नयी शिक्षा नीति : नीयत और नीति
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नई शिक्षा नीति 2019 का प्रारूप आम जनता में विमर्श हेतु प्रस्तुत किया है। वैसे इस विमर्श की
आवश्यकता नहीं थी क्योंकि वर्तमान सरकार की आस्था विमर्श या बातचीत में कतई नहीं है, उसे जो भी लागू करना होता है आम
मर्जी से या जबरदस्ती लागू कर ही देती है। विगत कुछ वर्षों में सरकार द्वारा लिए गए बड़े
फैसलों में सरकार की ‘मेरी मर्जी’ वाली नीति को हम सभी ने देखा ही है
। जब जनता ने उन्हें भारी मतों से जिताया
है तो बगैर विमर्श के निर्णय लेने का सत्वाधिकार भी उनके लिए सुरक्षित है। इसलिए
नई शिक्षा नीति के इस प्रारूप को जनता के बीच लाना हाथी के दिखाने वाले दाँत हैं। वैसे जब जनता के बीच यह प्रारूप आ ही
गया है तो 'मन बहलाने के ख्याल' से ही सही बातचीत होनी चाहिए। बातचीत
यह देखने के लिए भी होनी चाहिए कि सरकार
किस तरह शिक्षा के दायित्व से अपने को समेट रही है। वैसे इस प्रारूप का बाह्य
आवरण अत्यंत आशाजनक और लोक लुभावन है ।
नेरेशन के माध्यम से कही गई बातें जनोन्मुखी, प्रगतिशील और उदारता से भरी हुई
हैं । कदाचित इसे देखकर ही कई शिक्षाविदों ने इसे आदर्शवादी नीति की संज्ञा दी है
और चिंता जताई है कि इसे जमीनी हकीकत में तब्दील करना दुष्कर है। लेकिन यह प्रारूप
कहीं से भी आदर्शवादी नहीं है, बल्कि अगर प्रारूप को ठीक से पढ़ा जाए ‘बिटवीन द लाइन्स’ को समझा जाए, अनकहा पर गौर किया जाए और प्रारूप के निहितार्थ को खोलने की कोशिश की जाए तो इस
आदर्शवाद का पूरा मुलम्मा उतर जाता है और इसकी वास्तविकता खुली किताब की तरह
स्पष्ट हो जाती है।
ऊपरी तौर पर
बुद्धिजीवियों को बहलाने के लिए इसमें सन 1948 में डॉ राधाकृष्ण की अध्यक्षता में बनी उच्च शिक्षा आयोग की सिफारिशों से
लेकर 1993 में यशपाल समिति की अनुशंसाओं का
प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष उल्लेख किया
गया है। पूर्व की समितियों की अच्छी और आकर्षक बातों को इस प्रारूप में चिपकाने का
प्रयास किया गया है। लेकिन यह सारी बातें कथन के तौर पर है यानी 'ऐसा होना चाहिए'। जहां ठोस रूप में नीति निर्धारण की बात है, वहां यह बातें
हवा-हवाई हैं। दूसरी कठिनाई इस प्रारूप में यह है कि नीति निर्धारण का यथार्थ और
आदर्शवाद के बीच उचित सामंजस्य के अभाव में पूरा प्रारूप अंतर्विरोध, विरोधी वक्तव्य और मिथ्या कथनों से भरा पड़ा है। रेखांकन योग्य मामला यह है कि
यहां नीति और नीयत में प्रचंड भेद है। प्रारूप के आदर्श वाक्य और सरकार की समझ और
नीयत में ३६ का आंकड़ा है।
प्रस्तुत आलेख में कुछ ऐसे ही अंतर्विरोधों और प्रचंड मतभेदों को उद्घाटित करने का
प्रयास किया गया है।
प्रारूप स्कूल के शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य लेने को अनुचित मानता है। प्रारुप के 165 वें पृष्ठ पर कहा गया है कि गैर शैक्षणिक काम जैसे चुनाव कार्य , सर्वे तथा अन्य प्रशासनिक कार्य शिक्षक नहीं करेंगे। लेकिन 10 ही पृष्ठ बाद 175 वें पृष्ठ पर प्रारूप कहता है कि 'उच्चतम न्यायालय के आदेशानुसार चुनाव ड्यूटी और कुछ सर्वे को छोड़कर स्कूल के दौरान कोई भी गैर शैक्षिक गतिविधि नहीं करनी होगी।' सोचने की बात यह है कि हिंदुस्तान में लोकसभा, विधानसभा से लेकर पैक्स तथा पंचायत चुनाव साल भर होते ही रहते हैं। चुनाव कार्य और सर्वे को छोड़कर मात्र मिड डे मील बच जाता है। सर्वे के संदर्भ में भी 'कुछ' को स्पष्ट नहीं किया गया है। ऐसी हालत में कोई भी सर्वे 'कुछ' की श्रेणी में ही आ जाएगा। प्रारुप अत्यंत चतुराई से कहता है कि चुनाव और सर्वे के अतिरिक्त स्कूल के दौरान शिक्षकों को अन्य गैर प्रशासनिक कार्य लिए जा सकते हैं।
प्रारुप के 181 वें पृष्ठ पर घोषणा की गई है कि ''माध्यमिक स्तर पर सभी शिक्षकों के लिए उनके कार्य के अनुसार मानक सेवा की
शर्तें और समान वेतन होगा। लेकिन वर्तमान सरकार की नीयत ठीक इसके विपरीत है।पूरे देश में ‘ठेका’ पर
स्कूल शिक्षकों की बहाली हो रही है। बिहार में शिक्षकों ने समान काम के लिए समान वेतन की मांग की, उन्होंने आंदोलन चलाया किन्तु जब कोई
रास्ता नहीं निकला तो शिक्षकों ने न्यायालय में अपने हक के लिए मुकदमा दायर किया।
उच्च न्यायालय ने शिक्षकों के पक्ष में निर्णय दिया। सरकार की नीयत समान वेतन की
होती तो वह शिक्षकों को समान वेतन व्यवस्था लागू कर देती। किंतु सरकार उच्चतम
न्यायालय चली गई उसमें शिक्षक के विरोध में और सरकार के पक्ष में फैसला आया।
शिक्षक समान काम के लिए आसमान वेतन के लिए मजबूर हुए।
प्रारूप में देश के सभी बच्चों को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा
देने की बात बार-बार कही गई है। 'विजन' में कहा गया कि ''राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 एक भारत केंद्रित शिक्षा प्रणाली की
कल्पना करती है जो सभी को उच्च शिक्षा प्रदान
करके हमारे राष्ट्र को एक न्यायसंगत और जीवंत ज्ञान समाज में लगातार बदलने में
योगदान देती है। जो सभी को गुणवत्ता की
शिक्षा प्रदान करके हमारे राष्ट्र को न्यायसंगत और जीवंत ज्ञान समाज में लगातार
बदलने में योगदान देती है।" प्रारुप में गरीब से गरीब बच्चों को भी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने के लिए कथित रूप से नीति प्रतिबद्ध है। किंतु विडंबना यह है
कि देश भर में सरकार व्यापक पैमाने पर स्कूल बंद कर रही है या दूर के स्कूलों में
विलय कर रही है। झारखंड में लगभग छः हज़ार
स्कूल बंद कर दिए गए हैं। मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने
5 हजार स्कूलों को बंद करने का मन बना लिया था। गुजरात में 8673 स्कूलों को बंद करने की पूरी तैयारी हो चुकी है। क्या यह नीति देश के सभी
बच्चों को स्कूल बंद करके गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देगी?
कम छात्रों और कमशिक्षकों वाले स्कूल को
बंद करने की योजना यह नीति बना चुकी है। नीति में स्पष्ट कहा गया है कि 'कम शिक्षक और कम छात्र
वाले स्कूलों का संचालन जटिल होने के साथ-साथ आर्थिक रुप से व्यवहारिक नहीं
है क्योंकि अच्छे स्कूल को चलाने के लिए जितने संसाधन आवंटित करने की आवश्यकता होती है उतने छोटे स्कूलों के लिए संभव नहीं होता।'' आशय स्पष्ट है कि पहाड़ों, जंगलों और ऊसर प्रदेशों में जहां जनसंख्या अत्यंत विरल है और निम्नतम दर्जे कि लोग रहते हैं उन्हें
शिक्षा देना सरकार की मंशा नहीं है। स्कूल में अधिक से अधिक बच्चे आएं, वहां अच्छे
शिक्षकों की नियुक्ति हो, इस भगीरथी प्रयास के बदले स्कूल को ही
बंद कर देना दुर्भाग्यपूर्ण है। आर्थिक ,सामाजिक, सांस्कृतिक आदि कई
कारणों से हाशिये के बच्चे जो निकटतम स्कूल में नहीं जा पाते, उनसे यह उम्मीद करना कि पांच किलोमीटर दूर स्कूल
में पढ़ने जाएंगे कोई असामान्य सोच का व्यक्ति ही सोच सकता है।
प्रारूप में स्कूल शिक्षा से संबंधित जो सबसे खतरनाक संकेत हैं वह सरकारी स्कूल के संसाधनों को निजी स्कूल के लिए मुहैया कराना। प्रारूप सरकारी स्कूल और निजी स्कूल के पीछे सामंजस्य पूर्ण स्थिति कायम करना चाहता है और इसके लिए अपने स्कूल का संसाधन जैसे शिक्षक, पुस्तकालय, खेल का मैदान आदि निजी स्कूलों से शुल्क लेकर देने का मन बना रहा है। यह तय है कि जब निजी स्कूल एक बार अपना पैर सरकारी स्कूलों में पसार लेंगे तो वहां उनका अधिकार पक्का हो जाएगा। 266 पृष्ठ संख्या पर प्रारुप में कहा गया है कि ''नीजी स्कूल अपने शिक्षकों को सार्वजनिक स्कूल के शिक्षकों के लिए तैयार किए गए और संचालित किए गए क्षमता संवर्धन कार्यशालाओं में भेज सकते हैं या नीजी विद्यालय सार्वजनिक स्कूल काम्प्लेक्स के साथ संसाधनों को साझा करने की गतिविधियों में भी शामिल हो सकते हैं। (उदाहरण के लिए साझे खेल के मैदान, व्यायसायिक शिक्षकों को साझा करना आदि )"। सोचने की बात है कि सार्वजनिक स्कूल के 'दीन हीन' गरीब बच्चे निजी स्कूल के 'टाई मार्का' बच्चों के साथ कैसे मिल सकते हैं। धीरे-धीरे सार्वजनिक स्कूल के बच्चे इन गतिविधियों से भी अपने को अलग कर लेंगे। और इन संसाधनों पर धीरे-धीरे निजी स्कूल का कब्जा हो जाएगा। लेकिन सरकार की मंशा स्कूल के संसाधनों से रुपए वसूली की है ना कि अपने बच्चों को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने की। यह अकारण नहीं है कि प्रारुप में निजी स्कूल संचालक को बार-बार महान परोपकारी कहा गया है और इन पर संदेह न करने की बात दुहराई गई है, "निजी परोपकार स्कूलों ने भारत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और भविष्य में भी निभाते रहेंगे। इन्हें संदेह के साथ हतोत्साहित करने की बजाए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।"( पृष्ठ 262)
प्रारुप में वैज्ञानिक शिक्षा देने की वकालत की गई है, वैज्ञानिक शिक्षा जो तर्क और प्रयोग
पर आधारित हो। मजे की बात यह है कि विज्ञान
शिक्षण में ही नहीं बल्कि विज्ञान से इतर
विषयों को भी वैज्ञानिक दृष्टि से पढ़ाने की बात प्रारूप करता है। पृष्ठ संख्या 119 पर उपशीर्षक 'वैज्ञानिक सोच' में प्रारूप घोषित करता है कि "पूरे शिक्षा क्रम में वैज्ञानिक सोच को
विकसित करना और प्रमाण आधारित चिंतन को
बढ़ावा देना, शिक्षाक्रम के सभी दायरों में विज्ञान और परंपरागत गैर विज्ञान विषयों में भी प्रमाण आधारित चिंतन और
वैज्ञानिक विषयों को शामिल किया जाएगा ताकि
विश्लेषणात्मक, तार्किक, तर्कसंगत, मात्रात्मक चिंतन को शिक्षाक्रम के सभी दायरों में बढ़ावा मिले।" विडंबना
यह है कि वर्तमान सरकार की दृष्टि नितांत अवैज्ञानिक है। इस अवैज्ञानिक दृष्टि से वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न शिक्षा कैसे
दी जा सकती है? अभी कुछ दिन पूर्व इन पंक्तियों का लेखक जब प्रारूप पढ़ रहा था, आई आई टी खड़गपुर में शिक्षा मंत्री
भाभी इंजीनियरों को रामसेतु इंजीनियरिंग
की कलात्मकता का गुर बता रहे थे और नल-नील को देश का पहला इंजीनियर। इतना
ही नहीं उन्होंने जोर डाल कर कहा कि रामसेतु पर आप लोगों को शोध करना चाहिए।
वर्तमान सरकार के साधारण नुमाइंदे से लेकर प्रधानमंत्री तक ने जब-तब अवैज्ञानिक
पूर्ण बातों को प्रचारित प्रसारित करने का बीड़ा
उठाया हुआ है। कहीं नारद को पहला जनसंचारक कहा जाता है तो कहीं गणेश के सर पर हाथी के
सूंड़ को प्राचीन काल में प्लास्टिक
सर्जरी की बात पूरे आत्मविश्वास के साथ कही जाती है। अंधविश्वास के खिलाफ वैज्ञानिक और तार्किक सोच
को बढ़ाने वाले बुद्धिजीवियों को लगातार मारा जा रहा है, उन्हें संदेह की नजरों से देखा जा रहा है और देशद्रोही की जमात में शामिल किया जा रहा है। दाभोलकर, पनसारे, कलबुर्गी और गौरी
लंकेश जैसे तार्किक बुद्धिजीवी की हत्या को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। ऐसे नितांत गैर वैज्ञानिक और घोर
अंधविश्वासी नीयत और माहौल में वैज्ञानिक शिक्षा देने की बात धूर्तता और
छलावा के अतिरिक्त क्या हो सकती है?
प्रारूप में ना जाने कितनी बार शिक्षा में लोकतांत्रिक- संवैधानिक मूल्यों की
रक्षा की बात दुहराई गई है। किन्तु वर्तमान सरकार की नीयत संवैधानिक मूल्यों की
रक्षा करना कतई नहीं है।लगातार हो रहे मॉब लिंचिंग, खानपान पर पाबंदी, प्रेम संबंधों पर निगरानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की समाप्ति (दुनिया भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में
भारत की दयनीय स्थिति) आदि ऐसे खुले तथ्य हैं जो संवैधानिक मूल्यों की हत्या करते हैं। इस
तरह प्रारुप में संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की बात पाखंड के सिवाय कुछ नहीं ।
प्रारुप में 'लिबरल शिक्षा' जैसे मनमोहक शब्दावली का प्रयोग
ही नहीं किया गया है बल्कि अत्यंत विस्तार से इसके महत्व को रेखांकित भी किया
गया है। सभी विषयों को एक साथ मिलाकर शिक्षा देना लिबरल शिक्षा कहा गया है। अर्थात विषयों को ‘वाटर टाइट’ कंपार्टमेंट में न बांटकर सभी विषयों को
अन्तरग्रथित रुप से पढ़ाना। वाह्य रुप से तो यह
बड़ा ही लुभावना और चित्ताकर्षक लग रहा है लेकिन इसका निहितार्थ अत्यंत घातक है।
विद्यार्थियों को विशेषज्ञता से दूर कर मात्र रोजगार, वह भी दक्ष मजदूर बनाने की कवायद का दूसरा नाम है लिबरल शिक्षा। यह शिक्षा
अमेरिका की चौथी औद्योगिक क्रांति की उपज है जिसका मकसद है व्यापक पैमाने पर
उद्योग के लिए कुशल मजदूर तैयार करना । यह प्रारूप संकेत भी करता है की भविष्य में
स्थाई नौकरी की बात संभव नहीं रह जाएगी। नई शिक्षा नीति कहती है - ''जिस तेजी से अर्थव्यवस्थाएं बदल रही हैं, कौन जानता है कि हम भविष्य में किस
तरह के काम कर रहे होंगे। जो काम और जिम्मेदारियां इनमें आज है वह कल भी वैसा ही
रहेगी यह पक्का पक्का नहीं कहा जा सकता। कला शिक्षा का उद्देश्य लोगों को केवल
उनके पहले रोजगार के लिए तैयार करना भर नहीं है बल्कि दूसरे, तीसरे, चौथे और आगे के कामों के लिए भी तैयार करती है। (पृष्ठ 309) जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी कहते हैं कि युवाओं को नौकरी की चिंता
नहीं करनी चाहिए , उन्हें समाज के लिए काम करना चाहिए या
जब प्रधानमंत्री 'पकोड़े' की बात करते हैं तो लिबरल शिक्षा का निहितार्थ स्पष्ट हो जाता है।
उच्च शिक्षा का सबसे खतरनाक पहलू उसे तीन टाइप में सीधे-सीधे बांट देना है। नई शिक्षा नीति 2032 तक उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों की संख्या दूनी करना चाहती है। रोचक तथ्य यह है कि यह दूनी संख्या वह एक चौथाई शैक्षिक संस्थाओं को घटाकर करना चाहती है। आज की तारीख में विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों को मिलाकर देश में लगभग 50,000 संस्थान हैं। धीरे-धीरे सरकार इनकी संख्या घटाकर अधिकतम 12300 करना चाह रही है। टाइप 1 जो शोध विश्वविद्यालय होंगे, इसकी संख्या एक सौ से तीन सौ होगी। टाइप 2, जो शिक्षण विश्वविद्यालय होंगे और इनकी संख्या 1000 से 2000 तक होगी और टाइप-3 जो, कॉलेज होंगे और इनकी संख्या 5000 से 10000 तक होगी। अगर अधिकतम संख्या को भी लिया जाए तो कुल 12300 संस्थान होंगे और इसी में दोगुने विद्यार्थियों को 'ठूसने' का प्रयास किया जाएगा। 2032 तक सभी संस्थानों को स्वायत्त करने की योजना है, जिससे वह अपना पाठ्यक्रम चलाने के लिए स्वायत्त होंगे और धन की उगाही के लिए भी। नीति दो टूक कहती है- ''सभी (वर्तमान में ) संबद्ध कॉलेज 2032 तक स्वायत्त डिग्री देने वाले कॉलेजों टाइप 3 में विकसित होने चाहिए या पूरी तरह से उस विश्वविद्यालय के साथ विलय हो सकते हैं जिससे वह संबंध हैं या फिर स्वयं विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो जाएं (टाइप 1 टाइप 2) (पृष्ठ 304)। मार्मिक तथ्य यह है कि जो कॉलेज टाइप 3 तक विकसित नहीं हो पाएंगे उन कॉलेजों को सरकार बंद कर देगी या 'सामाजिक भलाई ' केंद्र में तब्दील कर देगी - ''2032 तक जो कॉलेज टाइप 3 HEL विकसित नहीं हो पाए उनकी सुविधाएं और संसाधनों का अन्य सार्वजनिक भलाई और सेवाओं के लिए बेहतर उपयोग किया जाएगा। उदाहरण के लिए वयस्क शिक्षा केंद्र, सार्वजनिक पुस्तकालय, व्यावसायिक शिक्षा सुविधाएं आदि।'' (पृष्ठ 304)
उच्च शिक्षा का सबसे खतरनाक पहलू उसे तीन टाइप में सीधे-सीधे बांट देना है। नई शिक्षा नीति 2032 तक उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों की संख्या दूनी करना चाहती है। रोचक तथ्य यह है कि यह दूनी संख्या वह एक चौथाई शैक्षिक संस्थाओं को घटाकर करना चाहती है। आज की तारीख में विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों को मिलाकर देश में लगभग 50,000 संस्थान हैं। धीरे-धीरे सरकार इनकी संख्या घटाकर अधिकतम 12300 करना चाह रही है। टाइप 1 जो शोध विश्वविद्यालय होंगे, इसकी संख्या एक सौ से तीन सौ होगी। टाइप 2, जो शिक्षण विश्वविद्यालय होंगे और इनकी संख्या 1000 से 2000 तक होगी और टाइप-3 जो, कॉलेज होंगे और इनकी संख्या 5000 से 10000 तक होगी। अगर अधिकतम संख्या को भी लिया जाए तो कुल 12300 संस्थान होंगे और इसी में दोगुने विद्यार्थियों को 'ठूसने' का प्रयास किया जाएगा। 2032 तक सभी संस्थानों को स्वायत्त करने की योजना है, जिससे वह अपना पाठ्यक्रम चलाने के लिए स्वायत्त होंगे और धन की उगाही के लिए भी। नीति दो टूक कहती है- ''सभी (वर्तमान में ) संबद्ध कॉलेज 2032 तक स्वायत्त डिग्री देने वाले कॉलेजों टाइप 3 में विकसित होने चाहिए या पूरी तरह से उस विश्वविद्यालय के साथ विलय हो सकते हैं जिससे वह संबंध हैं या फिर स्वयं विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो जाएं (टाइप 1 टाइप 2) (पृष्ठ 304)। मार्मिक तथ्य यह है कि जो कॉलेज टाइप 3 तक विकसित नहीं हो पाएंगे उन कॉलेजों को सरकार बंद कर देगी या 'सामाजिक भलाई ' केंद्र में तब्दील कर देगी - ''2032 तक जो कॉलेज टाइप 3 HEL विकसित नहीं हो पाए उनकी सुविधाएं और संसाधनों का अन्य सार्वजनिक भलाई और सेवाओं के लिए बेहतर उपयोग किया जाएगा। उदाहरण के लिए वयस्क शिक्षा केंद्र, सार्वजनिक पुस्तकालय, व्यावसायिक शिक्षा सुविधाएं आदि।'' (पृष्ठ 304)
इस तरह से सरकार नई शिक्षा नीति 2019 के रूप में सरकार उच्च शिक्षा से भी अपना दामन छुड़ाने की पूरी तैयारी करके बैठी हुई है। भविष्य में केवल लाभ की दृष्टि से
व्यावसायिक और कौशल पूर्ण शिक्षा पर सरकार निवेश करने को इच्छुक है। यह शिक्षा
नीति अपने अंतिम चरण में जाते-जाते पृष्ठ संख्या 507 पर स्पष्ट करती है ''यहां ध्यान रखने की आवश्यकता है कि यह नीति शिक्षा के लिए मिलने वाले प्रत्येक
सहयोग और खर्च को निवेश मानती है ना कि व्यय।" लोक कल्याणकारी राज्य में
सरकार शिक्षा पर व्यय करती है, उससे समाज स्वस्थ संपन्न और खुशहाल होता
है। यही सरकार के शिक्षा पर किए गए व्यय का बड़ा लाभ होता है। लेकिन अब सरकार
अर्थशास्त्र के असली मुहावरे में निवेश करेगी तो निवेश और प्रोडक्ट का लाभ के साथ अन्योनाश्रय संबंध होता ही है।
निवेश लाभदायक विषयों पर ही किए जाएंगे। यह अकारण नहीं है कि विगत कुछ वर्षों से जितने
सार्वजनिक और निजी विश्वविद्यालय, कॉलेज खुल रहे हैं, उनमें समाज विज्ञान, मानविकी तथा कला और
संस्कृति आदि विषयों को दयनीय स्थिति प्राप्त है।
पूरी नई शिक्षा नीति इसी तरह की विसंगतियों, विडंबनाओं और छलावों से भरी हुई है।
जो सबसे बड़ा छलावा है वह है पूरी शिक्षा व्यवस्था के श्रृंग यानी शीर्ष पर
प्रधानमंत्री का विराजना। यद्यपि नीति में स्वायत्तता और स्वतंत्रता के राग खूब
अलापे गए हैं, पूरे शिक्षा तंत्र को
कई खानों, उपखानों, विभागों, प्रभागों में विभाजित किया गया है और कहा गया है कि सभी अपने-अपने तरह से कार्य करने के लिए स्वतंत्र होंगे, जिससे कार्य आसानी और
सरलतापूर्वक निष्पादित होगा। लेकिन...लेकिन सबसे ऊपर राष्ट्रीय शिक्षा आयोग होगा
जिसके मुखिया प्रधानमंत्री होंगे और सदस्यों में नौकरशाहों की भारी उपस्थिति होगी।
कहने के लिए शिक्षक भी होंगे उसमें लेकिन जहां प्रधानमंत्री होंगे, शिक्षा मंत्री होंगे,
नौकरशाह होंगे, वहां 'बेचारे' शिक्षकों की भला क्या
बिसात? और जहां प्रधानमंत्री 'मोदी है तो मुमकिन है' होंगे वहां किसकी चलेगी यह तो सर्वविदित है ही। यह नीति शिक्षा का ऐसा
ताना-बाना निर्मित करती है जहां भविष्य में
सिर्फ दो तरह के शिक्षा संस्थान रह जाएंगे - एक शिक्षा संस्थान से निकलने वाले
मजदूर बनेंगे, कुशल- दक्ष मजदूर और दूसरे संस्थान से मालिक। एक से शोषित निकलेंगे दूसरे से शोषक। इति श्री नई शिक्षा नीति 2019 कथा अपरिसमाप्त।
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नई शिक्षा
नीति 2019 का प्रारूप आम जनता में विमर्श हेतु प्रस्तुत किया है। वैसे इस विमर्श की
आवश्यकता नहीं थी क्योंकि वर्तमान सरकार की आस्था विमर्श या बातचीत में कतई नहीं है, उसे जो भी लागू करना होता है आम मर्जी से या जबरदस्ती लागू कर ही देती
है। विगत कुछ वर्षों में सरकार द्वारा लिए
गए बड़े फैसलों में सरकार की ‘मेरी मर्जी’ वाली नीति को हम सभी ने देखा ही है
। जब जनता ने उन्हें भारी मतों से जिताया
है तो बगैर विमर्श के निर्णय लेने का सत्वाधिकार
भी उनके लिए सुरक्षित है। इसलिए नई शिक्षा नीति के इस प्रारूप को जनता के
बीच लाना हाथी के दिखाने वाले दाँत हैं। वैसे जब
जनता के बीच यह प्रारूप आ ही गया है तो 'मन बहलाने के ख्याल' से ही सही बातचीत होनी चाहिए। बातचीत यह देखने के लिए भी
होनी चाहिए कि सरकार किस तरह शिक्षा के दायित्व से अपने को समेट रही है। वैसे इस प्रारूप का बाह्य आवरण अत्यंत आशाजनक और लोकलुभावन है । नेरेशन के
माध्यम से कही गई बातें जनोन्मुखी, प्रगतिशील और उदारता से भरी हुई
हैं । कदाचित इसे देखकर ही कई शिक्षाविदों
ने इसे आदर्शवादी नीति की संज्ञा दी है और चिंता जताई है कि इसे जमीनी हकीकत में तब्दील करना
दुष्कर है। लेकिन यह प्रारूप कहीं से भी आदर्शवादी नहीं है बल्कि अगर प्रारूप को ठीक से पढ़ा जाए बिटवीन द लाइन्स को समझा जाए, अनकहा पर गौर किया जाए
और प्रारूप के निहितार्थ को खोलने की कोशिश की जाए तो इस आदर्शवाद का पूरा मुलम्मा उतर जाता है और इसकी वास्तविकता खुली
किताब की तरह स्पष्ट हो जाती है। ऊपरी तौर पर
बुद्धिजीवियों को बहलाने के लिए इसमें सन 1948 में डॉ राधा कृष्ण की अध्यक्षता में बनी उच्च शिक्षा आयोग की सिफारिशों से लेकर
1993 में यशपाल समिति की अनुशंसाओं का
प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष उल्लेख किया
गया है। पूर्व की समितियों की अच्छी और आकर्षक बातों को इस प्रारूप में चिपकाने का
प्रयास किया गया है। लेकिन यह सारी बातें कथन के तौर पर है यानी 'ऐसा होना चाहिए'। जहां ठोस रूप में नीति निर्धारण की बात है, वहां यह बातें हवा-हवाई हैं। दूसरी कठिनाई इस
प्रारूप में यह है कि नीति निर्धारण का यथार्थ और आदर्शवाद के बीच उचित सामंजस्य के अभाव में पूरा प्रारूप अंतर्विरोध, विरोधी वक्तव्य और मिथ्या कथनों से भरा पड़ा है। रेखांकन योग्य मामला यह है कि यहां नीति और नीयत में प्रचंड भेद है। प्रारूप के आदर्श वाक्य
और सरकार की समझ और नीयत में 36 का आंकड़ा है। प्रस्तुत आलेख में कुछ ऐसे ही अंतर्विरोधों हो और प्रचंड मतभेदों
को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। प्रारूप स्कूल के शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य लेने को अनुचित मानता है। प्रारुप
के 165 वें पृष्ठ पर कहा गया है कि गैर शैक्षणिक काम जैसे चुनाव कार्य , सर्वे तथा अन्य
प्रशासनिक कार्य शिक्षक नहीं करेंगे। लेकिन 10 ही पृष्ठ बाद 175 वें पृष्ठ पर प्रारूप कहता है कि 'उच्चतम न्यायालय के आदेशानुसार चुनाव
ड्यूटी और कुछ सर्वे को छोड़कर स्कूल के दौरान कोई भी गैर शैक्षिक गतिविधि नहीं
करनी होगी।' सोचने की बात यह है कि हिंदुस्तान में लोकसभा, विधानसभा से लेकर पैक्स तथा पंचायत चुनाव साल भर होते ही रहते हैं। चुनाव कार्य और सर्वे को छोड़कर मात्र मिड डे मील बच
जाता है। सर्वे के संदर्भ में भी 'कुछ' को स्पष्ट नहीं किया
गया है। ऐसी हालत में कोई भी सर्वे 'कुछ' की श्रेणी में ही आ जाएगा।
प्रारुप अत्यंत चतुराई से कहता है कि चुनाव और
सर्वे के अतिरिक्त स्कूल के दौरान
शिक्षकों को अन्य गैर प्रशासनिक कार्य लिए जा सकते हैं। प्रारुप के 181 वें पृष्ठ पर घोषणा की गई है कि ''माध्यमिक स्तर पर सभी शिक्षकों के लिए उनके कार्य के अनुसार मानक सेवा
की शर्तें और समान वेतन होगा। लेकिन वर्तमान सरकार की नीयत ठीक इसके विपरीत है। पूरे
देश में ठीका पर स्कूल शिक्षकों की बहाली
हो रही है। बिहार में शिक्षकों ने समान काम के लिए समान वेतन की मांग की, उन्होंने आंदोलन चलाया किन्तु जब कोई
रास्ता नहीं निकला तो शिक्षकों ने
न्यायालय में अपने हक के लिए मुकदमा दायर किया। उच्च न्यायालय ने शिक्षकों
के पक्ष में निर्णय दिया। सरकार की नीयत समान वेतन की होती तो वह शिक्षकों को समान
वेतन व्यवस्था लागू कर देती। किंतु सरकार उच्चतम न्यायालय चली गई उसमें शिक्षक के
विरोध में और सरकार के पक्ष में फैसला आया। शिक्षक समान काम के लिए आसमान वेतन के लिए मजबूर हुए। प्रारूप में देश के सभी बच्चों को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने की बात बार बार कही गई है। 'विजन' में कहा गया कि ''राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 एक भारत केंद्रित शिक्षा प्रणाली की
कल्पना करती है जो सभी को उच्च शिक्षा प्रदान करके हमारे राष्ट्र को एक न्यायसंगत
और जीवंत ज्ञान समाज में लगातार बदलने में योगदान देती है। जो सभी को गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान करके हमारे राष्ट्र
को न्यायसंगत और जीवंत
ज्ञान समाज में लगातार बदलने में योगदान देती है।" प्रारुप में गरीब से
गरीब बच्चों को भी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने के
लिए कथित रूप से नीति प्रतिबद्ध है। किंतु विडंबना यह है कि देश भर में सरकार व्यापक
पैमाने पर स्कूल बंद कर रही है या दूर के स्कूलों में विलय कर रही है। झारखंड में
लगभग छः हज़ार स्कूल बंद कर दिए गए हैं।
मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने 5 हजार स्कूलों को बंद करने का मन बना
लिया था। गुजरात में 8673 स्कूलों को बंद करने की पूरी तैयारी हो चुकी है। क्या यह नीति देश के सभी
बच्चों को स्कूल बंद करके गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देगी?
कम छात्रों और कम शिक्षकों वाले स्कूल को बंद करने की योजना यह नीति बना चुकी है। नीति में
स्पष्ट कहा गया है कि 'कम शिक्षक और कम छात्र
वाले स्कूलों का संचालन जटिल होने के साथ-साथ आर्थिक रुप से व्यवहारिक नहीं
है क्योंकि अच्छे स्कूल को चलाने के लिए जिसने संसाधन आवंटित करने की आवश्यकता होती है उतने छोटे स्कूलों के लिए
संभव नहीं होता।'' आशय स्पष्ट है कि पहाड़ों, जंगलों और ऊसर प्रदेशों में जहां जनसंख्या अत्यंत विरल है और निम्नतम दर्जे कि लोग रहते हैं उन्हें
शिक्षा देना सरकार की मंशा नहीं है। स्कूल में अधिक से अधिक बच्चे आएं वहां अच्छे
शिक्षकों की नियुक्ति हो,इस भगीरथी प्रयास के बदले स्कूल को ही
बंद कर देना दुर्भाग्यपूर्ण है। आर्थिक,सामाजिक, सांस्कृतिक आदि कई कारणों से हाशिये के बच्चे जो निकटतम स्कूल में नहीं जा
पाते, उनसे यह उम्मीद करना कि पांच किलोमीटर दूर स्कूल
में पढ़ने जाएंगे कोई असामान्य सोच का
व्यक्ति ही सोच सकता है। प्रारूप में स्कूल शिक्षा से
संबंधित जो सबसे खतरनाक संकेत हैं वह सरकारी स्कूल के संसाधनों को निजी स्कूल के लिए मुहैया कराना। प्रारूप
सरकारी स्कूल और निजी स्कूल के पीछे सामंजस्य पूर्ण स्थिति कायम करना चाहता है और
इसके लिए अपने स्कूल का संसाधन जैसे शिक्षक, पुस्तकालय, खेल का मैदान आदि निजी स्कूलों से
शुल्क लेकर देने का मन बना रहा है। यह तय है कि जब निजी स्कूल एक बार अपना पैर सरकारी स्कूलों में पसार लेंगे तो
वहां उनका अधिकार पक्का हो जाएगा। 266 पृष्ठ संख्या पर प्रारुप में कहा गया है कि ''नीजी स्कूल अपने शिक्षकों को सार्वजनिक स्कूल के शिक्षकों के लिए तैयार किए गए और संचालित किए गए क्षमता संवर्धन
कार्यशालाओं में भेज सकते हैं या नीजी
विद्यालय सार्वजनिक स्कूल काम्प्लेक्स के
साथ संसाधनों को साझा करने की गतिविधियों में भी शामिल हो सकते हैं। (उदाहरण के
लिए साझे खेल के मैदान व्यायसायिक शिक्षकों को साझा करना आदि )" सोचने की बात
है कि सार्वजनिक स्कूल के 'दीन हीन' गरीब बच्चे निजी स्कूल के 'टाई मार्का' बच्चों के साथ कैसे मिल सकते हैं । धीरे-धीरे सार्वजनिक स्कूल के बच्चे इन
गतिविधियों से भी अपने को अलग कर लेंगे। और इन संसाधनों पर धीरे-धीरे निजी स्कूल का कब्जा हो जाएगा। लेकिन सरकार की मंशा स्कूल के संसाधनों से रुपए वसूली की है ना कि अपने बच्चों को
गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने की। यह अकारण नहीं है कि प्रारुप में निजी
स्कूल संचालक को बार-बार महान परोपकारी कहा
गया है और इन पर संदेह न करने की बात
दुहराई गई है, "निजी परोपकार स्कूलों ने भारत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और भविष्य
में भी निभाते रहेंगे। इन्हें संदेह के साथ हतोत्साहित करने की बजाए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।"(
पृष्ठ 262)
प्रारुप में वैज्ञानिक शिक्षा देने की वकालत की गई है, वैज्ञानिक शिक्षा जो तर्क और प्रयोग
पर आधारित हो। मजे की बात यह है कि विज्ञान शिक्षण में ही नहीं बल्कि विज्ञान से इतर विषयों को भी
वैज्ञानिक दृष्टि से पढ़ाने की बात प्रारूप करता है। पृष्ठ संख्या 119 पर उपशीर्षक 'वैज्ञानिक सोच' में प्रारूप घोषित करता है कि "पूरे शिक्षा क्रम में वैज्ञानिक सोच को
विकसित करना और प्रमाण आधारित चिंतन को बढ़ावा
देना , शिक्षाक्रम के सभी दायरों में विज्ञान और परंपरागत गैर विज्ञान विषयों में भी प्रमाण आधारित चिंतन और
वैज्ञानिक विषयों को शामिल किया जाएगा
ताकि विश्लेषणात्मक, तार्किक, तर्कसंगत, मात्रात्मक चिंतन को शिक्षाक्रम के सभी दायरों में बढ़ावा मिले।" विडंबना
यह है कि वर्तमान सरकार की दृष्टि नितांत
अवैज्ञानिक है। इस अवैज्ञानिक दृष्टि से
वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न शिक्षा कैसे दी जा सकती है? अभी कुछ दिन पूर्व इन पंक्तियों का लेखक जब प्रारूप पढ़ रहा था, आई आई टी खड़गपुर में शिक्षा मंत्री भाभी इंजीनियरों को रामसेतु इंजीनियरिंग की कलात्मकता का गुड़ बता रहे थे और नल नील को देश का पहला इंजीनियर।
इतना ही नहीं उन्होंने जोर डाल कर कहा कि रामसेतु पर आप लोगों को शोध करना चाहिए।
वर्तमान सरकार के साधारण नुमाइंदे से लेकर प्रधानमंत्री तक ने जब-तब अवैज्ञानिक
पूर्ण बातों को प्रचारित प्रसारित करने का बीड़ा
उठाया हुआ है। कहीं नारद को पहला जनसंचारक कहा जाता है तो कहीं गणेश के
सर पर हाथी के सूंड़
को प्राचीन काल में प्लास्टिक सर्जरी की बात पूरे आत्मविश्वास के साथ कही
जाती है। अंधविश्वास के खिलाफ वैज्ञानिक
और तार्किक सोच को बढ़ाने वाले बुद्धिजीवियों को लगातार मारा जा रहा है, उन्हें संदेह की नजरों से देखा जा रहा
है और देशद्रोही की जमात में शामिल किया जा रहा है।
दाभोलकर, पनसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे तार्किक बुद्धिजीवी की हत्या को इस संदर्भ में
देखा जाना चाहिए। ऐसे नितांत गैर
वैज्ञानिक और घोर अंधविश्वासी नीयत और माहौल में वैज्ञानिक
शिक्षा देने की बात धूर्तता और छलावा के अतिरिक्त क्या हो सकती है?
प्रारूप में ना जाने कितनी बार शिक्षा में लोकतांत्रिक-
संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की बात दुहराई गई है। किन्तु वर्तमान सरकार की नीयत संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना कतई नहीं
है।लगातार हो रहे मॉब लिंचिंग, खानपान पर पाबंदी, प्रेम संबंधों पर निगरानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की समाप्ति (दुनिया भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में
भारत की दयनीय स्थिति) आदि ऐसे खुले तथ्य हैं जो संवैधानिक मूल्यों की हत्या करते हैं।इस तरह
प्रारुप में संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की बात पाखंड के सिवाय कुछ नहीं। प्रारुप
में 'लिबरल शिक्षा' जैसे मनमोहक शब्दावली का प्रयोग
ही नहीं किया गया है बल्कि अत्यंत विस्तार से इसके महत्व को रेखांकित भी किया
गया है। सभी विषयों को एक साथ मिलाकर शिक्षा देना लिबरल शिक्षा कहा गया है। अर्थात विषयों को वाटर टाइट कंपार्टमेंट में न बांटकर सभी विषयों को
अन्तरग्रथित रुप से पढ़ाना। वाह्य रुप से तो यह
बड़ा ही लुभावना और चित्ताकर्षक लग रहा है लेकिन इसका निहितार्थ अत्यंत घातक है।
विद्यार्थियों को विशेषज्ञता से दूर कर मात्र रोजगार, वह भी दक्ष मजदूर बनाने की कवायद का दूसरा नाम है लिबरल शिक्षा। यह शिक्षा
अमेरिका की चौथी औद्योगिक क्रांति की उपज है जिसका मकसद है व्यापक पैमाने पर
उद्योग के लिए कुशल मजदूर तैयार करना । यह
प्रारूप संकेत भी करता है की भविष्य में स्थाई नौकरी की बात संभव नहीं रह
जाएगी। नई शिक्षा नीति कहती है - ''जिस तेजी से अर्थव्यवस्थाएं बदल
रही हैं, कौन जानता है कि हम भविष्य में किस तरह के काम कर रहे होंगे। जो काम और
जिम्मेदारियां इनमें आज है वह कल भी वैसा ही रहेगी यह पक्का पक्का नहीं कहा जा सकता। कला शिक्षा का उद्देश्य लोगों को केवल उनके
पहले रोजगार के लिए तैयार करना भर नहीं है बल्कि दूसरे, तीसरे, चौथे और आगे के कामों के लिए भी तैयार करती है। (पृष्ठ 309) जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी कहते हैं कि युवाओं को नौकरी की चिंता
नहीं करनी चाहिए, उन्हें समाज के लिए काम करना चाहिए या जब प्रधानमंत्री
'पकोड़े' की बात करते हैं तो लिबरल शिक्षा का निहितार्थ स्पष्ट हो जाता है। उच्च शिक्षा का सबसे खतरनाक पहलू उसे तीन
टाइप में सीधे-सीधे बांट देना है। नई शिक्षा नीति 2032 तक उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों की संख्या दूनी करना चाहती है। रोचक तथ्य यह है कि यह दूनी संख्या वह एक चौथाई शैक्षिक संस्थाओं को घटाकर करना चाहती है।आज की तारीख में
विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों को मिलाकर देश में लगभग 50,000 संस्थान हैं।धीरे-धीरे सरकार इनकी संख्या घटाकर अधिकतम 12300 करना चाह रही है। टाइप 1 जो शोध विश्वविद्यालय होंगे, इसकी संख्या एक सौ से तीन सौ होगी। टाइप 2, जो शिक्षण विश्वविद्यालय होंगे और
इनकी संख्या 1000 से 2000 तक होगी और टाइप-3 जो, कॉलेज होंगे और इनकी संख्या 5000 से 10000 तक होगी। अगर अधिकतम
संख्या को भी लिया जाए तो कुल 12300 संस्थान होंगे और इसी में दोगुने विद्यार्थियों को 'ठूसने' का प्रयास किया जाएगा। 2032 तक सभी संस्थानों को स्वायत्त करने की
योजना है, जिससे वह अपना पाठ्यक्रम चलाने के लिए स्वायत्त होंगे और धन की उगाही के लिए
भी। नीति दो टूक कहती है- ''सभी (वर्तमान में ) संबद्ध कॉलेज 2032 तक स्वायत्त डिग्री देने वाले कॉलेजों
टाइप 3 में विकसित होने चाहिए या पूरी तरह से उस विश्वविद्यालय के साथ विलय हो सकते
हैं जिससे वह संबंध हैं या फिर स्वयं विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो जाएं (टाइप 1 टाइप 2) (पृष्ठ 304)। मार्मिक तथ्य यह है कि जो कॉलेज टाइप 3 तक विकसित नहीं हो पाएंगे उन
कॉलेजों को सरकार बंद कर देगी और 'सामाजिक भलाई ' केंद्र में तब्दील कर देगी - ''2032 तक जो कॉलेज टाइप 3 HEL विकसित नहीं हो पाए उनकी सुविधाएं और संसाधनों
का अन्य सार्वजनिक भलाई और सेवाओं के लिए बेहतर उपयोग किया जाएगा। उदाहरण के लिए
वयस्क शिक्षा केंद्र,सार्वजनिक पुस्तकालय,
व्यावसायिक शिक्षा सुविधाएं आदि।'' (पृष्ठ 304) इस तरह से सरकार नई शिक्षा नीति 2019 के रूप में सरकार उच्च शिक्षा से भी अपना दामन छुड़ाने की पूरी तैयारी करके बैठी हुई है। भविष्य में केवल लाभ की दृष्टि से
व्यावसायिक और कौशल पूर्ण शिक्षा पर सरकार निवेश करने को इच्छुक है। यह शिक्षा
नीति अपने अंतिम चरण में जाते-जाते पृष्ठ संख्या 507 पर स्पष्ट करती है ''यहां ध्यान रखने की आवश्यकता है कि यह नीति शिक्षा के लिए मिलने वाले प्रत्येक
सहयोग और खर्च को निवेश मानती है ना कि व्यय।" लोक कल्याणकारी राज्य में सरकार
शिक्षा पर व्यय करती है, उससे समाज स्वस्थ संपन्न और खुशहाल होता है। यही सरकार के शिक्षा पर किए गए व्यय का बड़ा लाभ होता है। लेकिन अब सरकार अर्थशास्त्र के
असली मुहावरे में निवेश करेगी तो निवेश और प्रोडक्ट का लाभ के साथ अन्योनाश्रय संबंध होता ही है।
निवेश लाभदायक विषयों पर ही किए जाएंगे। यह अकारण नहीं है कि विगत कुछ वर्षों
से जितने सार्वजनिक और निजी
विश्वविद्यालय, कॉलेज खुल रहे हैं, उनमें समाज विज्ञान, मानविकी तथा कला और संस्कृति आदि विषयों को दयनीय स्थिति प्राप्त है। पूरी नई
शिक्षा नीति इसी तरह की विसंगतियों, विडंबनाओं और छलावों से भरी हुई है। जो सबसे बड़ा छलावा है वह है पूरी शिक्षा व्यवस्था के श्रृंग यानी
शीर्ष पर प्रधानमंत्री का विराजना। यद्यपि नीति में स्वायत्तता और स्वतंत्रता के
राग खूब अलापे गए हैं, पूरे शिक्षा तंत्र को कई खानों, उपखानों, विभागों, प्रभागों में विभाजित किया गया है और कहा गया है कि सभी अपने अपने तरह से कार्य करने के लिए स्वतंत्र होंगे, जिससे कार्य आसानी और सरलतापूर्वक
निष्पादित होगा। लेकिन सबसे ऊपर राष्ट्रीय शिक्षा आयोग होगा जिसके मुखिया
प्रधानमंत्री होंगे और सदस्यों में नौकरशाहों की भारी उपस्थिति होगी। कहने के लिए
शिक्षक भी होंगे उसमें लेकिन जहां प्रधानमंत्री होंगे, शिक्षा मंत्री होंगे,
नौकरशाह होंगे, वहां 'बेचारे' शिक्षकों की भला क्या
बिसात? और जहां प्रधानमंत्री 'मोदी है तो मुमकिन है' होंगे वहां किसकी चलेगी यह तो सर्वविदित है ही।यह नीति शिक्षा का ऐसा
ताना-बाना निर्मित करती है जहां भविष्य में
सिर्फ दो तरह के शिक्षा संस्थान रह जाएंगे - एक शिक्षा संस्थान से निकलने वाले
मजदूर बनेंगे, कुशल- दक्ष मजदूर और दूसरे संस्थान से मालिक। एक से शोषित निकलेंगे दूसरे से
शोषक। इति श्री नई शिक्षा नीति 2019 कथा अपरिसमाप्त।
(समयांतर अक्टूबर 2019 में प्रकाशित)
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