भामती : अध्यात्मवादी दर्शनक ढूह पर निष्कंप सुनगैत स्त्री-कथा
प्रख्यात मीमांसक, दार्शनिक मैथिल विद्वान पंडित वाचस्पति मिश्रक पत्नी भामतीक समुद्र सन दुःख आ पहाड़ सन पीड़ाक औपन्यासिक कथन अछि ‘भामती’| दसम शताब्दीक एकटा स्त्रीक हाहाकारकेँ अंततः एक्केसम शताब्दीक एकटा स्त्री उषाकिरण खाने सुनलन्हि| हजार वर्ष धरि वाचस्पति मिश्रक महिमामंडन होइत रहल, भामतीक अमरत्वक गान होइत रहल, मुदा एहि महिमामंडन आ गानक नीचा दबल भामतीक सिसकी कियो नहि सुनलक| एहि मौन रूदनकेँ सुनबा लेल अपार साहस अपेक्षित| कारण जे वर्ण-श्रेष्ठता, लैंगिक पूर्वग्रह, धार्मिक संकीर्णता आ अध्यात्मवादी दर्शनक पेंच, सिसकीक कर्ता आ कारण अछि ओकरा प्रति आलोचनात्मक होयबाक साहस अनिवार्य| जिनकामे ई साहस नहि ओ एकटा विदुषी मैथिलानीक हाक्रोशकेँ नहि सुनि सकैत छथि| त आबी, हम सभ मात्र मनुष्य भ’ उषाकिरण खानक सौजन्यसँ भामतीक असाधारण दुःखकेँ साझा करी|
मैथिली आ हिन्दीक प्रसिद्ध लेखिका उषाकिरण खानक उपन्यास ‘भामती’ मैथिली उपन्यास परंपरामे अत्यंत महत्वपूर्ण कृतिक रूपमे स्मरण कयल जयबाक संभावनासँ संपृक्त अछि| एकर कयकटा कारण अछि- पहिल, त’ ई जे ‘भामती’ मिथिलाक गौरव-पुरुष, राष्ट्रव्यापी-सम्मानित, लब्धप्रतिष्ठित दार्शनिक पंडित वाचस्पति मिश्रक चरित्र पर आधारित उपन्यास अछि| भामतीक हिन्दी अनुवाद प्रकाशित भ’ चुकल अछि| सहजहिं मिश्रजीक माध्यमसँ सौंसे हिन्दी भाषी क्षेत्रमे मिथिलाक गौरवशाली दर्शन परंपरारसँ आम पाठक परिचित हैत| मिथिलाक मान बढ़बयबला एहन दुर्लभ दार्शनिक पर मैथिलीमे उपन्यास नहि छल, सैह आश्चर्य! उषाकिरण एहि महा अभावक पूर्ति कयलनिय| दोसर कारण ई जे दर्शन स्वभावतः अत्यंत गूढ़, जटिल, दुर्बोध आ सामान्य जन लेल नीरस विषय होइछ| ताहिमे पंडितजी एहन धीर-गंभीर व्यक्ति जिनका कदचिते कियो हँसैत देखने हो, एहन कठिन विषय आ व्यक्ति पर कथा लेखन अत्यंत चुनौतीपूर्ण| उषाजी एहि चुनौतीकेँ स्वीकारक’ एहन मनोरम उपन्यास लिखलनि जे पंडितजीक व्यक्तित्व सहज, सरल आ चित्ताकर्षक बनि गेल| पंडितजीक व्यक्तित्वकेँ मनोहारी बनबयमे लेखिका हुनक व्यक्तित्वमे कतहु छेड़-छाड़ नहि कयलनि अछि| अपन सरस कल्पनाशक्ति आ मिथिलाक लोकानुरागी परिवेशक संयोगसँ ओ एहि दुरूह कार्यकेँ संभव बनौलनि|
पंडितजी एहन महापुरुषक सन्दर्भमे लोककेँ किछु विशेष नहि ज्ञात छैक, मुदा जानबाक उत्कंठा अत्यधिक| जनश्रुतिसँ चल आबि रहल दस-पंद्रह आखरक अजगुत कथाटा लोककेँ बुझल छैक, जाहिसँ हुनका बारेमे विस्तारसँ जानबाक उत्कंठा आ जिज्ञासा स्वाभाविक| ओहि अति लघु दन्तकथाकेँ उषाकिरण खान अपन व्यापक कथा युक्तिसँ दू सै पचास पृष्ठक सम्पूर्ण उपन्यासक कलेवर प्रदान कयलनि| ई सहज साहित्यकर्म नहि| कथा-लेखनमे ‘तिलकेँ ताड़’ बनेबाक कला कियो उषाजीसँ सीख सकैत अछि| बिनु नवोन्मेषशालनी कल्पनाशक्ति आ जीवनरागक ई संभव नहि| उषाजी मूलतः जीवन रागक लेखिका छथि| अन्यथा एक त’ दर्शनशास्त्री आ ताहूमे पंडित वाचस्पति मिश्र एहन कठोर चरित्र पर उपन्यास लेखनक कल्पनो दुष्कर| ई जीवनराग अबैत अछि लोकजीवनसँ गहन सम्पृक्तिसँ| उषाकिरण अभिजात्य कुलशीलसँ रहितहुँ मिथिलाक सामान्य लोकजीवनसँ सघन रूपें जुड़ल छथि| लेखिकाक व्यापक लोक अनुभवसँ उपजल रचनाक नाम थिक ‘भामती’|
मैथिलीमे चरित्र प्रधान उपन्यास अत्यल्प अछि| कारण कल्पना आ एकटा ठोस कथा मात्रसँ जीवनीपरक उपन्यास नहि लिखल जा सकैछ| जीवनीपरक उपन्यास लेल समुन्नत इतिहास-दृष्टि संगे गंभीर शोध-अध्ययन सेहो अपेक्षित| जीवनीपरक उपन्यासमे कल्पनोक एकटा सीमारेखा होइछ| कल्पनाक उन्मुक्त आकाश चरित्रक संग न्याय नहि क’ सकैत अछि| चरित्र, परिवेश आ समयकेँ अकानैत कल्पनाक बाध्यता रहैछ| वाचस्पति मिश्र दसम शताब्दीक महापुरुष छलाह| ओहि समयक मिथिलाक इतिहास लगभग अज्ञात अछि| थाहि-थाहिक’ ओहि समयक किछु-किछु इतिहास भेटि जाइक सैह बहुत| ओहुना भारतवर्षमे प्राचीन आ मध्यकालमे व्यवस्थित इतिहास-लेखनक परंपरा नहि छल| अन्यान्य ऐतिहासिक स्रोत पर निर्भरता| ई अकारण नहि जे ई परिस्थिति लेखिकाकेँ उन्मुक्त कल्पनाक अचूक अवसर देलकनि आ तकर भरपूर सर्जनात्मक सदुपयोग ओ एहि उपन्यासमे कयलनि|
जीवनीपरक उपन्यास जीवनी आ उपन्यास मध्यक एकटा रोचक विधा अछि| एहिमे यथार्थ आ कल्पनाक संतुलन अत्यंत आवश्यक| यथार्थक अनुपात बेसी भेने रचनाकेँ जीवनी बनि जयबाक खतरा बेसी रहैछ| जीवनी जतय तथ्यपरक होइत अछि, जीवनीपरक उपन्यासमे तथ्य मात्र एकटा तत्व| वस्तुतः तथ्य, कल्पना आ इतिहास-विवेकक त्रयीसँ गुणवत्तापूर्ण जीवनीपरक उपन्यास लिखल जा सकैत अछि| जीवनीपरक उपन्यासमे इतिहास आ साहित्यक तनातनी सेहो रहैछ| एहि तरहक उपन्यासक रचनाकार इतिहासकारक अपेक्षा बेसी स्वछन्द मुदा खाँटी उपन्यासकारक तुलनामे कम उन्मुक्त भ’ पबैछ| एतबे नहि जीवनीपरक उपन्यास वस्तु-सत्य आ भाव-सत्यक सामंजस्य बइसेबाक रचनात्मक कला थिक| संक्षेपमे, जीवनीपरक उपन्यास इतिहास, जीवनी आ उपन्यासक रूपसँ तैयार एकटा विलक्षण काकटेल साहित्यिक विधाक नाम थिक| चूँकि एकटा जीवनीपरक उपन्यास लिखबामे एतेक बातक ध्यान आ कौशल राख’ पड़ैत छैक, जाहि कारणें जीवनीपरक उपन्यास मैथिली वा अन्यो भाषामे कम लिखल जाइछ| हिन्दीमे रांगेय राघव, अमृतलाल नागर आ संजीव श्रेष्ठ चरित्रप्रधान उपन्यासकार छथि| उषाकिरण खान भामतीक बाद हिन्दीमे विद्यापतिक जीवन पर आधारित सिरजनहार नामसँ खूब नीक उपन्यास लिखलनि अछि| कहबाक आशय ई जे उषाकिरण खानमे जीवनीपरक उपन्यास लिखबाक सभ गुण विद्यमान छनि| जीवनीपरक उपन्यास लेखिकाक निर्मितिमे हुनक इतिहासक पृष्ठभूमि आ साहित्य-लेखनक सुदीर्घ अनुभवक भारी योगदान रहल अछि|
वाचस्पति मिश्र अट्ठारह बर्ख धरि सभ किछु बिसरि ब्रह्मसूत्रक भाष्य लिखबामे ताहि तरहें निमग्न भ’ गेलाह जे ई सुधि नहि रहलनि जे अग्निकेँ साक्षी राखि ओ कोनो कन्याकेँ बियाहि अनने छथि| हुनक पत्नी भामती अहर्निश सेवामे लागल रहली| यद्यपि नित्यकर्म आ भोजनादि छोड़ब संभव नहि छल तें ई सभ करब विवशता छल| उपन्यासमे अहू बातक संकेत अछि जे ओ समय-समय पर ग्रामीण लोकनिसँ वार्ता करैत छलाह| प्रश्न ई जे ई सभ करैत ओ सरिपहुँ पत्नी भामतीकेँ बिसरि गेला वा ओ सायास एहि साधनाकेँ पकड़लनि| स्त्रीक प्रति ई ध्रुव उपेक्षा सायास वा अनायास? उपन्यासमे लेखिकाक मंतव्य ई जे ओ ‘षडदर्शन केर घूर्णित जलमे घुरमुरिया खाइत’ तेहन भ’ डूबि गेला जे अओर कोनो बातक सुधिये नहि रहलनि| ई बात तर्कसम्मत नहि बुझाइत अछि| विशेषक’ ओहन व्यक्ति लेल जे घोर तार्किक छल| न्याय-दर्शनक आधार तर्क होइत अछि आ वाचस्पति मिश्र प्रसिद्ध न्याय-दार्शनिक छलाह| न्याय-दार्शनिक ; जकर भित्ति तर्क होइछ, हुनका पर एहन अतार्किक आरोपण! कथा लेखिकाक विवशता ई जे ओ प्रचलित दन्तकथाकेँ अपन उपन्यासक आधार बनोलनि अछि| एहि दंतकथाकेँ मानि लेबाक बाद त’ आगू कोनो बात नहि रहि जाइछ| मुदा, कोनो दंतकथाक निर्मितिमे बहुत तरहक बात, पूर्वाग्रह आ वर्चस्व आदिक हाथ होइछ| एहि दंतकथाक पार किछु अनुमान आ संभावना पर विचार कयल जा सकैछ| कारण अहू दंतकथाक निर्मितिमे अनुमानेक प्रमुखताक संभावना अछि| अहूना दर्शनशास्त्र आ तर्कशास्त्रमे अनुमान्यक महत्वपूर्ण भूमिका होइछ|
संभव जे जाहि ब्रह्मसूत्रक ओ व्याख्या क’ रहल छलाह ओकर अंतर्वस्तुमे स्त्रीक प्रति कोनो एहन बात होयत जे हुनका स्त्री-उपेक्षा दिस धकेल देने हो| ब्रह्मसूत्र स्त्रीक प्रति उदार त नहिएँ, संकीर्ण दृष्टिक परिचायक ग्रन्थ अछि| सिद्धांत निरूपण लेल व्यवहारक सहमेल सेहो आवश्यक| दोसर, जाहि शंकराचार्यक ब्रह्मसूत्रक भाष्य ओ क’ रहल छलाह ओ आचार्य बाल ब्रह्मचारी त’ छलाहे संगहि घोर स्त्री विरोधी| हुनक मानब छलनि जे नारी देह नरकक रास्ता होइछ| यद्दपि पंडितजी कयकटा मुद्दा पर शंकराचार्यक मतसँ भिन्नता प्रकट कयलनि अछि, मुदा एहि विषय पर ओ आचार्यजीक संग छलाह| नहि रहितथि त’ भामतीमे एकर संकेत अवश्य रहैत| दोसर महत्वूर्ण बात ई जे ब्रह्मसूत्रक संग कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य, मंडन मिश्र, वाचस्पति मिश्र संग भारतीय दर्शनक मुख्य धारा बौद्धमतक जबर्दस्त खंडनमे लागल छल| बौद्धक वज्रयानक दीक्षामे दीक्षित तंत्रयानमे सिद्धिक लेल स्त्री समागम आवश्यक छल आ एकरा मुक्तिक अवधारणासँ जोड़ल गेल| कोनो आश्चर्य नहि जे प्रतिक्रियामे, तंत्रयानक विरोधमे सायास पंडितजी स्त्री-साहचर्यसँ परहेज कयने होयताह| खंडन सैद्धांतिके नहि व्यावहारिको| पंडित वाचस्पति मिश्र बहुत पैघ दार्शनिक साधनामे लागल छलाह| भारतक संस्कृतिमे कोनो तरहक पैघ साधनामे स्त्रीसँ दूरी रखबाक प्रथा रहल अछि| संभव जे पंडितजी मनहिमन प्रण लेने होइथि जे जा धरि भाष्य लिखल नहि जायत ता धरि स्त्री-विमुख रहब| एहि दिस संकेत भामती में सेहो भेल अछि| भामतीकेँ एक बेर जखन पंडितजीक आकर्षण बेसी भेलनि त’ सोचैत छथि जे ओ एहि आकर्षणकेँ स्वीकार करता वा नहिया| एक मन कहैत छनि ‘हाँ’ दोसर मन कहैत छनि ‘नईं’| “ओ गहन ज्ञानक मंथन कए उपराइत नवनीतक संचयन लेखनीबद्ध कए रहल छथि| असार संसार केर कोनो टा प्रलोभन डिगा नहि सकतनि हुनका|” (भामती, पृष्ठ 87) आशय ई जे भामतीक असह्य पीड़ाक मूल कतहु-ने-कतहु दर्शनक विषय-वस्तुमे सन्हियाल अछि| ताहि हेतु भारतीय दर्शनक मुख्य चरित्रसँ परिचय आवश्यक| दोसर, जाहि ब्रह्मसूत्रक भाष्य लेखन आ अन्यान्य पोथीसँ कथा नायक पंडितजी दिग-दिगंतमे प्रख्यात भेलाह, ओ भारतीय दर्शन परंपरामे सार्थक हस्तक्षेप करैछ| ई अकारण नहि जे भारतीय दर्शन परंपराकेँ बुझबाक किछु प्रयास करी|
जाहि विश्वमे हमरा लोकनि रहैत छी, तकरा संगे मानवजातिक संबंध, स्थान आ नियतिकेँ बुझबाक मानवीय प्रयास दर्शन कहबैछ| एहिमे जन्म-मृत्युक रहस्य, संसार, जीव,ब्रह्म आदि सब अबैछ| एहि प्रयासमे जीवनक संबंधमे जे दृष्टि, सोच, समझ, अंतर्दृष्टि आ विश्वदृष्टिकोण बनैत अछि वैह दर्शन कहबैछ| एहि अर्थमे दर्शन मानव अस्तित्वक व्याख्या करएबला अनुशासन होइछ| दर्शन सम्पूर्ण समाजक जीवन-दृष्टि होइछ, जाहि आधार पर संस्कृति, सम्पन्नता, मानव व्यक्तित्व आ सामाजिक आदर्शक निर्माण होइछ| दर्शनक अनेक भाग-विभाग होइत अछि, मुदा मुख्य रूपसँ दर्शनक दू कोटि होइछ-अधिभूतवादी आ द्वन्द्ववादी| अधिभूतवादी दर्शनमे विकास, परिवर्तन आ बदलावक कारण वस्तुक अन्तर्निहित प्रकृति नहि अपितु कोनो श्रृष्टिकर्ता होइछ जे नियमन आ नियंत्रण करैछ| फलस्वरूप ई धारा प्रकृतिमे गुणात्मक परिवर्तनकेँ अमान्य करैत ओकर परस्पर अन्तरनिर्भरता, अंतरसापेक्षता आओर अंतरसम्बद्धताक उपेक्षा करैछ| भारतीय दर्शनक मुख्य धारा खासक’ ‘भामती’क दार्शनिक विषयवस्तु (ब्रह्मसूत्र) अधिभूतवादी अछि| दोसर दिस द्वंद्ववाद परिवर्तनक आकांक्षी दर्शन कहबैछ| इ वस्तुक सापेक्षता, अन्तरसम्बद्धता आ अन्तर निर्भरताक दर्शन अछि|
प्रत्येक ज्ञानमीमांसाक सामाजिक, सांस्कृतिक आ राजनीतिक पृष्ठभूमि होइछ| प्रत्येक ज्ञानमीमांसात्मक दर्शनक धाराकेँ ओकर सामाजिक ढाँचा आ ओकर सत्तासंबंधमे देखब आवश्यक, जतयसँ दार्शनिक प्रस्थापना जन्म लैत आ विकसित होइत अछि| दर्शन जाहि जाति, धर्म, लिंग आ वर्ग आधारित आ विभाजित-खण्डित सामाजिक यथार्थक उप-उत्पाद होइछ ओहिमे ओकर सर्जनात्मक सामाजिक भूमिकाकेँ खण्डितक’ देबाक पूर्ण संभावना विद्यमान रहैत अछि| सभदिनसँ सत्ताकेँ धार्मिक संरक्षण भेटैत रहलैक अछि| भारतीय दर्शनक मुख्य स्वर अध्यात्मिक (धार्मिक) रहल अछि| राधाकृष्णनजीक कहब छनि जे “भारतीय दर्शन मूलतः ‘आध्यात्मिक दर्शन’ है|”[i] धर्म आ दर्शनकेँ सर्वथा अलग-अलग होयबाक चाही, से नहि भ’ सकल| अधिभूतवादी दर्शन पूर्णतः भाववादी-अध्यात्मवादी दर्शन बनि गेल आ भौतिकवादी दर्शनकेँ (द्वंद्ववादी) समाप्त करबामे लागि गेल| भौतिकवादी दर्शन यथार्थ, तर्क, विज्ञान आ मानवीय चिंतासँ युक्त छल, आ अध्यात्मवादी ईश्वर, जीव, ब्रह्म वर्ण, लिंग आदिक चिंतनमे लागल छल| भौतिकवादी दर्शनक चिंता मृत्युपूर्व मनुष्यजातिक समस्या, संघर्ष आ समाधान दिस छल मुदा अध्यात्मवादी दर्शनक चिंता मृत्यपरांतक छल| आयुर्वेदाचार्य चरक एवं सुश्रुत, चार्वाक, बौद्धमत, जैनमत, सांख्ययोग आदि भौतिकवादी दर्शनक विरोध अधात्मवादी दर्शनक एकटा मुख्य सुनियोजित उद्देश्य छल| अध्यात्मवादी दर्शनक दावा छल जे शारीरिक बिमारी, दुःख, रोग, कष्ट आ वेदना भौतिक आ सामाजिक पर्यावरणक देन नहि भ’ प्रारब्धक फल होइछ| आयुर्वेदक जनक चरक श्रष्टा आ संचालक (ईश्वर) होयबाक रस्ते बंद क’ देलनि| यैह कारण छल जे अध्यात्मवादी दार्शनिक, धर्माचारी लोकनि आयुर्विज्ञानक विकासकेँ बहुत हतोत्साहित कयलनि आ सामजसँ बहिष्कृत करबाक योजना बनोलनि| आपस्तब धर्मसूत्र कहैत अछि, “कोनो काय चिकित्सक, लब्धक, शल्य चिकित्सक अओर व्यभिचारिणी द्वारा प्रदत्त अन्नग्रहण नहि करक चाही|”[ii] जमाहिरलाल नेहरूक वक्तव्यसँ हम वस्तु-स्थितिसँ परिचित भ’ सकैत छी-“ ई दर्शन (भौतिकवादी दर्शन) पुरोहित वर्गक लेल कतेक खतरनाक छल एकर अनुमान एहि बातसँ लागायल जा सकैछ जे पदार्थवादक (भौतिकवाद) पूरा साहित्य नष्ट क’ देल गेल| एहि साहित्यक जे किछु भेटति अछि ओ मात्र ओहि पुस्तकमे भेटैछ जाहि पर किछु-ने-किछु टीका-टिप्पणी कयल गेल अछि आऔर जाहिमे लोकायत सिद्धांतक खंडनक लंबा प्रयत्न कयल गेल अछि|”[iii]
आब आबी मूल दर्शन पर जाहिसँ उपन्यास भामतीक सीधा संबंध अछि, शंकरक दर्शन पर जकर भाष्य वाचस्पति मिश्र लिख रहल छलाह| अही दर्शनमे कदाचित भामतीक दुःख नुकायल अछि| अद्वैतवाद सिद्धांतक प्रतिपादन कयनिहार शंकराचार्य वर्ग, जाति, धर्म, लिंग आदिक भिन्नता पर संरचित-विभाजित सामाजिक यथार्थकेँ वैधता प्रदान करबाक संग ओकरा अपरिवर्तनीय मानलनि| राधाकृष्णक कहब छनि जे “शंकराचार्यक दृष्टिमे जाइत-पाइतक कोनो विशेष महत्व नहि होयबाक चाही छल, तथापि ओ ओकर पूर्ण गुंजाईश बनबैत छथि”[iv]-“ब्रह्मसूत्रक भाष्यमे ओ द्विजक सर्वोपरिता स्थापित करैत छथि- “न शूद्रस्याधिकारः,वेदाध्ययानाभावात| अधीतवेदो हि विदितवेदार्थो वेदार्थेश्वधित्रियते| न च शूद्रस्य वेदाध्ययनमस्ति, उपनयनपूर्व कत्वाद्वेदाध्यन्स्य| उपनयन च वर्णत्रयविषयत्वात|” अर्थात शूद्र वेदाध्ययन नहि क सकैछ, कारण जे एहि हेतु उपनयन संस्कार पूर्वापेक्षित आ उपनयनक अधिकार मात्र तीन उच्च वर्णक लेल निर्धारित| स्त्रीक उपनयन ओहि समय धरि वर्जित भ’ चुकल छल| एहि दर्शनमे स्त्री माया मानल जाइत छलीह ताहि हेतु नरकक द्वार| आब ‘नरकक द्वार’ संगे रहि ब्रह्मसूत्रक भाष्य लिखबाक जेहन पैघ आ महत्वाकांक्षी परियोजना कोना संभव छल? ब्रह्मसूत्रक अंतर्वस्तुमे निहित स्त्री उपेक्षा पंडितजीकेँ मनोवैज्ञानिक रूपसँ गछारि लेने हैत| ई बात मनोविज्ञानिक रूपसँ अजमायल तथ्य छैक जे कोनो व्यक्ति जाहि विषयमे डूबि जाइत अछि ओकर ओही विषयमे साधारणीकरण भ’ जाइत छैक| ओ तन.-मनसँ ओहि विषयक गिरफ़्तमे आबि जाइत अछि| फलस्वरूप ब्रह्मसूत्रक स्त्री उपेक्षा वाचस्पति मिश्रसँ भामतीक उपेक्षा कराबौने होयत|
भामतीक दंतकथा सर्वविदित अछि| भामतीकेँ बियाहि अनलाक तुरंत बाद पंडित वाचस्पति मिश्र ब्रह्मसूत्रक भाष्य लिखबामे संपूर्णतः डूबि गेलाह| भामती हुनक सभ टहल करैत रहली| अट्ठारह बरखक बाद जाहि दिन पोथी पूरा होइत अछि, “गुनधुनमे लागल रहथि कि दृष्टि लेखनी संगे दोसर दिशामे चलि गेलनि, एकटा कर्मठ आयुप्राप्त निराभारण हाथ बाती उसका रहल छल...ई के छथि? कलम सहजहिं राखि देल... पंडित वाचस्पति मिश्र, षड्दर्शनक विशिष्ट टीकाकार आ मुहँसँ बहराइत छनि-‘सुमुखि, अहाँ के छी?’ वाष्पाच्छादित नयन केर गह्वरितभ’ बजली भामती- ‘भामती, अहाँक अर्द्धांगिनी स्वामी|’ एकटा कठोर प्रस्तर खंड जेना करेज पर खसि पड़ल हो| आई, ई की भेल? सरिपहुँ हम विवाह कए भामतीकेँ अनने छलियनि|” (भामती, पृष्ठ 161) तकरा बाद पंडितजीक पश्चाताप आ पुरष्कार स्वरुप ओहि अट्ठारह बर्खक यत्नसँ लिखल गेल पोथीक नाम द’ देलनि – भामती| ई तीनटा आखर पंडित वाचस्पति मिश्रकेँ भामती पर कयल गेल अट्ठारह बरखक उपेक्षाकेँ धो-पोछिक’ बराबर क’ दैछ| एतबे नहि पंडितजीक उदारता आ महात्म्यक दुदुम्भि बाजि जाइछ| पितृसत्ताक संपूर्ण इतिहासमे पुरुषक ई चातुर्य कदाचिते कतौ भेटि पाबै| एहिमे दू मत नहि जे पंडितजीक एहि पुरुष-चातुर्यसँ भामती सेहो अमर भेलीह| मुदा भामतीक अमरत्वक कारण- पतिक सेवा| मनुस्मृति तन-मनसँ पतिक सेवा कयनिहार स्त्रीक महात्म्यसँ भरल अछि| अट्ठारह वर्ष मनसावाचाकर्मणासँ पतिक दासी बनि; अपन सभ इच्छा, आकांक्षा आ सपनाकेँ दासत्वक बलिबेदी पर न्योछावर क’ देलनि| अइयो-काल्हि पुरुष भामती सन दासी पत्नीक टोहमे रहैत अछि, टोकचाल नहि केनहार पत्नी| पंडितजी त’ दुर्लभ विद्वान छलाह, मुदा मनुस्मृतिमे पत्नीकेँ खराब-सँ-खराब पतिक सेवा दासभावसँ करबाक निर्देश कयल गेल अछि| सम्पूर्ण पत्नीक इतिहासमे भामती सन दासीपत्नी ताकब कठिन|
उषाकिरण खानक लेखनी पंडितजीक पुरुष-चातुर्यसँ कम चतुर नहि| हुनक लेखनी एक दिस पंडितजीक महात्म्य प्रदर्शन करैत अछि त’ दोसर दिस पुरुषवादी सोचकेँ अनावृत्त करैत आगू बढैत अछि| पत्नीक प्रति एहि कठोरतम व्यवहारकेँ ग्रामीण सभहक उक्तिक माध्यमसँ लेखिका स्पष्ट कयलनि अछि| मिथिलाक स्त्री स्पष्टवादिनी होइत छथि, कियो रहौथ सत्य वचन कहि देती| किछु ग्रामीण जखन पंडितजीक बखानमे लागल रहथि त’ बीचहिमे एकटा स्त्री बज्र सन प्रश्न क’ दैछ, “भरि जनम उपेक्षाक इएह मुहँ पोछाई छैक? अट्ठारह टा व्यर्थ वसंत आ एक सै आठ नष्ट ऋतु स्थानक लेखा के देत कहू?”
लेखिका पंडितजीक असाध्य परिश्रम आ हुनक निष्ठाक रक्षा करैत पुरुषचित्तक सूक्ष्म पड़ताल एहिमे कयलनि अछि| मैथिल उच्च वर्णक पुरुष समाजकेँ स्त्रीक प्रति घोर उपेक्षाभाव ‘विरासत’मे भेटल छैक| दलानक चौखड़ी हो वा शहरक बैसार| अध्यात्म-पुराणसँ ल’क’ नासाक वैज्ञानिक पर सार्थक-निरर्थक बहस करैत रहब, मुदा घरमे स्त्री दुर्दशा देखबाक फुरसति नहि| ओहि वार्तामे स्त्रीगणकेँ शामिल करबाक त’ कोनो कथे नहि| मिथिला में विचारगोष्ठी पुरुषे लेल होइत अछि| जनी-जाइत ओहिमे जयबाक योग्यता नहि रखैत छथि| गृहपत्नीक त’ कोनो बाते नहि, पढ़लो-लिखल, नौकरी कयनिहार पत्नीकेँ विचारगोष्ठीमे पुरुषपात ल’ जायब उचित नहि बुझैत छथि| विचार पर पुरुषक एकाधिकार भोजन बनेबामे स्त्रीक एकाधिकार| मिथिलांचलमे भोजन विन्यासक तैयारी ‘विश्वयुद्धक’ तैयारीसँ कम नहि| भोरसँ पुरुषपातक भोजनभातक तैयारीमे जे स्त्री लगैत छथि त’ राति धरि ओहीमे लागल रहैत छथि-चूल्हिमे| अधरतियामे जं पुरुषकेँ मन भेलैक त’ भीतर चल गेल, अन्हरखे पुनः दलान पर विराजमान| मैथिल सवर्ण समाजमे स्त्रीक मूल्य-महत्व कामो बेस यैह| अही परिवेशमे पंडितजी एकटा बहुत पैघ आकादमिक कार्यमे लागल छलाह, ताहिमे जं पत्नीकेँ बिसरिये गेलाह त’ ‘किम आश्चर्यम’| मुदा उषाजी पंडितजीक स्त्रीक प्रति उपेक्षाभावकेँ किन्नहु नहि बिसरैत छथि| स्त्रीक दुःख स्त्रिये बुझि सकैत अछि| अहुना उषाजी स्त्री वेदनाक अप्रतिम कथाकार छथि| लेखिका भालो पीसीक ‘अवतार’ ग्रहण क’ कहैत छथि, “अइ युवतीक यौवन मोटका बातीबला दीप श्नेहः-श्नेहः जरि रहल छैक| यौवनक प्रति वाचस्पति मिश्रक ई अन्याय छनि| एहन समष्टि त’ नहि बनल अछि अप्पन जे एकटा स्त्री, अप्पन जीवनकेँ एकटा पुरुषक व्यक्तित्व निर्माणमे होम क’ दैक| की भामती वाचस्पतिक मात्र परिचर्या करए लेल आयल छैक? की भामती भोजनशालामे राति-दिन खटयबाली दासी छैक? (भामती, पृष्ठ 81)
वाचस्पति मिश्र अपन पांडित्यक आगू भामतीक दैहिक, मानसिक आ वैचारिक जीवनकेँ नष्ट क’ देलनि| ओ मेधावी छलीह| विद्वान पिताक छत्रछायामे हुनक बुद्धि आ जिज्ञासा-बोध अत्यंत तीक्ष्ण छल| मुदा पंडितजीक ‘कृपा’सँ हुनक मेधा हमेशाके लेल कुंठित भ’ गेल| सामान्यतया पतिक चरित्र यैह होइत अछि| कतेको स्त्री-मेधाकेँ दाम्पत्य सोखि लैत अछि| लेखिकाकेँ भामतीक जरैत-सुनगैत आ स्वाहा होइत जिनगीक ‘कारण’ पर बहुत क्षोभ होइत छनि, “भित्तिचित्र जकाँ ढकल जीवन, कालचक्र घूर्णित आ बीतैत पल-क्षण जेना मृत्तिका लेपकेँ भुरभुरा दैत छैक आ तकरहि संग भित्तिचित्रक मयूरी कि राधा ओ सिया सुकुमारिक मसृण रूप छहोछित होमए लगैत छैक, तहिना श्नेहः-श्नेहः भामतीक सुकमार सौम्य मुखाकृति पर प्रौढ़ावस्थाक क्षीण प्रकोप भए गेल छनि| आँखि जेना सुखायल आमक फाँक आ ठोर जेना काठ पर स्वतःस्फूर्त कनचटका|” (भामती, पृष्ठ 118 )
देह त’ देह होइत अछि| ओकर अपन गुण-धर्म होइत छैक| वाचस्पति मिश्र छलाह साधक; ओ अपन देहकेँ ब्रह्मभाष्यमे साधि लेने छलाह वा हुनकामे स्त्री-आकर्षण नहि रहि गेल छलनि| मुदा, भामती त’ साधिका नहि छलीह| ई कहब अनावश्यक जे हुनका देहमे बिहारि-बिर्रो नहि उठैत छल हेतनि| ओ कोन तरहें एहि बिहारि-बिर्रोसँ जूझैत हेती| एकटा संवेदनशील स्त्रीक नाते उषाकिरण खान एहि दमित यौनाकांक्षाक विलक्षण अभिव्यक्ति कयलनि अछि, “अढहिंसँ अपलक निहारय लागलीह कि एकोबेर स्वामी अपन कमलपत्री पल नहि उठओताह? कने हुनकर नीलाश्मद्युति चंचल पुतरी देखितहुँ| अचक्के जौं हमरा एना निर्निमेष अपना मुखमंडल रूप रसास्वादन करैत देखि लेताह तखन की हेतैक? सगर अंग झुरझुरा उठलनि| संकोच आ भावावेशसँ पुलकित गात भ’ उठलीह| माथ घुरमय लागलन्हि| बसातक एकटा सिहकी उठलैक, उत्तरीय उधियाक’ खसि पड़लन्हि, सम्पूर्ण यौवनवती भामती आविष्ट भ’ प्रकोष्ठ दिस बढ़लीह, थर-थर कंपैत औनाएल स्वामीक निकट जाए ठाढ़ि भेलीह, ठेहुन रोपि बैसि गेलीह, हाथ बढ़ा कए अंक मे समटहि लए छलीह की बसातक झोंक सँ वातायन पर लटकल चिड़इक खोंता भट्ट द’ खसि पड़लैक|...स्थूल यौवनक प्रेमक एकटा पैघ बिहाड़ी छलैक रतिभावसँ पूरित मोनक मुकुलन जेना ठमकि मुरुछि रहलैक|” ( भामती, पृष्ठ 87)
वाचस्पति मिश्र त’ दैहिक सीमासँ ऊपर उठि गेल छलाह वा ओहि सीमा धरि स्त्री-आकर्षण नहि छलनि| भामा (भामती) लेल हुनक प्रेमांकुर त’ फूटलनि मुदा विवाहक पश्चात बिला गेलनि| उषाकिरण पंडितजीक स्त्री-देहसँ विमुखताक स्पष्ट संकेत कयलनि अछि, “सेवा लए ओ निन्न पड़ि जाइथ| एकदिन हमहूँ ओत्तहि ओंघड़ा गेलहुँ| नींनवासलमे ई त्रुटि भ’ गेल| जागरण भेल त’ देखै छी स्वामी हाथ-पैर समेटि घोकड़ी लगौने कातमे पड़ल छथि|” कुमारि भामा लेल ‘आचार्यक शुष्क मन नारिकेर सन’ छलनि मुदा पत्नी भामती लेल बज्रादापि कठोर|
उपन्यासमे लेखिका अध्यात्मवादी दर्शनक सद्यः जगतिक समस्यासँ आँखि मुनि पारलौकिक जगत लेल मगजमारी करबाक सीमाकेँ सेहो उद्घाटित कयलनि अछि| पंडितजी अध्यात्मवादी दर्शनक प्रतीक पुरुष छथि| गाम-समाजमे कतेको तरहक भीषण आ जीवंत समस्या ल’ ग्रामीण सभ पंडितजीकेँ विद्वान बुझि समाधान हेतु बहुत आशासँ अबैथ| मुदा पंडितजीकेँ गाम-समाजक एहि जागतिक समस्या सभसँ कोनो सरोकार नहि| ओ ‘हाँ’ ‘हूँ’ कहि ब्रह्मसूत्रक ओझरायल गुत्थीकेँ सोझराबयमे लागि जाइथ, “पोथी आ विचार, भाष्य आ टीका ककरा लए? मनुक्खे लेल ने? मनुष्य परसँ दृष्टि हाटाय पोथीमे गाड़ने छी?” (भामती पृष्ठ 97) ग्रामीण सभहक एहि आरोपकेँ हवामे नहि उड़ायल जा सकैछ| जं दर्शन मनुष्यक सांसारिक समस्यासँ दू-दू हाथ नहि क’ पबैछ त’ ओकर कतेक मूल्य आ महत्व? ई विचारणीय| सौदामिनी जे पंडितजीक गामक प्रख्यात चिकित्सक छलीह, सोचैत छथि, “वाचस्पति मिश्र भनहि सुविख्यात लेखक, मीमांसक आ टीकाकार भ’ जएताह, गामक नाम हुनका सँ जानल जएतैक मुदा ताहिसँ गामकेँ की? पाठशाला धरि नहि चलओलनि| कोनो राय-विचार लेबय जाइत छी त’सोझे कहि दैत छथि ‘हरि इच्छा’... संसारसँ संपर्क टूटि गेल छनि|” (भामती, पृष्ठ 106)
स्त्री उपेक्षा आ स्त्री पीड़ाक महाआख्यान अछि भामती| उपन्यासमे मात्र भामतीयेक पीड़ा आ उपेक्षा नहि व्यक्त भेल अछि, अपितु सीता, भारती , घोषा आदिसँ ल’क’ भामती धरिक स्त्री उपेक्षाक छोट-मोट इतिहास रचि देल गेल अछि| पितृसत्तात्मक सनातन वैदिक दर्शन आ विचारधारा कोन तरहें स्त्रीक अवमूल्यन करैत अछि, तकर अनौपचारिक अभिलेख अछि भामती| मंडन मिश्रक पत्नी भारती अप्रतिम विदुषी छलीह| शंकराचार्यसँ मंडन मिश्रक शास्त्रार्थमे बढ़ि-चढ़िक’ हिस्सा लेने छलीह| मुदा हुनक लिखल कोनो सामग्री किएक नहि भेटैत अछि? उषाजीक चौकस दृष्टि ओम्हरो जाइत अछि, मुदा “भारती किएक ने अपन विद्वताक कोनो प्रमाण देलनि| किएक ने किछु लिपिबद्ध कयलनि? की करैत रहैथ बाँचल एकाकी जीवन भरि? विचारैत छथि भामती, स्त्रीगणक लेखनमे कतेक टा अन्तराल छैक? विशेष रूपें सनातन वैदिक स्त्रीगणक लेखन मे? ई अंतराल अन्धकारक द्योतक अछि|” (भामती, पृष्ठ 89)
ओना त’ विश्व इतिहास स्त्री दमन आ उपेक्षाक इतिहास सेहो रहल अछि| आधुनिको कालमे स्त्री समाजकेँ कोनो अधिकार वा सुविधा प्रदत्त नहि अर्जित अछि| स्त्री-संघर्षक इतिहास एहि बातक साक्ष्य अछि जे स्त्रीगण बहुत लड़ि क’ एक-एकटा अधिकार प्राप्त कयने अछि| उषाकिरण खान एहि दिस ध्यान आकृष्ट करबाक प्रयास कयलनि अछि जे भारतीय दर्शन परंपरामे स्त्री योगदानकेँ भौतिकवादी दर्शन जकाँ सायास विलुप्त क’ देल गेल| पितृसत्ता स्त्री शक्ति आ सामर्थ्यकेँ पचा नहि पबैत अछि| महाविदुषी घोषा एकर साक्षात उदाहरण छथि| वैदिककालीन विदुषी घोषा संग जे अन्याय भेल, तकर प्रायश्चित के करत? उपन्यासमे अत्यंत रोचक ढंगसँ घोषाक दमन-कथाकेँ राखल गेल अछि| घोषाछोष्टा अपन आचार्य कुलपति केर तेजस्वी दुहिता छलीह| दू टा बालक अछैत घोषाक प्रतिभा आ मेधा देखैत ओ अपन अश्रमक उत्तराधिकारी बनौलनि| ओ अश्रमक कुलपति नियुक्त भेलीह| दूनू भाईकेँ ई कोना सह्य होइतनि| दूनू भाई चक्रचालि रचलनि| एकटा दुराचारी ब्राह्मणकेँ लोभ द’ पटियोलनि, घोषाक संग बलात्कार करबाक हेतु| ब्रह्ममुहूर्तमे जखन घोषा सूर्यमंत्र पढ़ि रहल छलीह योजनानुसार ओ ब्राह्मण घोषाक बाँहि पकड़ि लेलक| एतबेमे दूनू भाई प्रकट भेलाह, ‘अहाँ एकरा हाथे अपवित्र भेलहुँ| अहाँक गोत्रांतर भेल| अहाँक आब बिदाई होयत| (भामती, पृष्ठ 149) घृणित षड्यंत्र रचि घोषाक दूनू सहोदर भाई हुनका कुलपति पदसँ बेदखल क’ हमेशाक लेल रस्तासँ हटा देलनि| उषाकिरण खान एहि कथा सभहक माध्यमसँ स्त्री उत्पीड़नक निरंतरताकेँ रेखांकित कयलनि अछि| ध्यान देबाक बात ई जे जतए भारतीय दर्शनसँ स्त्री भूमिकाकेँ धो-पोछि देल गेल ओतहि बौद्ध दर्शनक थेरीगाथामे विदुषी बौद्ध भिक्षुणी सभहक विद्वतापूर्ण चिंतनकेँ सुरक्षित-संरक्षिते नहि राखल गेल अछि, अपितु ओकरा पर्याप्त महत्व प्रदान कयल गेल अछि|
उपन्यासक महत्वपूर्ण स्त्री पात्र सौदामिनी लेखिकाक उत्कृष्ट कल्पनाशक्तिक परिचायक अछि| पंडितजीक समानांतर सौदामिनीक व्यक्तित्व विकसित होइत अछि| दूनू गोटा अपन गामक नाम सुविख्यात कयलनि| अंतर ई जे पंडित वाचस्पति मिश्र यथार्थ पात्र आ सौदामिनी उषाजीक ‘कल्पना-पुत्री’| कथानुसार सौदामिनी जखन ग्यारह वर्षक छलीह त’ कोनो तंत्रयानीक दल हुनका अपन त्रन्त्र-साधना हेतु उठा ल’ गेल छल| मुदा कोनो तरहक शारीरिक दोषक कारणें सौदामिनीकेँ छोड़ि देलक| सौदामिनी जेना-तेना घर अबैत छथि| उपन्यासमे हुनक वापसीक अत्यंत मार्मिक वर्णनन लेखिका कयलनि अछि| किछु वर्षक बाद सौदामिनी चुपचाप स्वयं बौद्ध विहार चलि जाइत छथि| सौदामिनीकेँ पैघ चिकित्सक बनक आकांक्षा छलनि| बौद्धसंघमे विद्वताक दुर्लभ परंपरासँ ओ खूब परिचित छलीह| हुनका अनुमान भ’ चुकल छ्लनि जे ओ जाहि परंपरामे जन्म लेने छथि ओहिमे चिकित्सक बनब संभव नहि| एहि परंपरामे स्त्रीक लेल विवाह आ पति चरणानुरागीसँ बेसीक उमेद व्यर्थ| भारतीय परंपरामे स्त्रीक लेल अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष यैह| सौदामिनी बौद्ध विहार जा चिकित्साशास्त्रक गंभीर आ गहन अध्ययन कयलनि, आ बौद्ध संघारामक महीयसी औषधि वैज्ञानिक बनलीह| लेखिका सौदामिनीकेँ बौद्ध भिक्षुणी नहि बनबैत छथि| अपन परंपराक प्रति अतिरिक्त आग्रह कोनो मैथिलानीकेँ बौद्ध भिक्षुणी बनेयबामे बाधक भेल होयत| जखन कि ऐतिहासिक सचाई जे कतेको प्रगतिशील सोचक हिन्दू विशेषक’ विद्वान ब्राह्मण बौद्ध धर्मक उदारता, समतावादी सोच आदिक कारणें बौद्ध भ’ गेलाह आ दिग-दिगंतमे यशस्वी भेलाह| कतेको स्त्री सेहो बौद्ध भिक्षुणी भ’ गेलीह| सौदामिनीक चरित्र एहि यथार्थकेँ निर्देश्नार्थ गढ़ल गेल अछि| ओ संघमे अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त कयने छलीह| एहन तरहक स्थान बिनु बौद्ध धर्ममे दीक्षित भेने संभव नहि छल होयत तथापि उपन्यासमे सौदामिनीकेँ बौद्ध धर्म स्वीकार नहि कराओल गेल अछि|
सौदामिनी चिकित्सा विज्ञानी त’ छालीहे संगहिं प्रख्यात आ परोपकारी चिकित्सक सेहो छलीह| बीमार जन के देखैत देरी हुनक चिकित्सा-विवेक जागि जानि आ उपचारमे दिन-राति एक क’ दैथि| एकटा मरणासन्न युवक सैनिककेँ ओ अपन दुर्लभ चिकित्सा ज्ञानसँ दुरुस्त कयलनि| गाममे जखन ओ आबथि त’ घर-घरक चिकित्सक बनि जाइथ|
भारतवर्ष प्राचीन चिकित्साशास्त्र लेल विश्व भरिमे जानल जाइत छल| चरक (चरक संहिता), आ सुश्रुत (सुश्रुत संहिता)प्राचीन प्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी छलाह| अध्यात्मवादी दर्शन आरम्भमे एहि शास्त्रकेँ मोजर नहि करैत छल| कारण, ई शास्त्र अज्ञात ईश्वर भयकेँ चुनौती दैत छल| एकर स्पष्ट मान्यता रहैक जे शारीरिक रोग, बिमारी ईश्वरक प्रकोप नहि स्वाभाविक शरीरधर्म होइछ| तंत्र, मंत्र आ यज्ञादिसँ रोग मुक्ति असंभव| उपचार आ पथ्यसँ बिमारीक उपचार संभव| ईश्वरवादी दर्शनकेँ ई बात अनुचित लागैक| लेखिका प्राचीन भारतीय चिकित्सा परंपराक प्रकाशन सौदामिनीक माध्यमसँ कयलनि अछि| चरक, सुश्रुत परंपराकेँ स्मरण दियबैत छथि सौदामिनी|
सौदामिनीकेँ विवाह संस्थासँ विरक्ति छनि| उपन्यासमे ई बात स्पष्ट नहि कयल गेल अछि जे एकर कारण पितृसता वा तंत्रयानी, जे किशोरावस्थामे हिनका उठा ल’ गेल रहनि| यदि तंत्रयानीसँ वितृष्णा भेल रहितनि त’ ओ किन्नहु संघ-प्रवेश नहि करितथि| विवाह नईं करबाक कारण उपन्यासमे संकेतित अछि| सौदामिनीक अनकहा प्रेम वाचस्पति मिश्रसँ छलनि| एक प्रतिभा दोसर प्रतिभा दिस आकर्षित होइते अछि| ई अस्वाभाविक नहि| मुदा जा धरि सौदामिनीक ह्रदयमे भाव जागृत भेल ता धरि वाचस्पति विवाहित भ’ चुकल छलाह| पंडितजीकेँ एक नजरि देखबाक हेतु सौदामिनी लालायित रहैत छलीह| सुपुरुष पंडितजीक स्मरण सौदामनीक निधि छल, “कखनहुँ जखन सुललित पुष्पायित भोर देखैत छथिन्ह, कि अलसित विभावरी तर खाट बिछा कए पडै छथि, तखन संभवतः अक्षत देहक भौतिक यात्रा सुसराय लगैत छनि तखन एक्कहिटा सुपुरुष मोन पडैत छनि-सुखासनमे रीढ तानि बैसल पोथी पर दृष्टि गाड़ने वाचस्पति मिश्र|” (भामती, पृष्ठ 113)
उपन्यासकारक दोसर मौलिक कल्पना अछि- वाचस्पति मिश्रक प्रेम प्रसंग| पंडितजी आ प्रेम? पंडित जी आ प्रेम सुनबामे ओहुना विलोम सन लगैत अछि| यद्यपि पंडितराज जगान्नाथक प्रेम-प्रसंग सम्पूर्ण भारतीय साहित्यमें एतेक प्रसिद्ध आ लोकप्रिय भेल जे एकटा विलक्षण किवदंती बनि गेल| सत्रहवीं शताब्दीक अद्वितीय विद्वान, वेदान्त, न्याय वैशेषिक, पूर्व मीमांसा आ व्याकरणक प्रख्यात अध्येयता पंडितराज जगन्नाथकेँ शाहजहाँ पंडितराजक उपाधिसँ विभूषित कयने छलाह| पंडितजीकेँ यवन कन्या लवंगीसँ प्रेम भ’ गेलनि| जनश्रुति अछि जे लवंगी शाहजहाँक बहीन छलीह| शाहजहाँ हुनक विद्वतासँ एतेक प्रभावित छल जे खुशी-खुशी अपन बहीनक हाथ पंडितजीक हाथमे द’ देलक| ई प्रेम प्रसंग ब्राह्मण समाजकेँ नहि रुचलनि| पंडितराज जगन्नाथकेँ जाति निष्काषित क’ देल गेल| बनारसक तेलगू ब्राह्मण परिवारमे उत्पन्न पंडितराज जगन्नाथकेँ बनारसक ब्राह्मण समाज ततेक उपेक्षित आ अपमानित कयलक जे पंडितराज जगन्नाथ लवंगी संगे गंगा प्रवेश क’ गेलाह| पंडित वाचस्पति मिश्रकेँ सेहो प्रेम भेलनि, मुदा दूनूमे अंतर ई जे पंडितजीक प्रेम अंतर्धामिक नहि छल आ दोसर बड़का अंतर ई छल जे विवाह पश्चात वाचस्पति मिश्र भामतीकेँ बिसरि गेलाह आ पंडितराज जगन्नाथ प्रेमिका पत्नी संग गंगामे समा गेला|
उषाकिरण खान अत्यंत मनोयोग पूर्वक वाचस्पति मिश्रक प्रेम-प्रसंगकेँ उद्घाटित कयलनि अछि| गुरुपुत्री भामाक ह्रदय सदिखन मिश्रजीक लेल धुक-धुक करै| मुदा शालीनतावश ककरो कहलक नहि| छोट बहीनक विवाह भ’ जाइछ मुदा भामा विवाह कर’ स’ मना क’ दैछ| शास्त्रमे ओझरायल पिता बेटी भामाक मनक बात कोना बुझितैथ? वाचस्पति मिश्र छात्रहि जीवनसँ पांडित्यक आभा आ गरिमासँ युक्त छलाह जे भामाकेँ कहबाक साहस नहि छलनि| मुदा जहिना पंडितजी गुरुक गाम छोड़लनि भामाक धैर्य जबाब द’ देलक| किछुए आगू ओ गेल छलाह कि भामा पंडितजीक बहीन लेल एकटा उत्तरीय देबाक लाथे एकांतमे पकड़ि लैत छथि| दबल, सुषुप्त प्रेम प्रकट भ’ जाइछ, “ई उत्तरीय रांगिक’ सुलक्षणा लय राखने छलियै, बिसरि गलियै नेने जैइयौ-नील वर्ण उत्तरीय छलैक| देमय काल हाथ सटि गेलनि| भामाक मुखमंडल आरक्त भ’ उठलनि| वाचस्पति दृष्टिपात कएलखिन| भामाक उत्तरीय मंद समीर झोंकसँ सिहरि गेल छलैन्ह| (भामती, पृष्ठ 51) एकटा फतिंगाक असीम कृपासँ भामाक हाथक स्पर्श हुनक रोमयुक्त ह्रदयप्रदेश पर भेलनि| पंडितजी बीच-बीचमे अपन ह्रदय प्रदेश सोहराबथि| बहीन सुलक्षणासँ ई बात अलक्षित नहि रहलनि| भामाक मित्र जे छलीह सुलक्षणा! विवाहक प्रस्ताव पठोलनि आ भामाक विवाह वाचस्पति मिश्रसँ भ’ गेलनि| अट्ठारह वर्षक बाद जखन पंडितजीकेँ भख टूटलनि त’ भामतीक लेल अपार दुःख भेलनि| विवाह पूर्वक ओ प्रेमक क्षण विशेष हुनक स्मृति पटल पर ओहिना छनि, “गुरूक आश्रम सँ विदा लए गाम छोड़ि रहल छलाह कि हकमैत भामा दौगल आबि सोझाँ ठाढ़ भए गेलीह| दौगलासँ ललाट पर स्वेदबिंदु आ ताहिमे सटल घुंघरल केश, किछु बासातमे उधियाइत, थरथराइत ठोर आ छलछलाइत आँखि| भामा किछु सनेस देलनि सुलक्षणा लेल|वायुक चंचल गति सँ उत्तरीय ससरि गेलनि| कोनो पहिलबेर नहि युवातीक अनावृत्त उरोज केँ देखने छलथि पंडित वाचस्पति, ओ त’ वस्त्रक आ अवगुंठनक अभाव मे देखतहि रहैत छथि किन्तु भामाक देहयष्टिक प्रति मोह जाग्रत भेलन्हि आ तखन थराथराइत पारद जकाँ दुनूक हृदयस्थली क्षणांशक लेल एकाकार भए गेलन्हि, दुनू प्रकारें भौतिक आ आत्मिक रूपें| भामाक ओ स्पर्श स्वर्गिक आनंद जकाँ बुझि पड़लन्हि वाचस्पति केँ|” (भामती, पृष्ठ 175)
उपन्यास मिथिलामे स्त्री शिक्षाक प्रति अत्यंत चिंतित अछि| चिंता एहि बातक जे वैदिककालीन भारतमे स्त्रीक शिक्षा उन्नत छल, मुदा क्रमशः ओकर भयानक ह्रास भेल| अधिकांश इतिहासकार वैदिककालीन भारतमे स्त्री शिक्षाक उन्नत स्थितिक समर्थन करैत छथि| मुदा किछु अपवादस्वरुप विदुषी स्त्रीक नामसँ पुरुष शिक्षाक समकक्ष स्त्री शिक्षाकेँ स्वीकार करबामे संकोच स्वाभाविक| दोसर बात ई जे वैदिककालीन विदुषी स्त्री सभहक चर्च-बर्च टा भेटैत अछि, वाद-संवाद सेहो देखबामे अबैछ, मुदा पोथी आदिक प्रमाण नहि भेटैछ, जखन कि पुरुष लोकनिक पांडित्यपूर्ण पोथीक पथार अछि| ओहि समयक विदुषी घोषा, गार्गी आदि संग पितृसत्ता जे व्यवहार कयलक से त’ जगजाहिर अछिए|
उषाकिरण खान स्त्री-शिक्षाक पतनक सभटा दोष बज्रयानी तांत्रिक साधनाक मत्थे मढ़ि देलनि अछि| प्रसंगवश भारतीय धर्म-दर्शन आ हिन्दू जीवन-व्यवहारमें स्त्रीशिक्षाक प्रति उपेक्षाभावकेँ सेहो कहलनि अछि, मुदा स्त्री शिक्षाक पतनमे बज्रयानी तंत्र साधनाकेँ सर्वाधिक दोष देलनि अछि| हुनक कहब छनि जे बज्रयानी तांत्रिक अपन तंत्र साधना हेतु गाम-गामसँ कुमारि कन्याकेँ अपहरण क’ ल’ जाइत छल| एहि भयसँ समाज कन्याकेँ पाठशाला पर प्रतिबंध लगा बच्चहिमे विवाह करय लागल| ई एकटा कारण भ’ सकैछ मुदा प्रमुख नहि| हिन्दू धर्म, दर्शन आ जीवन व्यवहारमे स्त्रीक प्रति घोर उपेक्षाभावकेँ अढ़ क’ बज्रयानीकेँ प्रमुख मानब ऐतिहासिक तथ्यसँ आँखि मुनब अछि| उपन्यासमे जाहि वैदिक परंपरामे स्त्री दुर्गतिक माहागाथा लिखल गेल अछि, वैह परंपरा स्त्री शिक्षाक दुर्दशाक लेल असली दोषी| तकरा मात्र संकेतित क’ तांत्रिक साधना के बहन्ने बौद्ध-दर्शनकेँ सीधे-सीधे कठघरामे ठाढ़ क’ देब ओहि दर्शनक प्रति घोर उपेक्षा भावक परिचायक|
उषाकिरण खान एहन विदुषी आ इतिहास-बोधवाली लेखिका ई बिसरि गेली जे हिन्दू धर्मक सभ आप्त ग्रन्थ, रामायण, माहाभारत आ मनुस्मृति आदि कन्याक विवाहक अधिकतम आयु एगारह वर्ष रखलक अछि| ई ग्रन्थ सभ एहि उम्र निर्धारण लेल तांत्रिक साधनाकेँ कारण नहि मानलक अछि| एहिमे दू मत नहि जे स्त्री यौनिकता पर अंकुश हेतु इ उम्र निर्धारित कयल गेल अछि| मनुस्मृति स्त्री सम्मान लेल पैघ-पैघ बात कहैत अछि, किन्तु दोसर दिस स्त्री अधिकार आ स्वतंत्रता पर सभ तरहक अंकुश लगबैत अछि| हिन्दू समाज मनुस्मृतिकेँ आदर्श ग्रन्थ मानैत रहल अछि| मनुस्मृतिक अनुसारें कन्या विवाहक न्यूनतम आयु आठ आ अधिकतम आयु एगारह वर्ष होइछ| एहि मनुस्मृतिसँ किछु अपवाद छोड़ि शंकराचार्यसँ ल’क’ वाचस्पति मिश्र धरि अभिभूत छलाह| जाहि ग्रंथकेँ लोक अनुकरणीय मानैत छल ओहिमे साफ लिखल गेल अछि जे पतिक सेवे कन्याक लेल पाठशाला -
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारे वैदिकः स्मृतः
गुरौ वासो ग्रिहार्थोग्नि परिक्रिया ....[v] अर्थात “पुरुष त’ अपन समय गुरुकुलमे बिता देता किन्तु स्त्रीक गुरुकुल वास पतिक सेवा होइछ आओर स्त्रीक हवन घरक काज-धंधा होइछ, अहिना स्त्री लोकनिक पूर्वक पुण्य उपनयनक विधि अछि|” दसम-एगारम शताब्दी शंकराचार्यक दर्शनक उत्थानकाल छल, हुनक पोथी सभहक भाष्य आ टीका लिखल जा रहल छल| उच्च वर्ण पर पूर्वमे लिखल गेल पोथी संगहि शंकराचार्यक मतक व्यापक प्रसार भेल| एहि ग्रन्थ सभमे स्त्री शिक्षाक समर्थन त’ नहिए छल, यथासाध्य विरोध छल| रजस्वलासँ पहिने कन्याक विवाह अनिवार्य मानल जाइत छल| तकर परिणामस्वरुप भारतवर्षमे स्त्री शिक्षा दिवास्वप्न होइत चलि गेल, नहि कि तांत्रिक साधनाक कारण|
जहिना ब्रह्मसूत्रक भाष्य लिखैत-लिखैत ओकर एकटा अंतर्वस्तु (स्त्री उपेक्षा) सँ अनुकूलित भ’ वाचस्पति मिश्र भामतीक ‘उपेक्षा’ कयलनि तहिना बौद्धमतक महा खंडनकार वाचस्पति मिश्र पर उपन्यास लिखैत लेखिका हुनक मतसँ ताहि तरहें अनुकूलित भ’ गेलीह जे बौद्ध दर्शन एहन व्यापक मानवतावादी दर्शनक विरोध पंडितजीक माध्यमसँ करय लगलीह| भगवान बुद्धक सम्मान करैत बौद्धमतक विरोधसँ उपन्यास भरल अछि| लेखिका स्वयं इतिहासकार छथि, बौद्धमतक सीमा, संभावना आ विस्तारसँ खूब परिचित छथि| ओकर मानवतावादी रूप, समतावादी दृष्टिकोण आ अहिंसक स्वरुप आदिसँ सेहो| भारतीय अध्यात्मवादी दर्शन जं ओकरा विरोधमे डांड़ सक्कत क’ कूदि पड़ल त’ एकर मुख्य कारण वेदक प्रति बौद्ध मतक उपेक्षाभाव आ वर्णव्यवस्थाक विरोध छलैक| रामधारी सिंह दिनकर अपन प्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ मे लेखैत छथि, “बुद्ध ने इस देशमे एक महान आन्दोलन का आरम्भ किया जो, प्रायः गाँधी तक चलता आया है और आज भी चल रहा है| उन्होंने मनुष्य की मर्यादा को यह कहकर ऊपर उठाया कि कोई मनुष्य केवल ब्राह्मण-कुलमे जन्म लेने से पूज्य नहीं हो जाता, न कोई शूद्र होने से पतित हो जाता है| उच्चता और नीचता जन्म पर नहीं, कर्म पर अवलम्बित है| इसलिए ब्राह्मण भी पतित हो सकता है और शूद्र भी अपने को पूजा योग्य बना सकता है| इसी प्रकार, वेदों ने यज्ञ का अधिकार केवल द्विजों को दिया था और जब उपनिषद बढ़े, तब ब्राह्मणों ने उन्हें भी ब्रह्म-विद्या का नाम देकर, शूद्रों और स्त्रियों की पहुँच से बाहर कर दिया | इसके विपरीत, बुद्धदेव ने चारों वर्णों और स्त्रियों को धर्म का अधिकार, सामान रूप से, दे दिया| यह ब्राह्मण धर्म के खिलाफ़ सबसे बड़ी बगावत थी और बौद्धों का ब्राह्मण ने जो भी विरोध किया, वह मुख्यतः उनके इसी विद्रोह के कारण|”[vi] जं बौद्धमत एतेक निकृष्ट रहैत त’ विश्व भरिमे ओकर डंका नहि बाजैत| देशकेँ एहि बातक गर्व छैक जे जाहि दर्शनक उत्त्पत्ति भारतमे भेलैक ओ कयकटा विकसित आ संपन्न देशक राष्ट्रीय धर्म अछि| अकादमिके रूपसँ बौद्धमत खिहारल नईं गेल अपितु राजनीतिक रूपसँ सेहो भारतमे एकरा नष्ट कयल गेल| अयोध्यामे सरयुग नदीक नाम ‘सर युक्त’ नदीसँ भेल अछि| पुष्यमित्रक समयमे बौद्ध भिक्षुक कटल मूड़ी पर ईनाम भेटति छल| एहि ईनाम आ बौद्ध मतक समाजमे प्रचारित घृणाक कारणें सरयुग नदी ‘सरयुक्त’ भ’ गेल छल| बौद्धमतक आधुनिकतावादी दृष्टिक सौजन्यसँ कतेको देश उन्नतिक शिखर पर पहुँच गेल आ भारतवर्ष जाइत-पाइत, कर्मकांड, स्त्री-दमन, दलित-मुस्लिम विरोधमे ओझरा अवनतिक पथ पर अग्रसर होइत रहल|
बौद्ध दर्शनक विरोध उपन्यासमे एहि सीमा तक कयल गेल अछि जे दिनांग, वसुबन्धु आ धर्मकीर्ति सदृश्य अद्भुत विद्वान महापुरुषकेँ वाचस्पति मिश्रक माध्यमसँ ‘अबंड’, ‘अज्ञानी. आ’ विकलांग’ तक कहि देल गेल अछि| वाचस्पति एहन विद्वान निश्चय दोसर धर्मक विद्वानकेँ एहन अवाच संबोधन नहि क’ सकैत छथि, ई संबोधन लेखिकाक कल्पना| ग्रामीण लोकनिकेँ पंडितजी कहैत छथि, “सुनि जे रहल छी धर्मकीर्ति नामक ओहि अबंड बौद्धिक आक्षेप से सहय नहि अछि| सभसँ पहिने हम धर्मकीर्ति सन अज्ञानी बुद्धाचार्यक उत्तर देमय चाहैत छी|” धर्मकीर्ति सातम शताब्दीक भारतक विद्वान् आ भारतीय दार्शनिक, तर्कशास्त्रक संस्थापकमे स’ रहैथ| बौद्धधर्म स्वीकार कयलाक बाद बौद्ध परमाणुवाक मूल सिद्धांतकारक रूपमे हुनक गणना होइत अछि| यूरोपक विद्वान लोकनि हुनक विद्वतासँ अचंभित भ’ हुनका ‘इमेनुअल कांट’ कहैत छथि| कारण, ओ कांट सदृश्य तार्किक छलाह| धर्मकीर्ति विज्ञानबोधक सभसँ पैघ दार्शनिक छलाह| प्रमाणवर्तिका सनक दुर्लभ पोथीक रचयिता धर्मकीर्तिकेँ अज्ञानी, अबंड आ विकलांग कहबाक पाछू बौद्धमतक प्रति घृणाभावक प्रदर्शनक अतिरिक्त आऔर की भ’ सकैछ? मत भिन्नता, विचार खण्डन अपना स्थान पर ठीक अछि, मुदा विरोधियो विद्वानक सम्मानमे कोताही उचित नहि कहल जा सकैछ|
बौद्धमत अप्रतिम प्रभाव भारतीय ज्ञानमीमांसा आ दर्शन पर पड़ल अछि, से सर्वविदित अछि|भारतमे बौद्धमतक अभिर्भाव नहि भेल रहैत त कदाचित अइयो वर्णव्यवस्था आ स्त्री दुर्गातिक कोनो सीमा नहि रहैत| विद्वान लोकनिक स्थापित मान्यता अछि जे बौद्धमत नहि रहैत त’ शंकरमतक अस्तित्व नहि रहैत| ओ बौद्धमतसँ एतेक प्रभावित छलाह जे हुनका ‘प्रछन्न बौद्ध’ कहल जाइन| दिनकर जी लिखैत छथि, “उपनिषद आ बौद्धमतक बीच समन्वय स्थापित करबाक काज नाजार्जुन (बौद्ध दार्शनिक) आ शंकर कयलनि, अपना समयमे आबिक’| एहि समन्वयकेँ शंकर शुद्ध वैदिक रूप द’ देलनि| शंकरमतक बौद्धमतसँ एतेक मेल अछि जे लोक हुनका ‘प्रछन्न बौद्ध’ कहए लागल रहनि|”[vii] कहबाक आवश्यकता नहि जे बौद्धमत नहि रहैत त’ कबीर नहि होइतथि, भक्तिकालक निर्गुण साहित्य नहि रहैत| भारतीय समाजमे निर्गुण साहित्यक क्रांतिकारी अवदानसँ भला के अपरिचित होयत|
एहने सन किछु वैचारिक आग्रहक अतिरिक्त भामती अपन कथावस्तु आ संरचना-शिल्पमे उत्तम उपन्यास अछि| कथा बुनबामे उषाकिरण खानकेँ महारथ प्राप्त छन्हि| एहि महारथमे लेखिकाकेँ भारतीय इतिहास, संस्कृति, मिथक आ लोकोक्ति आदिक यथेष्ट ज्ञान आ ओहि ज्ञानक कथात्मक रूपांतरणक अद्भुत कौशल सहायक भेल अछि| भामतीमे उषाजीक औपन्यासिक-कला अपन सर्वोत्तम रूपमे साकार भेल अछि| मिथिलाक प्राचीन लोक संस्कृति यथा, भोजन विन्यास, लोक कला, चित्र कला, हस्तकला आदिक वर्णनसँ उपन्यास महमह करैत अछि| मैथिलानीक रहन-सहन, उचती-मिनती, राग-द्वेष, नेह-छोह आदि कोनो विषय लिखिकाक दृष्टिसँ ओझल नहि भेल अछि| संक्षेपमे दर्शन एहन ‘नीरस’ विषयकेँ सरस कथामे रूपांतरित क’ देबाक कौशल आ जिज्ञासापूर्ण दंतकथाकेँ सम्पूर्ण उपन्यास-कथा में कायांतरित क’ देबाक अपूर्व दक्षताक नाम अछि भामती|
(घर-बहारक अप्रैल-जून,2021 अंक में प्रकशित)
[i] भारतीय दर्शन, भाग-1, पृष्ठ संख्या 16
[ii][ii] दर्शन की सामाजिक भूमिका, भारतीय जीवन-दृष्टि, सुधा चौधरी, गार्गी प्रकाशन,2016, पृष्ठ 152
[iii] भारत एक खोज, जवाहरलाल नेहरू, पृष्ठ संख्या 106
[iv] भारतीय दर्शन, भाग-1, पृष्ठ संख्या 100
[v] मनुस्मृति टीका, पंडित केवल आनंद जोशी, राज पाकेट बुक्स, पृष्ठ 42
[vi] संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, लोकभारती प्रकाशन-1956, संस्करण 2018, पृष्ठ 146
[vii] उपरियुक्त, पृष्ठ 145
वस्तुनिष्ठ आ विस्तृत विवेचना।
ReplyDeleteहम ई पोथी बहुत वर्ष पहिने पढने रही। सामान्य पाठक-जकाँ पढ़ैत, ओहि समय मे हमरा अनुभव भेल छल जे ई कथा 'भामती'क नहिं वाचस्पति मिश्रक थिक।
भामती उपन्यासक बहन्ने एहि समीक्षा मे बहुत रास जानकारी भेटल। धन्यवाद,सर
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