भारतीय भक्ति साहित्य से संवाद

 

 

 

 

                       भारतीय भक्ति साहित्य से संवाद


 




यह दौर  उलटबाँसी का है। और समय-समय पर इस  उलटबांसी की आवृति होती  रहती है। उलटबाँसी यह है कि जो धर्म अहिंसा और सहिष्णुता का पर्याय रहा है उसी धर्म के नाम पर हिंसा और असहिष्णुता का खेल खेला जाता रहा है। इससे बड़ी उलटबांसी और क्या हो सकती है? इसी धर्म के नाम पर जघन्य कत्लेआम होते रहे हैं। आज यह धार्मिक उन्मादपरक  हिंसा वैश्विक संकट के रूप में हमारे सामने खड़ा है। इसकी परिणति अत्यंत भयावह और खौफनाक होने वाली है। हिंदी के वरिष्ठ आलोचक शम्भुनाथ की नई पुस्तक 'भक्ति आंदोलन और उत्तर धार्मिक संकट' (वाणी प्रकाशन, पेपरबैक संस्करण 2023) भारतीय भक्ति आंदोलन और भक्तिकाव्य को समकालीन संदर्भ में देखने-परखने की सफल कोशिश है। अमूमन हिंदी पट्टी के विद्यार्थियों, शोधार्थियों और अध्येताओं को उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन से ही परिचिति  रही है। 539 पृष्ठों और चार खंडों में विभाजित इस पुस्तक की खासियत यह है कि इसमें संपूर्ण भारतीय भक्ति साहित्य से आत्मीय परिचय कराया गया है। भक्ति आंदोलन और भक्तिकाव्य के लगभग 1000 साल (600 ई.से 1600 ई.) के इतिहास  का विवेचन-विश्लेषण इस पुस्तक को सार्थक, महत्वपूर्ण और उपयोगी बनाता है।


'धर्म, धार्मिक संकट और भक्त कवि' शीर्षक के माध्यम से पुस्तक इस बात को कह पाने में बहुत हद तक सफल रही है की परंपरा और आस्था  ही नहीं बल्कि धर्म भी रूढ़ नहीं होता बल्कि देश, काल और परिस्थिति के अनुसार धर्म भी अपने को फिर-फिर रचता रहता है।  दरअसल जब-जब सृष्टि का विकास होता है तब-तब धर्म नया होता जाता है।  लेखक के अनुसार "हिंदू धर्म में निरंतर नया, तरोताजा और वैचारिक रूप से साहसी होने के अवसर रहे हैं।"  जिज्ञासाप्रश्नाकुलता और संवाद भारतीय धार्मिक परंपरा की रीढ़ है और यही विलक्षणता इसका  सुन्दरतम पक्ष है| कहने की आवश्यकता नहीं कि यही प्रवृत्ति इसे   हजारों सालों से जीवंत, जाग्रत और विवेकशील  बनाए हुए  है।  ऋग्वेद में प्रश्नों की झड़ी है, उपनिषद में नचिकेता तो प्रश्न का प्रतीक ही है। कहीं गार्गी याज्ञवल्क्य से  प्रश्न पूछती हैं तो कहीं युधिष्ठिर और भीष्म का प्रश्नोत्तरी!  महाभारत संवादपरक महाकाव्य है। अर्जुन और कृष्ण के संवाद का तो कहना ही क्या! रामचरितमानस तो षट-संवाद है ही। लेकिन आज का धार्मिक संकट और भक्ति की द्विविधा यह है कि आप प्रश्न नहीं पूछ सकते। आज का  'धार्मिक अभियान संवाद नहीं मात्र एकालाप है।


धर्म के निर्मल और पवित्र रूप को अंधकार की ओर ले जाने में कुछ तथाकथित धार्मिक ग्रंथों की भूमिका अहम रही है। 'मनुस्मृति' एक  ऐसा ही ग्रंथ है। पुस्तक के अनुसार, "मनुस्मृति हिंदू धर्म पर एक कलंक है।  लेकिन यह लंबे समय तक हिंदू धर्म के भाल पर पवित्र तिलक की तरह शोभित थी।  मनुस्मृति वर्ण व्यवस्था को कठोर कानून का रूप देती है और अपने समूचेपन में  यह पुरोहित के सशक्तिकरण और शूद्र-उत्पीड़न का धार्मिक हथियार बन जाती है।"  (पृष्ठ-31)  धर्म के भीतर रहकर धर्म की विसंगतियों की आलोचना भक्ति कविता का वैशिष्ट्य  है। लेखक का यह संकेत मानीखेज है कि संस्कृत में भक्ति कविता की परंपरा विकसित नहीं हुई।  कारण, संस्कृत की मूल चिंता शास्त्र की थी और भक्ति कविता की चिंता लोक की।

 
धर्म का जनविरोधी स्वरुप हिंदी नवजागरण की एक बड़ी चुनौती रही है। चूँकि लेखक हिन्दी नवजागरण के गंभीर अध्येयता रहे हैं इसलिए वे नवजागरणकालीन संकटों की गहरी पहचान भी रखते हैं। उन्नीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में भारत धर्म महामंडल ने नवजागरणकालीन सुधार आंदोलन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इसने 'शिखा' और 'सूत्र'  (जनेऊ) को ही  हिंदू धर्म का पर्याय मान लिया। लेखक ने इस महामंडल का अंतर्विरोध दर्शाते हुए लिखा है कि ये लोग विधवा विवाह और स्त्री स्वाधीनता जैसे 'दुर्गुण' को ब्रिटिश कालीन  उपनिवेशवादी शिक्षा को  मानते थे।  किंतु दूसरी तरफ ब्रिटिश शासन की तारीफ करते भी थकते नहीं थे। भारत धर्म महामंडल की एक प्रचार पुस्तिका के हवाले लेखक ने उनके ब्रिटिश राग  को रेखांकित किया है- "परमदयालु  परमेश्वर की अपार कृपा से आज प्रजा को इस प्रकार की नीतिज्ञ और उदार गवर्नमेंट मिली है कि ऐसी उन्नति और प्रजारक्षक गवर्नमेंट विदेशियों के हित के लिए पृथ्वी भर में और कहीं देखने को नहीं आती।" ( पृष्ठ 41) उक्त अध्याय के अंत में पुस्तक धर्म के वैश्विक संकट के प्रति आगाह करती है, " भारत को एक सेकुलर देश कहा गया लेकिन 21वीं सदी में धर्म को एक नई भूमिका देने, उसे एक नए संरक्षणवादी अवतार में लाने की तैयारियां सिर्फ एशिया में नहीं सभी महादेशों में हो रही है। पिछले कुछ दशकों से पुरानी रूढ़ियों को महिमामंडित करने वाला एक नए ढंग का धार्मिक पुनरुत्थान दिख रहा है।" (पृष्ठ- 49)

 
'पौराणिक आस्था और भक्ति' के अंतर्गत लेखक ने पौराणिक आस्थाओं पर संवेदनशीलता से  विचार करने के साथ समयानुकूल भक्ति को नये सिरे से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। दक्षिण भारत की भक्ति परंपरा और उत्तर भारत  की भक्ति परंपरा से परस्पर संवाद उक्त अध्याय को विशिष्ट बनाता है।  इस संवाद का निष्कर्ष यह है कि  'भक्ति के कार्य युगांतकारी थे'। इस युगांतकारी कार्य को स्पष्ट करने के लिए लेखक ने भक्ति के दस  महत्वपूर्ण गुण बतलाए हैं,जो इस प्रकार हैं- धर्मशास्त्र का विखंडनजातिभेद का खंडनधर्म के वाह्य पहचान के बरअक्स उसके आंतरिक पक्ष का महत्वसुमति और विवेक की स्थापनासहिष्णुता और अखंडता का बोध, ईश्वर में आंतरिक बोध की पहचानसामाजिक जड़ता के साथ काव्यभाषा में अलंकारिक जड़ता को तोड़नाभोगवासना का प्रतिवाद, श्रम के महत्व की प्रतिष्ठा, धार्मिक चेतना के प्रसार में अहिंसा की राह का चुनाव आदि। 'भक्ति के दर्शन : लोकवादी मोड़शीर्षक में भक्ति के दार्शनिक पक्ष और भक्ति आंदोलन के अंतरसंबंधों की बारीक पहचान की गई है।  रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य और रामानंद जैसे दार्शनिकों  की क्रांतिकारी पहल  का रेखांकन और उनमें भक्ति की मूल संवेदना की पड़ताल की गई है।  भारतीय भक्ति के वैविध्यपूर्ण विस्तार में शैव दर्शन और शिव-भक्ति की ऐतिहासिक भूमिका  को लक्षित करते हुए  शैवभक्ति की अलग-अलग धाराओं, मसलन कश्मीरी शैव-दर्शन, ललद्यद की शैवभक्ति और वसवन्ना के  वीरशैव के आपसी वैविध्य और  आंतरिक ऐक्य भाव को तलाशने की महत्वपूर्ण  कोशिश की गई है।


सूफी दर्शन और सूफी भक्ति की भारतीय घुलावट को लेखक ने 'सूफी मत और भक्ति आंदोलन' में बहुत सलीके से प्रस्तुत किया है। सूफ़ी  भक्ति की विशेषता यह है कि यह भारत तक सीमित नहीं है बल्कि इसका विस्तार वैश्विक है।  यही कारण रहा है कि हिंदी के कई विद्वानों ने  इसे अभारतीय मान लिया।  अभारतीय मानने का दूसरा कारण सूफी मत का इस्लाम कनेक्शन भी रहा होगा। जबकि इस्लाम और हिंदू संस्कृति की संपृक्ति  हमें सूफी भक्ति में विलक्षण रूप से देखने को मिलती है। इस्लाम धर्म की कट्टरता और रूढ़िवादिता  के प्रतिरोध में सूफ़ी भक्ति का विकास सर्वविदित है।  लेखक ने सूफ़ी दर्शन और भक्ति  से संबंधित कई महत्वपूर्ण देशी-विदेशी  विशेषज्ञों का हवाला देकर इस मत की खूबियों को रेखांकित किया है।   सूफी भक्ति और कबीर आदि की भक्ति को निर्गुण भक्ति के खाँचे में डालकर , निर्गुण-सगुण का विभाजन लेखक को पसंद नहीं।  इस विभाजन के समानांतर लेखक का यह कहना अधिक युक्तियुक्त लगता है कि  " सभी धाराओं के बीच मत विभिन्नता के बावजूद संवाद और मिश्रणशीलता मिलता  है।  उनके बीच अनुभवोंभावनाओं और दृश्यों का अंत:संचरण होता रहा है।" ( पृष्ठ 109)  सूफ़ी  भक्ति में ईश्वर की परिकल्पना स्त्री रूप में की गई है। भक्ति साहित्य की कई  धाराओं में  पितृसत्ता की मौजूदगी के  समानांतर सूफ़ी काव्य में  स्त्री महत्व की प्रतिष्ठा के मायने को समझने की दरकार अब भी बनी हुई है|


'भक्ति आंदोलन की राष्ट्रीय महत्ता' में लेखक ने भक्ति काव्य की राष्ट्रीय व्याप्ति और इस व्याप्ति के सकारात्मक  पक्षों पर विचार किया है।  भारतीय ज्ञान परंपरा को 'महान परंपरा' और 'लघु परंपराजैसी पश्चिमी विभाजन को लेखक अनुचित मानते हैं।  रामायण, महाभारत, गीता, रामानंद, वल्लभाचार्यकालिदास आदि 'महान परंपरा' से सम्बद्ध  माने गए और भक्ति कविता तथा लोक साहित्य आदि मूल रूप से 'लघु परंपरा'  यह विभाजन भारत के संदर्भ में अवैज्ञानिक हैक्योंकि “सांस्कृतिक बहुलता के कारण यहां सैकड़ों परंपराएं हैंआंदोलन के सैकड़ों लहरें हैं, और इन सभी के बीच आलोचनात्मक संवाद चलता रहता है|”  (पृष्ठ 139 )  यही  संवाद  भक्ति की भारतीय संवेदना है। भक्ति काव्य की सबसे बड़ी ताकत भक्त कवियों द्वारा लोक भाषा का चुनाव है। इस चुनाव ने संस्कृतज्ञ पंडितों की धर्म और भक्ति पर  से उनकी इजारेदारी ही खत्म कर दी।  लोक भाषाओं के उदय के कारण साधारण लोग भी उत्कृष्ट काव्य रचना करने लगे।  ईश्वर और मनुष्य के आंतरिक  संबंधों को लेकर भक्त कवियों की  सृजनात्मक कल्पना शक्ति उड़ान भरने लगी।

 
पुस्तक के दूसरे खंड में गैर हिंदी क्षेत्र में भक्ति के स्वरूप पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है।  विद्वानों ने माना है भक्ति की अजस्त्र धारा उत्तर भारत में  दक्षिण भारत से आई-नायनार  और आलवार भक्ति के रूप में।  हिंदी भक्ति साहित्य में आलवार  वैष्णव भक्ति पर तो कमोबेश लिखा गया है किंतु नायनार  शैवभक्ति पर रहस्यमय चुप्पी  व्याप्त रही है। शम्भुनाथ जी ने यथासाध्य इस चुप्पी  को तोड़ा है।  उन्होंने दक्षिण की शैवभक्ति की  विस्तार से चर्चा की है। शम्भुनाथ जी के इस अध्ययन से पाठक अपने तई इस चुप्पी का कारण भी खोज  सकते हैं। लेखक ने ध्यान दिलाया है कि "शिवभक्ति का आक्रमण विशिष्टताबोध परविशिष्टतावादी सौंदर्यबोध पर है। भक्ति आंदोलन के दौर में नायनारों ने   साहित्यिक कल्पनाशीलता को श्रम संस्कृति से जोड़ने की परंपरा स्थापित कर दी।" ( पृष्ठ 178)  पुस्तक में स्त्री नयनार भक्त कारइक्कल अम्माइयाअक्क महादेवी और वसवन्ना आदि  के क्रांतिकारी विचारों से रूबरू कराया गया है। कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने बसवन्ना को हिंदू धर्म में 'इंसाइडर क्रिटिकके रूप में देखा है। हिंदी क्षेत्र में शैव भक्ति के प्रति उदासीनता का एक प्रमुख कारण शिवभक्ति में ब्राह्मणवाद और भक्ति में घुसे अभिजात्य का विरोध है।  लेखक के अनुसार “वीर शैव  मानवीय स्वतंत्रता, समानताबुद्धिपरकता और बंधुत्व की आवाज थी। शैवभक्ति के अनुसार कर्मकांड धर्म में प्रदूषण है और वर्णव्यवस्था अ-प्राकृतिक तथा गैर-ईश्वरीय  है|”


मीरा के बहाने हिंदी भक्ति कविता में आलवार भक्त कवयित्री  अंडाल से जितनी परिचिति  है उतनी कारइक्कल अम्माईवार से नहीं।  कारइक्कल  पितृसत्ता सौंदर्यबोध को चुनौती देने वाली कदाचित पहली भक्त कवयित्री हैं। “कारइक्कल  शिव की सेविका के रूप में सामने आती हैवह इसके लिए पिशाचिनी रूप चुनती है, जो भयंकर, उत्तेजक और अनोखा है|”  अक्क महादेवी की कविता में प्रतिवाद का स्वरूप सर्वाधिक मुखर है। अक्क जैसी  भयमुक्त स्त्री को खोज पाना सम्पूर्ण भक्ति कविता में  कठिन है।  अक्क महादेवी कहती हैं, " घर बनाकर पहाड़ पर पशुओं से डरते हैं क्या, घर बनाकर समुद्र में समुद्र के किनारे फेनिल लहरों  से डरते हैं क्या?"  उनकी कविता  देमुक्त कविता है। इसमें स्त्री यौनिकता की आधुनिक चित्त की तलाश भी की जा सकती है।  लेखक शंभुनाथ जी इन स्त्री शिव भक्तों के प्रतिरोधी तेवर को बौद्ध भिक्षुणी थेरीगाथा की स्त्रियों से जोड़ते हुए स्त्री प्रतिरोध को निरंतरता में देखने की पेशकश करते हैं, " इतिहास में स्त्री जब भी बोली है, वह त्याग, प्रेम और बराबरी की भाषा में बोली है।  इसके लिए उसे उपेक्षा का सामना करना पड़ा है। बौद्ध स्त्रियों  की थेरीगाथा भक्ति काव्य के अंतर्गत न हो लेकिन एक  धार्मिक व्यवस्था उन्हें स्वतंत्रता का जो अनुभव देती है वह महत्वपूर्ण है।  (पृष्ठ 208)


दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन की धारा कई कारणों से थोड़ी मंद पड़ी नहीं कि महाराष्ट्र में भक्ति की अभूतपूर्व आंधी चल पड़ी।   इस आंधी ने सामाजिक पदानुक्रम की नींव हिला कर रख दी।  शंभुनाथ जी  ने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की शक्ति और सामर्थ्य को सही सन्दर्भों में देखने का प्रयास किया  है। उन्होंने वहां संत ज्ञानदेव से लेकर तुकाराम तक की लंबी भक्ति परंपरा और उसकी विशेषताओं को सावधानीपूर्वक लक्षित किया है। महाराष्ट्र में 13वीं शताब्दी में महानुभाव पंथ से भक्ति आंदोलन का आरंभ होता है। रोचक तथ्य यह है कि इसकी शुरुआत गद्य से होती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि गद्य-लेखन  आधुनिकता का सूचक माना गया है। मराठी में महानुभाव पंथ के प्रवर्तक चक्रधर स्वामी की जीवनी 'लीलाचरितलिखी गई।  महाराष्ट्र की भक्ति में शास्त्र और लोक का आपसी संबंध सामंजस्यपूर्ण रहा है। लेखक के अनुसार,  "उन्होंने अपना संघर्ष प्राचीन क्लासिकल साहित्य से स्थापित किया। उन्होंने धार्मिक- शास्त्रीय परंपरा में सर्वमान्य गीता को चुना, दूसरी तरफ स्थानीय लोक देवता विठोबा को|”  वारकरी भक्ति के प्रणेता ज्ञानेश्वर ने गीता का लोक भाषा (मराठी) में अनुवाद किया।   गीता का लोकभाषा में रूपांतरण  संस्कृत पंडितों को रास नहीं आया उन्होंने इसका पुरजोर विरोध  किया।


लोक देवता विठोबा की आराधना  पारंपरिक वैष्णव भक्ति (कृष्ण भक्ति) से भिन्न "गाँवों के कृषक दस्तकारों द्वारा बिना औपचारिक कर्मकांड के सीधे पूजे जाते रहे हैं|” ( पृष्ठ- 119)  ज्ञानदेव का गीता भाष्य रूढ़ अर्थ में गीता का भाष्य नहीं है बल्कि "ईश्वर से उस दुनिया को बदलने की प्रार्थना है जो दुष्टताओं  और बुराइयों से भरी है। यह मनुष्य के भीतर चलने वाले ऐसे युद्ध में विजय की कामना है जिसमें ईश्वर की भक्ति दुष्टताओं और बुराइयों के विरुद्ध एक प्रतिरोधक शक्ति है।"( पृष्ठ 225)  ज्ञानदेव के अतिरिक्त पुस्तक में एकनाथ को निर्गुण-सगुण के भेद को पाटने वाले एक महत्वपूर्ण भक्त कवि के रूप में पहचान की गई है और तुकाराम की शिनाख्त ‘शास्त्र की जगह अनुभव साक्ष्य’ की प्रतिष्ठा करने वाले विरलतम भक्त कवि के रूप में। 

 

'भक्ति आंदोलन और उत्तर धार्मिक संकट में' भक्ति की अखिल भारतीय संवेदना को अत्यंत शिद्दत के साथ संबोधित किया गया है। दक्षिण और महाराष्ट्र से होते हुए भक्ति की धारा पूर्व भारत में नव वैष्णव आंदोलन के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इस भक्ति आंदोलन का अलख जगाने में ओडिशा के जयदेव (12वीं सदी) मिथिलांचल के विद्यापति (1352 से 1448) असम के शंकर देव (1449 से 1568) बंगाल के चंडीदास (1370 से 1433) और श्री चैतन्य महाप्रभु (1486 से 1553) आदि के योगदान को  लेखक ने गहरी अंतर्दृष्टि के साथ प्रकाशित किया  है। लेखक ने वैष्णवता और नव वैष्णवता  के अंतर को  स्पष्ट करते हुए लिखा है "किसी समय वैष्णव मत धर्मशास्त्रीय नियमों से ज्यादा आक्रांत, असहिष्णु और  बहिष्कारपरक  था।  जबकि  नववैष्णवता उदार और सौन्दर्योन्वेषी थी।  नए दौर की वैष्णव भक्ति में लौकिकता का महत्व बढ़ गया|”  (पृष्ठ 242)  उड़ीसा के 12 वीं सदी के कवि जयदेव ने राधा-कृष्ण के प्रेम को पहली बार भारतीय काव्य का विषय बनाया। उन्होंने संस्कृत में ‘गीत गोविंद’ की रचना कर प्रेम के सौंदर्यपरक  लौकिक रूप  को प्रस्तुत किया। दूसरी तरफ मिथिला के विद्यापति ने राधा-कृष्ण भक्ति को पहली बार लोक भाषा में अभिव्यक्त करने का साहसिक कदम उठाया।  हिंदी क्षेत्र में लोक भाषा की शक्ति और सामर्थ्य को समझने वाले विद्यापति ने भक्ति की राह आमजनों और आम कवियों के लिए खोल दी।  विद्यापति की पदावली में  शैव, वैष्णव और शाक्त की दीवारें नहीं हैं।  उन्होंने इन सारी दीवारों को तोड़ दिया। आलोचक शंभुनाथ  विद्यापति की इन विलक्षणताओं को रेखांकित करते हुए लिखते हैं,  "वह एक सांचे में बंधे अहंकारी व्यक्तित्व नहीं थे। वे समावेशी थे। भक्ति में दीवारें नहीं होती विद्यापति के साहित्यि में मौजूद इन खूबी से शिक्षा ली जानी चाहिए।" (पृष्ठ 249) हिंदी भक्ति आलोचना ने विद्यापति को भक्ति और श्रृंगार में  रिड्यूस कर दिया था। शंभुनाथ जी ने विद्यापति की पदावली में अनुस्यूत सामाजिक सरोकारों को भी लक्षित किया है,  "किसानों को प्यार करने वाले विद्यापति ही परदुख की चिंता करने के साथ बादल को इस तरह देख सकते थे- जलधर जल घन  गेल असेखि। करए कृपा बड़ पर दुख देखि।|”  (पृष्ठ  252)   विद्यापति की पदावली में जितनी भक्ति है उतना ही श्रृंगार  है लेकिन इन दोनों से अधिक तत्कालीन समस्याएं हैं, उन समस्याओं की बारीक  पहचान है।  स्त्री का दुख इतना है कि विद्यापति की स्त्री दुबारा स्त्री जाति में जन्म लेना नहीं चाहतीं- 'स्त्री भए जनमे जनु कोई।मनुष्यता में अपार आस्था विद्यापति को दुर्लभ मध्यकालीन भक्त कवि का दर्जा देता है- 'हे सखि मानुस  जीवन अनूप।'


पुस्तक में चंडीदास को सबसे ऊपर 'मानुष सत्य' को स्थापित करने वाले दुर्लभ वैष्णव भक्त कवि के रूप में देखा गया है तो आसाम के शंकररदेव को अहिंसा, कला प्रेम और जातीय अखंडता में  आस्था रखने वाले भक्त कवि के रूप में।  लेखक ने शंकरदेव की पहचान भक्ति काल में ऐसे अकेले भक्त कवि के रूप में की है जिन्होंने नाटक भी लिखा है।  इन नाटकों को 'अंकिया नाट्य' के नाम से जाना जाता है।  कलिया दमनरुक्मणी हरण आदि नाटकों में शंकरदेव ने कृष्णभक्ति का नाट्यरूपान्तरण   कर  उसे एक खास तरह की ऊंचाई प्रदान की है। तथ्य यह भी है कि  शंकरदेव से पूर्व विद्यापति ने भी दो नाटकों की रचना की थी। गोरखनाथ की जीवनी पर आधारित 'गोरक्ष विजय' और 'मणिमंजरी| यद्दपि  ये  नाटक भक्ति केंद्रित नहीं हैं।  वैष्णव भक्ति के प्रसंग में चैतन्य देव की जितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है दूसरे की नहीं।  लेखक ने बतलाया है कि यद्यपि वे कवि  नहीं थे किंतु इनके प्रभाव से बंगला, उड़िया और ब्रजभाषा में वैष्णव पदावलियाँ लिखीं गईं। इन्होंने वैष्णव भक्ति को प्रखर आंदोलनात्मक रूप प्रदान किया। बकौल शंभुनाथ जी 'श्री चैतन्य की भक्ति मूलतः  भेद में अभेद का उल्लास है।'


पुस्तक में के चौथे खंड में कबीर, सूर, मीरा, जायसी  और तुलसीदास पर संजीदगी से विचार किया गया है। कबीर की विद्रोही चेतना पर प्रकाश डालते हुए विद्रोह की खूबियों को पहचानने का प्रयास लेखक करते हैं। शुक्लजीद्विवेदीजी और  रामविलास शर्मा के भक्ति विमर्श को  पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक 'अकथ कहानी प्रेम कीतक ले आते हैं।  लेखक ने सूरदास को प्रेम , ट्रेजेडी और  वृंदावन का विलक्षण यूटोपिया खड़ा करने वाला कवि कहा है।  मीरा की भक्तिकाव्य  को स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता का द्वार कहकर  उनकी काव्ययात्रा  को सामाजिक जड़ता को तोड़ने वाला  बताया है।  मलिक मोहम्मद जायसी को सांस्कृतिक अंतःमिश्रण का बड़ा कवि घोषित किया है।  रामचरितमानस को केंद्र में रखकर तुलसी की भक्ति भावना और उनके  सामाजिक सरोकार की पहचान लेखक ने की है। उनके विचारिक अंतर्द्वंद्व और फाँक को रेखांकितकरते  हुए भी लेखक शम्भुनाथजी  तुलसी का  बचाव-पक्ष तैयार करते हैं।  लेखक ने  हिंदी भाषी इन पाँच भक्त कवियों पर खुलकर और खिलकर लिखा है।  इस लेखन में नवीन विचारों का प्रस्फुटन भी देखने को मिलता है। किंतु विस्तार भय से यहां उस पर विचार नहीं किया जा रहा है।  दूसरा कारण यह भी है कि हिंदी क्षेत्र के विद्यार्थी शोधार्थी और अध्येयता  इन भक्त कवियों को  लगातार पढ़ते ही रहे हैं।

 
पुस्तक के अंत में तमिल, कन्नड़, तेलुगूमराठी, गुजराती असमिया, बांग्ला, उड़ियापंजाबीकश्मीरीमैथिली, और हिंदी के भक्त संत-सूफ़ी  कवियों की रचनाओं का अत्यंत संक्षिप्त संकलन  दिया गया है। यह अंश पुस्तक के महत्त्व में चार चांद लगा देता है। इस संकलन के औचित्य पर विचार करते हुए आलोचक शंभुनाथ लिखते हैं, "ये भक्ति काव्य की भारतीय विविधता के साथ अखंडता का बोध कराती हैं। इन कविताओं में जो अनुभूतिप्रवणताबुद्धिपरकता और जागरूकता है वह पाठकों में भारतीय भक्ति काव्य के प्रति उत्सुकता पैदा कर सकती है।"  शंभुनाथ जी  की  पुस्तक 'भक्ति काव्य और धार्मिक उत्तर संकट' भी पाठकों में जिज्ञासा पैदा करती हुई एक अच्छी और संग्रहणीय किताब बन जाती  है।  

 

 


Comments

  1. शानदार समीक्षा है सर! यदि शंभूनाथ सर की इस किताब को समझने के लिये आदमी के अन्दर थोड़ी भी ललक हो तो वह आपकी इस समीक्षा के माध्यम से 'भक्ति आन्दोलन और उत्तर धार्मिक संकट (भक्तिकाल का पुनर्मूल्यांकन) ' किताब के तह तक झॉंक सकता है। इस समीक्षा के माध्यम से भक्तिकाल के विषय को स्नातक और परास्नातक के विद्यार्थियों तक अपनी बात भी बहुत आसानी से रखा जा सकता है कुल मिलाकर यह आलेख संग्रहणी है।
    डॉ सौरभ कुमार सिंह (प्रयागराज)

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद सौरभ जी

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  2. प्रो. शंभुनाथ जी की किताब का सम्यक मूल्यांकन किया है। यह समीक्षा बहुत संतुलित है।

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  3. शानदार लेख। धर्म के नाम पर आज चौतरफा उन्माद ही उन्माद है। ऐसे दौर में धर्म और भक्ति के न सिर्फ मायने बदल बदल गए हैं बल्कि काट-मार जैसे अपराध और अपराधी को भी धर्म और भक्ति के चश्मे से देखने का चलन बढ़ा है। लेख पढ़कर सहज ही किताब पढ़ने की जिज्ञासा प्रबल हो जाती है।

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  4. बहुत बहुत धन्यवाद

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