शिक्षा विमर्श : प्रश्नोन्मुखी शिक्षा की पड़ताल
प्रस्तुत
आलेख में शिक्षा की कुछ बुनियादी समस्याओं पर प्रकाश
डाला गया है। ये समस्यायें इतनी गहरी जड़ जमा चुकी है और इस स्तर तक रच-पच गई हैं
कि इसे उखाड़ फेकना तो दूर की बात है इस पर विचार तक करना गुनाह लगने लगा है।
बावजूद इसके इस पर विचार करना होगा। क्योंकि परिवर्तन या बदलाव का पहला कदम
हैं-समस्या पर सोचना और उस पर विमर्श करना। घनघोर विवादास्पद किंतु जीनियस
दर्शनशास्त्री ओशो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘शिक्षा में
क्रांति’ में इन समस्याओं से टकराने की भरपूर चेष्टा की है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में
सिद्धांत के रूप में जो कई सूत्र वाक्य गढ़े गए हैं,
वे अत्यंत सटीक हैं किंतु कई बार व्यावहारिक स्तर से उनका विरोध रहा
है। उदाहरण के लिए शिक्षा या विद्या की परिभाषा तो यह दी गई कि ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् जो मुक्त करे वही
विद्या हैं लेकिन स्थिति ठीक इसके विपरीत है। आज जो जितना शिक्षित है, वह उतना ही परतंत्र है। बकौल ओशो, ‘‘सारे जगत में
विद्या तो बढ़ती जाती है, विद्यालय-विश्वविद्यालय बढ़ते जाते
हैं लेकिन कोई मनुष्य मुक्त होता दिखाई नहीं पड़ता। वरन् मनुष्य और बंधता जाता है,
और भी जकड़ता जाता है, और भी नीचे गिरता जाता
है (शिक्षा में क्रांति-पृष्ठ-156)। उनका दृढ़ निश्चय है कि
आज विद्या के नाम से सारी दुनिया में जो प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है,
वह अविद्या है, अशिक्षा है। वास्तव में आज जब
पिछली सदी से ज्यादा विद्या है और अधिक विद्यालय हैं तो फिर पिछली सदी से अधिक
अशांति और दुख क्यों है? परिणाम अगर गलत निकला है तो निश्चित
रूप से ढ़ांचा गलत होगा। हम सभी को यह सोचना चाहिए कि यह शैक्षिक ढांचा कहीं गलत तो
नहीं है। आज अगर मनुष्य गलत है तो तय है कि शिक्षा सम्यक नहीं है।
गंभीरता पूर्वक सोचकर अगर देखा जाय तो लगता है कि आज की शिक्षा-शिक्षा कम आजीविका का साधन अधिक है। रोजी और
रोटी कमा लेने की येन-केन व्यवस्था है। विद्या का उद्देश्य है-जीवन के श्रेष्ठतर
मूल्यों का जन्म। अगर इन मूल्यों का जन्म होता है तो मनुष्य जरूर मुक्त होगा।
लेकिन इसके विपरीत हम सिखाते हैं स्वयं के भर लेने को, हम
सिखाते हैं-स्वार्थ, सेल्फिशनेस, हम
सिखाते हैं- अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर लेना। और हम सोचते हैं कि हम विद्या दे
रहे हैं। जो आजीविका सिखाती है, जो लिविंग देती है, रोटी देती है, वह विद्या का अत्यंत छोटा रूप है।
लेकिन जो जीवन सिखाती है, लाइफ देती है-लिविंग नहीं लाइफ,
आजीविका नहीं जीवन-वह है विद्या।
आज की सारी शिक्षा व्यवस्था प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा पर टिकी हुई है। प्रत्येक विद्यालयों की
परीक्षा ही नहीं बल्कि प्रत्येक घंटा, प्रत्येक क्षण प्रतिस्पर्धा
का क्षण होता है। यद्यपि मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा गठित यशपाल समिति की
रिपोर्ट की सिफारिश के अनुसार, ‘‘कई संगठन तथा विभाग,
जिला, राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के
लिए स्कूली विषयों, प्रदर्शनियों, निबंध
लेखन, भाषण जैसे विभिन्न क्षेत्रों में प्रतियोगिताएँ आयोजित
करते हैं।............. परंतु दुर्भाग्यवश कुछ एक व्यक्तियों की क्षणिक प्रतिष्ठा
की खातिर अन्य सभी पर इन गतिविधियों का अस्वस्थ प्रभाव पड़ता है। व्यक्तिगत उपलब्धि
को पुरस्कृत करने वाली प्रतियोगिताओं को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है क्योंकि
ये बच्चों को आनंददायक शिक्षा से वंचित करती है।’’ (परिप्रेक्ष्य-अंक
एक, अप्रैल-1994, नीपा, पृष्ठ-157)
विद्यालयों में अहंकार को जगाया
जाता है। नर्सरी तथा पहली कक्षा से ही प्रथम आने के लिए
प्रोत्साहित किया जाता है। सर्वश्रेष्ठ दो-तीन विद्यार्थियों को अलग तरह के ड्रेस
दिए जाते हैं, बैच दिए जाते हैं, स्वर्ण
पदक, सम्मान और पुरस्कार दिए जाते हैं। सवाल उठता है कि जब
दुनिया में प्रतियोगिता सिखाई जाती हो और बच्चों के दिमाग में स्पद्र्धा (कॉम्पटीशन)
और महत्त्वाकांक्षा (एम्बीशन) का जहर भरा जाता हो तो उससे दुनिया अच्छी हो कैसे
सकती है? जब हर बच्चा हर दूसरे बच्चे से आगे निकलने के लिए
उत्सुक हो और जब हर बच्चा हर बच्चे को पीछे छोड़ने वाले गला काट प्रतियोगिता में
शामिल हो तो बीस साल की शिक्षा के बाद जिंदगी में वह क्या करेगा? किसी को पीछे करके आगे होने से बड़ा हिंसा का कोई काम नहीं है। लेकिन यह
वायलेंस हम सिखा रहे हैं और इसको हम कहते हैं कि यह शिक्षा है। अगर इस शिक्षा पर
आधारित दुनिया में रोज-रोज लड़ाई होती है, हत्या होती है तो
आश्चर्य कैसा?
शिक्षा में क्रांति, पुस्तक इस बात को रेखांकित करती हैं कि प्रथम आने में आनंद इसलिए नहीं होता
है कि मैं प्रथम आ गया हूँ, उसका आनंद यही होता है कि मैंने
दूसरों को प्रथम नहीं आने दिया है। यह एक तरह की हिंसा है। अगर एक कक्षा में एक ही
विद्यार्थी हों और वह प्रथम आ जाए तो उसे कोई खुशी नहीं होगी। यदि उस कक्षा में
तीस विद्यार्थी हों तो खुशी बढ़ जाती है, उन्तीस को पीछे
छाड़ने की, दुखी करने की। दूसरे के दुख में सुख अनुभव करना ही
तो हिंसा है। देखा जाय तो आगे बढ़ना दो तरह से होता है। एक तो आगे बढ़ना होता
है-अपने से आगे बढ़ना। मैं जहाँ कल था उससे आज आगे निकल जाऊॅं। यह प्रतिस्पद्र्धा मेरी
मुझसे है-आपसे नहीं। कल जहाँ सूरज इूबा और मुझे छोड़ गया, आज
सुबह सूरज उगे तो मुझे वहीं न पाये। मैं अपने से आगे बढ़ जाऊॅं, अपना अतिक्रमण कर जाऊॅं। ऐसी विद्या विद्यार्थी को मुक्त करेगी जो स्वयं
से अतिक्रमण होने की कला सिखाती है।
आज तक शिक्षा सफलता की पुजारी रही है।
‘शिक्षा में क्रांति’ नामक पुस्तक इस
प्रवृति को घातक मानती है। इस पूरी शिक्षा व्यवस्था में दुख की बात यह है कि यहाँ
असफल के लिए कोई स्थान नहीं है और केवल सफलता की धुन और ज्वर हम पैदा करते हैं तो
फिर स्वाभाविक है कि सारी दुनिया में जो सफल होना चाहता है वह जो बन सकता है,
वह सब कुछ करता है। क्योंकि जब सफलता ही एकमात्र सूत्र है तो वह झूठ
बोलकर मिले या बेईमानी करके लोग उसे हासिल
करना चाहेंगे। अगर कोई सत्य बोलता है और असफल होता है तो क्या करे? जब तक समाज में सफलता ही सारी कसौटी का एकमात्र मापदंड है तब तक दुनिया
में झूठ रहेगा, बेईमानी रहेगी, चोरी
रहेगी। हमें इसके लिए परेशान नहीं रहना चाहिए। सफलता का उतना मूल्य और महत्व नहीं
होना चाहिए समाज में। सफल आदमी कोई बड़े सम्मान की बात नहीं है। सफल नहीं सुफल होना
चाहिए आदमी को। सफलता और सुफलता की प्रक्रिया में ईमानदारी से लगे व्यक्ति का भी
सम्मान होना चाहिए। एक आदमी बुरे काम में सफल हो जाय, इससे
बेहतर है कि एक आदमी भले काम में असफल हो जाय। सम्मान काम से होना चाहिए, सफलता से नहीं।
आज सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि
शिक्षा प्रत्येक को दूसरे जैसा बनने के लिए प्रेरित करती है। वह कह रही है कि राम
जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो, गांधी जैसे
बनो। किसी-न-किसी जैसे बनो लेकिन अपने जैसा बनने की भूल कभी न करना। इससे हीनता का
भाव पैदा होता है। इतना ही नहीं इसी भाव से इष्र्या की दीवार खड़ी होती। एक बच्चे
को दिखाकर हम दूसरे बच्चे से कहते हैं, देखो, यह कितना बुद्धिमान है और तुम कितने बुद्धिहीन-इसके जैसा बनो। हम इष्र्या
जगा रहे हैं। हम उसके भीतर जलन पैदा कर रहे हैं। जब तक दुनिया में हम एक आदमी की
दूसरे आदमी से तुलना करेंगे तब तक हम गलत रास्ते पर चलते रहेंगे, क्योंकि कोई आदमी न तो दूसरे जैसा बना है और न कभी बन सकता है।
ऐसे माहौल में ऐसी शिक्षा चाहिए जो
एक-एक व्यक्ति को यूनिक होने का बोध दे सके। उचित है वह शिक्षा जो प्रत्येक
व्यक्ति को कह सके, तुम जो हो काफी हो, पर्याप्त हो। तुम्हें कुछ और होने की आवश्यकता नहीं। तुम अपनी पूरी
संभावनाओं को खोलो और आनंद का अनुभव करो। शिक्षा यह बता सके कि खुशी का राज इसमें
नहीं है कि आपके पास क्या है, जो आपके पास है उसका आप कैसे
उपयोग करते हैं, खुशी का राज ये हैं। शिक्षा के द्वारा
प्रत्येक व्यक्ति को जो वह हो सकता है, जो उसकी पोटेंशियलिटी
है उसको प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया जाय तो कोई तुलनात्मक भाव पैदा नहीं
होगा। तब हीनता मिटेगी और श्रेष्ठता की दौड़ भी मिट जाएगी।
आज तक की शिक्षा विश्वास की शिक्षा है,
श्रद्धा की शिक्षा है। आज तक विद्यार्थियों को विश्वास और श्रद्धा
ही सिखाया गया - संदेह नहीं। जबकि श्रद्धा और विश्वास बांधते हैं। संदेह मुक्त
करता है। संदेह की तीव्रता खोज बनती है। संदेह है प्यास, संदेह
है जिज्ञासा। संदेह की आग में ही विचार का जन्म होता है और विचार के अभाव में
व्यक्ति निर्मित ही नहीं हो पाता हैं क्योकि व्यक्तित्व की मूल आधारशिला ही उसमें
अनुपस्थित रहती है। जहाँ विश्वास और श्रद्धा है, वहाँ विचार
असंभव है। विचार के लिए तो समस्त ढांचों से मुक्त चित्त चाहिए। शिक्षा में विचार
को इसलिए इतने जर्बदस्त ढंग से रेखांकित किया जाना चाहिए क्योंकि जिंदगी का सारा
विकास विचार का विकास है। जो विश्वास को पकड़कर बैठ जाता है वह विकास की गति को
छोड़कर बैठ जाता है।
हमारी शिक्षा मूल रूप से ‘स्मृति का संग्रह’ भर है जिसका आज की तारीख में कोई
मूल्य नहीं। क्योंकि कौन स्थान कहां है, किसका जन्म कहां हुआ,
छात्रों के मस्तिष्क में भरने का कोई बहुत अर्थ नहीं है। क्योंकि यह
सारा काम अब तो कॅंप्यूटर भी कर लेता है। शिक्षा की अब तक की हमारी धारणा सिर्फ ‘इंफार्मेशन फीडिंग’ की रही है। महान शिक्षाविद, रामशरण
जोशी ने भी ‘आदिवासी समाज और शिक्षा’ नामक
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में इस विषय पर खेद प्रकट किया है कि आज शिक्षा केवल सूचना,
विवरण और वृतांतो का आदान-प्रदान भर है। वह एक सामाजिक प्रक्रिया न
बनकर शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच की एक क्रिया मात्र बनकर रह गयी है।
वास्तविकता तो यह है कि जिदंगी मांगती
है बुद्धिमत्ता, इंटेलीजेंस, विसडम और
विद्यालय एवं विश्वविद्यालय देता है-स्मृति, मेमोरी। जिंदगी
में स्मृति काफी नहीं है। स्मृति विल्कुल यांत्रिक प्रक्रिया है। जितने पीछे हम
लौंटेंगे उतनी स्मृति की शिक्षा गहरी थी। रटा देना, पक्का मन
में बिठा देना, संस्कारित कर देना, कन्विंस
कर देना पुरानी शिक्षा का काम था। शिक्षा ने बुद्धिमत्ता पैदा नहीं की-स्मृति पैदा
की-जो पुनरूक्त कर सकती है। शिक्षालय की सारी परीक्षाएं मुख्य रूप से स्मृति की
परीक्षाएं हैं। हम यह जांचते हैं कि विद्यार्थी ठीक से दोहरा पाया है या नहीं।
लेकिन ठीक से दोहराने वाला व्यक्ति ज़िदगी में खो जाएगा। क्योंकि जिंदगी रोज नये
सवाल उठाती है। पुराने उत्तर नये सवालों के सामने हार जाते हैं। इसलिए भविष्य के
शिक्षकों को जोर देना पड़ेगा, बंधा हुआ उत्तर कृपा करके मत दो,
नया उत्तर खोजो। नये उत्तर का ज्यादा सम्मान होगा चाहे नया उत्तर
गलत ही क्यों न हो। नये की खोज में भूल अनिवार्य है। इसलिए अगर स्मृति से मुक्त और
बुद्धि को केन्द्र पर रखना हो तो हमें ध्यान रखना होगा कि भूल करने का स्वागत करना
चाहिए। जो सर्वाधिक भूलें करने के लिए निरंतर तत्पर हैं लेकिन दोहराने की उत्सुकता
में नहीं हैं, कुछ खोज-बीन की उत्सुकता में हैं, तो हम बुद्धिमत्ता को विकसित कर पायेंगे।
विद्यालय को ज्ञान नहीं देना है,
देना है ज्ञान की पिपासा। ज्ञान नहीं सिखाना है-सिखाना है सीखने की
क्षमता। कई वर्षों से शिक्षा जिज्ञासा नहीं सिखा पाती है, जिज्ञासा
मार देती है, पकड़ा देती है फार्मूले, किताबें।
जीवंत मनुष्य को पैदा करने के लिए ज्ञान नहीं देना है। पुराने ज्ञान का उपयोग
संदेह उत्पन्न करने के लिए करना चाहिए, प्रश्न जगाने के लिए
करना चाहिए। कहने का आशय यह कि ‘पुरानी शिक्षा देती थी
उत्तर-नयी शिक्षा सिखाएगी प्रश्न।
विद्यालय में सर्वाधिक जोर अनुशासन पर
होता है। सभी शिक्षक परेशान हैं क्योंकि आज विद्यार्थी उतने अनुशासित नहीं रह गए
हैं। लेकिन कदाचित वे यह नहीं समझ पाए हैं कि अनुशासन कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है।
क्योंकि विद्यालय में डर एवं भय के मार्फत अनुशासन कायम की जाती है। लेकिन यह
सर्वविदित है कि डर तथा भय साकारात्मक प्रभाव पैदा कर ही नहीं सकता है। यही डर
साहस को खत्म कर देता है और झूठ को बढ़ावा देता है। सोचने की बात है कि हजारों साल
से विद्यार्थी अनुशासित थे, लेकिन क्या हुआ? अनुशासन सिखाने का मतलब क्या है? हम जो कहें वह ठीक
माने। हम जो कहें उस पर शक मत करो। हम कहें बैठो तो बैठ जाओ, हम कहें उठो तो उठा जाओ। यह इसलिए कि उसके भीतर कोई चैतन्य न रह जाए,
उसके भीतर कोई विवेक और विचार न रह जाए।
सच्चाई तो यह है कि जो जितना जड़ है
उतना ही अनुशासित हो जाएगा। यंत्र बहुत अनुशासित होता है। विवेक सदा ही ‘हां’ नहीं कह सकता है, उसे ‘नहीं’ कहना भी आना ही चाहिए। उसके ‘हां’ में भी तभी मूल्य और अर्थ है जब वह ‘नहीं’ कहना भी जानता हो। लेकिन अनुशासन ‘नहीं’ कहना नहीं सिखाता है। वह तो सदा ‘हां’ की अपेक्षा करता है। ऐसी जड़ता की शिक्षा के
कारण ही तो दुनिया में युद्ध और हिंसा चल रही है। अगर अनुशासन की जगह विवेक सिखाया
गया होता, आज्ञाकारिता की जगह विचार सिखाया गया होता तो
निश्चय ही दुनिया बिल्कुल दूसरी ही हो सकती थी।
अनुशासन के संदर्भ में ओशो ने अपनी
पुस्तक में एक रोचक घटना का जिक्र करते हुए लिखा है कि मेरे एक मित्र रूस गए। एक
क्लास की स्थिति देखकर वे दंग रह गए। उन्होंने वहां देखा कि एक विद्यार्थी जूता
टिकाए हुए टेबल के ऊपर टिका हुआ, पीछे आंख बंद किए हुए क्लास
में शिक्षक की बातें सुन रहा है। मेरे मित्र को वह लड़का नितांत अनुशासनहीन जान
पड़ा। उस शिक्षक से जब मेरे मित्र ने उस लड़के के बाबत बात की तो उन्होंने कहा-
‘‘अनुशासनहीनता? नहीं, आप शिक्षक की बहुत पुरानी धारणा लिए हुए हैं।
विद्यार्थी मुझे इतना प्रेम करते हैं कि वे मरे साथ ‘एटइज’
हो सकते हैं, बिल्कुल सहज रह सकते हैं। दरअसल
मेरा काम इससे जरा भी संबंधित नहीं है कि वे कैसे बैठें हैं। मेरा काम तो इससे संबंधित
है कि मैं जो समझा रहा हूं उसे वे समझ रहे हैं या नहीं। मेरा मानना है कि वे जितना
निश्चिन्त और आराम से बैठ सकते हैं उतना ही समझ सकते हैं और जितने तनाव में
बैठेंगे उतना कम समझेंगे।’’
भारत में सहशिक्षा की व्यवस्था तो कर
दी गई लेकिन उसके लायक मनोदशा तैयार नहीं की गई। फलस्वरूप अकेली लड़की का सड़क से
गुजरना मुश्किल है। लड़के धक्के मारते हैं। चुन्नियां खींचते हैं, दीवारों पर गंदी-गंदी गालियां लिखते हैं। इसके लिए शिक्षा-व्यवस्था तथा मां-बाप
जिम्मेवार हैं, जिन्हें सेक्स के संबंध में एक भय, डर, झूठ, असत्य का पर्दा डाला
और लड़के-लड़कियों को इतनी दूरी पर बड़ा किया। धक्का मारना पास आने की ही एक तरकीब
है। चूंकि सीधा हाथ से लड़की को छूना संभव नहीं रहा, इसलिए
धक्का मारना सिम्बालिक रूप से स्पर्श करना है।
आशो का मानना है कि लड़की को हाथ से
छूना एक प्रीतकर बात हो सकती है और धक्का मारना अत्यंत, घृणित,
अत्यंत, क्रूर कृत्य। अगर लड़के और लड़कियाॅं
साथ बड़े हों, साथ खेलें, दौड़ें,
गिरे, तैरें, एक दूसरे
को जाने, एक दूसरे के शरीर को पहचाने तो कभी यह संभव नहीं है
कि कोई लड़का ऐसा गलत व्यवहार करे। इसलिए अद्भुत और प्रयोगिक विद्यालय तोमोए के
संस्थापक सोसाकु कोयाबागी जब बच्चों को तरण-ताल में स्नान करने के लिए गए तो
उन्होंने सभी को नंग-धड़ंग जाने की आज्ञा दी। इस अनुमति के पीछे उनका यही विचार था
कि लड़के-लड़कियों में एक दूसरे के शारीरिक अंतरों को लेकर किसी तरह की कुत्सित
उत्कंठा न रहे। हेडमास्टर जी को बच्चों में शरीर को छुपाने के उपक्रम कृत्रिम लगते
थे। वे बच्चों को यह सिखाना चाहते थे कि हर शरीर का सौन्दर्य होता है।
(तोतोचान-तेत्सुको कुरोयानागी, पृ.-35)
शिक्षा के ऐसे माहौल में शिक्षकों की
जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है, वही उसके उद्धारक हो सकते हैं। ‘शिक्षा में क्रांति’ में ओशो लिखते हैं कि ‘‘शिक्षक को विद्रोही होना होगा-क्रांतिकारी होना होगा। लेकिन आज शिक्षक की
हालत ठीक इसके विपरीत है। आज समाज में शिक्षक नवीन विचार का संवाहक कम दकियानूस
ज्यादे हैं। वही पुरानी चीजों को दोहराये जा रहा है। उसे सारी अच्छाइयां अतीत में
ही नजर जाती हैं। शिक्षकों में हमारे मूल्य के बाबत विद्रोह का रूख होना चाहिए।’’
व्यवस्था और राजनीति बर्दास्त नहीं कर
सकता है कि शिक्षक क्रांतिकारी हों। क्योंकि जिस दिन शिक्षक क्रांतिकारी हो जाएगा,
उसी दिन से नये समाज का निर्माण शुरू हो जाएगा। वास्तव में अगर हम
चाहते हैं कि भारत पुनर्जीवित हो तो शिक्षक को महत्त्वपूर्ण कार्य करना होगा। वे
बच्चों को पुराना मत होने दें। इससे पहले कि वे अतीत मोह में फंसे-नये बीज बो दें।
इससे पहले कि उनके कान पुराने रागों से जड़ हो जाएं, नये गीत
की आवाज पहुंचा दें, जिससे वे जग जाएं और नए की खोज में
संलग्न हो जाएं।
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