वृद्ध विमर्श : परम्परा और आधुनिकता का द्वंद्व

                
                 


                      उन सब  किताबों को हम काबिले जब्ती समझते हैं
                   कि जिन्हें पढ़कर बेटे बाप को खब्ती समझते हैं
                                                                              -अकबर इलाहाबादी

इतिहास की गति में परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व  स्वाभाविक प्रक्रिया है। परम्परा जनसमूह के अतीत के अनुभव, इतिहास तथा पूर्वजों द्वारा प्राप्त जीवन दर्शन की संचित सम्पदा है, तो आधुनिकता  तर्कशील विवेक सम्मत मनुष्यता के वृहद परिप्रेक्ष्य में समकालीन जीवन मूल्यों का समपुंज। आधुनिकता में वक्त का तकाजा है तो परम्परा में पुरातनता का आग्रह।  सभ्यता की  उन्नति की प्रक्रिया में परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व  और उसके समाहार की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है। यह जानते हुए भी कि परम्परा सभ्यता के इतिहास की जीवन्त सम्पदा है, उस पर भावुक दृष्टि से रीझने की जरूरत नहीं है, बल्कि विवेकशील होकर उसके सम्यक मूल्यांकन की जरूरत है। वृद्ध हमारे समाज के लिए परंपरा के प्रतीक हैं, तो युवा आधुनिकता के।  परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व  सामाजिक प्रक्रिया तो है ही साथ ही व्यक्तिगत प्रक्रिया भी है।
 
हिन्दी और भारतीय भाषा ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य का एक बहुत बड़ा हिस्सा वृद्ध पिता की सत्ता से टकराता, जूझता, लड़ता और कई बार लहुलुहान होता नज़र आता है। जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता से लबरेज नचिकेता अपने वृद्ध पिता से शापित होता है। पिता वाजश्रवा अपने पुत्र नचिकेता को शाप देता है, ‘जा मैं तुझे यम को देता हूँ।’ यह सजा थी प्रश्न और शंका करने की, स्वतंत्र ढंग से सोचने की, बाप से, बुजुर्ग से अर्थात वृद्ध से अलग अपना मत रखने की। नचिकेता जैसे-तैसे यम तक पहुंचता है और आत्मा जीवन तथा इच्छाओं के बारे में प्रश्न करता है। वृद्ध के सत्ता-तंत्र से सीधे-सीधे टकराने वाला कदाचित नचिकेता पहला व्यक्ति है। हिन्दी के कथा सम्राट प्रेमचंद की कई रचनाएँ इसी सत्ता तंत्र से टकराती है। कर्मभूमि का नायक अमरकांत अपने पिता लाला समरकान्त की सत्ता से आहत है। लाला समरकान्त की घाघ दुनियावी समझ प्रत्येक कदम पर अमरकांत की परिवर्तनकामी समझ के आड़े आती है। नतीजतन पिता पुत्र में छत्तीस का आंकड़ा हो जाता है। निर्मला के वकील साहेब वृद्धावस्था में अपनी पुत्री के वय की लड़की निर्मला से शादी करते हैं, फलस्वरूप उसकी दुर्दशा तो होती ही है, पुत्र मंसाराम की मृत्यु भी वकील साहेब की बूढायी  मानसिकता की वजह से हो जाती है। वृद्ध वकील अपने शक्की और झक्की स्वभाव के कारण मंसाराम पर संदेह करते है। उन्हें संदेह है  कि मंसाराम का दैहिक सम्बन्ध निर्मला से है। मंसाराम को जब यह सूचना मिलती है तो वह टूट जाता है। उसे ऐसा मनोवैज्ञानिक झटका लगता है कि वह उस झटके को बर्दाश्त नहीं कर पाता।
इसमें दो राय नहीं कि वृद्धों का भरपूर सम्मान होना चाहिए। जो समाज अपने बुजुर्ग का सम्मान नहीं कर पाता उससे दूषित और घृणित समाज की कल्पना भी दुष्कर है। वृद्धों की चिंताएं, समस्याएँ और सरोकार पर गंभीरता से बात होनी चाहिए। भूमंडलीकरण और एकल परिवार की वजह जिस तरह उनकी दुनिया सिकड़ी-सिमटी है, उस पर विचार किया जाना चाहिए और वृद्धों के लिए विकल्प की तलाश की जानी चाहिए। किन्तु आवश्यकता से अधिक महिमामंडन वृद्धो का भी नहीं किया जाना चाहिए, किसी का भी नहीं किया जाना चाहिए। ‘मी’ का भी नहीं और ‘लार्ड’ का भी नहीं। इस महिमामंडन का दुष्परिणाम यह होता है कि बहुत सारे निर्णय ऐसे लेने पड़ते हैं जो समाज की गति और दिशा को पीछे ले जाते हैं। समाज की प्रगति और विकास में जो कारक आड़े आते हैं, उनमें एक वृद्ध भी हैं। वे प्रत्येक परिवर्तन को संदेह की नज़रों से देखते हैं, और उसका विरोध करते हैं। चूंकि भारतीय परम्परा में वृद्धो की बातों को सम्मान देने का, उनके निर्णय के विरुद्ध नहीं जाने का एक रिवाज रहा है इसलिए उन परिवर्तनों में कई परिवर्तनों को स्थगित करना पड़ता है। संयुक्त परिवार की कई लड़कियाँ तो दूर लड़के भी ‘दादा प्रेम’ के कारण बाहर पढ़ने नहीं जा पाते हैं, बगैर दहेज़ शादी नहीं कर पाते हैं, धार्मिक रुढियों और अंधविश्वासों के मकड़जाल से मुक्त नहीं हो पाते हैं। धन का अपव्यय करने पर विवश होते हैं, प्रेम विवाह तो  कर ही नहीं पाते हैं। यह सब वृद्ध-दृष्टि का फल है। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय समाज का कोढ़ वर्णव्यवस्था अंतरजातीय विवाह से ही समाप्त हो सकती है। किन्तु जिस समाज का वृद्ध और उसका सत्तातंत्र प्रेम-विवाह की छूट नहीं देता हो वह अंतरजातीय विवाह का छूट कैसे दे सकता है?

भारतीय लेखकों में नागार्जुन और विदेशी लेखकों में काफ्का इस वृद्ध-पितृ-तंत्र से सर्वाधिक टकराते हैं। काफ्का की एक अत्यंत प्रसिद्ध रचना है पिता के नाम पत्र  जो उनकी मृत्यु के उपरांत प्रकाशित हुई। कहा जाता है कि काफ्का की अधिकांश रचनाएँ उनकी निजी जिन्दगी है। उन्हीं के शब्दों में ‘मेरी जिन्दगी ही मेरा साहित्य है।’ पिता के नाम पत्र में वे लिखते हैं, ‘मेरे पालन पोषण पर आपका जो भयानक प्रभावशाली तरीका रहा है, उसके प्रभाव ने मुझे एक पल भी चैन से नहीं रहने दिया। गालियों, धमकियों, तानाकशी, जहर बुझी और तिलमिला देनेवाली हंसी और साथ-साथ ताज्जुब की बात है कि जो आत्मदया भी लगता है, मानो बच्चा अगर मर नहीं गया तो सिर्फ आपकी दया के कारण ही। जैसे आप ही ने उसे योग्य जिन्दगी का वरदान दिया हो। जहाँ तक मेरा सवाल है, आप मेरे  लिए सर्वशक्तिमान थे, और मुझे ऐसा लगता था जैसे आप हर समय इस शक्तिमान को बढाने की ही फिराक में लगे रहते हैं। जिधर से भी देखो, आप महाबली, परम विराट और दैत्याकार ही लगते थे। ...बाद में जिन्दगी भर हमसब एकजुट होकर आपके प्रभाव से ही लड़ते रहे। ...लेकिन कैसे क्षुद्र और बचकाने तरीके से... अगर मैं आपसे जान बचाकर घर से भाग गया होता तो मुझे सारा परिवार यहाँ तक कि माँ को भी छोड़ना पड़ता। ...मेरा सारा लेखन सिर्फ़ और सिर्फ़ आपको ही लेकर है।’
नागार्जुन ने भी अपने पिता के ‘चंठ’ और ‘बदचलन’ स्वभाव को निर्द्वंद्व होकर कई जगह पर लिखा है। वे भी अपनी माँ-चाची के प्यार के कारण वापस घर लौट-लौट आते। मैथिली कविता ‘द्वंद्व  में वे अपने पिता की आलोचना करते हुए लिखते हैं,
छला अपने मूर्ख/ हमारा चारि आखर पढ़ा गेला बाप जे
बौआ कमा क’ लगा देत टाल/ बुढ़ारी मे बैसि क’ हम खाएब ...
हीतक संग सतरंज खूब खेलायब/ आहि रे कपार...
मुइलाक बाद जे अनका ऊपर दे भार/ बिन्दुओ भारिजलसं तर्पण ने केओ केलकनि
हमर नहि से हुनकर कर्मक दोष...
नागार्जुन ने वृद्धावस्था मे आकर भी वृद्धों की आलोचना की है। उनकी यह आलोचना अनुभव के खमीर में पकी हुई आलोचना है। उनके अनुसार सड़ी-गली परम्पराएँ, मान्यताएँ आदि वृद्धों के जरिये ही नयी पीढ़ी में इंजेक्ट होती रहती है। ‘भ्रष्टाचार के दानव’  को दूर करने में  उन्हें वृद्धों की नहीं युवाओं की भूमिका महत्वपूर्ण लगती है। इसी शीर्षक से लिखे गए अपने निबंध में उन्होंने लिखा है, “मेरी तो पक्की धारणा है कि भ्रष्टाचार का उन्मूलन भविष्य में हम नहीं कर पाएंगे, जिनकी उम्र 50 पार गई है। यानी मुझे स्पष्ट दीखता है कि भ्रष्टाचार का उन्मूलन नयी पीढी ही करेगी।”
बुजुर्ग शिक्षकों से भी नागार्जुन को कोई ज्यादा उम्मीद नहीं थी। पुराने शिक्षकों के प्रति नई पीढी की श्रद्धा-भक्ति दिन से दिन घटती जा रही है, यह नागार्जुन के लिए चिंता का विषय नहीं है। उन्हीं के शब्दों में, “मैं इसे भावी युग के लिए बहुत बड़ा शुभ मानता हूँ। मेरी यह दृढ़ धारणा है कि युवकों के शिक्षक युवक ही हो सकते हैं। ठस दिमाग वाले सिकुड़े हुए दिलवाले वयस्क (बुजुर्ग) भला नौजवानों को क्या सिखलाएंगे।”
शिक्षण के क्षेत्र में सर्वथा नयी स्थापना करते हुए नागार्जुन ‘रहनुमा’  शीर्षक निबंध में लिखते हैं, “युवक छात्र वयोवृद्ध अध्यापक को अपनी फेनिल श्रद्धा ही दे सकेंगे। प्रीती-पूर्ण आतंरिक श्रद्धा तो वह उसी शिक्षक को देगा तो ऊबड़-खाबड़ पौधों में आगे-आगे चल सकेगा, जो शिष्य का गुरु भी होगा और सखा भी होगा।” जिस समय नागार्जुन गुरु को सखावत होने की बात कह रहे थे उस समय बड़े-बड़े शिक्षाविद भी यह कहने में संकोच करते थे। आज तो शिक्षण की महत्वपूर्ण शर्त है यह सखावत भाव।  बुजुर्ग और वृद्ध शिक्षकों एवं अभिभावकों को संबोधित करते हुए सुप्रसिद्ध रचनाकार खलील जिब्रान  कहते हैं-

तुम उन्हें अपना अनुराग दे सकते हो, विचार नहीं
क्योंकि उनके पास उनके अपने विचार हैं
तुम उनकी काया को आवास दे सकते हो आत्मा को नहीं
क्योंकि उनकी आत्माएँ भविष्य के भवन में वास करती हैं
जहाँ तुम पहुँच नहीं सकते, स्वप्न में भी नहीं
तुम उनकी तरह होने का प्रयास कर सकते हो
किन्तु उनको अपने जैसा बनाने का प्रयत्न मत करना
क्योंकि जीवन पीछे नहीं लौटता
न ही अतीत के साथ ठहरता है।”

नागार्जुन वृद्धों  की सख्त आलोचना इसलिए करते हैं कि वे पुरानी राहों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते, अतीत-मोह से ग्रस्त रहते हैं। नागार्जुन के शब्दों में “कोई फिसलनवाली पुरानी राहों का मोह बुजुर्ग को भले हो, नवयुवक आप ही अपनी राह बना लेने की क्षमता रखते हैं। पुरातन की फिसलन, बीहड़पन, विषमता आदि हटाने में जितना वक्त बर्बाद होगा उतने में ही वे दो गुनी अधिक नई राहे नहीं तय कर लेंगे?”

पुरानी राहों को पकड़े रहनेवाले ‘घुच्ची आँखों’ की प्रताड़ना को काफ्का ने काफी नजदीक से झेला था। उनकी एक प्रसिद्ध कहानी है- फैसला। काफ्का फैलिस से सगाई कर लेने के बाद जब शादी की आज्ञा लेने जाता है तो पिता का जबाव उनकी घिनौनी मनोवृत्ति का परिचय देता है, “जाओ फ़ौरन करो। तुम बड़े  हो गए हो, यहीं इसी शहर में पड़े हो- और कुछ काम धाम करने की बात सोचना तो दूर सीधे जाकर ब्याह रचाएंगे...जो भी कानी कुब्जी मिल जाए, उसी के गले में वरमाला डालेंगे, करो करो... और अगर डर लगता हो तो चलो मैं चलता हूँ तुम्हारे साथ...क्योंकि उस लड़की ने तुम्हारे सामने घाघरा उठा दिया न- देखो-देखा, यों घाघरा उठा दिया –इसलिए अब उससे शादी करेंगे...बेहूदी, बेशर्म, कुतिया...बदमाश, पापी। दूर हो जाओ मेरी आँखों के सामने से... डूब मर...मैं कहता हूँ जा डूब मर... मैं कहता हूँ-जा डूब मर...”
ये हैं एक घाघ वृद्ध पिता के विचार अपने पुत्र के लिए, उस लड़की के लिए जो उसके पुत्र की प्रेमिका है और उसकी बहू होने वाली है। ऐसा नहीं है कि काफ्का जर्मन भाषा के लेखक हैं तो वहाँ के वृद्ध भारतीय वृद्धों की अपेक्षा कुछ अधिक शातिर और अधिक घाघ होते हों। अपने वृद्धों को तलाशना तो तो बस, ट्राम या लोकल ट्रेन से नियमित यात्रा करनेवाली लड़कियों और महिलाओं से लिए गए साक्षात्कारों में तलाशना होगा।  कमोवेश आज भी ग्रामीण क्षेत्रों  के वृद्धों को  दूसरी या तीसरी शादी करते देखा जा सकता है।  और वह भी किसी नाबालिग लड़की से।
इन वृद्धों की दमित और इन अंतहीन यौन-आकांक्षाओं की चक्की में पिसती औरतों की कराह सुननी हो तो नागार्जुन की मैथिली कविता ‘बूढ़वर’  और ‘विलाप’ का पुनर्पाठ करना चाहिए। ‘बूढ़वर’ जिसके वर (दुल्हा) इतने वृद्ध हैं कि
खड़े होते तो लगते धनुष जैसा
क्यों लगते मनुष्य जैसा
सपाट माथा लगता कछुआ के पीठ जैसा
लगते हैं असर्द्ध जैसा, दीठ जैसा
         कल्पना की जा सकती है कि ऐसे वृद्ध से शादी कर किसी नवयुवती पर क्या गुजरती होगी –
कोढ़ है धू धू जलता
खाली कोर, आँखों में आंसू भरा
नहीं देखा किसी का ऐसा कर्म जला
इन वृद्धों की यौन-पिपासा ने न जाने कितनी लड़कियों के कर्म को जला कर राख कर दिया। उनके हसीं सपनों को तोड़-मरोड़ दिया।

                     यह तो वृद्धों का एक पक्ष है। लेकिन वृद्धों की इन मानसिकताओं को संवेदनशीलता के साथ समझने की भी आवश्यकता है। वृद्धों के इस आचरण का मनोवैज्ञानिक कारण भी है और यह मनोवैज्ञानिक कारण है- सामाजिक, पारिवारिक और दैहिक सत्ता का हस्तांतरण। आज तक उन्हें पदानुक्रम में श्रेष्ठ की हैसियत प्राप्त थी। उन्हीं का आदेश सर्वोपरि था। घर के अन्दर सास का साम्राज्य और घर के बाहर पिता का। लेकिन बहू के प्रवेश से सास के अधिकारों में हिस्सेदारी की मांग बढ़ी। धीरे-धीरे परिवार में बहू की प्रमुखता ने घर के अन्दर सत्ता का हस्तांतरण किया उसी तरह घर के बाहर सभी तरह के निर्णयों में पुत्र के हस्तक्षेप से पिता की सत्ता में सेंध लगी। शारीरिक रूप से भी कल तक जो व्यक्ति ‘पूर्णता’ में था, आज निरूपाय-सा है। मन तो कुलांचे मारता है किन्तु देह मन का साथ नहीं दे पाता। अब तक देह की क्षमता का रूपांतरण भी बहू और बेटे में हो चुका होता है। तात्पर्य यह कि सारा खेल सभी तरह की सत्ता का हस्तांतरण का है, जो वृद्धों को मनोवैज्ञानिक रूप से कटु, तिक्त और कई बार मनोरोगी तक बना डालता है। नए-नए परिवर्तन, नयी उपलब्धियाँ और आविष्कार भी उन्हें कहीं न कहीं ललचाते हैं। इन उपलब्धियों का उपयोग न कर पाने का अज्ञात क्षोभ भी उन्हें इसका विरोधी बना डालता है। वृद्ध अपने पुराने मूल्य और धारणाओं से बंधे होने के कारण नए मूल्य और नई बयार को नापंसद करते हैं। पुराने मूल्य में जीने की आदत हो जाने के कारण वे नये मूल्य और नई जीवन शैली से सामजस्य नहीं बैठा पाते। इसलिए वे हर तरह के नए बदलाव को वे अपसंस्कृति का हिस्सा मानते हैं।
      साहित्य और विमर्श का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि यह उपेक्षितों को वाणी देने का काम करता है। वृद्धों के साथ एक विसंगति यह है साहित्य और समाज में कहीं यह निर्णायक भूमिका में है तो कहीं उपेक्षित की भूमिका में। सामाजिक और आर्थिक संरचना में परिवर्तन के साथ पारिवारिक रिश्तों की भूमिकाओं में भी बदलाव होता है।  परिवर्तन की इन बारीकियों को समझने के लिए साहित्य एक बेहतरीन माध्यम है।  प्रेमचंद की कहानी ‘बूढी काकी’ की पात्र रूपा वृद्ध  बूढी काकी के प्रति अपने उपेक्षित व्यवहार के लिए ग्लानि महसूस करती है। किंतु स्वतन्त्रता के बाद के सामाजिक और आर्थिक बदलावों के बाद ‘चीफ की दावत’ कहानी  का शामनाथ अपनी वृद्ध माँ के प्रति अपने उपेक्षित व्यवहार के लिए किसी तरह की ग्लानि महसूस नहीं करता। वृद्धों के प्रति यह उपेक्षित रवैया समय के साथ बढ़ा ही है। मूल्यों के इस छीजते दौर में ग्लानि, पश्चाताप और सेवा भाव जैसे मूल्यों का लोप होता जा रहा है। चित्रा मुदगल का गिलिगडु उपन्यास वृद्ध विमर्श पर उम्दा उपन्यास है। वृद्धावस्था की वेदना और उसकी समस्याओं को इस उपन्यास में अत्यंत व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है।
    समकालीन दौर में मूल्यहीनता तो बढ़ा ही है, साथ ही तनाव के बाहुपाश ने भी हम सब को  जकड़ रखा है। सूचना और तकनीक के तमाम विकल्प और स्रोतों के बावजूद हम कहीं न कहीं तनाव से घिरे हुए हैं।  ऐसे में स्वाभाविक है कि निजी सेवाओं में कार्यरत युवा भी तनावमुक्त नहीं रह सकता। वह घर आकर शान्ति की तलाश में रहता है और वृद्ध माता-पिता हैं कि अपनी जिज्ञासा पूर्ति के लिए शाम को बेटे की राह देखते रहते हैं। कई बार माता-पिता की जिज्ञासाओं को पुत्र अपने जीवन में दखल के रूप में लेता है। यहीं से विचारों में मतभेद शुरू हो जाता है। युवा अपने विचार पुरानी पीढी को समझाना नहीं चाहता और पुरानी पीढी युवा को अपने विचार समझाना तो चाहती है, किन्तु युवा समझना नहीं चाहता। उसके पास समझने के लिए न ही समय है और न ही धैर्य। यहाँ पर दोनों के विचार आपस में नहीं जुड़ पाते, जिसके कारण मतभेद के साथ मनभेद भी शुरू हो जाता है। दोनों पीढी के परिवेश और मूल्य भिन्न होते हैं, पुरानी पीढ़ी के पास अपने अनुभव  से कमाए हुए  मूल्य होते हैं, और नई पीढ़ी के पास उनके अपने परिवेश के नए मूल्य। वृद्ध अपने पुराने मूल्य पर नई पीढ़ी को चलाना चाहता है और  नई पीढ़ी अपने नए मूल्य से अपनी जिंदगी जीना चाहती है। समय परिवर्तनशील है, इसलिए दोनों पीढी के  परिवेश, विचार और मूल्य एक नहीं हो सकते हैं। इसलिए दोनों के लिए यह अति आवश्यक है कि एक दूसरे के मूल्य और  विचारों को समझें ताकि टकराहट पैदा न हो सके।
इन मनोवैज्ञानिक ग्रंथियों को समझकर उनके प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है, क्योंकि वृद्ध समाज की थाती हैं। इन्हीं वृद्धों की बदौलत युवाओं का आचरण अनुशासित हो पाता है, क्योंकि वृद्ध कई बार नयी पीढी अराजक होने से अपने को बचा लेती है। हम अपनी संस्कृति और परम्पराओं के गतिशील और उर्जस्वित छवियों से रूबरू हो पाते हैं। इसलिए इन वृद्धों को ससम्मान बचाकर रखना नयी पीढी की जिम्मेदारी है। वृद्धविहीन समाज निश्चित रूप से असंतुलित समाज होगा। निशा माथुर की कविता इस दृष्टि से अच्छी कविता है-
चढ़ता दरिया बनकर और उफन के
गर पाना चाहे मंजिल कोई
देकर मशविरा तहजीब का,
एक तर्जुबा बन जाते हैं हमारे बुजुर्ग
जब ये एहतराम होता है कि
कोई हमारा साथी, रहनुमा भी नहीं
खुशियों की जिन्दगी में तब फलसफे बन जाते हैं
हमारे बुजुर्ग।    
 

Comments

  1. थोड़ा कठिन है, लेकिन अच्छा लेख है। जिन्हें संदर्भ की जानकारी है उन्हें और अच्छा लगेगा। नचिकेता से पहले का भी संदर्भ लिया जा सकता है।
    श्यामा नन्द झा।

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    1. गंभीरतापूर्वक पढ़ने और विचार देने के लिएबहुत बहुत धन्यवाद।

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  2. अछूते विषय पर गंभीरता पूर्वक लिखकर आपने शोध की संभावनाओं का विस्तार किया है। धन्यवाद ।

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  3. एक अच्छे शोध निबंध के सभी बिन्दुओ का समावेश इसमें हुआ है।इसमें आधुनिकता को भी स्पर्श किया गया है।आधुनिकता की रो में यदि बुझुर्गो के हाथों में स्मार्टफोन होते हुए भी इसका पूर्ण उपयोग न कर पाने की असमर्थता की व्यथा का भी उल्लेख होने पर ही आज के वृद्ध विमर्श की पूर्णता देखा जा सकता है।आज के बुजुर्गो को इस कोविड महामारी में घर मे रहने की विवशता में सूचना प्रौद्योगिकी व स्मार्टफोन एक वरदान की भांति सिद्ध होता है।परंतु कोई स्मार्टफोन के विभिन्न प्रयोग/उपयोग बझर्गो को सीखने सीखाने कि उपयुक्त स्थानीय व्यवस्था उपलब्ध करवाने की जरूरत का भी उल्लेख होता तो उचित रहता।उनके लिए उपयुक्त ऑनलाइन सीखने की कोई ताज़बीजं भी बड़ी उम्र के दृष्टिगत सुझाते तो अच्छा रहता।

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  4. बहुत बढ़िया लिखा है सर आपने। मैं वृद्धविमर्श पर ही शोध कर रही हूँ। यदि मैं आपसे बात कर पाती तो मेरा सौभाग्य होता।

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