संस्कृति विमर्श: आएं, वध का उत्सव मनाएं
एक बार फिर अपने समय का एक
विलक्षण विद्वान् धू-धू कर जलाया जाएगा। अपने समय का सबसे बड़ा नीतिज्ञ बच्चों की करतल ध्वनि और
बड़ों के ठहाकों के बीच भस्म होगा। अपने समय का सबसे बड़ा शिव-भक्त घृणा की अग्नि में
स्वाहा होगा। अपने समय का पराक्रमी और
महान ऐश्वर्यशाली देखते-देखते पटाखों के धमाके के साथ मिटटी में मिल जाएगा। इस विद्वान्, नीतिज्ञ, पराक्रमी और शिव-भक्त का नाम रावण है. उसका अपराध यही था कि एक सच्चा भाई बनकर अपनी
बहन चंद्रनखा (जिसका नाम बिगाड़कर सूर्पनखा कर दिया गया था) के अपमान का बदला लेने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी। वह असुर था, राक्षस था, लेकिन
स्त्री का सम्मान करना जानता था, इसीलिए
उसने सीता का अपहरण तो किया लेकिन कभी अपमानित नहीं किया। विवाह की इच्छा तो जाहिर की किन्तु जबरदस्ती का कोई
प्रयास नहीं किया. राम और लक्षण सुर थे लेकिन प्रेम की या देह की याचना के बदले एक
स्त्री का नाक कान काट लिया. यह फर्क है सुर और असुर के बीच स्त्री-दृष्टि का। विजयादशमी में जिस तरह जगह-जगह अत्यंत
क्रूरता पूर्वक रावण-वध का आयोजन अत्यंत उत्साहपूर्वक होता है, वह मिथ कथा कम, हमारी अपनी संवेदनहीनता का परिचायक अधिक प्रतीत होती है। राम ने तो रावण का
वध एक बार किया, किन्तु यह समाज
बार-बार रावण का
वध कर अपने को गौरवान्वित महसूस करता है। किन्तु क्या सचमुच रावण उतना अधम था? इतना बड़ा एक भक्त, विद्वान, नीतिज्ञ, पराक्रमी और
ऐश्वर्यशाली व्यक्ति
क्या इतना अधम हो सकता है कि उसका वध पूरे आयोजन के साथ बार-बार किया जाय?
अधिकांश
रामकथाओं में यह वर्णित है कि राम ने युद्ध से पहले रामेश्वरम में शिव की पूजा की थी। इस अनुष्ठानिक पूजा का
संकल्प था रावण
को पराजित करना और सीता को मुक्त करना। इस पूजा में पुरोहित बने रावण। पुरोहित ही अपने यजमान
के संकल्प पूर्ति का आशीर्वाद देता है. राम संकल्प करते हैं रावण को पराजित करने का, रावण के वध का। और रावण पुरोहित के रूप में राम के संकल्प को पूरा होने का आशीर्वाद
देते हैं। मनसा-वाचा-कर्मणा
से रावण के
पराजित होने और रावण के वध का आशीर्वाद स्वयं रावण देते हैं--‘अभिष्ठार्थयः सिद्धयः सन्तु’।
ऐसा
पौरोहित्य-कर्म संसार में शायद ही किसी पुरोहित ने निभाया हो। अपने कर्म के प्रति यह दायित्व-बोध विरलतम है। ध्यान देने की बात है कि रावण पेशे से
पुरोहित नहीं थे। चूंकि राम को वहाँ कोई पुरोहित नहीं मिला इसलिए वे रावण से निवेदन करते है। रावण इस निवेदन को इसका
परिणाम जानते
हुए भी स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं राम-रावण युद्ध के दौरान लंका के प्रख्यात
आयुर्वेदाचार्य सुषेण द्वारा अनुमति मांगे जाने पर रावण ने घायल लक्ष्मण की चिकित्सा करने की अनुमति
सहर्ष प्रदान की थी। यह एक असुर की नैतिकता है, और
है एक असुर का कर्तव्य-बोध। सगर्व हर्षौल्लास से रावण-वध देखते हुए रावण की यह छवि क्या हमारे
मानस को कौंचती नहीं हैं?
यह मात्र संयोग नहीं है कि
भारतीय साहित्य के गंभीर अध्येता ए के रामानुजन साहब भी रावण को ‘ट्रैजिक’ पात्र मानते हैं। उन्होंने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘थ्री हंड्रेड रामायन्स, फाइव एक्जाम्पल एंड थ्री थौट्स आफ ट्रांसलेंशन’
में लिखते हैं कि ‘‘जैनों की कथा सुनकर रावण के लिए हमारे मन में
प्रशंसा और
दया का भाव जगता है।’’ थाई
रामायण ‘रामकीर्ति’ में वर्णित रावण के बारे
में वे लिखते हैं, ‘‘रामकीर्ति में रावण की विदग्धता और विद्वता की
प्रशंसा की
गई है। उनके द्वारा सीता का हरण प्रेमवश किया गया है। रावण द्वारा एक स्त्री के लिए अपने
परिवार, राज और खुद अपने जीवन का
बलिदान थाई लोगों को मार्मिक
लगता है। बाल्मीकि
के चरित्रों से अलग थाई चरित्र अच्छे और बुरे का मानवीय मिश्रण है।’’ सीता के प्रति रावण के इस ‘प्रेम के पीर’ का संकेत स्वयं तुलसीदास ने भी अत्यंत प्रक्षिप्त रूप से कर ही दिया है। लंकाकांड में राम द्वारा बार-बार सिर में
बाण मारने से भी रावण नहीं मरता, तब त्रिजटा चिंतित सीता से
कहती है--
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरई सुंरारी।।
प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहिके हृदय बसत बैदेही ।।
एहिके हृदय बस जानकी। जानकी उर मम बास है ।।
(राम रावण के ह्रदय में इसलिए तीर नहीं मारते हैं कि उन्हें पता है कि रावण
के हृदय में सीता बसती है)
रावण की सबसे बड़ी गलती यह थी कि वह सीता के आकर्षण और लगाव में था। और उसी लगाव में उसने अपना सबकुछ गंवा दिया। भारतीय भाषाओं में लगभग 300 रमायण हैं
बावजूद वह विवाह की याचना ही करता रहा, कभी स्पर्श तक नहीं किया। अतिशयोक्ति न हो तो कहा जा सकता है कि एक
प्रेमी के रूप में रावण ने सीता के लिए अपना 'सर्वस्व स्वाहा' कर लिया और एक पति के
रूप में राम ने सीता का ‘सर्वस्व स्वाहा’
कर दिया। यह फर्क है एक प्रेमी और पति
में। यहाँ रावण
का पराभव उदास कर जाता है। राजेश्वर वशिष्ठ की एक कविता में सीता कहतीं हैं-
‘आज इस दशहरे की रात
मैं उदास हूँ उस रावण के लिए
जिसकी मर्यादा
किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से कम नहीं थी.’
क्योंकि
‘हाँ, रावण ने उठाया था मुझे गोद में
हाँ, रावण ने
किया था मुझसे प्रणय निवेदन
वह राजा था चाहता तो बलात
ले जाता अपने रनिवास में
पर रावण पुरुष था
उसने मेरे स्त्रीत्व का अपमान कभी नहीं किया
भले ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम न कहलाए इतिहास में।’
आज इस दशहरे की रात
मैं उदास हूँ स्त्री अस्मिता के लिए
उसकी शाश्वत प्रतीक जानकी के लिए
मैंने हर वर्ष, महसूस
किया है
उस जलते हुए रावण का दुःख
जो सामने खड़ी भीड़ से,
नतमस्तक होकर
बार बार पूछ रहा था
तुम में से कोई राम है क्या?”
बंगला की कवयित्री स्वाति बोल ‘असुर रुपी देवोता’ नाम की अपनी एक कविता में लिखती हैं कि रावण असुर होकर भी सुर था। यह सुर-असुर का मामला भी इतना सीधा और सपाट नहीं है| मिथकों से हमें पता चलता है कि सुर-असुर के बीच युद्ध होते रहते। असुर अत्यंत पराक्रमी थे| असुरों से जीतना उन्हें मुश्किल में डालता। इसलिए वे छल-छद्म का सहारा लेते| महिसासुर की हत्या में भी इस तरह की कथाएँ प्रकाश में आयीं हैं। इतिहासकारों ने इसे आर्य-अनार्य के द्वंद्व के रूप में देखा है। आर्य ने अनार्यों की एक प्रजाति को निम्न सिद्ध करने के लिए असुर का विद्रूप गढ़ा। वैसे सभी जानते हैं कि असुर एक आदिवासी प्रजाति है, जो आजकल भी अस्तित्व में है। ज्योतिबा फुले ने अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ में असुर समुदाय की शक्ति, सामर्थ्य और उनके प्रति किए गए शोषण और छल को अत्यंत बारीकी से उद्घाटित किया है। हाल फिलहाल में प्रकाशित रणेंन्द्र के उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ का एक पात्र रुमझुम असुर कहता है, ‘‘हम वैदिक काल के सप्तसिुधु इलाके से लगातार पीछे हटते हुए आजमगढ़, शाहाबाद, आरा, गया, राजगीर होते हुए इस वन प्रांतर, कीकट, पौंड्रिक, कोकराहा या चुटिया नागपुर पहुंचे। हजारों सालों में कितने इंद्रों, कितने पांडवों, कितने सिंगबोगा ने कितनी कितनी बार हमारा विनाश किया, कितने गढ़ ध्वस्त किए, उसकी काई गणना नहीं, किसी इतिहास में दर्ज नहीं है। केवल लोककथाओं और मिथकों में हम जिंदा हैं।’’ (पृष्ठ 43)
मनुष्य अच्छाई और बुराई का संयुक्त रूप होता है। अच्छाई या बुराई का पुतला भर नहीं। अधिकांश रामकथा के अनुसार राम मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं तो स्वाभाविक है कि उनमें भी कमियाँ होंगी। रावण खलनायक है, लेकिन उसमें भी अच्छाइयां होंगी। रचनाकार का काम है स्वीकृत महात्म्य के बरक्स उस चरित्र की सीमाओं को प्रकाश में लाना तो दूसरी तरफ़ स्थापित खलनायकत्व में मानवीय संवेदनशीलता की पहचान करना। रचनाकार चरित्र को मात्र उजले या काले में न देखकर चरित्र के बीच से, ‘बिटवीन द लाइन्स से’ भूरे-धूसर रंग की शिनाख्त करते हैं। बाल्मीकि, कम्ब, भवभूति और कालिदास आदि जिन्होंने राम के चरित्र को भी प्रश्नांकित किया है और रावण के उदार व्यक्तित्व को नज़रअंदाज भी नहीं किया है के अतिरिक्त तुलसीदास से पूर्व 1575 ई में कवयित्री चन्द्रावती ने बंगला भाषा में रामविहीन रामायण की रचना की। यह मात्र संयोग नहीं है कि मौखिक परंपरा की इस रामायण को अज्ञातवास दे दिया गया था| इस रामायण में राम को एक कमजोर पति, कमजोर राजा और कमजोर भाई के रूप में देखा गया जो अपने अनुज को इच्छा के विरुद्ध कार्य करने को बाध्य करता है। एक कमजोर पिता जो अपने पुत्रों की जिम्मेदारी नहीं उठाता। वह ईर्ष्यालु पति भी है जो सीता को अंशतः रावण के प्रति अपनी ईर्ष्या के कारण निष्काषित कर देता है। ईर्ष्यालु रावण का वर्णन चन्द्रावती रामायण में इस प्रकार किया गया है-“उन्मत्तो पागोल होइलेन राम/ रक्तजबा आंकोबी रामेर गो, शिरे रक्त उठे/निशिकाय अग्निश्वास गो, ब्रह्मरंध्र फूटो।”
आधुनिक काल में
माइकल मधुसूदन का मेघनाद, नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’ भारत भूषण रचित ‘अग्निलीक’, जगदीश
चतुर्वेदी का ‘शम्बूक’ नागार्जुन का खंडकाव्य ‘सीता की माँ’ आदि ऐसी अनेक रचनाएँ
हैं जो राम को कठघरे में रखते हुए रावण के व्यक्तित्व की संवेदनशीलता को रेखांकित
करते हैं।
पंडित मदनमोहन शर्मा साही द्वारा तीन खण्डों में
रचित उपन्यास ‘लंकेश्वर’ तथा आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा रचित
बहुचर्चित उपन्यास ‘वयं रक्षामः’
के अनुसार रावण शिव का परम भक्त था, यम और सूर्य तक को अपना प्रताप झेलने के लिए विवश कर देने वाला
प्रकांड विद्वान्, सभी जातियों
को समान मानते हुए भेदभाव रहित समाज की स्थापना करने वाला था। इन रचनाओं के अनुसार सुरों के ख़िलाफ़ असुरों की ओर से
थे रावण। रावण
ने आर्यों की भोग-विलास वाली ‘यक्ष’
संस्कृति से अलग सभी की रक्षा करने के
लिए ‘रक्ष’ संस्कृति की स्थापना की।
यही ‘रक्ष’ समाज
के लोग आगे चलकर राक्षस कहलाए। घोर दक्षिणपंथी साहित्यकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री भी अपने अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय उपन्यास वयं रक्षामः में सुर और असुर की संस्कृति का फर्क बतलाते हुए लिखते हैं कि सुरों का नारा था " 'वयं यक्षामः' अर्थात हम भोगेंगे|" दूसरी तरफ असुरों का नारा था " वयं रक्षामः' अर्थात हम रक्षा करेंगे| जब रावण अपने 'खोये हुए' लंका के लिए कुबेर पर चढ़ाई करता है तो कुबेर रावण को लंका में रहने का न्योता देता है और 'वयं यक्षामः' यानी खाने-पीनी और मौज से जीवन व्यतीत करने का आग्रह करता है| इस पर रावण की टिप्पणी गौरतलब है, "हम आपसे सहमत नहीं हैं| खाना-पीना मौज करना जीवन का ध्रुव ध्येय नहीं| हम प्रजापति के वंशधर हैं| एक ही पिता कश्यप से भिन्न-भिन्न माताओं (दिति और अदिति) दैत्य, दानव, नाग, असुर और आदित्यों की उत्पत्ति हुई है| हम दायाद बांधव हैं| मैं नहीं चाहता कि आदित्य, देव, दैत्य, दानव, नाग, असुर अपनी पृथक जाती बनाएं उनमें संघर्ष हो, युद्ध हो| मैं विश्व में नृजाति को एक ही संस्कृति के अधीन करना चाहता हूँ और वह संस्कृति मेरी स्थापित की हुई रक्ष -संस्कृति है| हम कहते हैं-'वयं रक्षामः' और हमारी संयुक्त जाती है-'राक्षस'|" (वयं रक्षामः, हिंदी पॉकेट बुक्स, नवीन संस्करण 2002, पृष्ठ 79) यहाँ रावण की दृष्टि की उदात्तता मानीखेज है| सबों को मिलाकर एक जाति बनाना आज की परिभाषा में 'राष्ट्रीयता', (जाति की अवधारणा) महत्वपूर्ण है|
ज्योतिषाचार्य
पंडित दयानंद
शास्त्री ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘लंकेश
”रावण” में रावण की अच्छाइयों और बुराइयों को विलक्षण रूप से
अभिव्यक्त किया है| उन्होंने लिखा है कि रावण एक परम शिव भक्त, उद्भट राजनीतिज्ञ, महापराक्रमी योद्धा, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता, प्रकांड पंडित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासनकाल में लंका का
वैभव अपने चरम पर था। पंडितजी के अनुसार “रावण एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ होने के साथ
तत्वज्ञानी तथा बहुविद्याओं का जानकार था। रावण में कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो, उसके गुणों को विस्मृत नहीं किया जा सकता।” ज्योतिषाचार्य ने बताया कि रावण जहाँ दुष्ट और पापी था, वहीँ उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्शवाली
मर्यादाएँ भी
थीं। राम
के वियोग में दुखी सीता ने रावण से कहा, “हे सीते, यदि तुम मेरे प्रति काम-भाव
नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता।”
आनंद नीलकंठन के रावण के
जीवन पर आधारित उपन्यास 'असुर' का रावण कहता है, “हज़ारों वर्षों से मुझे अपमानित किया जा रहा है और भारत के
प्रत्येक कोने में, साल-दर-साल
मेरी मृत्यु का समारोह मनाया जाता है। क्यों? क्या
इसलिए कि मैंने
अपनी पुत्री को पाने के लिए देवों को चुनौती दी थी? (कई रामायण में सीता को रावण की पुत्री कहा गया है) क्या
इसलिए क्योंकि मैंने एक सम्पूर्ण वंश को जाति पर आधारित देवों की पराधीनता से मुक्त
किया था? आपने विजेता की कथा, रामायण को सुना है। अब आप रावणायन सुनें, क्योंकि मैं रावण हूँ, असुर हूँ और मेरी कथा पराजितों की कथा है।” स्वाति बोल अपनी बंगला कविता में रावण के प्रति श्रद्धा निवेदित करती
हैं और रावन-दहन की व्यर्थता सिद्ध करती हैं-
पता नहीं उन्हें क्यों असुर की संज्ञा दी गई है
मंदिरों में उन्हें स्थान नहीं मिला है
उन्हें कहीं पूजा के सिंहासन पर नहीं बैठाया गया
खलनायक होकर भी जो नायक हो
असुर होकर भी जो देवता हो
रावण दहन इसलिए व्यर्थ है
उनके दहन
में ही उनकी सफलता छिपी है.
मिथकों की बहुलता हिन्दुस्तान
के वैविध्य का सौंदर्य है। इन्हीं विविधताओं, बहुलताओं और बहुरूपताओं से भारत का स्वरूप निर्मित
होता है। भारत की एकता और अखंडता इन्हीं विविधताओं के सम्मान में निहित है।
कवि-कथाकार उदय प्रकाश लिखते हैं, “जैसे-जैसे शिक्षा का प्रचार होगा, लोकतांत्रिक चेतना जनता में बढ़ेगी। सुर कौन था और असुर कौन था या है, इसे समझने का दौर आ चुका है। किसी के भी मौलिक
मानवीय अधिकारों को इतने दीर्घ काल तक स्थगित नहीं रखा जा सकता है। यदि हम अपने को सभ्य, आधुनिक और लोकतांत्रिक समझते हैं तो हम सबको दलित अस्मिताओं के
पक्ष में खड़ा होना चाहिए।” झारखंड
की युवा कवयित्री सुषमा असुर अत्यंत दुखी होकर कहती हैं, ‘‘मुझे आश्चर्य होता है कि पढ़ा लिखा समाज और देश अभी भी हम असुरों को ‘कई सिरों’, बड़े-बड़े दांतों-नाखूनों और छल-कपट, जादू जाननेवाला जैसा राक्षस मानते हैं, बड़ी मुश्किल से स्वीकारते हैं कि मैं भी उन्हीं की तरह आम
इंसान हूं।’’
आज आवश्यकता इन अंतरपाठों को सुनने
और समझने की है। अगर हम अपने ‘पाठ’
को ठीक समझते हैं तो हमें उनके पाठ को भी ठीक समझने देने पर
आपत्ति नहीं होनी चाहिए। होना तो यह चाहिए हम एक दूसरे के ‘पाठों’ में आवाजाही करें और एक दूसरे के 'पाठ 'का सम्मान करें ।
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सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद पप्पू जी।
Deleteसर इस लेख के माध्यम से रावण के भी कई सकारात्मक पक्षों को जानने का अवसर प्राप्त हुआ। ये रावण की शक्ति और पराक्रम का ही परिणाम है कि राम राम बन पाए। उम्मीद है आगे भी ऐसे तमाम विषयों पर आपको पढ़ने का अवसर मिलेगा जिन पर लोग ठहरकर सोचना भी नहीं चाहते।
ReplyDeleteधन्यवाद नवीन जी
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद रुचि।
DeleteWah!! Kya khoob likhe hain sir... Dhnayawaad aapko aur aapki kalam Ko,jisne kych mithakon Ko badi bebaki se ugajar Kiya h...Aasha h bhavishya me bhi apke Gyan se Prerna paste rahenge..
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteपता नहीं कब, हमारी रूढ़ि परंपरा व अभिजात्य रचित आख्यान आगामी प्रबुद्ध और तार्किक मानस से टकराकर अपना सुचिंतित और सर्वसम्भावय दृष्टि की विराट सम्पदा निर्मित करेगा!सर,निश्चय ही आपकी यह प्रखर व बेबाक दृष्टि भारतीय आख्यान के खलनायकों को जनमानस में फैली और पैठ जमाई धारणा से मुक्त करके मानवीयता की धरातल पर कई सवालों को जन्म दे रही है। आपकी लेखनी को सलाम।✊✊
ReplyDeleteधन्यवाद अमित जी
Deleteबहुत सटीक और ज्ञानवर्धक लेख। धन्यवाद।
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteनवीन दृष्टि के साथ एक तर्कपूर्ण लेख।
ReplyDeleteधन्यवाद सर
शुक्रिया।
Deleteज्ञानवर्धक,आकर्षक होने के साथ साथ तार्किक लेख ।
ReplyDeleteपुरातन को देखने का नया नजरिया ।
शुक्रिया। आपने आलेख पढ़ा। अन्यथा आज किसे इतनी फुरसत है।
Deletebahut satik v laajwaab vyangy aalekh shrimaan ji
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteबहुत सार्थक लेख। आज के समय में राम और रावण दोनों एक राजनीतिक औजार के रूप में प्रचलित हैं। ऐसे यह राम कथा के विभिन्न पक्षों को समझने बुझने में सहायक होगी।
ReplyDeleteधन्यवाद दीपक।
Deleteतार्किक लेख। रावण के चरित्र को समग्रता प्रदान करता हुआ। भारतीय धर्म तर्कातीत हैं। उनमें तर्क का आरोपण कर उस विषय को पुनरमूल्यांकित किया जाय तो बड़े-बड़े मठ, मठाधीस धरासाई हो जाएँ। बेहद उपयोगी और तर्कणा को निर्मित करता आपका लेख।
ReplyDeleteइस बेहतरीन लेख के लिए आपको बधाई सर....
धन्यवाद ओमप्रकाश जी
Deleteआपके चर्चित शोध पुस्तक "तुलसीदास का कव्य-विवेक और मर्यादाबोध " पर किया गया असीम अध्ययन इस लेख को मर्मांतिक बना देता है।
ReplyDeleteखुशी हुई कि आपने तुलसीदास वाली किताब भी देख ली है। धन्यवाद।
ReplyDeleteवर्तमान रामोत्सव देखते हुए यह लेख काफी असरदार है। मिथक कितना प्रामाणिक है या नहीं भी है इसका परताल करते हुए यह लेख काफी महत्वपूर्ण है। बात कहने की कला तो अद्भुत है ही।
ReplyDeleteधन्यवाद रामलखन जी।
Deleteएक विचारोत्तेजक एवं गम्भीर आलेख। बधाई एवं शुभकामना!
ReplyDeleteशुक्रिया। बहुत बहुत
Deleteरोचक लगा सर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteइस लेख में सुर असुर की धारणा को लेकर बेहद महत्वपूर्ण बहस दर्ज है । रावण के चरित्र को तथ्यों और संवेदनाओं के साथ उद्घाटित करना बेहद जरूरी पक्ष है। जनमानस में रावण के प्रति जो धारणा घर कर गई है, उससे निकलने और उस पर पुनर्विचार करने को बाध्य करता है यह लेख। यही इस लेख की बड़ी सफलता है। साथ ही विमर्श के दौर में इस तरह के लेख की महत्ता असाधारण है। लेखक को हार्दिक बधाई !!
ReplyDeleteरावण का बहुपक्षीय विवेचन।
ReplyDeleteएक अलग दृष्टिकोण पढ़ने को मिला। 🫡🙏
ReplyDelete"अगर हम अपने ‘पाठ’ को ठीक समझते हैं तो हमें उनके पाठ को भी ठीक समझने देने पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।" दरअसल हम अपने पाठ को ही नहीं समझते हैं, जो अपना पाठ ही नहीं समझेगा वो दूसरे की पाठ को समझने की दृष्टि कहां से पाएगा? बहुत ही सारगर्भित लेख सर🌸 और जरूरी भी।
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