रचना से संवाद : जिन लाहौर नहीं वेख्या नाटक पर रोक
मुस्लिम यूनिवर्सिटी में असगर वज़ाहत के प्रसिद्ध नाटक 'जिन लाहौर नहीं वेख्या वो जन्मयाई नई' पर एन वक्त प्रस्तुति से महज़ कुछ घंटे पहले प्रतिबंध अनावश्यक राजनीतिक दबाव का नतीज़ा है। अगर पोस्टर में गड़बड़ी थी, तो उसे हटा दिया जाता। पोस्टर बनाने वालों को नोटिस दे दी जाती। दूसरा पोस्टर बना लिया जाता। लेकिन नाटक का मंचित न होना आमंत्रित दर्शकों के अपमान के साथ एक प्रसिद्ध हिंदी नाटक और एक मशहूर हिंदी लेखक का अपमान है। इन विकास विरोधी लोगों का काम ही रह गया है कभी संगीत के कार्यक्रम को रोकना तो कभी नाटक को। कभी खेल को रोकना तो कभी किसी किताब को। इनके कान जैसा संगीत सुनना चाहते हैं, वैसा ही संगीत पूरे देश में बजना चाहिए- 'जय श्री राम धुन' धुन नहीं निनाद। जैसी किताब वे पढ़ना, पढ़ना नहीं पढ़ाना चाहते हैं वैसी ही किताब पूरे देश के विद्यार्थी पढ़ें। जिस मास्टर से वे पूरे देश के विद्यार्थियों को पढ़ाना चाहते हैं उसी मास्टर से सभी पढ़ें। सुप्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा से नहीं , राजीव मल्होत्रा (जे एन यू) से पढ़ें। केंद्रीय विश्विद्यालय जैसे स्वायत्त संस्थानों में इनका बढ़ता हस्तेक्षेप चिंतनीय है। 'जिन लाहौर' विभाजन की त्रासदी को विलक्षण लहज़े में बयाँ करने वाला और उस समय की दूषित राजनीति को उद्घाटित करने वाला हिंदी का विरल नाटक है। यह नाटक हमें बताता है कि किस तरह इंसानियत और प्यार भाषा की दीवार को भी पार कर जाता है। इस प्रसंग में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक बेहतरीन कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं-
देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।
देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।
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