बालमुकुन्द गुप्त की किसान चेतना
तब मैं भारत पुत्र कहाऊं
दुखमय दशा सुधारि देश को,
उन्नति पथ पर लाऊँ
उन्नति पथ पर लाऊँ
लखत विलखत कृषक बन्धु को आंसू पोछ हँसाऊँ
श्यामलाल गुप्त
हिंदी साहित्य के इतिहास में भारतेंदु और द्विवेदी युग का महत्व अपने समय को
थाहने, मापने और उससे होड़ लेने में है| आशय यह कि इस युग की रचना समय-सचेत रचना
है| दुःख की बात यह है कि आज का हिंदी साहित्य अपने समय का जायजा उस रूप में नहीं
ले पा रहा| आज देश में सबसे बदतर स्थिति किसानों की है| अब तो उनकी आत्महत्या खबर
भी नहीं बन पाती| मीडिया को इस तरह की
ख़बरें प्रसारित करने की अप्रत्यक्ष मनाही है|किसानों के सरोकार और उनकी पीड़ा
हिन्दी कविता, कहानी और उपन्यासों में कदाचित ही सुनने को मिले| चन्द रचनाकार ही
इस गलियारे में जाने का जोखिम उठा पाते हैं| द्विवेदी युगीन हिन्दी साहित्य का
वैशिष्ट्य यह है कि वह अपने समय का अनुवाद है| इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता
है कि उस समय के अधिकांश रचनाकार भी अलग-अलग तरह के द्वंद्व और द्विविधा में थे|
ब्रितानी शासन के जुल्म और शोषण की आलोचना इस युग के साहित्य-लेखन का मुख्य स्वर
है तथापि कुछ ही रचनाकार आर-पार की चुनौती स्वीकार करने का साहस जुटा पा रहे थे|
बालमुकुन्द गुप्त का स्वर इनमें सबसे मुखर, प्रमुख और धारदार था|
सुधार के नाम पर ब्रिटिश शासन ने भारतीय कृषि-व्यवस्था की रीढ़ तोड़ डाली थी|
उनके लिए देश की कृषि भूमि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के अतिरिक्त कुछ नहीं|
यद्दपि मुग़ल शासन में भी किसानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, कर का बोझ भी कम
नहीं था, तथापि कर वसूली अमानवीय नहीं थी| अंग्रेजों ने भारतीय किसानों पर दोधारी
तलवार चलाया| एक तो मालगुजारी कई गुनी बढ़ा दी और दूसरी तरफ़ उसकी वसूली में कोई
मुरव्वत नहीं बरती| बालमुकुन्द गुप्त ने ब्रिटिश राज के इस छल-छद्म को अपनी रचनाओं
में तीखी आलोचना की है| गुप्त जी की चेतना किसानों की दुर्दशा को बहुत करीब से देख
पा रही थी| उनकी किसान-चेतना कहीं से भी हवाई, काल्पनिक और अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं
है, बल्कि यथार्थ और शोधानुकूल है| दादाभाई नरौजी से लेकर आरसी दत्ता जैसे
अर्थशास्त्रियों के ब्रिटिश अर्थ-नीतियों के अध्ययन से इनकी चेतना पूर्णतः मेल
खाती है| सर्वप्रथम नरौजी ने ब्रिटिश अर्थ-नीति की पोल अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मनी
ड्रेन’ में खोली और कहा कि ‘इंगलैंड भारत का खून चूस रहा है|’ इस दृष्टि का विकास
आरसी दत्त ने अपनी पुस्तक में किया और कहा कि 1765 की तुलना में 1789 तक आते-आते
भूराजस्व में 400% की वृद्धि हो चुकी थी| कल्पना की जा सकती है कि 24 वर्षों में
400% की वृद्धि! किसानों की क्या हालत हुई होगी इसके लिए इतने संकेत पर्याप्त हैं|
जो भी अन्न वे उपजाते, उसे मालगुजारी में दे देने को वे विवश थे| क्योंकि
अंग्रेजों द्वारा चलायी गई नीति स्थायी बंदोबस्त (परमानेंट सेटलमेंट) के तहत
मालगुजारी की रकम उपज के अनुसार न होकर निर्धारित थी| इसलिए कई बार उपज से अधिक
मालगुजारी की रकम हो जाया करती थी| ऐसी नाजुक स्थिति में अन्न उपजाने वाला किसान
अन्न के एक-एक दाने के लिए तरसने लगा था- ‘पानी बीच मीन पियासी ...|’ बालमुकुंद
गुप्त की किसानों पर लिखी कविता इसी दारुण गाथा की करुण काव्यात्मक अभिव्यक्ति है-
तन सूख्यो मन मरयो प्रान चिंता लागि छीजै
छन छन बढ़त कलेस कहो कर जीजै
जरत अन्न बिन पेट देह बिन वस्त्र उघारी
सूखा और अकाल में तो भारतीय किसान त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगते| यूनिवर्सिटी
ऑफ़ साउथ कैरोलिना के विद्वान शिक्षक दिनयार पटेल ने ऐसी स्थितियों का अत्यंत
मार्मिक विश्लेषण अपने एक आलेख ‘जब ब्रितानी अफसरों ने मरने दिए दस लाख भारतीय’
में किया है| सन 1866 के अकाल के बाबत वे लिखते हैं ‘पुरी में बचे लोग लाशों के
ढेर को दफनाने के लिए गड्ढे खोद रहे थे... एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार आप मीलों
तक खाने की लिए उनकी चीत्कारें सुन सकते थे|’ (www.bbc.com, 11 जून 2016) पीड़ादायक
तथ्य यह है कि जब भारत के किसान-जनता दाने-दाने को तरस रहे थे, बकौल नरौजी जी भारत ने 20 करोड़ पाउंड चावल ब्रिटेन को निर्यात
किया| 1876 और 1878 के बीच पचास लाख लोग अकाल में मारे गए थे| ऐसी ही भयावह दशा का
वृत्त-चित्र है बालमुकुन्द गुप्त की कविता| ‘देव-देवी स्तुति’ कविता में वे
लिखते हैं कि एक मृत स्त्री को गिद्ध नोच रहा है और उस मृत स्त्री का बच्चा उसकी
छाती से चिपका हुआ है-
मरी मात की देह को गीध रहे बहु खाल|
ताहीसों यक दूध को सिसू रहयो लपटाय||
अकाल के गर्भ से प्लेग जैसी भीषण महामारी फैलती है| मर्माहत कर देने वाला यह
दृश्य प्लेग जनित ही है| ऐसी डरावनी स्थिति को कुछ अंग्रेज अधिकारी भी रखांकित कर
रहे थे, लेकिन ब्रितानी हुकूमत के कान पर जूँ तक नहीं रेंगता| महावीर प्रसाद
द्विवेदी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘सम्पत्तिशास्त्र’ में बताया है कि, “पंजाब के गवर्नमेंट
के फाइनानशियल कमिश्नर एस एस थार्बन साहब ने लिखा था कि पंजाब में कितनी ही
जगहों की प्रजा दरिद्रता में इतनी डूब गई है कि उसका उबार होना अब असम्भव है|
सरकारी मालगुजारी देने की लिए महाजनों से कर्ज लेने ही के कारण प्रजा की यह दशा
हुई है| विशेष करके गरीबी ही के कारण प्रजा उजड़ती जाती है और आजकल प्लेग से मरती
जाती है| पर मालगुजारी कम नहीं होती| कम
होना तो दूर रहा गत पंद्रह वर्षों में बढ़कर,2,25,00,000 रुपये से 2,88,75,000 हो
गई है| अर्थात 30 रूपया प्रजा से अधिक वसूल किया गया है|’’(संपत्तिशास्त्र-महावीर
प्रसाद द्विवेदी, एनबीटी,2014, पृष्ठ 119-120)
अकाल किसानों की कमर तोड़ डालता है और उसे कहीं का नहीं छोड़ता| मध्यकाल में
तुलसीदास ने अपनी कविता में अकाल और किसानों के हाहाकार को मार्मिक अभिव्यक्ति दी
है| आधुनिक काल के आरंभिक समय में बालमुकुंद गुप्त ने ब्रिटिशकालीन अकाल जनित
किसान-पीड़ा को अत्यंत संवेदशीलता के साथ उकेरा है-
बार बार मारी परत बारि बार अकाल|
काल फिरत नित सीस पे खोले गाल कराल||
मध्यकाल के भूख, अभाव और दारिद्र्य को अभिव्यक्त करने वाले सबसे बड़े कवि
तुलसीदास हैं और द्विवेदीयुग के सबसे बड़े कवि बालमुकुन्द गुप्त| किसान से सम्बंधित
कविता तो मध्यकाल के दूसरे कवियों ने भी लिखी है किन्तु किसान-चेतना के दर्शन
तुलसीदास की कवितावली में ही होते हैं| द्विवेदीयुगीन रचनाकारों में गुप्तजी की
कविता और निबंधों में किसान चेतना के कई रूपों की पड़ताल की जा सकती है| गुप्तजी की
इस तरह की कविता किसानों की सारी उपजीविका
के छिन जाने की त्रासद-गाथा है-
धरती के जी में छाइ ऐसी निठुराइ
उपजीविका किसानों की सब भाँति घटाई
रहा नहीं तृण न्यार कहीं कृषकों के घर में
पड़े ढोर उनके गोरक्षककुल के कर में
अभाव और दारिद्र्य इस सीमा तक थी कि किसानों को भीख माँगने की नौबत आ गई थी|
सी जे ओडोनल पार्लियामेंट-‘हाउस ऑफ़ कॉमन्स’ के सदस्य थे| उन्होंने अपने एक लेख में
भारतीय किसानों की दुर्दशा का जो चित्र
उपस्थित किया है वह रोंगटे खड़े करने वाले हैं, “आप देहात में जाकर देखिए सौ पचास किसानों में कहीं एक-आध
आपको ऐसा मिलेगा जिसे रोटी,कपड़े की तकलीफ न हो...सिर्फ दस वर्ष में मद्रास प्रान्त
के कृषिजीवी लोगों को एक अष्टमांश, मालगुजारी न दे सकने के कारण, जमीन, घर-द्वार,
बर्तन-भांडे बेचकर ‘भिक्षां देहि’ करने लगा| (संपत्तिशास्त्र-महावीर प्रसाद
द्विवेदी, एनबीटी,2014, पृष्ठ 121-122) बालमुकुन्द गुप्त किसानों की इस बेबसी को
अपना काव्य-विषय बनाते हैं| उन्हें यह बात
अन्दर तक सालती है कि श्रम पर भरोसा करने वाले किसान समुदाय के लोगों को हाथ
पसारने की नौबत आ गई है-
बारेक नयन उघारि देखि जननी निज भारत|
साक अन्न बिनु चहुँ दिस डोलै हाथ पसारत||
गुप्तजी की चेतना अत्यंत व्यापक थी| किसानों के प्रति उपेक्षा भाव को लक्षित
कर वे अंग्रेजों के अतिरिक्त बड़े और कद्दावर भारतीय नेताओं, बुद्धिजीवियों की भी
आलोचना करने में हिचकते नहीं थे| सर सय्यद अहमद भारतीय मुस्लिम समाज के प्रतिनधि
माने जाते थे, और नवजागरण के अग्रदूत| मुस्लिम समाज के अतिरिक्त भारतीय किसानों की
समस्या उनके सरोकार में नहीं था| बल्कि इसके विपरीत वे अंग्रजों की नीति के
प्रशंसक थे| गुप्तजी ने इनकी आलोचना करते
हुए एक लम्बी कविता ‘सर सय्यद का बुढापा’ लिखी| इस कविता में उन्होंने कृषक समाज के महत्व को
बताते हुए लिखा-
सय्यद बाबा! एक क्षण भर को ध्यान इधर भी कर लीजे,
इस सीधी सी बात का मेरे अवश्य ही उत्तर दीजे
जब यह कृषक समाज सर्वथा नष्ट भ्रष्ट हो जाएगा
तब यह सुख लोलुप समाज क्या आप अन्न उपजावेगा|
बालमुकुन्द गुप्तजी की कविताओं में किसान और गाँव को लेकर नोस्टेल्जिया भी है|
अंग्रेजों के आने के बाद उन्हें गाँव बदलता हुआ सा प्रतीत होता है| वसंतोत्सव
शीर्षक कविता में गाँव के प्रति उनकी भावुक दृष्टि अधिक प्रभावी है-
कहाँ गए वह गाँव मनोहर परम सुहाने,
सबसे प्यारे परम शान्तिप्रद मनमाने|
कपट और क्रूरता पाप और मद से निर्मल,
बालमुकुन्द गुप्तजी ने देवी-देवता के प्रति कई स्तुतिपरक कविताएँ लिखी हैं| लेकिन यह भक्ति कम, देश के किसान और आमजन का आर्तनाद अधिक है| स्तुति-शैली में उन्होंने आमजन की पुकार को वाणी दी है| ये आर्तपुकार इतनी मार्मिक और हृदयस्पर्शी है कि हठात तुलसीदास की विनयपत्रिका याद आ जाती है-
गज रथ तुरंग बिहीन भये ताको डर नाहीं
चंवर छत्र चाव नहि हमरे उर माहीं
सिंहासन अरु राजपाट को नाहीं उर आनो
ना हम चाहत अस्त्र वस्त्र सुन्दर पट गहनों
पै हाथ जोरि हम आज यह
रोय रोय विनती करैं
या भूखे पेट पापी कहँ
मात कहो कैसे भरैं?
पशुपालन किसानी जीवन का आधार रहा है| गाय, भैंस, बैल, बकरी आदि किसानों के प्राणाधार
रहे हैं| किसान जीवन के प्रति विशेष लागव के कारण ही गुप्तजी भैंस जैसे विषय पर कविता लिखते हैं| कदाचित इसी
भाव का विस्तार आगे चलकर नागार्जुन करते हैं, जब वे मादा सूअर को ‘मादरे हिन्द की
बेटी’ से नवाजते हैं| गुप्तजी ने ‘भैंस का स्वर्ग’ नाम से 11 अंतरा की
कविता लिखी है-
कभी कहीं कुछ चाहती है कभी कहीं कुछ खाती है
कभी सरपतों के झुंडों में जाकर सींग लगाती है|
आलेख का आरम्भ द्विवेदीयुगीन श्यामलाल गुप्त की जिस कविता से की गई है वह इस
बात को रेखांकित करती है कि देश तभी उन्नति कर सकता है जब देश के किसान खुशहाल
हों| कोई अपने को भारत पुत्र तभी कह सकता है जब वह किसानों के दुखों को समझे, उनके
आंसू पोछे| आज देश में किसान थोक भाव में आत्महत्या कर रहे हैं, सडकों पर नारे लगा
रहे हैं, मँहगाई की भीषण चक्की में पिस रहे हैं, लेकिन उनके आँसू पोछने की बात तो
दूर, उनसे बात करने की फुर्सत भी किसी राजनेता को नहीं है| जिनकी बदौलत सभी
भारतीयों की पाँचों उंगलियाँ मुँह में
जाती हैं, उन्हीं का पेट खाली है, आँखें सूनी हैं| लेकिन हमारे ‘भारत पुत्रों’ को
हिन्दू मुसलामन से फुर्सत कहाँ? ‘भारत पुत्र’ की परिभाषा अब बदल गई है, आज भारत
पुत्र वह है जो बड़े-बड़े उद्योगपतियों, कम्पनियों की दशा सुधारने में लगे हैं|
गुप्तजी के समय में भी ब्रिटिश अधिकारी इंग्लैंड की ओर आशा भरी नज़रो से ताकते|
महारानी विक्टोरिया से वाहवाही की बाट जोहते| आज की तरह उस समय का प्रशासन काम कम
और काम का ढिंढोरा अधिक पीटता था| ऐसी हालात का जायज़ा लेते हुए बालमुकुन्द
गुप्त लार्ड कर्जन के निमित्त जो लिखते
हैं उसे आप आज के ‘पाठ’ के रूप में भी पढ़ सकते हैं- “आपकी भारत में स्थिति की अवधि पाँच वर्ष पूरे हो गए| अब यदि
आप कुछ दिन रहेंगे तो सूद में, मूलधन समाप्त हो चुका है| हिसाब कीजिये नुमायशी
कामों के सिवा काम की बात आप कौन सी कर चले हैं और भड़कबाजी के सिवा ड्यूटी और कर्तव्य
की ओर आपका इस देश में कब ध्यान रहा है? इस बार के बजट की वक्तृता ही आपके कर्तव्य
काल की अंतिम वक्तृता थी| जरा उसे पढ़ जाइये फिर उसमें आपकी पाँच साल की किस अच्छी
करतूत का वर्णन है|” (बनाम लार्ड कर्जन,
शिवशम्भू के चिट्ठे-बालमुकुन्द गुप्त, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 11)
(देस हरियाणा के बालमुकुन्द गुप्त विशेषांक, सितम्बर 2019 में प्रकाशित)
(देस हरियाणा के बालमुकुन्द गुप्त विशेषांक, सितम्बर 2019 में प्रकाशित)
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