हर घर में एक सज्जो होनी चाहिए


मरे लोगन में तो लड़कियन की जिन्दगी जहन्नम की जिन्दगी से बत्तर होत ही| जेका जहन्नम की जिन्दगी देखे का सौउक होय ऊ आय के हमरे लोग की जिन्दगी देख लो|

मेराज अहमद का उपन्यास आधी दुनिया  मुस्लिम समाज में स्त्री पीड़ा और स्त्री हाहाकार को अत्यंत मार्मिक ढंग से रेखांकित करता है| यह उपन्यास पाठकों को एक ऐसे अंध गलियारे से लेकर गुजरता है, जहाँ वे भारतीय मुस्लिम समाज में लड़कियों की दमित आकांक्षाओं की सिसकियों और हिचकियों को साफ़ सुन सकते हैं| इन लड़कियों का एक छोटा सा सपना है- पढ़ना-लिखना| लेकिन वह अपनी सारी जद्दोजहद के बावजूद अपने इस छोटे से सपने को आकार नहीं दे पाती है| इस सपने को पाने के लिए वह विचित्र और अनोखे किस्म की अहिंसक लड़ाई लड़ती है| इस लड़ाई की विडम्बना  यह है कि यह वाह्य रूप से बहुत कम दिखती है किन्तु अपने अन्दर पूरा सैलाब समेटे होती है| दूसरी विडम्बना यह है कि यह लड़ाई किसी दूसरे से नहीं खुद से है, खुद के परिवार से है, खुद के समाज से है| उन्हीं के साथ रहना है और उन्हीं से लड़ना भी है- ‘तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई|’ थकना है, हारना है, फिर लड़ना है| इस लड़ाई और मुहब्बत की कश्मकश और तनातनी को उपन्यासकार ने मूर्त रूप प्रदान किया है| आधी दुनिया  सर्जनात्मक और रोचक संवाद का भरपूर खजाना है| संवाद सृजन में उपन्यासकार को महारथ हासिल है| उपन्यास के सारे घात-प्रतिघात, समस्याएँ-समाधान और उठा-पटक को लेखक ने चुस्त संवाद के जरिए उद्घाटित कर दिया है|
जैसा कि उपन्यास के नाम से स्पष्ट है स्त्री-चित्त की गहन पड़ताल उपन्यास को विशिष्ट बनाती है| लेखक अपने को कायांतरित कर स्त्री-मन में उतरता है और सामान्य ग्रामीण मुस्लिम स्त्रियाँ उपन्यास में कुलबुलाने लगती हैं| आदि से अंत तक उपन्यास में जिस अपार धैर्य से स्त्री चरित्रों को गढ़ा गया है, वह विलक्षण है| वैविध्यपूर्ण स्त्री दुनिया से आपका साक्षात्कार इस उपन्यास में होगा| जैसे-जैसे आप उपन्यास की दूरियाँ तय करते जायेंगे किस्म-किस्म की स्त्रियों से आपका पाला पडेगा| इन स्त्री चरित्रों की खूबी यह है कि इनमें कोई भी स्त्री विशिष्ट नहीं हैं| सामान्यता ही उनकी विशिष्टता है और सहजता ही उनका सौन्दर्य| कोई स्त्री अगर बुरी है तो वह अपनी सामान्यता में बुरी है| इस तरह का चरित्र निर्माण साधारण बात नहीं होती| यही वजह है कि आधी दुनिया यथार्थ की भूमि टटोलता उपन्यास है| यथार्थ यदि हमारी आँखें खोलता है तो आदर्शवाद हमें उठाकर किसी मनोरम स्थान में पहुंचा देता है| आधी दुनिया  उपन्यास किसी मनोरम दुनिया की सैर नहीं कराता| यह उपन्यास  दिन रात संघर्ष करती, टुकड़े-टुकड़े में जीवन जीती, थोड़ी सी बेहतरी का ख्व़ाब पालती हुई स्त्रियों की ऐसी दुनिया की यात्रा पर ले जाता है, जहाँ अंतहीन संघर्षों में मर-खप जाना उनकी नियति बन जाती है| आधी दुनिया स्त्री करुणा का शोकगीत है|
कहने के लिए तो यह उपन्यास मुस्लिम स्त्री के कठोर सच को उद्घाटित करता है, किन्तु यह सचाई निम्न और मध्य आय वर्ग के सभी भारतीय स्त्रियों के लिए सच है| पितृसत्ता के  जिस दमघोंटू माहौल में आधी दुनिया की मुस्लिम स्त्रियाँ जीने-मरने पर विवश की जाती हैं, कमोबेस देश की सभी स्त्रियों की हालत ऐसी ही है| हिन्दू लड़कियों को भी बेहतर शिक्षा पाने के लिए कई-कई महाभारत लड़ने पड़ते हैं| कुछ चंद लड़कियाँ यह युद्ध जीत पाती हैं और अधिकांश अभिमन्यु  की तरह रास्ते में ही दम तोड़ देती हैं| पढ़ने-लिखने का उनका सपना शब्द के सही अर्थ में सपना ही रह जाता है| सीलन और धुआँ भरे रसोई के साथ संवेदनहीन ‘अनमोल’ पति पलक पांवड़े बिछाए उनका स्वागत करता है| लड़कियों की इच्छाएँ, सपने और संघर्ष की कथात्मक अभिव्यक्ति का दूसरा नाम है- आधी दुनिया | इन लड़कियों के माँ-बाप हैं कि जैसे-तैसे इनके हाथ पीले करने के लिए मरते हैं तो लड़कियाँ हैं कि पढ़-लिखकर कुछ बन जाने के बाद अपने मन मिजाज के लड़के से शादी करने की  अपनी अनकही इच्छाओं को अन्दर ही अन्दर समेटे हुए घुटती-तड़पती रहती हैं| उपन्याकार ने इस घुटन और तड़प को अत्यंत सलीके और संजीदगी से उपन्यास में बयाँ किया है|
मुहब्बत और प्यार मनुष्य की आदिम वृत्ति है| प्यार मनुष्य को बेहतर से बेहतर इंसान बनाने में मदद करता है| प्यार की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि यह अर्जित होता है, प्रदत्त नहीं| विश्व साहित्य प्रेम की उर्जस्वित परम्परा और उसकी महिमा का गान मुक्त कंठ से करता है| इसीलिए प्रेम को महान पुरुषार्थ कहा गया है- प्रेमा पुमर्थो महान| किन्तु समाज का पारम्परिक ताना-बाना प्रेम को स्वीकार नहीं कर पाता| धार्मिक वाह्याडम्बर में जीता पुरातनपंथी समाज में प्यार की दुश्वारियों का अंत नहीं| सामान्य भारतीय समाज की तरह आधी दुनिया के ग्राम्य समाज का प्यार पर कड़ी पहरेदारी है| उपन्यास की अतिया प्रेम करने की भारी सजा पाती है| वह विनोद नाम से लड़के से प्यार करने की ‘गलती’ कर बैठती है| उसे विनोद से बेइंतहा प्यार है- पवित्र और एकनिष्ठ प्यार| अतिया के लिए यह प्यार करेले पर नीम चढ़े जैसा हो गया| एक तो प्यार ऊपर से दूसरे धर्म के लड़के से| पूरा गाँव इस प्यार का दुश्मन हो जाता है| एक-से-एक कथाएँ गढ़ ली जाती हैं| और इन कथाओं-उपकथाओं का एकमात्र मकसद अतिया को  अधिक-से अधिक बदनाम करना है| इन चतुर और शातिर कथाओं की असलियत सज्जो जानती है, किन्तु सज्जो की सुनता कौन है? वह जानती है कि यह गाँव के लहेंगड़ा लोगन का काम है| प्यार के बदले ‘तोहफ़ास्वरुप’ आननफ़ानन में नितांत बेमेल वयस्क से अतिया की शादी कर दी जाती है| यह अनिच्छित शादी उसकी जान लेकर जाती है| उसकी सामान्य मौत होती तो भी गनीमत थी, किन्तु जिस तरह घुट-घुट कर वह मरती है और घर-परिवार वाले उसके मरने की प्रतीक्षा करते हैं, वह पाठकों को अन्दर तक हिला जाती है| इस घोर अवसादपूर्ण मृत्य-आख्यान को लेखक ने अपनी वर्णन क्षमता से और अधिक कारुणिक बना दिया है| यह उपन्यास के कुछ महत्वपूर्ण लमहों में एक है|
विनोद अतिया को पढ़ाने आता था| पढ़ते-पढ़ाते वे दोनों इश्क़ के दो हर्फ़ भी पढ़ने लगे| जन्मजात शाकाहारी विनोद इश्क़ में इतना मतवाला हो गया कि एक दिन अतिया के घर प्रेम के वशीभूत अंडा भी खा जाता है| विनोद के लहराते बालों पर जब अतिया की नजर जाती तो अतिया को उसकी बातें सुनाई ही नहीं पड़ती| वह बोलता तो मानो फूल झड़ रहे हों|... वह चाहती कि बस बोलते ही रहें, वह सुनती रहे| प्रेम के ये अनमोल क्षण कतरे और बिम्बों में उसे मृत्यु के समय याद आते हैं| वह इन  लमहों को याद कर कभी हँसने लगती है, कभी मुस्कराने लगती है तो कभी गुनगुनाने-बड़बड़ाने लगती है| लोग इसे जिन्नात का असर मानते हैं| प्रेम के बहुत थोड़े से बिताये क्षण को मरते समय महसूस कर अतिया के चहरे पर आते-जाते, बनते-बिगड़ते भाव को जिन्नात का करामात समझना, परिवार की मासूमियत नहीं कांइयापन है| मायके वाले इलाज भी झाड-फूक के रूप में जिन्नात का ही करते हैं, बिमारी का नहीं| सज्जो को छोड़कर वहाँ कोई नहीं जो अतिया की अंतर्वेदना को समझ पाए|
अतिया और उसके पति के बीच उम्र का फासला काफ़ी था-बाप-बेटी के फ़ासले जैसा| ऊपर से पान, बीड़ी, खैनी और तम्बाकू भकोसते-भकोसते उसके मुँह से ही नहीं पूरी देह से तम्बाकू की दुर्गन्ध आती| खाना-पीना तो मुश्किल था ही ऊपर से उस गन्हाती देह के साथ सोने की विवशता| गाँव की प्रेम-कथा अतिया के ससुराल पहुँचने से पहले भोकाल बन चुकी थी| अतिया इन बातों को याद करना नहीं चाहती| लेकिन यादों पर किसका वश चला है- एक बात का बतंगड़ बनाकर सबने मेरा जीना हराम कर दिया| इससे भी मन नहीं भरा तो जबरदस्ती शादी करवा दी| जिन्नात खाम्भीस तो कहने के लिए होते हैं| मेरा आदमी तो उनसे भी बढ़कर है| सोचते हुए उसकी आँखों में शादी की पहली रात खौफ़ की परछाई बनकर तैरने लगी| न मेहर की माफ़ी के लिए मान-मनुहार, न मिठाई खाने-खिलाने के लिए ज़िद की| आदमी ने आते ही गाँव की उड़ी कहानी की बाबत पूछताछ शुरू कर दी| जो शायद गाँव वालों के वहमो-गुमान में भी न रही हो| शादी से पहले न जाने कितने बच्चा गिरवा दिए होंगे, यह साबित करते हुए उसे इसके बावजूद अपनाकर खुद को फ़रिश्ता सानित करने में लगा रहा| (आधी दुनिया, पृष्ठ 166)
इस माहौल में कोई स्त्री सही-सलामत रह ले, यह आश्चर्यजनक| अतिया सही-सलामत नहीं रह पायी| पहले बीमार पड़ी और इलाज़ के अभाव तथा झाड़-फूक के चक्कर में और अधिक बीमार हो गई| मायके लायी गई, यहाँ भी जिन्नात से मुक्ति के ही प्रयास होते रहे| दरअसल ससुराल से मायके तक किसी की इच्छा-शक्ति ही नहीं थी कि अतिया दुबारा जीवन जी ले| प्यार की कीमत अतिया से ज्यादे कौन बता सकता है? अत्यंत हृदयविदारक मौत होती है अतिया की| अतिया की मृत्यु से सज्जो उतनी दुखी नहीं होती जितनी स्त्री की दुर्दशापूर्ण जीवन से होती है| वह गाँव की दूसरी लड़कियों को इस तरह मरने देना नहीं चाहती| उसमें अपूर्व किस्म की चेतना है| वह गाँव की सूरत बदलना चाहती है| लेकिन उसके पास अपार साहस, धैर्य और गंभीरता के अलावा कुछ नहीं है| अतिया की मृत्यु पर सबको रोते देख, इस पाखण्ड से वह विचलित हो जाती है- यूँ ही सबको रोता हुआ देखकर उसका जी चाहा कि जोर-जोर से हँसने लगे| रोती हुई बड़की अम्मा, बुआ, कुच्चाबुआ यहाँ तक कि अपनी अम्मा का चेहरा उसे विकृत होकर घिनावना-सा लगने लगा| उसका जी चाहा कि खेखार-खेखारकर सबके मुँह पर थूक दे| किसी तरह से अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए उठी और यहाँ से निकल गयी| (वही, पृष्ठ 238)
सज्जो जैसे चरित्र को गढ़ना लेखक की बड़ी उपलब्धि है| इसका चरित्र गोदान  की धनिया, त्यागपत्र की मृणालिनी और कृष्णा सोबती के मित्रो मरजानी के मित्रो से थोड़ा भी कमतर नहीं है| सज्जो अक्षर ज्ञान प्राप्त एक मामूली सी लड़की है| चेतनशील मामूली सी लड़की| उसका चेतनासंपन्न व्यक्तित्व उसे अपूर्व गरिमा प्रदान करता है| रुढ़ि, परम्परा और प्रतिष्ठा के नाम पर चली आ रही आचारों, व्यवहारों को वह अपने नीर-क्षीर विवेक की कसौटी पर तुरंत कसती है और निर्भीकतापूर्वक बेबाक अपनी बात रखती है| अपनी बहन सदिया या अतिया की दुर्दशा उसके अन्दर बबंडर मचाता है| लेकिन वह उस बबंडर को रोकने की कला जानती है, वह अपने उबाल पर नियंत्रण रखती है| लैंगिक भेद-भाव की गहरी पहचान वाली ग्रामीण सज्जो अतिया के हालात का जायज़ा लेते हुए वह कहती है, जानवर जैसे बरदउरी के खूंटा में एक्के दर बांधा रहत है, पाहिले तो वइसे घर में रक्खो, फिर जहाँ मरजी होय पगहा में बाँध के हाँक देव| कहाँ जाय का है? कइसा लड़का है? घर कइसा है? ई कुल देखै की कउन जरूरत? बेटवन की खाती चाही हूर-परी ऊपर से अल्लामा होय| (वही पृष्ठ 172)
सज्जो की ताकत उसकी आशावादिता है| वह जानती है कि एक दिन परिस्थितियाँ बदलेंगी| वह ‘जिन्दगी की जीत’ में यकीन करने वाली लड़की है| वह यह भी जानती है कि निराशा या अवसाद जिन्दगी की गति को आगे नहीं ले जा सकती| अंतिम समय तक कोशिश जारी रखना सज्जो के जीवन का मकसद है| धुप्प अँधेरे में भी जुगनू की रोशनी तलाशती सज्जो का यह आत्मविश्वास कि एक न एक दिन अइसा आई की सबै का अपनी लड़कियन का पढ़ावै-लिखावे का पड़ी उसे परिवर्तन का आकांक्षी बना देता है| शायर नरेंद्र के शब्दों में अभी इतिहास से महरूम हैं ये मगर कल हाथ में भूगोल लेंगे| सज्जो अन्तःसलिला सरस्वती की तरह एक बड़ी आतंरिक लड़ाई लड़ रही है| लेखक ने सज्जो की इन खामोशीपूर्ण लड़ाई को लेखकीय सर्जनात्मकता प्रदान की है| सज्जो अपने गाँव की मलाला है| वह मलाला की तरह जानती है कि शिक्षा ही गाँव की लड़कियों को जहन्नुम से निकालकर जन्नत की खुशियाँ दे सकती हैं| वह जानती है कि शिक्षा में ही वह ताक़त है जो जन्नत को ज़मीन पर उतार सकती है| 

         
भारतीय मुसलमानों की शैक्षिक हालत अत्यंत दयनीय है| उसमें भी मुस्लिम लड़कियों की स्थिति बद से बदतर है| स्वतंत्र भारत में पहली बार नवम्बर 2006 में देश के मुसलमानों से सामाजिक और आर्थिक हालत पर किसी सरकारी कमिटी द्वारा तैयार रिपोर्ट ‘सच्चर कमिटी’ के रूप में संसद में पेश हुआ था| इस कमिटी ने साफ़ कहा कि देश में मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है| सच्चर समिति रिपोर्ट के अनुसार 6-14 वर्ष की आयु समूह के एक चौधाई मुस्लिम बच्चे या तो कभी स्कूल नहीं गए या उन्होंने स्कूल छोड़ दी| 17 वर्ष से अधिक आयु के बच्चे के लिए मैट्रिक स्तर पर मुस्लिमों की शैक्षिक उपलब्धि 26 प्रतिशत राष्ट्रीय औसत के मुक़ाबले मात्र 17 प्रतिशत है| सच्चर समिति की रिपोर्ट कहती है कि स्कूलों में मुसलमान लड़कियों की संख्या अनुसूचित जाति एवं जनजाति की तुलना में तीन प्रतिशत कम है| अध्ययन के मुताबिक़ स्कूल न जाने वाले 6 से 13 साल के मुस्लिम बच्चों के समूह में 45 फीसदी लड़कियाँ हैं| उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, झारखंड और उड़ीसा में मुस्लिम लड़कियों की साक्षरता का स्तर सबसे दयनीय है|
सज्जो की पूरी लड़ाई मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा की ऐसी ही नाजुक हालातों से मुक्ति की लड़ाई है| आज अगर थोड़ी-बहुत मुस्लिम लड़कियाँ पढ़-लिख रही हैं तो इसके लिए आज़ादी के समय से ही लम्बी लड़ाई लड़ी जा रही है| उस संघर्ष-गाथा की बानगी देखनी हो तो डॉ राहत अबरार की पुस्तक ‘मुस्लिम नारी शिक्षा :चिलमन से चंद्रयान  तथा ऐसी अन्य कई किताबें  देखी जा सकती है| किस प्रकार पर्दाप्रथा के कारण लड़कियों को पढने के लिए क्लास में चिलमन का प्रयोग होता था और पालकी में बैठकर लड़कियों को स्कूल जाना होता था| सभी धर्मों में ‘असूर्यम पश्यामि’ (सूर्य की किरण भी स्त्री को न देख पाए) पितृसत्ता की धूर्त चाल रही है| ऐसे माहौल में किसी लड़की के लिए पढ़ना एवरेस्ट की चोटी चढ़ने से कम नहीं| तुहिन देव ने इस ‘एवरेस्ट चढ़ाई’ का इतिहास बयाँ करते हुए लिखा है, आज से करीब 100 वर्ष पहले बंगाल सूबे में बेगम सकावत रुकैया हुसैन ने तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद मुस्लिम महिलाओं में तालीम के बारे में पहल किया था| इन्होने 1905 ई. में अंग्रेजी में एक स्त्री केन्द्रित विज्ञान-कथा ‘सुल्तान का सपना’ (Sultan’s  Dream) लिखा था| यह पुस्तक मूल रूप में ‘द इन्डियन लेडीज मैगज़ीन’, मद्रास में 1905 में प्रकाशित हुई थी| मुस्लिम स्त्री जागरण में उन दिनों प्रकाशित होने वाली प्रगतिशील पत्रिकाओं ने भी बंजर भूमि तोड़ने का काम किया| इस कड़ी में उन्हीं दिनों निकलने वाली महिला केन्द्रित पत्रिका ‘सौगात’ तथा 1947 में ही कलकत्ता में मुस्लिम महिलाओं द्वारा निकाली गई पत्रिका ‘बेगम’ की भूमिका अत्यंत उल्लेखनीय रही है| ‘बेगम’ की प्रथम सम्पादक थीं- कवयित्री सुफिया कमाल| यह पत्रिका उन दिनों बंगाल मुस्लिम स्त्रियों की आवाज़ बन गई थी| इस पत्रिका के मार्फ़त ‘बेगम महिला क्लब’ का गठन हुआ था| दूसरे धर्म की महिलाओं की तरह इस क्लब की मुस्लिम महिलाओं ने एकजुट होकर दुनिया से अपना हक़ माँगना शुरू कर दिया था| देश के अन्य प्रान्तों से भी इस तरह की आवाज़ धीरे-धीरे उठने लगी| ()
सज्जो यद्दपि पढ़ी-लिखी नहीं है किन्तु स्त्री जागरण से लबरेज है| दरअसल जागरण के लिए चेतनशील होना आवश्यक है और चेतना सिर्फ़ पढ़ाई-लिखाई की मोहताज़ नहीं होती| पितृसत्ता के सभी नखदंत और पेचोखम से वह भलीभाँति वाकिफ़ है|  एक बार तो वह इसी ‘नखदंत’ के पर्दाफाश के कारण पिता से बुरी तरह पिटी जाती है| वह पिता से पिटती रहती है , लेकिन उफ़ तक नहीं कहती| वह इस पिटाई को बतौर चुनौती स्वीकार करती है| पिटाई की वजह गाँव की लड़कियों के बारे में फैलायी जा रही भ्रमों की मुखालफ़त है| एक बार उसे खलीलबहू से वाद-विवाद हो जाता है| लड़कियों के बारे में उनके विचार अत्यंत दकियानूसी हैं| यही वजह है कि सज्जो उसे फूटी आँखों नहीं सुहाती| खलीलबहू की पक्की धारणा है कि लडकियाँ स्कूल जाने से ही बिगड़ती हैं| अतिया ‘बदचलन’ पढ़ने की वजह से हुई, लड़कियन का बेजा छूट दीही जय लागी| स्कूल कोलेज के बहाने खुले साटा बाहेर निकलिहें  तौ इश्क-मुश्क नहीं होई की बड़े बूढ़ेन से जबान नाहीं लड़ाई जाई? धुनियाइन-फकीरिन तक मजबूरी से बाहर निकरत रहीं, हमरेन इहै होय लागा तौ नतीजा सामने है? ( आधी दुनिया, पृष्ठ 95) सज्जो जानती है कि लड़कियों को शिक्षा न दिए जाने का यह बड़ा ब्रह्मास्त्र है, क्योंकि चरित्र की कीमत पर लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना किसी भी माता-पिता को कबूल नहीं होगा| अगर खलीलबहू की यह बात आज स्थापित हो जाती है तो लम्बे समय तक गाँव की लड़कियों के लिए पढ़ना दूभर हो जाएगा| सज्जो अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए सधी आवाज में खालीलबहू के तर्कों की परखच्ची उड़ाते हुए कहती है, पढ़ाई का तो एकठू ओढ़रा खोज लिहागा है औलाद होय के बावजूद केहू लड़की का अपना बेटवा की नाही समझत है? जिन्दगी का जेलखाना के बढ़के बनाय दिहा जात है| जे गोदी में खेलाये हैं, वहू से परदा| दरबा में जैसे मुरगी रहत हीं वइसे  घर में बंद कइके बड़ा कै दिहा जात है, फिर कहूँ शादी कै के फुरसत लै लिहि जात ही| आख़िर का लड़कियन के दिल नहीं होतै? उनकी कउनों मरजी नाहीं? हमरे लोग से तो हजार गुना अच्छी जिन्दगी चमार के बेटियन की है| खुली हवा में सांस तो लै सकत हीन| धुनिया-फकीरन में अगर इतना गरीबी न होती तो सायद ऊ लोग पढ़इबो करतेन| रब्बुल चाचा को देखौ| सज्जो ने लड़कियों की मर्जी की बात कह दी थी, खुली हवा में सांस लेने की बात कह दी थी| पिता की पिटाई लगाम कसने की तस्दीक थी| खलीलबहू ने सज्जो की माँ को साफ़ हिदायत दी थी की अब इसकी लगाम कसौ|
मनोवैज्ञानिकों की मानें तो प्रत्येक लडकियों का एक ख्वाबगाह होता है, जिसमें उसका राजकुमार निवास करता है| सज्जो के ख्वाबगाह में चुपके से अरशद ने अपनी जगह बना ली है| अरशद से उसका प्यार अनकहा है| वह किसी से इस प्यार का इजहार नहीं करती- अरशद से भी नहीं, माँ से भी नहीं| उसे यह भी पता नहीं कि अरशद के दिल में ऐसा कुछ है भी या नहीं| वह अच्छी तरह जानती है कि अरशद उसके लिए अप्राप्य है| दोनों के बीच बड़ी खाई है- आर्थिक खाई, सोशल स्टेटस की खाई, पढ़ाई की खाई| इन खाइयों को पाटना संभव नहीं| लेकिन मुहब्बत को इन खाइयों से क्या लेना-देना? तो वह अरशद से एकतरफ़ा, अनकहा मुहब्बत करने लगती है| उसे अरशद अच्छा इसलिए लगता है कि वह पढ़ाई का महत्व समझता है, अच्छी पढ़ाई कर नौकरी करता है, सामने वाले को सम्मान देता है, विशेषकर स्त्रियों के प्रति उसके मन में काफ़ी सम्मान है| इसके अलावा एक दिन कई लोगों की मौजूदगी में अरशद ने सज्जो की सुन्दरता की भरपूर तारीफ़ कर दी| उसने यहाँ तक कह दिया कि हम तो इलाहाबाद में आजतक एतनी खूबसूरत लड़की नहीं देखे| सज्जो अरसद के तारीफ़ वाले इस उदार स्वभाव से परिचित है, फिर भी इस तारीफ़ ने उसके ह्रदय के तार को झनझना दिया, उसके ऊपर अरशद की बातों का असर जादू की तरह हो रहा है| कुछ ही पलों बाद उसे महसूस होने लगा कि वह अभी सिमटकर बिंदु में तब्दील हो जाएग, उसे घबराहट-सी होने लगी तो वह मन ही मन बुदबुदायी या अल्लाह| अरशद अपनी शादी के बाबत कहता है कि वह अपनी ही तरह की कोई लड़की खोज दे| किसी लड़की के लिए इतने संकेत सूत्र काफी होते हैं, फिर तो उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा| लगातार कनाक्खियों से अरशद को अपनी तरफ़ देखता पाकर सज्जो के दिल की धड़कन बढ़ती ही जा रही है| हालत ऐसी हो गई कि उसे लगा कलेजा हलक में आ रहा है|
सज्जो जानती है कि अरशद उसके लिए ‘मैं तो चन्द्र खिलौने लैहों’ जैसा है| इसलिए वह अपने इस नेह को अपने पास थाती के रूप में सहेजकर रखना भर चाहती है, ताउम्र इस खूबसूरत एहसास के साथ जीना भर चाहती है| इस प्यार को न पाने की वजह से वह न उतावली होती है न बाबली| वह अपने इस प्यार को भी अपने लक्ष्य से जोड़ देती है| कहीं अन्यत्र अरशद की शादी की चर्चा उसे विचलित जरूर करती है| बड़की, छोटकी और माँ के बीच हो रहे संवाद को कान लगाकर सुनती है, ज्योंही उसे पता चलता है कि अरशद की शादी कहीं तय हो गई है तो, सज्जो के शरीर की सनसनाहट फिर बढ़ गई| लगा शरीर का सारा खून मानो इकट्ठा होकर माथे में भर गया| लेकिन ज्योंही आगे की बातचीत से उसे पता चलता है कि अभी बात पूरी तरह बनी नहीं है तो, सज्जो को लगा जैसे उसे गरम भट्ठी के निकालकर ऐसी जगह लाकर रख दिया गया है जहाँ सरसराहट पुरबा हवा लग रही हो| यह है सज्जो के प्यार की मार्मिकता और प्यार की तीब्रता| यह प्यार रीतिकालीन नायक-नायिका का प्यार नहीं है कि आपस में मिले तो महोत्सव और न मिले तो बीमार| यहाँ प्यार में आपसी लेन-देन वाली बात भी नहीं है और न ही कोरी भावुकता है| इस अप्राप्य प्यार के आवेग और वेदना का अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह अरशद की शादी में उपस्थित रहने का साहस भी नहीं बटोर पाती| अरशद तो चाहते हैं कि सज्जो एक महीना पहले से ही यहाँ रहे, किन्तु वह शादी के दरम्यान गाँव छोड़कर मामा के यहाँ चली जाती है|
कहने की आवश्यकता नहीं कि सज्जो की गढ़न में उपन्यासकार ने कलात्मक-दृष्टि का परिचय दिया है| वह अपने प्यार को रूपांतरित कर उसे सर्जनात्मक आयाम देती है| जिस वजह से अरशद उसके लिए अप्राप्य है, वह उस वजह को समाप्त कर गाँव की लड़कियों के लिए ‘अरशद’ को पाने का रास्ता आसान करने की कोशिश में लगती है| गरीबी दूर करना उसके वश की बात नहीं किन्तु गाँव की औरतों में शिक्षा के प्रति सकारात्मक दृष्टि के प्रसार के लिए प्राण-पण से लग जाती है| इसके लिए वह भारी कीमत चुकाती है| जहाँ कहीं उसकी शादी की बात चलती है, उसके इस परिवर्तनकामी मिज़ाज के कारण शादी को तोड़ने में परम्परावादी औरतें आगे आ जाती हैं| लेकिन इससे वह विचलित नहीं होती| सज्जो अतिया को तो नहीं बचा पाती है किन्तु अपनी बहन सद्दो को बचा लेती है| सद्दो की शादी भी अतिया की तरह जैसे-तैसे खालीलबहू के प्रभाव में कर दी जाती है| ससुराल की यातना उसे मौत के करीब पहुंचा देती है| उसका पति अरब में है और उसकी कोई सुधि नहीं लेता है| सद्दो को मायका लाया जाता है और सज्जो की ज़िद के कारण उसे ससुराल नहीं भेजा जाता| यहाँ स्नेह और उचित इलाज से वह पूर्ण स्वस्थ हो जाती है| ससुराल वाले काफ़ी कोशिश करते हैं, सद्दो को वापस ले जाने का लेकिन सज्जो टस्स से मस्स नहीं होती| उसकी शर्त है कि जब तक दुल्हा अरब से आता नहीं है और बेहतर इंतज़ाम का भरोसा नहीं देता है तब तक सद्दो सुसराल की चौखट नहीं जाएगी| सज्जो का यह बुलंद इरादा पितृसत्ता के खिलाफ़ उठाया गया एक असाधारण कदम है| स्त्री-विमर्श के पाश्चात्य अवधारणा में यह मामूली बात लग सकती है, किन्तु छोटे-छोटे बदलाव की शुरुआत ही वास्तविक और स्थायी बदलाव के सूचक होते हैं| छोटे-छोटे बदलाव की क्रांतिकारी भूमिका की पहचान उपन्यास का अनकहा सन्देश है|

आज की तारीख़ में भी भारतीय समाज स्त्री के लिए सुरक्षित जगह नहीं मानी जाती| स्त्री-अपराध का सूचकांक इसका गवाह है| इसकी जड़ में पितृसत्ता की अभेद्य दीवार है| यह पितृसत्ता लड़कों को बेलगाम छोड़ती है और लड़कियों पर लगाम कसती है| नगरों में पढ़ रही लड़कियों को देखकर हम इस लगाम के कसाव का अंदाजा नहीं लगा सकते| इसके लिए हमें गाँवों में जाना होगा, सज्जो जैसी लड़कियों से मिलाना होगा| सज्जो पितृसत्ता के छल-छद्म को भली-भाँती जानती है| बात-बात पर लड़कियों पर लगाईं जा रही लांछानाओं का प्रतिवाद करते हुए कहती है, गाँव में के दूध का धोवा है? आये दिन दमरउटी में हंगामा हॉत है| अजीम चाचा अव तौकीर भय्या की बात का अबहिन कितना दिन भा? लड़केन का केहू कुछ कहै सुने वाला नहीं है| कउन लड़का गाँव में है जे का काढ़ा-बरवा जाय सकै| असल बात ई है की सब मरद हैं| मरद जउन करैं तउन अच्छा ... भैय्या फेल होयं तौ कउनों बात नाहीं, हम पढ़ाई का नाम लै तौ बउरहट है| कहीं केहू किहाँ चले जाई तौ आवारगर्दी है! अउर तौ अउर! बाजी ससुराल में सतायी जायँ तौ हमारा कसूर! हमहुक तौ इनहीं पैदा किहेन हैं? (पृष्ठ, 93-94)
पितृसत्ता के इस भीषण दुर्ग पर सवाल उठाना सज्जो की सजग-सचेत दृष्टि द्योतक है| उपन्यास में सज्जो के रूप में एक ऐसी लड़की से हमारा साक्षात्कार होता है जो बड़े-बड़े महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ और पढ़ा रही लडकियों और शिक्षिकाओं से अधिक चेतनशील है| यहाँ पढ़ रहे अधिकाँश लड़के-लड़कियों के लिए किताब सिर्फ़ पढ़ने और परीक्षा उत्तीर्ण का साधन है, चेतनशील होने के लिए नहीं| यह अकारण नहीं कि इन परिसरों में लड़कियों को पहनावे-ओढ़ावे, घूमने-फिरने, चाल-चलन आदि पर पितृसत्तात्मक नैतिक शिक्षाएँ दी जातीं हैं| दूसरी तरफ़ सज्जो जो औपचारिक शिक्षा से दूर है लेकिन बुद्धिमत्ता और चेतना में इनसे काफी अग्रगामी है| इसी अग्रगामिता के कारण उसे ‘हद’ पार न करने की हिदायत दी जाती है, ऐ सज्जो, तोहरे जइसन का हम बहुत देखे हैं| बिटिया हौ तौ बिटिया की नाईं रहौ| हद न पार करो| लेकिन सज्जो तो सारी विनम्रता के साथ ‘हद’ पार करने के लिए ही बनी है, क्योंकि वह ऐसी कोई ‘हद’ के पक्ष में नहीं है जो सिर्फ़ लड़कियों के लिए बनाई जाए, उसे बांधने के लिए बनाई जाय| ऐसी सारी हदों को वह तोड़ डालना चाहती है| यही सज्जो होने के मायने हैं|
उपन्यास के अंत में सज्जो अपने लक्ष्य में कामयाब होती है| जिस पढ़ाई के लिए वह तरसती-तड़पती रही, अपनी छोटी बहन गुल की पढ़ाई का रास्ता साफ़ कर देती है, असल में आज उसकी प्रसन्नता कहीं अंटाये अंट नहीं रही| उसे लग रहा है कि वह हवा में उड़ रही है| आज अब्बा गुल के दाखिले के लिए हँसवर गए हैं|...अब्बा जैसे ही घर से निकले उसे लगा कि उसने कोई बड़ी जंग जीत ली है| उपन्यासकार ने जाते-जाते यह भी स्पष्ट कर दिया कि सज्जो को तो अरशद नहीं मिले किन्तु पढ़ी-लिखी गुल को डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे आसिफ जरूर मिल जाएंगे| सज्जो और गुल जब परधानजी के यहाँ से लौट रहीं थीं तो रस्ते में आसिफ मिल गए, आसिफ की निगाह गुल पर रुक गयी| उसने पहचानने की कोशिश में गहरी निगाहों से देखा| उसकी आँखों से आँखें मिलते ही गुल थोडा-सा सिमटी|... उसने जल्दी से अपने दुपट्टे को सही किया और सज्जो के पीछे-पीछे पिछवारे से रस्ते बाहर निकल गयी| ( वही, पृष्ठ 376) अब गाँव की बहुत-से लड़कियाँ पढ़ने जा रहीं हैं| सज्जो की लड़ाई अंततः रंग लाती है| गाँव की लड़कियों को पढ़ाई के लिए बंद वैचारिक दरवाज़े खुलने लगते हैं| यह लड़ाई हथियार की न होकर वाद-विवाद-संवाद की लड़ाई है| जड़ता के ख़िलाफ़ परिवर्तन का शीत युद्ध है| पितृसत्ता से लगातार सवाल पूछे जाने की लड़ाई है| सज्जो जहाँ कहीं होगी अपनी इस लड़ाई को जारी रखेगी| अपनी इस लड़ाई को विस्तार देगी| शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक कूपमंडूकता के खिलाफ़ भी खड़ी होगी| क्योंकि सज्जो में दृष्टि की सम्पन्नता ही नहीं लड़ने का अपार साहस और पराकाष्ठा  धैर्य भी है| अगर प्रत्येक भारतीय गाँव में एक-एक सज्जो हो जाए तो निश्चित रूप से भारत की स्त्री-शिक्षा की सूरत बदल सकती है|
मेराज साहेब के उपन्यास आधी दुनिया  को मुस्लिम समस्या पर विगत कुछ वर्षों में लिखे गए अच्छे अपन्यासों मसलन अनवर सुहैल का पहचान, जय श्री रॉय का दर्दज़ा, अनवर सुहैल का मेरे दुःख की कोई दवा नहीं और भगवान दास मोरवाल का हलाला  आदि उपन्यासों के समकक्ष रखा जा सकता है| जिस प्रकार ये लेखक मुस्लिम समस्याओं को लेकर चिंतित हैं, स्त्री-शिक्षा को लेकर चेतनशील हैं, उसी तरह  मुस्लिम नेतृत्व और मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी साहस के साथ स्त्री-शिक्षा के मामले में आतंरिक अंतर्विरोधों से दो-दो हाथ करना होगा| लेकिन ये नेतृत्वकर्ता और बुद्धिजीवी स्त्री-शिक्षा के प्रति उदासीन नजर आते हैं| 14 जून 2001 को नवभारत टाइम्स में एम हसीन अपने लेख शिक्षा नहीं उनकी चिंता में शामिल  शीषर्क लेख में वे स्पष्ट करते हैं, इन दिनों संपन्न इस्लामी फिकह के चार  दिवसीय अधिवेशन के बाद भी किसी की दृष्टि स्त्री-शिक्षा और आर्थिक दुर्दशा की ओर नहीं गयी| उस अधिवेशन में 150 उलेमाओं ने भाग लिया था| जिसमें देश भर के प्रभावी संस्थान जैसे दारुल उलूम देवबंद, नदवातुल-उलूम लखनऊ, इमारते-शरिया बिहार आदि आये पर किसी की दृष्टि स्त्री-शिक्षा, बुर्के से आज़ादी, आर्थिक आज़ादी तथा रोज़गार और बाहर निकलने की ओर नहीं गयी| (परिंदे, संयुक्तांक जनवरी 2019, पृष्ठ 103, मुस्लिम समाज पर केन्द्रित अंक)     
उपन्यासकार मेराज शिक्षा और स्त्री अधिकार की समस्या को घर-परिवार की अशिक्षित-दृष्टि और गरीबी को मानते हैं| यह एक सीमा तक यह सही है, किन्तु वे इसके असली शत्रु धर्मसत्ता और राजसत्ता को क्लीन चिट दे देते हैं| पितृसत्ता के साथ धर्मसत्ता और राजसत्ता भी स्त्री-शिक्षा और स्त्री-दुश्वारियों के लिए अधिक जिम्मेदार हैं| तात्पर्य यह कि समाज इन्हीं दोनों सत्ताओ के मकड़जाल में फँसा हुआ है| गाँव-समाज के लोग तो इन सत्तासंस्थानों के सामने गिनीपिग हैं| धर्म का असली स्वरुप भले स्त्री विरोधी न हो किन्तु उसका व्यापक तंत्र स्त्री-अधिकार की हदें तय करता है| उपन्यास के बड़े आलोचक जार्ज लुकाच जब यह कहते हैं कि, ‘उपन्यास ईश्वर विहीन दुनिया का महाकाव्य है, तो इसकी अर्थ व्याप्ति को समझने की जरूरत है| आधी  दुनिया  उपन्यास का परिवेश ही ऐसा है जिसमें लोग धर्म के संकीर्ण दायरे से निकलने की कल्पना भी नहीं कर सकते| यथार्थ की मांग भी यही होती है कि जिस परिवेश का चुनाव उपन्यास के लिए किया गया है, वर्णन भी उसी परिवेश के अनुकूल हो| लेकिन गहरी औपान्यासिक-दृष्टि इस यथार्थ में संभाव्यता की गुंजाइश खोजती है| वह वर्णित यथार्थ में सजग हस्तक्षेप कर एक वैकल्पिक परिवेश की प्रस्तावना देती है| यथातथ्यता उपन्यास को महाकाव्यात्मक गरिमा से वंचित करती है| इस यथातथ्यता के समानांतर एक ‘नयी दुनिया’ का सृजन उपन्यास को कलात्मक ऊँचाई प्रदान करता है|
राजसत्ता की शिक्षा विरोधी नीति उसकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है| राजसता की अंधभक्ति के लिए अशिक्षित समाज ज्यादे अनुकूल होता है|  अगर गाँव-समाज के सरकारी स्कूल दुरुस्त हो जाएंगे तो बड़े-बड़े उद्योगपतियों और राजनेताओं के निजी स्कूल कैसे फले-फूलेंगे| स्त्रियाँ पढ़-लिख जाएंगी तो लुभावने नारे से प्रभावित कैसे होंगी? इसलिए राजसत्ता की ख्वाहिश होती है कि गाँव के लोगों की मानसिकता शिक्षा विरोधी बनी रहे| सस्ते मजदूर मिलते रहें|  उपन्यास में राजसता की इस छद्म और धूर्त चाल को बेनक़ाब करना जरुरी था| शिक्षा की राजनीति और राजनीति की शिक्षा के पारस्परिक दुरुभिसंधि समझना आज की हालात की मांग है| मुद्दा केन्द्रित आधुनिक उपन्यास राजनीति से दामन बचाकर गरिमा प्राप्त नहीं कर सकता| हिन्दी के अधिकांश कालजयी उपन्यास अपनी राजनीतिक प्रखरता और पक्षधरता के कारण कालजयी बने हैं| आधी दुनिया  को सायास राजनीति से बचाने का प्रयास किया गया है| बुद्धिजीवी, लेखकों और चिंतको को राजसत्ता को खुली चुनौती देनी होगी, क्योंकि लगातार स्थितियाँ भयावह होती जा रही हैं| एडवर्ड सईद ऐसे विषम माहौल में लेखकों-बुद्धिजीवियों की भूमिका की पड़ताल करते हुए लिखते हैं, सत्ता के मुँह पर सत्य बोलना कोई कोरा आदर्श नहीं है, इसका अर्थ होता है सावधानीपूर्वक विकल्पों को परखना, उचित विकल्प को पहचानना और होशियारी के साथ ऐसे स्थान पर प्रस्तुत करना जहाँ सर्वाधिक कल्याण कर सके और उचित परिवर्तन का उत्स बन सके| (वर्चस्व और प्रतिरोध, एडवर्ड सईद, प्रस्तुति और अनुवाद-रामकीर्ति शुक्ल, नयी किताब, पृष्ठ 224)   
तुहिन देव एक सरकारी रिपोर्ट के हवाले मुस्लिम स्त्री-शिक्षा की पड़ताल करते हुए लिखते हैं कि उक्त रिपोर्ट में मुस्लिम समाज की यह सोच भी उजागर हुई है कि मुस्लिम लड़कियों को युवावस्था से पहले तक ही पढ़ाई करनी चाहिए| मुस्लिम लड़कियों का उच्च शिक्षा से दूर रहने से सबसे सामान्य कारण उनकी युवावस्था, महिला टीचर की कमी, लड़कियों के लिए अलग स्कूल न होना, परदा प्रथा, धर्म निरपेक्ष शिक्षा का विरोध, जल्दी शादी हो जाना और समाज का विरोधी और दकियानुसी रवैया है| (deshabandhu.co.in   3.9. 2011)  इस रिपोर्ट की कुछ बिन्दुओं पर उपन्यास में सार्थक बहस की गयी है और कुछ को छोड़ दिया गया है|
उपन्यासकार मेराज आधी दुनिया को थोड़ा संपादित कर सकते थे| कहीं-कहीं अनावश्यक इतिवृत्तात्मकता से उपन्यास को बचाया जा सकता था| किसी भी तरह के उपन्यास में प्रसंग-त्याग का बोध रचना को अधिक सूक्ष्म, सार्प और अंतर्दृष्टिपरक बनाता है| अपने लिखे का मोह त्यागना यद्यपि कठिन होता है किन्तु रचना को अधिक सारगर्भित बनाने के लिए लेखक को ऐसा करना पड़ता है| बड़े-बड़े लेखक इस मोह से नहीं बच पाते हैं| आलोचकों ने प्रेमचंद के गोदान और यशपाल के झूठा-सच उपन्यास में इन इन सीमाओं को रेखांकित किया है|
नामविहीन औरतों का संसार आधी दुनिया पाठकों को आत्मालोचन के लिए विवश करती है| उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत इसकी भाषा है| लेखक ने बोलचाल की अवधी भाषा का सर्जनात्मक  उपयोग किया है| इस भाषा से अपरिचित पाठकों को दो-चार पृष्ठ पढ़ने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है, किन्तु बाद में वे इस भाषा की सरलता और सहजता पर मुग्ध हुए बगैर नहीं रह सकते| खड़ीबोली की सम्पन्नता का कारण उसके आसपास की स्थानीय भाषाएँ हैं| रेणु, राही, कृष्णा सोबती तथा श्रीलाल शुक्ल आदि ने इन स्थानीय भाषाओं के रचनात्मक उपयोग से अपनी रचनाओं को अत्यंत लोकप्रिय बनाया है| स्थानीय भाषा जीवन संघर्ष को जितनी विविधता, व्यापकता और विविध रंगों में जीवन रस पैदा कर सकती है, खड़ीबोली की एकरसता नहीं कर सकती| स्थानीय भाषा पाठकों को केवल कथावस्तु से ही नहीं जोड़ती बल्कि चरित्रों से आत्मीयता भी स्थापित कराती है| पाठक तथा पात्र के बीच की दूरी को कम करती है| मेराज अहमद की भाषा चरित्रों के संग-साथ चलती है| आधी दुनिया  स्त्री शिक्षा की कथा ही नहीं कहती बल्कि इस समस्या के प्रति पाठकों को संवेदनशील भी बनाती है|
                  (वांग्मय, जुलाई-दिसम्बर 2019 में प्राकशित)


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