संस्कृति विमर्श : होलिका की पीड़ा
संस्कृति का इतिहास बर्बरता का भी इतिहास रहा है। इतिहास की तथाकथित जय यात्रा
में ना जाने कितनी अस्मिताओं को मूक बनाकर उसे पुरुष सापेक्ष वीरता के इतिहास के
रूप में परोसा गया। इतिहास और मिथकों में अस्मिताओं की हत्या के साथ उन्हें
खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने का भी पुरजोर तरीके से काम हुआ है। हिन्दू मिथक
और इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं।
मैं होलिका, युग-युग से अपनी ऐसी गलती के लिए प्रताड़ित हो रही हूँ जो मैंने की ही नहीं थी। पितृसत्ता की धूर्त चाल ने मिथ को ऐसे गढ़ा कि पुनि- पुनि स्त्री को बदनामी ही विरासत में मिली। आप सभी जानते हैं कि प्रह्लाद मेरा भतीजा था, बहुत प्यारा भतीजा। बुआ तो माँ से कमतर नहीं होती। आप भी किसी की बुआ होंगी। आप अपने प्रह्लाद के बारे में सपने में भी ऐसा सोच सकती हैं?

हिरणाकश्यप दम्भी राजा था। नास्तिक
था। प्रह्लाद घोर आस्तिक। बचपन से विष्णु भक्त। जब वह प्रह्लाद को मार देने की
सारी बाजी हार गया तो उसने मुझे पकड़ा। मैं उसकी बहन जरूर थी, लेकिन मेरी स्थिति
वहाँ दासी जैसी थी। मैंने अकूत तपस्या और सद आचरण से शिव से वरदान में एक वस्त्र
प्राप्त किया था, जिसके धारण करने से कुछ नहीं हो सकता, आग भी नहीं जला
सकती थी। हिरणकश्यप ने मुझे आदेश दिया कि मैं उस विशेष वस्त्र को धारण कर प्रह्लाद
को साथ लेकर चिता में चली जाऊँ। इस तरह प्रह्लाद भस्म हो जाएगा। मैं तो
आज्ञापालिका थी। आज्ञा माननी ही थी। मेरी दशा उस कर्मी की तरह थी जो सजायाफ्ता
मुजरिम को फांसी चढ़ाता है। वह मुज़रिम है या निर्दोष इससे उसका कोई सरोकार नहीं
होता। वह सिर्फ़ अपनी डियूटी ईमानदारी से निभा रहा होता है। मेरी स्थिति तो उसी
कर्मी की तरह थी। लेकिन मैं डियूटी भी ईमानदारी से नहीं निभा पाई। मैं आप सभी लोगों से
आज कहना चाहती हूँ कि कोई ऐसा चमत्कार नहीं हुआ कि वह वस्त्र उड़कर प्रह्लाद की देह
पर चला गया। मैंने बड़ी चतुराई से उस वस्त्र को प्रह्लाद तक खिसका दिया था। किशोर प्रह्लाद की ज़िंदगी मुझसे ज्यादा अहम थी। फिर वह परोपकारी और दयालु भी था।
वह अनाचारी पिता से लड़ने का जोखिम और साहस जुटा रहा था। उसका जीवित रहना परम
आवश्यक था। मैंने जलना स्वीकार किया। मैंने अपने प्यारे भतीजे को बचाया, हिरणकश्यप के अंत
के लिए।
लेकिन इस पुरुष सत्ता ने मुझे ही
खलनायिका बना दिया। सजी-धजी चिता पर एक अत्यंत सुंदर, निर्मल बच्चे को
जलाने के उद्देश्य से गोद में ली स्त्री की छवि आपको थोड़ा भी बेचैन- विचलित नहीं
करता? क्या कोई स्त्री मासूम बच्चे को आग के हवाले कर सकती है? जिन दिनों आपमें
बोध आना शुरू हुआ था और इस मिथ से धीरे धीरे आपका साक्षात्कार हो रहा था, आपने यह नहीं सोचा
कि इस पूरे मिथ में मेरी क्रूरता की, दुष्टता की कोई संभावना नहीं है।
प्रह्लाद को हिरणकश्यप देखना नहीं चाहता था। वह राजा था, सर्वेसर्वा था। मैं
तो न चाहते हुए भी सिर्फ़ हुक्म की तामील कर रही थी। और इसी तामील में अपनी जान
देकर प्रह्लाद की जान बचाई।
आप भी पितृसत्ता के झांसे में आकर
वर्षों से एक स्त्री को बदनाम कर रहे हैं, उसे जला रहे हैं। यही होता है, यही होता रहा है, लेकिन आगे धीरे
धीरे ऐसा नहीं होगा। मैं ही कहीं डायन के रूप में पिटी जाती हूँ, कहीं मुझे मैला
पिलाया जाता है, कहीं नंगा कर घुमाया जाता है। अपनी जान देकर प्रह्लाद को बचाने
वाली मुझ होलिका को ही जब
हमारे समाज का सहज मन हत्यारा मान
लेता है तो वही सहज मन यह भी मान लेता है कि यह औरत जरूर बच्चा चुराती होगी। इसका
तो मुँह ही ऐसा लगता है।
मजे की बात यह है कि स्त्रियां भी
मुझे ऐसी ही मानतीं हैं। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि सभी मिथकों की व्याख्या सायास
स्त्री विरोधी की बनाई गई है। जब मैं पहली बार जली थी तो मुझे खुशी थी, एक नेक काम करने का
गर्व था। लेकिन उसके बाद से उस नरेशन को ही घाघ पितृसत्ता ने उलट दिया। जिस उत्सव
और जश्न से मुझे बार-बार जलाया जाता है, सच कहती हूँ बहुत तकलीफ होती है।
ढोल, नगाड़ा, कानफोड़ू डी जे के साथ दलित-दमित कर
देने वाले अट्टहास, क्रूर कोलाहल और विजयोन्माद निनाद के बीच मुझे जलाया जाता, मुझे रोना आ जाता
है। एक स्त्री का यह सामूहिक अपमान कोई सभ्य-सुसंस्कृत समाज अपने में कैसे समोए
हुए है, यह सोचकर मुझे बहुत दुख होता है।
क्या हम मिथकों की नयी व्याख्या नहीं
कर सकते? आज के दिन स्त्री अपमान के प्रायश्चित स्वरूप हम एक साधारण सी अग्नि कुंड
में पितृसत्तात्मक सामंती मनोवृत्ति को स्वाहा नहीं कर सकते? अपनी कूपमंडूकता, अतार्किकता, अवैज्ञानिकता, श्रेष्ठता-बोध, लैंगिक दुराग्रह को
उस आग के हवाले नहीं कर सकते?
अगर आप दिल से ऐसा कर पाते तो सच में
मेरा पुनर्जन्म हो जाता।
Best
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteایک نیانظریا یے
ReplyDeleteशुक्रिया सर। कृपया इसे अगर संभव हो तो रोमन या नागरी लीपि में लिख दें तो मैं भी पढ़ लूंगा
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Deleteबहुत ही तार्किक और हृदय को उद्वेलित कर नई चेतना के साथ त्योहारों को मनाने एवम समाज को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करने में सक्षम आलेख। शुक्रिया सर।
ReplyDeleteशुक्रिया नवीन।
Deleteहोलिका का अपने भतीजे के प्रति प्यार और बलिदान को हमे सम्मान देना चाहिए।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया।
Deleteशुक्रिया श्वेता, धैर्यपूर्वक पढ़ने के लिए।
ReplyDeleteस्त्री उपेक्षिताओं में होलिका का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
ReplyDeleteशुक्रिया पवन जी
Deleteहोलिका के बहाने आपने अन्य स्त्रियों की पीड़ा को भी सहज ढंग से रेखांकित किया। डायन नामक व्याधि से आज भी गांव मुक्त नहीं है। आए दिन डायन कहकर स्त्रियों को पीट-पीटकर मार देने की बातें सुनने और देखने को मिलती रहती हैं, जो बहुत दुःखद है।
ReplyDeleteधन्यवाद रामलखन जी।
ReplyDeleteशुक्रिया विशाल जी।
ReplyDelete"जिन दिनों आपमें बोध आना शुरू हुआ था और इस मिथ से धीरे धीरे आपका साक्षात्कार हो रहा था, आपने यह नहीं सोचा कि इस पूरे मिथ में मेरी क्रूरता की, दुष्टता की कोई संभावना नहीं है।" बिलकुल सहमत। सोचने की बात ये है कि यदि जलाया ही जाए तो जिस हिरणाकश्यप को जलाना चाहिए। उसे नहीं जलाया जाता है। जलाया जाता रहा है होलिका को।
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