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रचना से संवाद : जिन लाहौर नहीं वेख्या नाटक पर रोक

     मुस्लिम यूनिवर्सिटी में असगर वज़ाहत के प्रसिद्ध नाटक 'जिन लाहौर नहीं वेख्या वो जन्मयाई नई' पर एन वक्त प्रस्तुति से महज़ कुछ घंटे पहले प्रतिबंध अनावश्यक राजनीतिक दबाव का नतीज़ा है। अगर पोस्टर में गड़बड़ी थी, तो उसे हटा दिया जाता। पोस्टर बनाने वालों को नोटिस दे दी जाती। दूसरा पोस्टर बना लिया जाता। लेकिन नाटक का मंचित न होना आमंत्रित दर्शकों के अपमान के साथ एक प्रसिद्ध हिंदी नाटक और एक  मशहूर हिंदी लेखक का अपमान है। इन विकास विरोधी लोगों का काम ही रह गया है कभी संगीत के कार्यक्रम को रोकना तो कभी नाटक को। कभी खेल को रोकना तो कभी किसी किताब को। इनके कान जैसा संगीत सुनना चाहते हैं, वैसा ही संगीत पूरे देश में बजना चाहिए- 'जय श्री राम धुन' धुन नहीं निनाद। जैसी किताब  वे पढ़ना, पढ़ना नहीं पढ़ाना चाहते हैं वैसी ही किताब पूरे देश के विद्यार्थी पढ़ें। जिस मास्टर से वे पूरे देश के विद्यार्थियों को पढ़ाना चाहते हैं उसी मास्टर से सभी पढ़ें। सुप्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा से नहीं , राजीव मल्होत्रा (जे एन यू) से पढ़ें। केंद्रीय विश्विद्यालय जैसे स्वायत्त संस्थानों में इनका बढ़ता हस...

वर्तमान से संवाद - हिज़ड़े : भारत माँ के ये अनाथ बच्चे

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                                “हम सब असल में एक सामंती मानसिकता या कहें कि लिंगधारी मानसिकता वाले समाज में रह रहे हैं. हमारे भीतर लिंग को लेकर गहरे तक गर्व का भाव है. यही कारण है कि मानसिक रूप से ग्रस्त बच्चों को तो हम 70-70 साल तक करोड़ों रूपए खर्च कर पालते हैं, लेकिन लिंग अस्पष्टता वाले बच्चे को हम तुरंत परिवार से बाहर कर देते हैं| हमारा पौरुष और हमारी मर्दानगी अच्छे काम के बजाय जब तक मूंछों से तय होगी तब तक इस मानसिकता से छुटकारा संभव नहीं|”                           तीसरी ताली- प्रदीप सौरभ  दरअसल, जिस समाज और संस्कृति में पुत्र ही भवसागर का एकमात्र खेवैया हो और पुत्र हेतु ही पत्नी की आवश्यकता हो 'पुत्रः प्रयोजनो भार्या’ उस समाज में लिंग वंचित व्यक्ति की पीड़ा को थाह पाना संभव नहीं| दो लिंगी समाज के अभ्यस्त प्राणी तीसरे लिंग के बारे में सोच ही नहीं सकते हैं|  इस समाज को तो बस मुक्तिदाता लिंग चाहिए और इस मुक्तिदाता पुरुष ...

रचना से संवाद : सिरजनहार मैथिल कोकिल विद्यापति

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     उषाकिरण खान का उपन्यास सिरजनहार (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन) महाकवि विद्यापति के जीवन-वृत्त, जीवन-संघर्ष और जीवन-द्वन्द की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है. विद्यापति का सुदीर्घ जीवन विविध भावों, विचारों, और व्यव्स्थाओं का ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ है. अन्यतम और अन्तरंग श्रृंगार से लेकर पराकाष्ठा भक्ति, शास्त्रीय और पांडित्यपूर्ण भाषा संस्कृत से लेकर लोक भाषा मैथिली, राजदरबार की समृद्धशाली ऐश्वर्य से लेकर गांव के खेत-खलिहान और युद्ध में तलवारबाजी से लेकर काव्य-रचना तक विद्यापति की समवेत आवाजाही उनके व्यक्तित्व को सर्वथा अलग और विविधरंगी बनता है. और यही वजह है कि इनका व्यक्तित्व और कृतित्व लेखकों को आकर्षित करता रहा है. उषाकिरण ने इस ऐतिहासिक जीवनीपरक उपन्यास सिरजनहार में विद्यापति को समग्रता में खोजने का प्रयास किया है. इस खोजने की प्रक्रिया में निश्चित रूप से लेखिका ने विद्यापति की कविताओं को केंद्र में रखा है, लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि उनकी इतिहास-चेतना उन कविताओं में गुम नहीं हो पायी है.                      ...

संस्कृति विमर्श: आएं, वध का उत्सव मनाएं

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