वर्तमान से संवाद : 'क्या हमारा देश ‘वृद्धों’ का देश है?'

           किसी भी देश का वर्तमान और भविष्य तरुणाई पर निर्भर करता है, तरुण पर नहीं| युवा होने का मतलब युवाचित्त का होना है, युवाचित्त परिवर्तन और क्रांति का आकांक्षी होता है| सपने देखने वाला होता है| इसके विपरीत उम्र से कोई बूढ़ा नहीं होता बल्कि ‘मुर्दा शान्ति से भर जाना’ वृद्ध होना है| पिटी-पिटाई लीक का फ़क़ीर ‘वृद्धचित्त’ का परिचायक  है| परिवर्तन और सचेत-दृष्टि  से संपन्न वृद्ध भी असली मायने में युवा होता है| विगत कुछ वर्षों से देश में जिस तरह प्रेम को लेकर, विज्ञान को लेकर, खान-पान को लेकर और युद्ध आदि को लेकर देश में युवाओं की कूपमंडूकता और उन्मादी छवि से साक्षात्कार हुआ है, इससे तो लगता है हिन्दुस्तान बूढ़ों का देश है, क्योंकि संख्या की दृष्टि से हिन्दुस्तान  सबसे बड़ा युवाओं का देश है, लेकिन जब देश के अधिसंख्य युवा वृद्धचित्त के हों तो दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हमारा देश बुढ़ायी मानसिकता की और अग्रसर है| 





आलोचनात्मक-विवेक युवामन की जाग्रत गति है| अस्वीकार का साहस और साहस का स्वीकार ही असली मायने में युवा होना है| लेकिन जब देश का युवा भीड़ का हिस्सा बनने लगे, बिना सोचे-समझे किसी को खदेड़ने लगे, राजनीतिक संकेत से किसी को पीटने लगे तो समझना चाहिए कि युवाओं की धमनियों में युवा रक्त संचारित नहीं हो रहा है| जब देश का युवा कर्मनिष्ठ पुलिस अधिकारी सुबोध सिंह को भीड़ में मार दे और उस पर शेष युवाओं को गुस्सा न आये तो ऐसी तरुणाई पर सरापा ही किया जा सकता है| जब अपने विवेक को ताक़ पर रखकर चाटुकार और राजभक्त मीडिया के बहकावे में युवा बहक जाए और युद्ध-युद्ध चिल्लाने लगे और युद्ध की विभीषिका और विनाश की और संकेत करने वालों को गालियाँ देने लगे, तो समझना चाहिए कि देश युवाविहीन हो गया है| कई मीडिया ग्रुप ने इन दिनों श्रोताओं की संख्या में भारी इजाफ़ा को उपलब्धि माना है| हमारे देश के  युवाओं को उपलब्धियों के इस षडयंत्र को समझना चाहिए| जब-जब युद्ध का ख़तरा मंडराता है ऐसे सत्तामुखी मीडिया अपनी टी आर पी बढ़ाने के लिए युद्ध को हवा देते हैं| ऐसे माहौल की कल्पना मात्र से उनकी हवा निकल सकती है, किन्तु वे पर्दे पर ऐसे ललकारते हैं कि उन ललकारों को सुनकर ‘लूल्हे लंगड़ो को भी लड़ने-भिड़ने की लालसा लग जाती है’| इसी ललकार के वशीभूत हो देश के युवा सरहद पर न जाकर (वहाँ जा भी नहीं सकते) अपने आस-पड़ोस किसी कश्मीरी, किसी मुसलमान या कोई नहीं मिला तो इन मामलों को संवेदनशीलता से साथ समझने-बुझने वालों पर अपना शौर्य और पराक्रम प्रदर्शित कर आते हैं| इन फ़र्जी सैन्यवेशधारी मीडिया देशभक्ति का कितना माहौल बना पाते हैं  कहना कठिन है, किन्तु नफ़रत का माहौल बनाने में ये जरूर उस्ताद हैं| जिस प्रकार चुनाव जीतने के लिए राजनितिक पार्टियाँ कुछ भी कर सकतीं हैं, कुछ भी; उसी तरह ये उद्धौन्मादी चैनेल टी आर पी के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी|  देश के युवा अगर उनके इस नापाक इरादे को नहीं समझते हैं या समझकर भी उनके साथ हैं, तो मुझे उनकी युवता पर संदेह है| यह कितने दुःख की बात है कि देश के कोने-कोने में पढ़ रहे, काम कर रहे कश्मीरियों की सुरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़े| सरकार तब तक सुस्त पड़ी रही जब तक कि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार नहीं पड़ी| कैसे देश की युवा-आँखें ये सब नहीं देख पा रहीं? 

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युवा अपने स्वभाव में विद्रोही होता है| महान चिन्तक अल्बर्ट कामू ने इस विद्रोह के सम्बन्ध में लिखा है कि ‘इंसान जो ‘ना’ कहता है लेकिन उसके इंकार में नामंजूरी नहीं होती| विद्रोह के अपने पहले क्षण से वो ‘हाँ’ कहने वाला इंसान होता है| विद्रोही में गुस्सा होता है असंतोष नहीं, वह व्यक्तिगत भावना से ग्रस्त नहीं होता| विद्रोही की भावना में इर्ष्या और असंतोष नहीं , दर्द और ‘दूसरों’ से जुड़ जाने की क्षमता होती है| वह उसकी पीड़ा में डूबकर के खुद पीड़ित हो जाता है| वह आंसुओं की नदी में तैर कर अपने सलीब को वृहत कर लेता है| राष्ट्रवाद की रणभेरी और युद्धोनिनाद में अगर आज का युवा रोज शहीद हो रहे हमारे अमर शहीदों की पीड़ा भरी कराह नहीं सुन रहा, लगातार अनाथ हो रहे बच्चों की करुण आर्तनाद उन्हें विचलित नहीं कर रही, उन सैनिकों की पत्नियों की उजड़ती माँग उन्हें थोड़ा भी बेचैन नहीं कर रहा, उनके वृद्ध माता-पिता की सूनी आँखों में वे अगर झाँक नहीं पाते,  तो मुझे उनसे कुछ नहीं कहना| वे अगर यह आंकड़ा नहीं देखना चाह रहे कि इन राष्ट्रवादी दौर के चार-पांच वर्षों में हमारे कितने जावान शहीद हुए और अटल जी के पकिस्तान से मित्रता के समय में या मनमोहन सिंह से समय में कितने जवान शहीद हुए तो, न देखें| कम से कम युवा-दृष्टि इतना तो कर ही सकती है कि कई गुणा अधिक जवानों को बलि बेदी पर चढ़ जाने के औचित्य की पड़ताल करे| ‘मार देंगे, काट देंगे, भारत मूत देगा तो पकिस्तान बह जाएगा’ जैसी टुच्ची मनोवृत्ति से बाहर जाकर इसकी पड़ताल करें| विगत मात्र एक वर्ष में 570 लोग मरे हैं, इनमें 260 उग्रवादी, 160 आम नागरिक और 150 भारतीय सैनिक हैं|
जितना हम पीछे जाएंगे युद्ध का महात्म्य था| वीरगाथाकाल में हम देखते हैं कि युद्ध को महिमामंडित करने वाले काव्य लिखे गए| युद्ध आदिम प्रवृत्ति है| जंगली मानसिकता है| जैसे-जैसे दुनिया सभ्य होती गई युद्ध से अपना दामन छुड़ाती चली गई| युद्ध से मोहभंग सभ्यता का तकाजा है, सभ्यता की निसानी है| आज का शायद ही कोई बड़ा चिन्तक, लेखक, कवि युद्ध के पक्ष में खड़ा होगा| इतिहास और वर्तमान दोनों साक्षी है कि कई देश जो आपस में शत्रु थे, मित्रता के हाथ बढ़ा रहे हैं| कई देश जो कभी भारी शत्रु थे आज मित्र हैं| अगर हमारे युवा युद्ध के पक्ष में हैं तो कहना होगा कि वे अपने स्वभाव के प्रतिकूल पश्चगामी हो रहे हैं| युवा होना तो सभ्य होना होता है, अग्रगामी होना होता है|
निदा फ़ाजली की कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं-
इंसान में हैवान यहाँ भी है, वहाँ भी, अल्लाह निगेबान यहाँ भी है, वहां भी
खूंखार दरिंदों के फकत नाम अलग है, शहरों में बयाबान यहाँ भी है, वहाँ भी|
पकिस्तान के युवा भी हमारे युवा की तरह ही हैं| मीडिया के झांसे में वे भी वीर रस में आ जाते हैं| अगर हिन्दुस्तान में कोई पाकिस्तानी सैनिक पकड़ लिया जाता तो उसकी हालत की कल्पना की जा सकती है| पाकिस्तान में अभी भी कुछ  ऐसे युवा बचे हैं जो युद्ध के विरुद्ध और जांबाज़ अभिन्दन की रिहाई के लिए प्रतिवाद मार्च निकालते हैं| क्या हम अपने देश के युवाओं से इस व्यवहार की उम्मीद कर सकते हैं? क्या किसी पाकिस्तानी सैनिक के पकडे जाने पर उनकी रिहाई के लिए हमारे युवा मार्च निकाल सकते हैं? या कुछ ‘सिरफिरों’ द्वारा ऐसा करने पर उनका वध कर ‘पुण्यफल’ प्राप्त करने का यश लेंगे?
जिस देश का युवा अपने लेखकों, कवियों, चिंतकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों से संवाद करना न चाहे उस देश के युवा से अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती| जब तक युवा इनसे जिरह नहीं करेंगे, वाद-विवाद-संवाद नहीं करेंगे तब तक वे अपनी  सर्जनात्मक ऊर्जा  का रचनात्मक उपयोग नहीं कर सकते हैं| लेकिन आज का अधिसंख्य युवा इन्हें  संदेह से देखता है, उनसे घृणा करता है| संदेह और घृणा भी ठीक है, लेकिन तब जब वह उनका अपना हो, लेकिन यह संदेह और घृणा आरोपित है| ये किसी अन्य के चश्मे से इन्हें देख रहे हैं|
युवाओं की सोच और समझ को साजिशतन ऐसा बनाया गया है| और यह साजिश आज से नहीं विगत तीन-चार दशकों से चल रही है| ज्ञानपरक शिक्षा से इन्हें दूर कर परीक्षोपयोगी शिक्षा, कौशलपरक शिक्षा और शिक्षा का वस्तुनिष्ठिकरण इस साजिश की रीढ़ है| बरोजगारी और प्रतियोगी परीक्षा के भूत ने इनकी अपनी समझ को कुंद कर दिया| इनकी सोच उधार की सोच बन गई| अत्यंत चतुराई से बाज़ार से किताबें ग़ायब की गईं और उन अच्छी किताबों की जगह प्रतियोगी किताबों से बाजार को पाट दिया गया| स्कूलों और कॉलेज को प्रभावहीन बनाया गया| इन्हें मटियामेट किये बगैर निजी स्कूल की खेती चलने वाली नहीं थी| वस्तुनिष्ठ प्रश्न रटने वाले युवाओं से कितनी उम्मीद की जा सकती है? अब ये युवा, युवा नहीं रट्टूमल तोते हैं| ये झूठ को सच ही नहीं समझते बल्कि इस झूठ के लिए किसी को भी मार-काट सकते हैं| मॉब लिंचिंग कर सकते हैं| वस्तुनिष्ट सवालों ने इन्हें ‘हाँ’ और ‘ना’ सिखलाया है| इस ‘हाँ’ और ‘ना’ के बीच के कश्मकश, निर्णय का विवेक और विवेकपूर्ण निर्णय इस वस्तुनिष्ट का पाठ्यक्रम है ही नहीं| भीषण बेरोजगारी के आलम  ने इन्हें 200 रु से लेकर 1000 रु तक के लिए भीड़ का हिस्सा बनने पर मजबूर किया है| भारी बेरोजगारी ने इन्हें खरीद लिया है| परिस्थिति से लाचार बिकी हुई मानसिकता वाले युवाओं को बचा लेना आज की सबसे बड़ी चुनौती है|
जिस देश के युवा यथास्थितिवादी हों, वह उस देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है| चेतस युवा तो सच के लिए, तर्क के लिए, विज्ञान के लिए अपने माता-पिता, गुरु यहाँ तक कि समाज तक से अनबन कर लेता है| और इस अनबन से ही रास्ते निकलते हैं| आज तक जितने परिवर्तन, क्रान्ति, खोज और आविष्कार हुए हैं वे संदेह, शंका और इसी अनबन से हुए हैं| यही संदेह, शंका और अनबन युवा-दृष्टि है| कोरी आस्था और निरा धार्मिकता समाज को आगे नहीं पीछे ले जाता है| सचेत और सावधान युवा अपने चरित्र में वैज्ञानिक होता है| किसी भी  तथ्य, घटना को जांचना, आंकना और उसका मूल्यांकल करना युवा धर्म होता है| किसी भी सच या फेक सूचना के पीछे मतवाला होना तो युवा होना कतई नहीं है| कूपमंडूकता, अनर्गल परम्परावादिता और धार्मिक जोश और युद्धोन्माद भरने  वाले टी वी चैनलों से चिपके रहना तो युवा होना हो ही नहीं सकता| लेकिन दुःख की बात है कि हमारे देश के अधिसंख्य युवा पर किसी की ‘नज़र’ लग गई है| उनके स्व-विचार, स्वतंत्र कल्पनाशीलता और नवोन्मेष की संभावना को घुन लग गया है|

चील के आगे मांस डाल दिया जाए और यह सोचा जाए कि वह वैष्णव हो जाएगा, बालमन ही ऐसा सोच सकता है, युवामन नहीं| राष्ट्रवादी पार्टियों का चुनाव के समय सीमा पर युद्ध का माहौल बनाना, या साम्प्रदायिकता को हवा देना आदि आजमाया हुआ नुस्खा है| प्रत्येक चुनाव से पूर्व का सामाजिक-राजनितिक इतिहास पढ़कर इसे समझा जा सकता है| साथ ही देश के युवा को तो यह सवाल पूछना ही चाहिए कि जब ‘सरकार तीन किलो बीफ़ का पता लगा सकती है तो फिर 350 किलो आरडीएक्स का पता कैसे नहीं लगा सकी’ जबकि  सरकार भी अपनी ही थी| एक तो घोर संवेदनशील इलाका ऊपर से राष्ट्रपति शासन की चाक-चौबंद, यह संभव हुआ तो कैसे? युवामन को यह बात भी मथती जरूर होगी कि इंटेलिजेंस की घोर असफलता को वहाँ के राज्यपाल ने अपने साक्षात्कार में खुलेचित्त से स्वीकार किया| इतनी बड़ी फ़ौज को सड़क रास्ते से उतारने की सहमति भी नहीं थी| युवाचित्त में यह सवाल भी रेंगने चाहिए कि जब जम्मू-कश्मीर की पुलिस ने इस तरह के हमले के प्रति चेतावनी दी थी तो फिर इस तरह की गलती क्यों कर हुई? जिसने इस आतंकवादी घटना को अंजाम दिया उसे पकड़कर छोड़ क्यों दिया गया था? देश के युवा को संदेह करना चाहिए, उन शहीद हुए सनिकों और उनके परिवार वालों की भीगीं-नम आँखों की और से सवाल पूछना चाहिए कि उन्हें कहीं बलि का बकरा तो नहीं बनाया गया? इस राष्ट्रवादी माहौल में जबावी कारवाई तो करनी ही  थी सो की गई| इससे संबंधित सवाल भी युवा के मन में उठने चाहिए| इस कारवाई में मारे गए आंतकवादियों की संख्या कैसे गिनी गई? अलग-अलग नेता अलग-अलग संख्या कैसे और क्यों बता रहे हैं? विदेशी न्यूज़ एजेंसियां जो तथाकथित युवाओं के अनुसार मोदी के मुरीद हैं, वे इसकी पुष्टि क्यों नहीं कर रहे हैं? इसके विपरीत रायटर्स, एसोसिएटेड प्रेस और न्यूयार्क टाइम्स आदि  इस दावे को खारिज क्यों कर रहे हैं? आप युवाओं के मन में यह सवाल भी आना चाहिए कि अपनी सरकार पर यकीन न कर विदेशी मीडिया पर भरोसा क्यों? चेतनशील युवा ही इसका  इसका जबाव दे सकते हैं कि चुनाव के लिए पार्टी कुछ भी कर सकती है, कुछ भी|  राहत इन्दौरी के शब्दों में –
सरहदों पर बहुत तनाव है क्या, कुछ पता करो चुनाव है क्या
खौफ़ बिखरा दोनों समतों में, तीसरी समत का दबाव है क्या?
सोचना तो युवा को यह भी है कि दुश्मन तो हमारे अन्दर है, समाधान हम बाहर क्यों खोज रहे हैं? बिमारी कुछ है और इलाज कुछ और| हम तीन को मारें या तीन सौ को, इससे क्या होगा? आतंकवादी घटना में जिस गाड़ी का उपयोग किया गया वह स्थानीय था| जैस के एक आतंकवादी को हम मारेंगे दस हमारे स्थानीय आतंकवादी पैदा हो जायेंगे| और अधिक हमारे सैनिक मारे जाएंगे| क्यों उनकी मृत्यु पर हजारों लोग शामिल हो जाते हैं? क्यों कश्मीर में हमारे ही देश के किशोर, युवा मरने मारने पर तुले हुए है? इनकी बात हम पूरी संवेदनशीलता से क्यों नहीं सुन सकते?
युवाचित्त का मिज़ाज जिज्ञासु होता है| सवाल –दर सवाल पूछना उनका नैतिक दायित्व बनता है| जिस युवा के मन में सवालों का सैलाब नहीं वो कहने भर को युवा है| सवाल पूछना, आलोचना करना बड़े सम्मान का और साहस का काम है| सत्तातंत्र  को सवाल पूछने वालों का आदर करना चाहिए| मध्यकाल में रहीम कहते हैं ‘निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय’ यह मध्यकालीन आधुनिकता है और सवाल न पूछना, ऊँगली न उठाना आधुनिक कायरता| हामरे देश के युवा कायर हैं क्या?  राजसत्ता से सवाल, प्रधानमन्त्री से सवाल, अपने स्थानीय जनप्रतिनिधि से सवाल| किसी से भी सवाल पूछना, जिरह करना लोकतंत्र में मर्यादाहीन होना नहीं होता है| इस सवाल से परे कोई नहीं| लोकतंत्र की ताकत ही  सवाल उठाना है| भारतीय युवायों को सवाल पूछना है कि हमारे रोजगार का क्या हुआ? हमारी नौकरियाँ सायास कम क्यों की जा रहीं हैं? ठेके पर शिक्षक कब तक काम करते रहेंगे? विश्वविद्यालयों (डी यू आदि) में बहाली क्यों नहीं हो रही, आरक्षण के भूल-भुलैया में उसे क्यों फँसा कर रखा गया है? विगत कुछ वर्षों से  शिक्षा पर खर्च कम क्यों हो रहे हैं, उच्च शिक्षा में फेलोशिप समाप्त करने की चालें क्यों चली जा रहीं हैं? भविष्य में नेट/जेआरऍफ़ ख़त्म करने का निर्णय क्यों लिया गया है?  शैक्षिक संस्थानों की स्वायत्तता क्यों छिनी जा रही, उसे युद्ध में तब्दील क्यों किया किया जा रहा है? हमारे शिक्षकों के आलोचनात्मक विवेक पर पाबंदी क्यों? रोहित वेमुला जैसे हमारे नायक को क्यों आत्महत्या करनी पड़ रही है? सवाल उठाने वाले हमारे छात्र नायकों पर नाहक राष्ट्रद्रोह का तमगा क्यों लगाया जा रहा है? देश के सारे हमारे प्रतिष्ठित संस्थानों के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है? और सबसे बढ़कर युवाओं को सीधे सवाल पूछना चाहिए कि हमारे देश को ‘मृत्य उपत्यका’ क्यों बनाया जा रहा है क्योंकि कवि नबारुण के शब्दों में,
 यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लास मंच नहीं है मेरा देश
यह रक्तरंजित कसाई घर नहीं है मेरा देश|                                

Comments

  1. बेहद सामयिक और गंभीर आलेख ऐसे हालात में बहुत कम ही देखने-पढ़ने को मिलता है सर! आभार! कश्मीर की जनता की समस्या, मौजूदा सत्तारूढ़ सरकार की मंशा जैसे अनेक सवालों/मुद्दों को स्पष्ट और ध्यानाकृष्ट कराता हुआ यह आलेख निश्चय ही तरुणों की तरुणाई में जोश भरने और वृद्धमन को जागृत करने लायक है।💐💐

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    1. धन्यवाद अमित जी। आपलोगो को अच्छा लगा, यही मेरी उपलब्धि है।

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  2. आलेख पढ़कर सुखद अनूभूति हुई। वर्तमान समय प्रचार का समय है, हुआ कि नहीं हुआ?,आया कि नहीं आया?, कार्यवाही हुई कि नहीं हुई? आदि वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के द्वारा युवामन को भृमित किया जा रहा है। यह भाषा मदारी की भाषा प्रतीत होती है,गांव में आया मदारी खाली गिलास जनता को दिखाता हुआ पूंछता है कि गिलास खाली है कि नहीं है?....रस्सी हाथ में पकड़ कर कहेगा कि हाथ में रस्सी पकड़ी है कि नहीं। अरे भाई साफ कहो न कि तुम कोई प्रश्न नहीं पूछ रहे हो, यह सब ढोंग है जनता के साथ एकात्म होने का।
    जब हमारा एकात्म हो जाता है, साहित्य में जिसे साधारणीकरण कहते हैं। फिर कार्य व्यापार हृदय का हो जाता है। चुनावी रैली में बैठे लोगों को खुद खबर नहीं रहती कि उनके मुद्दे क्या हैं, परेशानियां क्या हैं? फिर शुरू होता है, हां और न कहलाने का प्रयोग। जब तक श्रोता अपनी चिरनिंद्रा से जागता है, मदारी अपना बोरी-बिस्तर बांध किसी और नगर की राह लेता है। और इसके बाद भी नहीं जाग पाता, उन्हें अंधभक्त कहते हैं जो मौखिक प्रचार के द्वारा विवेक जाग्रत लोगों से द्वेष भी रखने लगते हैं। गलती उन बेचारे अंधभक्तों की भी नहीं है, उन्होंने जो देखा, सुना वही कह रहे हैं वो, बस उन्होंने अपने विवेक को नहीं जगाया जिसे कुछ देर पहले मदारी सुला गया था।

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    1. बहुत अच्छा विश्लेषण कुलदीप जी। शुक्रिया।

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  3. आपने बहुत अच्छा लेख लिखा है इसके लिए मैं आप का लाख-लाख आभार प्रकट करता हूं

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  4. अत्यंत कम्युनिकेटिव आलेख व समसामयिक भी 💐💐💐

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  5. आलेख के पुनर्पाठ करने पर और अभिभूत हुआ . बर्तोल्त ब्रेश्ट के बहुचर्चित नाटक ' गैलीलियो का जीवन ' का डॉमेस्टिक हेल्प के बेटे आंन्द्रिया का गैलीलियो से प्रश्न :--" अभागा है वह देश जहाँ नायक नहीं होते ?" कॉपरनिकस व ब्रूनो की राजकीय - आध्यात्मिक द्वारा हत्या से पैदा आक्रोश .. जबाब गैलीलियो का हमें लाजवाब कर देता है :-- " नहीं आन्द्रिया ! उससे अभागा वह देश होता है जो नायक के मुंतजिर ( भरोसे ) बैठा रहता है " 👌👌👌

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