देती है वह अद्भुत है| कुछ बात तो शीर्षक ही कह देता है| अब चूँकि अशोक वाजपेयी जी को नागार्जुन की ‘खुरदुरी’, ‘घिन’ आने वाली कविता पसंद नहीं है तो वे क्यों वह भूमिका पढ़ने जाएँगे? निर्मल वर्मा पर जिस गंभीरता से ‘कहानी नयी कहानी’ में बात की गई है, वह निर्मल वर्मा की कहानियों को समझने की कुंजी है| उन्होंने उनकी कहानी ‘परिंदे’ को नयी कहानी की पहली कहानी माना| और इसके लिए उन्होंने नयी कहानी की अवधारणा को स्पष्ट किया| इसी अवधारणा में और कई स्थानों पर सीधे-सीधे वे परिंदे कहनी के मूल्यांकन के क्रम में निर्मल वर्मा को समझने का प्रयास करते हैं| ‘कविता के नए प्रतिमान’ तो कमोबेस मुक्तिबोध पर ही लिखी गई पुस्तक है| उसी किताब से मुक्तिबोध की नयी पहचान बनी| यह अतिशयोक्ति नहीं है कि मुक्तिबोध नामवर जी की खोज हैं| उसमें मुक्तिबोध पर केन्द्रित अध्याय भी है| दूसरी बात यह है कि नामवर सिंह की पुस्तकें, लेख और सम्पादकीय वह सूत्र देते हैं जिससे हम इन रचनाकारों को गहराई से समझ सकते हैं| बड़े लेखकों की रचनाकारों पर केन्द्रित कई पुस्तकें आपको वह अंतर्दृष्टि नहीं दे पाती है, लेकिन नामवर सिंह का लेखन इन रचनाकारों को समझने-बुझने की तरकीब दे जाता है| ऐसा नहीं है कि ये सारी बातें वाजपेयी जी नहीं जानते हैं, खूब जानते हैं, किन्तु निंदा का क्या करेंगे? वह करनी है तो करनी है|
सीमाओं से परे कोई नहीं होता| ईश्वर हो सकता है| और नामवर सिंह ईश्वर नहीं थे| इसलिए स्वभावतः उनमें भी कई कमियाँ थीं| और उन कमियों पर भी बात होनी चाहिए| बात हुई भी है| प्रणय कृष्ण उनकी वैचारिक कमियों की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं, “वे मंडल कमीशन द्वारा संस्तुत 27 प्रतिशत पिछड़ा आरक्षण के विरोध में उतरे, वे दलित साहित्य के नए यथार्थवाद को स्वीकार नहीं कर सके| वामपंथ उनके बदले हुए रुख के समर्थन में नहीं आया| उन्होंने ख़ास कर मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा को जातिवाद का पक्ष लेने और अम्बेडकरवादी झुकाव के लिए ज़िम्मेदार नहीं माना| वे यह नहीं समझ सके कि जाति और वर्ग सिर्फ़ अध्ययन की कोटियाँ नहीं, बल्कि सामाजिक वास्तविकताएँ हैं| दोनों परस्पर अपवर्जी नहीं, बल्कि परस्पर-व्यापी अवधारण है|” शुरु में उन्होंने दलित-विमर्श और स्त्री विमर्श को महत्व नहीं दिया| किन्तु नामवर सिंह अपने को लगातार ‘करेक्ट’ करते रहे| विमर्श पर भी उनके विचार बदले| विचारों में परिवर्तन और नवता उनकी आलोचना दृष्टि की विशेषता थी| एक बार जो कह दिया उस पर अड़े रहना उनके आलोचन-कर्म का स्वभाव नहीं था| गलती स्वीकार करने को वे छोटा होना नहीं मानते| कई स्थानों पर उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की है| अब चूँकि उनकी किताबें हैं, उनके बोले हुए का लिखित रूप भी उपलब्ध है तो उनकी सीमाओं पर भी बात होगी और संभावनाओं पर भी| लेकिन यह बात न तो निंदा के लिए होगी न प्रशंसा के लिए| नीर-क्षीर विवेक के साथ अकादमिक तरीके से बात होगी|
सम्यक उत्तर।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है। तर्क और विश्लेषण के साथ। नामवर जी से बहुतों को ईर्ष्या थी।
ReplyDelete