लिखना चुप रहने के विरुद्ध एक खामोश लड़ाई : केदारनाथ सिंह

 

 

 बातचीत मनुष्य का सहज गुण है| यही सहजता साक्षात्कार विधा को रोचक और सरस बनाता है| कठिनाई यह है कि अपने यहाँ इस विधा को गंभीरता से नहीं लिया जाता| हिन्दुस्तान में साक्षात्कार विधा को वह लोकप्रियता नहीं मिल पायी जो अन्य कई देशों में उसे प्राप्त है| इस विधा की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पूछे गए प्रश्नों और जिज्ञासाओं का उत्तर उस रूप में सुनियोजित और सुचिंतित नहीं होता| फलस्वरूप ऐसी कई बातों का खुलासा साक्षात्कार में हो जाता है जो औपचारिक लेखन में संभव नहीं है| औपचारिक लेखन में लेखक पूर्णतः सचेत होता है और हम सभी जानते हैं कि सचेत होने की अपनी सीमाएँ होती हैं| इसके उलट साक्षात्कार में वह अपेक्षाकृत उन्मुक्त और अनौपचारिक होता है| इस अनौपचारिकता में, बातचीत की उन्मुक्तता में कई ऐसी बातों और अवधारणाओं का उद्घाटन संभव हो पाता है जो कई बार चमत्कृत ही नहीं करता बल्कि अत्यंत मूल्यवान भी होता है|  इसका कारण यह है कि साक्षात्कार में एक विशेष प्रकार की सहजता होती है और होती है एक विलक्षण किस्म की आत्मीयता| सहजता और आत्मीयता के माहौल में रचनात्मकता और नूतनता के लिए खुला आकाश प्राप्त होता है| साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति इसी नूतन विचारों की टोह में रहता है| अगर साक्षात्कार लेनेवाला और देनेवाला रचनाकार हो तो फिर कहना क्या| गंभीर से गंभीर विषय भी साक्षात्कार में रोचक, सरस और सरल बन जाते हैं|

निंदक नियरे राखिए

केदारनाथ सिंह हिंदी के एक बड़े और लोकप्रिय कवि हैं| उनके साक्षात्कारों में उनकी काव्य-दृष्टि और आलोचना दृष्टि का एक नया आयाम खुलता है| बात बात में वे  कई बड़े कवियों के सम्बन्ध में जो स्थापना दे देते हैं, उसे किसी आलोचना पोथी में खोजना संभव नहीं| क्योंकि ये स्थापनाएँ आलोचना की सैद्धांतिक पुस्तकों से निकली नहीं होतीं बल्कि अनुभव जन्य होतीं हैं और उनकी कविता की तरह मौलिक होतीं हैं| उनके इन विचारों में उनका साहसी व्यक्तित्व भी सामने आता है| उदाहरण के लिए अज्ञेयजी को लिया जा सकता है| हम सभी जानते हैं कि अज्ञेयजी ने उन्हें बिलकुल युवावस्था में तारसप्तक में स्थान दिया था, जिससे उनकी नई पहचान बनी| अपने साक्षात्कारों में वे अज्ञेयजी के प्रति इस कृतज्ञता को बार-बार रेखांकित करते हुए उनसे बहुत कुछ सीखने की बात स्वीकार करते हैं- मैंने उनकी भाषिक प्रयोगधर्मिता से बहुत कुछ सीखा है और अर्जित किया है|’ हिंदी काव्य-संसार में उनके महत्व और उनकी स्थिति को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि सन 1950 से 1962 तक अपने वक्तव्यों, अपने आलोचनातमक लेखन और अपनी कविताओं के जरिये अज्ञेय ही हिंदी कविता के शीर्ष पर थे| उनके गीतों का अपना अंदाज़ था और इस विधा में वे निरंतर कुछ नया रच रहे थे| लेकिन उनका आलोचनात्मक विवेक न उनके सहयोग से न उनके महात्म्य से प्रभावित होता है| अज्ञेयजी के प्रति भरपूर सम्मान के साथ केदारजी उनकी कविता के फाँक को देखाने का साहस करते हैं और पूरे आत्मविश्वास के साथ कहते हैं कि, अज्ञेय ने आधुनिक हिंदी कविता के विकास में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, पर बड़े कवियों में पाई जानेवाली गहराई का उनमें अभाव है| (मेरे साक्षात्कार, केदारनाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, पृष्ठ 37)

केदारनाथ सिंह केवल गहराई के अभाव की बात कहकर आगे नहीं बढ़ते बल्कि इसके कारणों की पड़ताल करते हैं और अज्ञेयजी को मूलतः गीतकार की श्रेणी में रखते हैं- अज्ञेय मूलतः गीतकार हैं| प्रेम और प्रकृति सम्बन्धी उनकी कुछ कविताएँ मुझे बहुत प्रिय हैं| पर बाद में एक रहस्यवादी कवि के रूप में जिस प्रकार अज्ञेय का विकास हुआ और जिस प्रकार से उन्होंने अपने सौदर्यशास्त्र को प्रतिष्ठित किया अथवा करवाया, वह विवाद का विषय है| केदारजी के साक्षात्कारों से यह भी पता चलता है कि अज्ञेयजी का स्वभाव आलोचना को स्वीकार करने का नहीं था- अज्ञेय की काव्ययात्रा के उत्तरार्द्ध में जो रहस्यवाद प्रकट हुआ, वह मझे रुचिकर नहीं लगा, मैंने उनके इस रहस्यवाद के विरुद्ध कहीं कुछ लिखा था, जिस पर वे कुपित हुए थे| उस दौर में अज्ञेयजी का कुपित होना किसी नए कवि के लिए बहुत मायने रखता है लेकिन केदारजी ने इसकी चिंता नहीं की| इस घटना से उनके स्वतंत्र-चित्त और साहसी व्यक्तित्व का पता चलता है|

एक समय में बच्चन जी की कविता की धूम थी| लोगों के जुवान पर मधुशाला की पंक्तियाँ नाचती रहतीं| लेकिन केदार जी की काव्य-चेतना और आलोचना-विवेक बच्चनजी की कविताओं की सीमाएँ भाँप जाता है| मिथिलेश श्रीवास्तव को दिए अपने साक्षात्कार में वे दो  टूक कहते हैं, बच्चन जी की कविता में मुझे अपना आदर्श नहीं मिला| उनकी कविताएँ इकहरी अनुभूति की लगीं| उनकी कविता की पहली पंक्ति पूरी कविता की प्रवृत्ति को निर्धारित करती है, जिसमें पहली पंक्ति की भूमिका लगभग तानाशाह की होती है| यह पद्धति मुझे कभी पसंद नहीं आई| काव्य के विकास में यह सहज प्रक्रिया नहीं लगी| (पृष्ठ 93)

इसके विपरीत एक दूसरे बड़े कवि मुक्तिबोध के बारे में भी उनके स्वतंत्र विचार हैं| वे मुक्तिबोध को शब्द के सही अर्थों में बड़ा कवि मानते हैं और कहते हैं कि उनके पहले काव्य-संग्रह का नाम ‘चाँद का मुह टेढा है’ प्रचलित सौदर्य-बोध को उलट देता है- इस संकलन का शीर्षक ही चौंकाने और विस्मित करने वाला था| प्रचलित रूमानी सौन्दर्य-बोध पर यह शीर्षक करारा प्रहार था| आगे वे मुक्तिबोध के काव्य वैशिष्ट्य को चिह्नित करते हुए बताते हैं, मुक्तिबोध मूलतः आख्यानमूलक कवि हैं| उनकी कविताओं का ढांचा तत्वतः  महाकाव्यात्मक है| वैसे वे जाने भी जाते हैं अपनी लम्बी कविताओं से ही| उनकी ब्रह्मराक्षस कविता मुझे आज भी झकझोर कर रख देती है| उनकी ‘अँधेरे में’ कविता तो हिंदी का ‘वेस्टलैंड’ कही जा सकती है| मुक्तिबोध हिंदी कविता के एक क्रांतिकारी प्रस्थान बिंदु हैं| कविता में सामाजिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता को मुखर कर उन्होंने के नई प्रवृत्ति का विकास किया| (उपर्युक्त, पृष्ठ 37) देखा जा सकता है की केदार जी अपने साक्षात्कार में कम से कम शब्दों में मुक्तिबोध की काव्य-विशेषताओं को उद्घाटित कर देते हैं|

ग़ालिब को केदारजी भारत का पहला आधुनिक कवि मानते हैं| ग़ालिब की अनुभूतियों की गहराई के क़ायल हैं कवि केदारनाथ सिंह| एक बार जब सुधीश पचौरी ने साक्षात्कार में केदारजी को उनकी कविता की एक बिलकुल अलग किस्म की विशेषता की ओर संकेत करते हुए कहा कि उनकी कविता में निश्चय और अनिश्चय का गहरा द्वंद्व होता है| इस तरह की कविता की पृष्ठभूमि में एक संशय, एक संदेह, एक प्रश्न का तानाबाना बुना होता है| इस संशय और संदेह के माध्यम से वे कविता को ज्ञान-मीमांसा से जोड़ते हैं| जब पचौरी जी ने केदार जी से पूछा कि आप ऐसा क्यों करते हैं तो सुनिए कि केदार जी ने क्या जबाव दिया, संशय शायद सबसे बड़ा सच है हमारे समाज का| और बहुत आँखें मूंदकर सब कुछ-को मान लेने वाला दौर तो गुज़र चुका है|...मुझे इस माने में ग़ालिब बहुत दिलचस्प लगते हैं| शायद उन्हीं से मैंने सीखा हो| जिन लोगों से मैंने पोयट्री का प्लैज़र प्राप्त किया है ग़ालिब उनमें से एक हैं| मैं उन्हें अंग्रेजों के भारत आने के बाद से अब तक का सबसे बड़ा कवि मानता हूँ| यह चीज़ ग़ालिब में है| शायद मैंने उनसे सीखा हो| वह एक दुनिया बनाते हैं और तोड़ देते हैं| यह जो बनाना और तोड़ना है, एक स्टेटमेंट दो, जो पॉजिटिव लगे, लेकिन कुछ दूर जाकर जो पॉजिटिव लगे उसे डिमोलिश करो| पाठक को झकझोरो और ऐसा करो कि वो समझने को मजबूर हो, यह युक्ति ग़ालिब में बहुत है, तो मैंने चुपचाप उनसे सीखा होगा| इसके अलावा मुझे लगता है कि एक डाउट, जो ज़्यादा रियल मूल्य हमारे समय का है, शायद उसका दवाब हमारे मन पर है| (पृष्ठ 151)    

गीत गाने दो मुझे तो, वेदना को रोकने को

हम सभी जानते हैं कि केदारजी ने अपनी काव्य-यात्रा का आरम्भ गीत से किया था| उनके कुछ गीत अत्यंत लोकप्रिय भी हुए, किन्तु बहुत जल्दी उन्होंने अपने को गीत-रचना से अलग कर लिया| इसका कारण यह था कि वे गीत की सीमाओं से परिचित हो गए थे| अगर उन्हें गीत मोह घेरे रह जाता तो कदाचित आज बड़े कवि के रूप में उनकी पहचान नहीं बन पाती| गीत की संरचना और अवधारणा पर उनके विचार मानीखेज हैं और गीत पर शोध करनेवालों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण| वे गीत की पहली पंक्ति को अधिनाकवादी मानते हैं और कहते हैं गीत की पहली पंक्ति रचनाकार को उन्मुक्त नहीं होने देती| केदारजी साक्षात्कार ले रहे अभिज्ञात को बात-बात में गीत के सन्दर्भ में बड़ा खुलासा कर जाते हैं- गीत की प्रथम पंक्ति को मैंने अधिनायक की-सी स्थिति में माना तो उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि वह ज्यादा मूर्त और प्रत्यक्ष होता है| फिर वो गीत के पूरे तंत्र को बहुत दूर तक निर्धारित करता है, सिर्फ प्रभावित नहीं करता| क्योंकि गीत में ‘तुक’ के अनुरोध से सारी कविता तय होती है| (पृष्ठ 53) केदार जी कविता और गीत की तुलना मुक्ति की व्यापक  अवधारणा से करते हुए  कहते हैं,  गीत का ‘तुक’ पूरी कविता को मुक्त नहीं रहने देता| और आवश्यक हो जाता है कि कवि उसी के अनुसार कविता को ढाले| यह तय है कि किसी कविता में यह कोई शब्द आरंभ में अचानक आ गया तो वो शब्द भी बड़ी भूमिका निभाता है| लेकिन उस तरह कविता को नहीं बांधता, जिस तरह प्रथम पंक्ति बांधता है| (उपर्युक्त 53)

केदार जी सिर्फ गीत की सीमा का उद्घाटन कर चुप नहीं हो जाते, वे कविता की संभावनाओं और सीमाओं को भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं, दरअसल, कविता के भीतर एक सापेक्षिक मुक्ति ही संभव है| वो मुक्ति कवि को स्वंय अपने आप से ही प्राप्त करनी होती है| अपने पूरे तंत्र से प्राप्त करनी होती है| जिस तरह कविता कहीं से कहीं जा सकती है, गीत में यह संभावना नहीं होती है| (पृष्ठ 54) केदारजी गीत की प्रविधि की इन सीमाओं को आगे बढाते हुए छायावादकालीन गीत तक ले जाते हैं और सदानंद साहीजी को बताते हैं कि, मुझे लगता है उन छायावादी कवियों और ख़ास तौर से उत्तर छायावादी कवियों ने गीत का जो ढांचा विकसित किया था वह रचना की मुक्त प्रकृति के बहुत अनुरूप नहीं जान पड़ता| सृजन के मूल में मुक्ति होती है और गीत का वह आतंरिक ढांचा उस मुक्ति को बाधित करती है| शायद गीत से मुक्त छंद की ओर जाने के पीछे यही चेतना काम कर रही हो| (पृष्ठ 184)

 

कवि का आलोचक रूप

केदारनाथ सिंह उस रूप में व्यवस्थित आलोचक नहीं हैं तथापि उनकी आलोचना दृष्टि बहुत पैनी है| उनके साक्षात्कारों में हम आलोचना दृष्टि के लिए जिस अंतर्दृष्टि की जरूरत पड़ती है, उसे तलाश सकते हैं| कविता की आलोचना पर तो उनके साक्षात्कार में कई सार्थक बातें कहीं गईं हैं, जो युवा कवियों के लिए विशेष महत्व रखतीं हैं| इन आलोचनाओं से गुजरते हुए युवा कवि अपनी कविता को माँज और सवाँर सकते हैं| विनोद दास को वे बताते हैं कि, जहाँ तक मेरे एप्रोच का सवाल है, मैं मानता हूँ कि काव्यगत शब्द के अलावा कविता में प्रवेश करने का कोई दूसरा विश्वसनीय आधार नहीं है| इसलिए मैं जब कभी किसी कविता को देखता हूँ तो मेरी पहली कोशिश यह होती है कि उसमें आए हुए ‘बीज’ शब्दों की तलाश की जाए| ये बीज शब्द कविता के कलात्मक गुण और उसकी अंतर्वस्तु दोनों को आलोकित करते हैं| मैं अपनी आलोचना में उसी आलोक बिंदु तक पहुँचने की कोशिश करता हूँ| (पृष्ठ 73) एक अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने बड़े मार्के की बात कही कि ‘समीक्षक तो वही है जो चमकती हुई पंक्ति पर ऊँगली रख दे|’ उनका आशय प्रतिभा की असाधारण चमक से था, जिसे आलोचक अपनी दृष्टि प्रखरता से पहचान ले|

केदारजी  युवा रचानाचीलाता के प्रति उत्साह से भरे होते, इतना ही नहीं वे युवा रचनाकारों को यदा-कदा सलाह देते हुए उससे कुछ-न-कुछ सीखने तक की बात स्वीकार करते हैं, एक बात मैं जरूर चाहता हूँ और करता भी हूँ कि युवा रचानाचीलता की मानसिकता में जो परिवर्तन घटित होते हुए दिखाई पड़ते हैं उसे चुपचाप अपने ढंग से पहचानता हूँ, स्वीकृति देता हूँ और यदि अवसर आए तो उस पहचान को स्वंय अपने सामने रखकर, कई बार अपनी बहुत-सी मान्यताओं को बदलने और लचीला बनाने की कोशिश भी करता हूँ| (पृष्ठ 57) इस बदलने को केदारजी बहुत महत्व देते हैं| कवि या रचनाकार को निरंतर अपने को बदलते रहना चाहिए, ‘नित-नित’ नूतन होते रहना चाहिए| वे निराला को इसलिए बड़ा कवि मानते हैं कि  निराला ने लगातार अपने को बदला, अपनी कविता को बदला| अभिज्ञात से सम्वाद करते हुए एक पोलिश कवि का वक्तव्य स्मरण करते हुए वे कहते हैं कि कवि को दो काम करने चाहिए| वो अपनी ख़ास पहचान निर्मित करे| सिर्फ़ इतना ही आवश्यक नहीं है, वह अपनी विशिष्ट पहचान निर्मित करे और फिर उसे तोड़ दे| निराला यह अकेले करते हैं| वे अपनी पहचान बनाते हैं और फिर अगली कविता में उसे तोड़ देते हैं| यह निराला की बड़ी क्षमता और सफलता है, जो मेरे जैसे कवि को बार-बार आकृष्ट करती है| मुझे नतमस्तक करती है निराला के सामने| (पृष्ठ 51-52)

नेह निबाहन कठिन है सबसे निबहत नाहि

प्रेम करना जितना कठिन और चुनौतीपूर्ण है उससे कम कठिन अच्छी प्रेम कविता लिखना नहीं है| केदारनाथ सिंह ने कुछ बेहतरीन प्रेम कविताएँ लिखीं हैं| ये कविताएँ न तो ‘मिलन’ को ‘मधुर प्रेम का अंत’ मानतीं हैं और न ही ‘विरह’ को प्रेम की ‘जाग्रत गति’| इनकी कविता में प्रेम खूबसूरत एहसास का दूसरा नाम है| इनकी कविता में प्रेमिका ऐसे आती है ‘जैसे छीमियों में धीरे-धीरे रस आता है’ और चलते-चलते एड़ी में/काँटा जाए धंस’| जब इनकी कविता प्रेमिका का नर्म और नाजुक हाथ पकड़ती है तो दुनिया को भूल नहीं जाती, बल्कि कहती है-उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए|’ प्रेम कविता लिखना सबसे दुरूह और कठिन कार्य है| अगर आप भी अच्छी प्रेम कविता लिखना चाहते हैं तो सुनें कि वे अपनी एक प्रेम कविता ‘मैं एक स्त्री को जानता हूँ’ के लिए क्या कहते हैं, यह किसी व्यक्ति को प्रेम करने के दबावों और उसे भूल पाने की असम्भाव्यता के अहसास की कविता है| एक स्त्री का बिम्ब धीरे-धीरे विकसित होता है और कविता की रिक्तता को भरता चला जाता है| यह कविता भूलने के विरुद्ध है, न कि भूलने के बारे में| यह आसानी से एक संवेदनापरक कविता बन सकती थी, लेकिन कविता इसके परे जाती है| यह कविता प्रेम के आनंद तथा उसकी पीड़ा दोनों के बीच अपना आकार प्राप्त करती है|...आधुनिक कविता में प्रेम की अवधारणा जटिल हो गई है क्योंकि प्रेम का स्थान जटिल अनुभूतियों ने ले लिया है| (पृष्ठ 44) केदार जी प्रेम की इस जटिल अनुभूतियों को थोड़ा और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, प्रेम कविता लिखना मेरे लिए बहुत दुष्कर कार्य है| ‘एक प्रेम कविता को पढ़कर’ शीर्षक कविता में मैंने प्रेम कविता की एक नई शैली अपनाई है| एक तरह से यह प्रेम कविता से अधिक प्रेम कविताओं के विषय में हैं| ‘अकाल में सारस’ में ‘आना’ शीर्षक से एक गीत है जिसकी अंतिम पंक्तियाँ हैं-

आना जैसे मंगल के बाद/चला आता है बुध/ आना’ मैं चीज़ों को दो स्तरों पर देखता हूँ-एक वो स्तर जो वास्तविकता है और दूसरा जो यथार्थ नहीं है (यहाँ यथार्थ न होने का अर्थ काल्पनिक नहीं है)| (पृष्ठ 44)

भाषा में आदमी होने की तमीज

केदारनाथ सिंह कविता में भाषा के बाबत बहुत बात करते हैं| उनकी कई कविताएँ भाषा पर केद्रित हैं| मेरी भाषा के लोग, मातृभाषा, भोजपुरी आदि कविताएँ उनकी भाषा चिंता लेकर लिखीं गईं हैं| भाषा के प्रति वे अत्यंत सजग और सचेत कवि हैं| भाषा उनकी कविता को विलक्षण ढंग से गरिमा प्रदान करती है| प्रत्येक साक्षात्कार में भाषा के सम्बन्ध में उनसे सवाल जरूर पूछे जाते हैं, आशा मेहता को वे बताते हैं, मेरी भाषा बोलचाल की हिंदी से बहुत दूर न हो और उस भाषा में मेरे अनुभव जगत का जो भौगोलिक सन्दर्भ है वह भी किसी-न-किसी रूप में शामिल हो| जब मैं बोलचाल की निकटता की बात करता हूँ तो मेरा मतलब बोलते समय वाक्य की जो बनावट होती है-उसकी सहजता की रक्षा की है| इसलिए मैंने भरसक कोशिश की है छायावादियों की तरह खंडित वाक्य कविता में न आने दूँ और भरसक उसका विन्यास भी ऐसा  हो कि उच्चरित ढर्रे से बहुत अलग न जान पड़े| भौगोलिक सन्दर्भ से मेरा मतलब यह है कि जिस स्थान में मैं पला-बढ़ा हूँ वहीँ की बोली से मेरी साहित्यिक-भाषा का एक रचनात्मक सम्बन्ध बने और अपनी भाषा की निजी पहचान के लिए इस बात को हद तक मैं जरूरी मानता हूँ| (पृष्ठ 129)

भाषा को लेकर केदारनाथ सिंह का दृष्टिकोण अत्यंत व्यापक और विस्तृत था| वे सिर्फ़ ‘हिंदी वाले’ होकर नहीं सोचते इसलिए वे भारतीय भाषाओं की बात करते| ‘मेरी भाषा के लोग’ कविता में वे लिखते हैं- ‘मेरा अनुरोध है-/भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध/ कि राज नहीं-भाषा/भाषा-भाषा सिर्फ़ भाषा/रहने दो मेरी भाषा को’| राष्ट्रभाषा के सवाल पर भी उनका स्टैंड नितांत अलग है| दुर्गाप्रसाद जी को वे बताते हैं, भाषा-नीति के बारे में एक बात मुझे हमेशा लगती है कि हम हिंदी की बात में थोड़ी शक्ति तभी पैदा कर सकेंगे, जब सिर्फ़ हिंदी की बात न करें-भारतीय भाषाओं की बात करें| अंग्रेजी से अकेले हिंदी नहीं लड़ेगी, अंग्रेजी से सारी भारतीय भाषाएँ मिलकर लड़ेंगी| यह अवश्य है कि उन भाषाओं में हिंदी पहली भाषा मान ली गई है और यह हिंदी की अपनी व्यापकता के कारण संभव हुआ है| इसलिए हिंदी की लड़ाई को थोड़ा और व्यापक बनाने की ज़रुरत है| यानी उस लड़ाई को भारतीय भाषाओं की लड़ाई माना जाना चाहिए, सिर्फ़ हिंदी की लड़ाई नहीं| (पृष्ठ 65-66)  इस मामले में उनकी सोच इतनी व्यापक थी कि वे हिंदी में भी भारतीय भाषाओं की अनुगूंज सुनते हैं- इसमें भरा है/पास पड़ोस और दूरदराज़ की/इतनी आवाज़ों का बूदं बूदं अर्क/कि मैं जब भी इसे बोलता हूँ/तो कहीं गहरे/ अरबी तुर्की बांग्ला तेलगु/ यहाँ तक कि एक पत्ते के/ हिलने की आवाज़ भी/ सब बोलता हूँ ज़रा ज़रा/ जब बोलता हूँ हिंदी’| भाषा के सवाल पर केदार जी सभी मोर्चे पर लड़ते हैं, लेखों में, साक्षात्कारों में, कविता में| ‘भाषा की राजनीति’ शीर्षक लेख में वे लिखते हैं, अब शायद इस बात की सबसे अधिक आवश्यकता है कि भाषा के पूरे सवाल को अलग-अलग भाषाओं की प्रादेशिक अस्मिताओं को ध्यान में रखते हुए भी, एक अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए| (मेरे समय के शब्द, केदारनाथ सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1993, पृष्ठ 141)

जब एक बार केदारजी से पूछा गया कि आप लिखते क्यों हैं, तो उसका उन्होंने जो जबाव दिया, वह हम सभी लोगों के लिए प्रेरणादायी है- संबोध्य से जुड़े रहने की आकांक्षा| यह इस बात का सूचक है कि मैंने साहित्य को हमेशा एक सामाजिक कर्म माना है और इस मान्यता के भीतर कहीं मेरी रचनाशीलता का स्रोत भी है| दरअसल, लिखना चुप हो जाने के विरुद्ध एक ख़ामोश लड़ाई का ही दूसरा नाम है| ( मेरे साक्षात्कार, पृष्ठ 82)   

चौपाल, जनवरी-जून 2020, केदारनाथ सिंह विशेषांक में प्रकाशित)

 

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