रचना से संवाद : सिरजनहार मैथिल कोकिल विद्यापति
उषाकिरण खान का उपन्यास सिरजनहार (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन) महाकवि विद्यापति के
जीवन-वृत्त, जीवन-संघर्ष और जीवन-द्वन्द की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है. विद्यापति का
सुदीर्घ जीवन विविध भावों, विचारों, और व्यव्स्थाओं का ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ है.
अन्यतम और अन्तरंग श्रृंगार से लेकर पराकाष्ठा भक्ति, शास्त्रीय और पांडित्यपूर्ण
भाषा संस्कृत से लेकर लोक भाषा मैथिली, राजदरबार की समृद्धशाली ऐश्वर्य से लेकर
गांव के खेत-खलिहान और युद्ध में तलवारबाजी से लेकर काव्य-रचना तक विद्यापति की
समवेत आवाजाही उनके व्यक्तित्व को सर्वथा अलग और विविधरंगी बनता है. और यही वजह है
कि इनका व्यक्तित्व और कृतित्व लेखकों को आकर्षित करता रहा है. उषाकिरण ने इस
ऐतिहासिक जीवनीपरक उपन्यास सिरजनहार में विद्यापति को समग्रता में खोजने का
प्रयास किया है. इस खोजने की प्रक्रिया में निश्चित रूप से लेखिका ने विद्यापति की
कविताओं को केंद्र में रखा है, लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि उनकी
इतिहास-चेतना उन कविताओं में गुम नहीं हो पायी है.
ऐतिहासिक जीवनीपरक उपन्यास लिखना अत्यंत
चुनौतीपूर्ण दायित्व है. कारण, ऐसे उपन्यास में जीवनी की तथ्यात्मकता, इतिहास की
ऐतिहासिकता और उपन्यास की कलात्मकता की आवश्यकता एक साथ पड़ती है. इन तीनों गुणों
को एक साथ साधना सहज रचना-कर्म नहीं. किसी भी अच्छी रचना में इन गुणों की कसावट और
आपसी अंतर्संबंध को स्पष्ट करते हुए आलोचक मैनेजेर पाण्डेय लिखते हैं, “ऐतिहासिक
चेतना और कला-चेतना का जहाँ मेल होता है, वहीं से रचना या आलोचना की शुरुआत होती
है. ऐतिहासिक चेतना से रचनाकार को राष्ट्रीय चेतना, वर्गीय चेतना और मानवीय चेतना
का बोध होता है. इसी से उसे अपनी कलापरंपरा
की चेतना भी प्राप्त होती है. और ऐतिहासिक चेतना से ही समकालीन युग के सन्दर्भ
में रचनाकार को अपनी रचनाशीलता की सार्थकता का भी बोध होता है. इस बोध से ही
रचनकार को रचनाकर्म को दिशा और दृष्टि मिलती है. इसके बाद ही उसकी कलाचेतना की
सृजनशीलता रचना में व्यक्त होती है.” सिरजनहार में तथ्यात्मकता, कलात्मकता
और ऐतिहासिकता को यथासंभव साधने का प्रयास किया गया है.
जीवनीपरक उपन्यास एक
तरह से लक्ष्य जीवनी की रचनात्मक समीक्षा भी होती है. पूज्य-भाव से लिखा गया
उपन्यास उक्त विधा के साथ न्याय नहीं कर सकता. नीर-क्षीर विवेक की मांग ऐसे
उपन्यासों से होती है. और इसी अर्थ में कोई ऐतिहासिक जीवनीपरक उपन्यास समकालीन हो
सकता है. समकालीन घटना का चयन ही समकालीनता का परिचायक नहीं होता, बल्कि अतीत की
घटना, वस्तु और विचार यदि सार्थक है तो वह भी समकालीन होता है. इस अर्थ में
जीवनीपरक उपन्यास में जीवनी नायक की सीमाओं और संभावनाओं तथा तत्कालीन द्वंदों को
यदि रचनाकार उभार पाने में समर्थ हो पाता है तो वह रचना समकलीन कही जा सकती है. सिरजनहार
में विद्यापति की समकालीनता उद्घाटित करने में लेखिका को सफलता प्राप्त हुई है. विद्यापति
के द्वंदों और तनावों को लक्षित किया गया
है किन्तु विद्यापति के प्रति पूर्ण श्रद्धा-भाव के साथ. विद्यापति का महात्म्य-प्रदर्शन
उपन्यास को जीवनी नायक के प्रति आलोचनात्मक नहीं बनने देता.
विद्यापति के जीवन
संघर्ष का सबसे अहम् पहलू है उनका लोक भाषा मैथिली के प्रति अथाह अनुराग. उस समय
विद्वता का पर्याय संस्कृत भाषा थी, ठीक वैसे ही जैसे आज बौद्धिकता का पर्याय
अंग्रजी भाषा बनी हुई है. कहने की आवश्यकता नहीं कि विद्यापति संस्कृत, प्राकृत और
अपभ्रंश के भी रचनाकार थे. इसके बावजूद बहुभाषिक विद्यापति ने काव्याभिव्यक्ति के
लिए ‘देसिल बयना’ को ही चुना. संभव है आज यह बात उतनी क्रांतिकारी और चुनौतीपूर्ण
ना लगे किन्तु चौदहवीं शताब्दी में जब यश मात्र संस्कृत में लिखकर ही प्राप्त हो
सकता था, संस्कृत ज्ञान के बावजूद लोक भाषा में रचना करना विद्यापति का जोखिम भरा साहसपूर्ण
कदम था. लेखिका उषा किरण ने संकेत किया है कि कवि की दूरदृष्टि ने यह देख लिया था
कि भविष्य संस्कृत का नहीं लोकभाषा का है. इस साहसिक कार्य के लिए उन्हें अपने
विद्वत समाज से ही नहीं लड़ना पड़ा था बल्कि उन्हें स्वयं से भी भीषण आतंरिक लडाई
लड़नी पड़ी थी. महाकवि के इस अंतरयुद्ध को सिरजनहार में उषा किरण ने विलक्षण
रचानात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है. उपन्यास में यह पहली लड़ाई विद्यापति को अपने
आदरणीय गुरु हरिमिश्र से लड़नी पड़ी. उन्हें गुरु ने मूर्ख, अपढ़ और कुलांगार तक कहा,
लेकिन विद्यापति विचलित नहीं हुए. पहली बार जिस दिन हरिमिश्र को यह ज्ञात हुआ कि
विद्यापति मैथिली में रचना करने लगे हैं तो विद्यापति की पेशगी गुरु की अदालत में
होती है, “विद्यापति इतनी भ्रष्ट भाषा यह गान लिखा है, इसका मुझे तनिक भी भान नहीं
होता. ... तुम देवभाषा के ज्ञाता हो. तुम्हारे कुल में रचनाकार होने की परम्परा
है. ... इस भ्रष्ट सामान्य जन की भाषा में तुमने रचना की? रचना का स्तर गिरा? यह
उचित नहीं, किसी प्रकार मैं तुम्हें ऐसा करने की छूट नहीं दूंगा. तुम मेरा यह
अंतिम आदेश मान लो और भ्रष्ट भाषा में रचनाकर्म बंद करो. ताल पत्र को व्यर्थ ना
भरो.” विद्यापति का मन गुरु का यह आदेश मानने को तैयार नहीं होता. वे अपने अंतरतम की
आवाज़ को बाल सखा शिवसिंह तक पहुंचाते हैं, “मित्र, मैं अपने आप में संकल्प लेकर
बैठा हूँ, किन्तु गुरु के आदेश तथा व्यवहार पर विचलित हूँ. आप जानते हैं कि देवी
वाणी मेरे आदेश पर नहीं चलती, वे तो स्वयमेव अंतत:सलिला की भांति मुझे में प्रवाहित होकर
फूट पड़ने को आतुर रहती हैं, मैं उन्हें कैसे रोकूँ.”
विद्यापति अपनी आवाज़ आम जन तक पहुंचाना चाहते
थे, आमजन का रूचि परिष्कार करना चाहते थे. कविता को चंद पढ़े लिखे लोगों तक सिमित
संकुचित नहीं करना चाहते थे. सम्पूर्ण भक्ति आन्दोलन का सर्वाधिक प्रगतिशील आयामों
में एक था भक्त कवियों का लोक भाषा में रचना करना. उत्तर भारत में सर्वप्रथम
विद्यापति ने लोकभाषा के अकूत सामर्थ्य को समझा. विद्यापति की इसी लोकभाषा की नीवं
पर कबीर, जायसी, तुलसीदास, सूरदास, और मीरा जैसे भक्त कवियों ने काव्याभिव्यक्ति
के लिए अपनी-अपने ‘देसिल’ भाषा का चुनाव किया. विद्यापति की इस भाषाई चेतना को सिरजनहार
में वाद-विवाद संवाद के माध्यम से अत्यंत रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है.
गुरु हरिमिश्र द्वारा लोकभाषा में काव्य रचना पर प्रतिबन्ध लगाने के बावजूद
विद्यापति का रचनाकर्म पूर्ववत जारी रहा. गुरु का कोप जाग जाता है. इस बार
विद्यापति गुरु से जिरह करते हैं. इस जिरह में विद्यापति की प्रखर तार्किकता और
प्रगतिशील सोच को रेखांकित किया जा सकता है.
लेखिका ने विद्यापति की इस भाषाई चेतना को रेखांकित
कर महाकवि के व्यक्तित्व को एक अद्भुत गरिमा प्रदान की है. इस वाद-विवाद संवाद
की तथ्यात्मकता जो भी हो किन्तु यह
कल्पनाशीलता सत्य के करीब है. क्योंकि उस समय मैथिल पंडित संस्कृत से बाहर रचनाकर्म
को अत्यंत हीनकर्म मानते थे. विद्यापति के समकालीन संस्कृत के प्रकांड पंडित और
प्रख्यात दर्शनशास्त्री पक्षधर मिश्र भी विद्यापति के लोकभाषा प्रेम का मज़ाक उड़ाते
हैं. इस आधार पर विद्यापति को राजसभा में भी तीव्र विरोध का सामना करना पड़ता है.
किन्तु विद्यापति ने इन तमाम विरोधों को झेलते हुए अंततः काव्यकर्म के लिए ‘भाषा’
को स्थापित कर ही दिया. विद्यापति ऐसे ही इतिहास पुरुष नहीं बनते हैं. ध्यान देने के
बात यह है कि विद्यापति मैथिली को ही मीठी भाषा नहीं कहते वे लोक भाषा मात्र को
‘देसिल बयना सबजन मिट्ठा’ कहते हैं. नवजागरण काल में भारतेंदु इसी भाव को निजभाषा
के रूप में स्थापित करते हैं ‘निजभाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल’.
मिथिला लोक संस्कृति संपन्न प्रदेश रहा है. उषा
किरण इस बात को लेकर सचेत हैं कि विद्यापति जैसा
लोक-चित्त में बसा कवि किसी समृद्ध लोक-परम्परा की ही उपज हो सकता है. उपन्यास
सिरजनहार में मिथिला की लोक-धुन की अनुगूँज अनवरत सुनाई देती है.
लोक-संस्कृति की बारीक पहचान उपन्यास को विश्वसनीय बनाता है. मिथिला की लोक-परंपरा
में विद्यापति की गहरी आस्था थी. उन्होंने मिथिला की राजनीतिक, सामाजिक एवं
सांस्कृतिक जीवन को बहुत करीब से देखा था. उपन्यासकार ने विद्यापति के इस व्यक्तित्व
को पूरी कथा में विन्यस्त करने का प्रयास किया है. प्रसिद्ध आलोचक जार्ज लुकाच
अपनी पुस्तक ‘द हिस्टोरिकल नावेल’ में इस सन्दर्भ में लिखते हैं, “हम यह कहना
चाहते हैं कि एक प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने युग के सम्पूर्ण आर्थिक, सामजिक,
राजनीतिक तथा सांस्कृतिक जीवन, महत्वपूर्ण आन्दोलनों के संघर्ष, वर्ग संघर्ष तथा अपने युग की भौतिक-सांस्कृतिक विरासत से
कितना अधिक जुड़ा हुआ होता है, तथा वह उस युग की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों को
बढ़ावा देकर तथा उन पर पूर्ण रूप से अपने आपको केन्द्रित करके ही अपनी प्रतिभा की
मौलिकता को सिद्ध कर सकता है.”
सिरजनहार
में मिथिला के लगभग सभी लोक उत्सवों का जीवंत वर्णन हुआ है. सवर्ण समाज में प्रचलित लोक व्यवहारों के
अतिरिक्त निम्न जाति के समाज में प्रचलित लोक संस्कृति का भी चित्ताकर्षक विवरण
यहाँ देखेने को मिलता है. नट-बक्खो और पमरिया जाति के वैशिष्ट्य को लेखिका ने
गहरी संवेदनशीलता के साथ उकेरा है. नवजात बच्चे को अशीषने और नेग निछावर लेने
पमरिया मिथिला के घरों में आते हैं. ये हिजड़े प्रजाति के होते हैं, मिथिला में
इनका अनादर कोई नहीं करता. नवजात बच्चे को गोद में लेकर ये नाचते-गाते हैं और
खुशी-खुशी भेंट-उपहार लेकर चले जाते हैं. कुछ पमरिये कथा बाँचने में प्रवीण होते
हैं. उपन्यास में ऐसे ही एक वृद्ध छगन पमारिया का कलात्मक सृजन किया गया है, जो
विद्यापति के जन्म पर अपनी टोली के साथ आता है और अपने नृत्य, गायन और
कथा-वाचन से सबका मन मोह लेता है. दरभंगा राज के इतिहास को बताने के लिए लेखिका ने
पमारिया के कथा-वाचन की शैली का सार्थक उपयोग किया है.
कीर्तिलता तत्कालीन इतिहास की प्रामाणिक पुस्तक है. यह पुस्तक विद्यापति की जौनपुर
यात्रा की आँखों देखा हाल है. जौनपुर के समाज, बाजार तथा वेश्याओं आदि का अत्यंत
जीवंत वर्णन कीर्तिलता को अनोखी कृति सिद्ध करता है. उषाकिरण लिखतीं हैं,
“विद्यापति ने सर्वत्र निर्वाचन, चयन एवं सामंजस्य योजना के द्वारा चित्र को पूर्ण
तथा सजीव बनाने का प्रयास किया. वस्तुतः तत्कालीन मुसलमान का, हिन्दू का, सामंत
का, शहर का, युद्ध का, सेना का, सिपाही का इतना जीवंत और यथार्थ विवरण किया कि
पढ़नेवाले दांतों तले ऊँगली दबाते. वस्तुतः उन्होंने अपने कृति में मुसलमानी प्रभाव
के उस विस्तार युग में हिन्दुओं की जीवन दशा का अत्यंत सूक्ष्म निदर्शन किया.”
उत्तर भारत का भक्ति काव्य अपनी सारी प्रगतिशीलता
और समजोन्मुखता के बावजूद स्त्री के प्रति संवेदनशील नहीं था. माया मानकर स्त्री
को भक्ति में अवरोधक-तत्व माना गया. अधिकांश भक्त कवियों ने अपनी कविताओं में स्त्री
की निंदा की है. कबीरदास, तुलसीदास और चैतन्य महाप्रभु में तो स्त्री निंदा की कोई
सीमा ही नहीं है. इस दृष्टि से विद्यापति अनोखे कवि हैं. उनकी पदावली में स्त्री
निंदा का स्वर कहीं नहीं है. स्त्री के प्रति आदर भाव और प्रेम भाव इनकी पदावली की
मूल संवेदना है. इनके भक्ति पद में भी स्त्री की महिमा का ही गान हुआ है. संभव है
यह भाव शाक्त और शैव भक्ति के प्रति उनके लगाव के कारण आया हो. सिरजनहार उपन्यास
में विद्यापति की स्त्री के प्रति इस संवेदनशीलता को रेखांकित किया गया है. तत्कालीन
मिथिला में स्त्री शोषण और उनकी अधोगति के प्रति विद्यापति को चिंतित दिखाकर
लेखिका ने उनके स्त्री-सरोकार को स्पष्ट किया है. विशेषकर विधवा स्त्रियों का
यौन-शोषण मठों और मदिरों में तो होता ही था घर और परिवार की चारदीवारी भी उनके लिए
महफूज नहीं थी. ऐसे कई संकेत-सूत्र विद्यापति के माध्यम से उपन्यास में बिखरे पड़े
हैं. तिरहुत की दो स्त्रियाँ बेला और यामनी अगवा कर बनारस लायी जाती हैं और यहाँ
नर्तकी बनने पर मजबूर होती हैं. इन दोनों के संवाद के माध्यम से लेखिका ने स्त्री
की दारुण दशा का वर्णन किया है और स्त्रियों के प्रति विद्यापति की दृष्टि का
खुलासा किया है. यामनी द्विरागमन से पहले विधवा हो गई थी. “उस समय उसकी आयु ग्यारह
वर्ष थी. धनहीन ब्राह्मण की बेटी होने के कारण छोटी आयु के दूसरे धनहीन के साथ
बाँध दिया गया. वह भी नहीं रहा. यामनी शिवशंकरी के पति की ओर की कुटुम्बनी थी अतः
इनके घर सेवा में जुट गयी. विद्यापति के वृहत्तर परिवार के युवक, प्रौढ़ इस पर
कुदृष्टि डालते. यह यदि प्रतिकार करती, तो इसे ससुराल छोड़ आने की धमकी दी जाती.” बनारस
में यामनी बेला से कहती है, “कवि के मन
में पीड़ा हो तो वह प्रतिकार करेगा कलम से. वह जो प्रतिकार करेगा उसका परिणाम आज
नहीं तो कल मिलेगा बेला.”
सामान्य रूप से मध्यकालीन भक्ति-काव्य में
स्त्री की छवि भले ही उत्साहवर्धक न रही हो किन्तु राजनीति में कई स्त्रियों की
पकड़ अत्यंत मजबूत थी. जहाँआरा बेग़म, घसेटी बेग़म, ताराबाई, अहिल्याबाई, महारानी देवकुंवरि,
तथा वीरांगना जैतकुंवरि आदि के साहसिक कारनामे इतिहास में दर्ज हैं. इनमें से कइयों ने युद्धभूमि में पतियों का साथ दिया तो कुछ ने राज-काज में. सिरजनहार
उपन्यास में इस बात की तस्दीक की गई है कि मिथिला राज का सफल सञ्चालन कई वर्षों तक
शिवसिंह की पत्नी लखिमा देवी ने किया. राजा शिवसिंह के अचानक पलायन कर जाने पर
मिथिला राज्य संकट में पड़ गया था, लेकिन विद्यापति के सहयोग से लखिमा देवी के दक्ष
संचालन में राज्य अपने पाँव पर खड़ा हो गया था. इस ऐतिहासिक सचाई को मिथिला में
स्त्रीशक्ति के संधान के रूप में देखा जाना चाहिए.
सिरजनहार में विद्यापति की शिवभक्ति का अत्यंत विस्तार से वर्णन हुआ है. विद्यापति की
महेशवाणियों और नाचारियों का उपयोग उपन्यास में महाकवि के सामजिक सरोकार को
दर्शाने के लिया किया गया है. इस सरोकार
में बाल विवाह, अनमेल विवाह, पति का पलायन आदि महत्वपूर्ण है. कुछ नाचारियों में
कृषिकर्म की महत्ता की ओर संकेत किया गया है. एक पद में पार्वती शिव को भीख मांगने
की प्रवृत्ति को धिक्कारती हैं और उनसे कृषि कार्य करने को प्रेरित करती हुई कहती
हैं कि तुम अपने त्रिशूल से हल बना लो, बसहा को बैल बनाकर हल चलाओ. जटा के गंगाजल
से सिंचाई करो. कई पदों में मिथिला की
सामजिक विद्रूपता और कटु सचाई से हमरा साक्षात्कार होता है. सम्पूर्ण भक्ति काल
में इस आशय का पद ढूढ़ पाना कदाचित संभव नहीं. ऐसे कुछ पदों में विद्यापति ने
मिथिला की गरीबी और अभावपूर्ण जीवन का मार्मिक चित्रण किया है.
विद्यापति श्रृंगार के रसराज कवि हैं. विलक्षण
राग-बोध के कवि. सिरजनहार में इनके राग-बोध और रसिक मिजाज़ का उद्घाटन
उषाकिरण खान ने अत्यंत बोल्ड रूप में किया है. जब विद्यापति ही इसे टैबू नहीं
मानते तो इनपर उपन्यास लिखने वाले को तो नहीं ही मानना चाहिए. विवाहोपरांत महाकवि
द्वारा अपने श्रृंगारिक पदों का व्यावहारिक उपयोग का विलक्षण दृश्यांकन उपन्यास
में किया गया है. विद्यापति ने राजा शिवसिंह
की पत्नी लखिमा को अपने अधिकांश श्रृंगारिक पदों में अत्यंत स्नेह से याद
किया है. कई लेखकों ने विद्यापति और लखिमा के मधुर सम्बन्ध के कयास भी लगाए हैं. सिरजनहार
की लेखिका भी इस सम्बन्ध से सहमत तो होती हैं किन्तु उपन्यास में इस सम्बन्ध को सायास
स्पष्ट नहीं करती हैं. स्थान-स्थान पर ऐसे क्षण की श्रृष्टि की गई है जो इस अकथ्य
सम्बन्ध के गवाह बन सकते थे, मगर लेखिका ने उसपर एक झीना सा आवरण डाल दिया है. लखिमा विद्यापति के
गाँव की एक अत्यंत सुन्दर युवती है और काव्य रचना में उसकी गहरी अभिरुचि है. विद्यापति ही
शिवसिंह और लखिमा के बीच विवाह का माध्यम बनते हैं. शिवसिंह के अचानक ग़ायब हो जाने
के बाद से अंत तक विद्यापति लखिमा का साथ देते हैं. राजकाज से लेकर जीवन-जगत में
कदम-कदम पर विद्यापति का साथ लखिमा को आत्मविश्वास से भर देता है. इस अव्याख्ये
सम्बन्ध को लेखिका ने अत्यंत कोमलता से रचा है.
मध्यकाल में मुस्लिम अत्याचार एक ऐतिहासिक सचाई
है और इससे मुह नहीं मोड़ा जा सकता है. अन्य कई साक्ष्यों के अतिरिक्त विद्यापति की
‘कीर्तिलता’ इसका प्रमाण है. लेकिन यह अत्याचार सम्प्रदाय केन्द्रित उतना नहीं
जितना सत्ता-संघर्ष जनित रहा है. इसका एक प्रमाण यह है कि भक्तिकालीन हिंदी कविता जो
सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से अत्यंत सजग थी, में साम्प्रदायिक अत्याचार के संकेत
नहीं मिलते हैं, विद्यापति में तो बिलकुल नहीं. विद्यापति की अकूत लोकप्रियता का
कारण उनकी ‘पदावली’ है. उपन्यास का नाम सिरजनहार भी हमें यही संकेतित करता
है. उपन्यास सरीखे कथात्मक अभिव्यक्ति में विवेकपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है कि देश,
काल और परिस्थिति के अनुसार किस प्रसंग को विस्तार दिया जाय और किस सन्दर्भ का
मात्र संकेत-भर. सिरजनहार उपन्यास में विद्यापति के बहाने मुस्लिम अत्याचार को
बार-बार रेखांकित किया गया है. यह रेखांकन कहीं न कहीं समकालीन सामाजिक-राजनीतिक
दबाव का परिचायक हो सकता है. इस प्रसंग को वगैर अधिक विस्तार दिए उपन्यास को
सद्भावनापूर्ण और संवेदनशील बनाया जा सकता था.
सिरजनहार 456 पृष्ठों का वृहत्काय उपन्यास है. उषाकिरण खान इस इतिवृत्तात्मकता से अपने
आपको बचा सकती थीं. कदाचित उपन्यास लिखने के बाद उषाजी सम्पादन कार्य नहीं कर
पायीं हैं. कुछ प्रसंगों को सम्पादित कर उपन्यास को और अधिक रोचक बनाया जा सकता था. किसी
भी तरह के लेखन में प्रसंग-त्याग का बोध रचना को सूक्ष्म, शार्प और
अंतर्दृष्टिपूर्ण बनाता है. यद्यपि बड़े-बड़े लेखकों में इस प्रसंग विस्तार की सीमा
को देखा जा सकता है. यहाँ तक कि गोदान और झूठा-सच जैसे महान उपन्यास में आलोचकों
ने इस कमी को लक्षित किया है.
ऐतिहासिक जीवनी या जीवनीपरक उपन्यास में
किंवदंतियों का विशेष महत्व है. किंवदंतियों को एक सिरे से खारिज कर देना जितनी
बड़ी भूल हो सकती है, उतनी ही बड़ी भूल किंवदंतियों को अभिधा में लेना. विद्यापति के
संदर्भ में उगाना प्रसंग और गंगा प्रसंग विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. इन
किवंदंतियों को सचेत होकर देखेने की जरूरत है. लेखिका ने उक्त दोनो किंवदंतियों को
जस का तस अर्थ ग्रहण किया है. कहा जाता है कि साक्षात महादेव, उगना का रूप धारण कर
विद्यापति के यहाँ चाकरी करते थे. यह किंवदंती इस बात को कहती है कि विद्यापति शिव
के असाधारण भक्त थे. उगना साक्षात महादेव थे, यह किवदंती का अभिधार्थ है. उगना नाम
का बालक शिव का चाकर रहा होगा, उसे शिवभक्ति के पद बहुत पसंद होंगे, वह विद्यापति
से उन पदों को अत्यंत मनोयोग से सुनता होगा, संभव है इन पदों को गाता भी हो, तांडव
नृत्य भी करता हो. यह भी संभव है कि विद्यापति या किसी के सपने में उगना, महादेव
के रूप में प्रकट हुए हों. विद्यापति की अनन्य शिवभक्ति और साथ में नितांत अपरिचित
और अनाम कुल गोत्र के अपढ़ बालक का शिव के प्रति उच्चकोटि के राग ने इस किवदंती को
गढ़ा होगा. लेखिका सिरजनहार में इस किवंदती को नया अर्थ -छवि नहीं दे पाती
हैं. मिथकों और किंवदंतियों का रचनात्मक सौन्दर्य उसके अर्थांतरण और निहितार्थ में छिपा होता है. किंवदंतियों की
प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं,
“किंवदंतियों, लोकमान्यताओं और साहित्य तथा साहित्येतर रचनाओं में झलकने वाले
विचारों और रुझानो, कल्पनाओं और फंतेसियों के सामजिक-आर्थिक आधार की खोज की जाए.
बिना बात के कोई समाज किंवदंतियाँ नहीं रचा करता, जरूरत उन्हें समझने की है.
चुनौती इनमें निहित सामाजिक कल्पना के ताने-बाने को समझने की है. किंवदंती एक
संकेतन व्यवस्था, एक भाषा है. किंवदंती वह अवकाश है, जिसमें समाज अपनी स्मृति भी
संजोता है, कल्पनाएँ भी, जिसमें सामजिक यथार्थ के अनुभवों के स्वर भी गूंजते हैं
और सामूहिक आकांक्षाओं के भी.”
उषाकिरण खान मैथिली और हिंदी की लगभग सभी विधाओं
में रचना करती रहीं है. इन्होंने हिंदी और मैथिली में कई उत्कृष्ट उपन्यासों और
कहानियों की रचना कीं हैं. फागुन के बाद,
सीमान्त कथा, रतनारे नयन, पानी पर लकीर एवं त्रिज्या इनके महत्वपूर्ण हिंदी उपन्यास
हैं. निश्चित रूप से महाकवि के जीवन पर
आधारित इनके उपन्यास सिरजनहार को
पाठकों और आलोचकों से सराहना मिलेगी.
बधाई हो डॉक्टर साहब! ब्लॉगर्स (इसका अनुवाद मैं करता हूँ 'गुगलिया लेखक') की बस्ती में आपका स्वागत! अच्छा और श्रमशील लेख तो आप लिखते ही रहते हैं। इसके लिए असंख्य बधाइयाँ। हिन्दी के आधुनिक विद्वानों की तरह आप भी पूर्णविराम की जगह फुलस्टॉप लगा रहे हैं। ऐसा अनाचार हिन्दी में दो कारणों से शुरू हुआ और जीवन्त है — करीब चार दशक पूर्व बड़े प्रकाशन समूह की पत्रिकाओं ने टाइप फेस का खर्च और श्रम बचाने के लिए इसे शुरू किया; कालान्तर में प्रयत्नलाघव के कुछ सम्पोषकों के यहाँ इसे निरन्तरता मिल गई। किन्तु यह हिन्दी के लिए हानिकारक है। अंग्रेजियत अपनाने के चक्कर में हिन्दी में दो दुराचार और हो रहे हैं। यद्यपि इसका कोई सरोकार आपके लेख से नहीं है, किन्तु आपको बताने और बड़े समूह तक यह सन्देश पहुँचाने के लिए आपको कह रहा हूँ-- अंग्रेजीदाँ लोग 'देरीदा सेज' के लिए हिन्दी में अनूदित वाक्य बोलते/लिखते हैं 'देरीदा कहता है।' अब इसी तर्ज पर हिन्दीवाले कहने लगे हैं 'कबीर कहता है।' यह हिन्दी भाषा का संस्कार नहीं है। हम अपने पूर्वजों के लिए 'अन्य पुरुष' का क्रियापद नहीं अपनाते। अंग्रेजी क्रियापद में तो 'उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष, अन्य पुरुष' का विधान ही नहीं है। अंगेजीवाले तो भाषिक छवियों/प्रयुक्तियों के मामले में दरिद्र हैं, इसलिए ऐसा कह रहे हैं। उनके पास 'कहते हैं' जैसा कोई क्रियापद है ही नहीं। हम उनका अनुसरण क्यों करें?
ReplyDeleteकुछ विद्वान और अधिकांश शोधार्थी इन दिनों भूतकाल के प्रसंगों का उल्लेख वर्तमान काल में करने लगे हैं—'तुलसीदास कहते हैं' या कि 'मतिराम कहते हैं'; जबकि होना चाहिए 'तुलसीदास ने कहा है' या कि 'मतिराम ने कहा है।' हिन्दी को इस उपद्रव से बचने की जरूरत है। इसमें आपके और सब के योगदान की जरूरत है।
धन्यवाद। आगे से आपके सुझाव पर जरूर ध्यान दूंगा।
Deleteसर् प्रणाम 🙏
ReplyDeleteआपके इस लेख से बहुत ही बहुमूल्य जानकारी प्राप्त हुई।
बहुत कुछ सीखने को मिला। बधाई,सर
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