मिथिलांक का अतीत राग और चुनी हुई चुप्पियाँ
(इस आलेख में जुटाए गए साक्ष्य मिथिलांक के प्रकाशन वर्ष 1936 से पूर्व के हैं, केवल अपनी बातों की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के लिए बाद के सन्दर्भ भी लिए गए हैं|)
"मेरा विश्वास है कि जब तक हमारी कमियों की तीव्र आलोचना न होगी तब तक हमारा ध्यान उनको दूर करने की ओर समुचित रीति से आकृष्ट न होगा।"
मैथिलीशरण गुप्त
हिंदी-मैथिली
के सुपरिचित और लब्धप्रतिष्ठित पत्रिका रही है-मिथिला मिहिर। राज्याश्रय (दरभंगा महाराज) प्राप्त यह पत्रिका सन 1909 से सन 1954 तक दरभंगा से प्रकाशित होती रही और 1960 से 1989 तक पटना से।
एक से बढ़कर एक मिथिला के विद्वान इसके संपादक
रहे। मैथिली के प्रख्यात विद्वान आचार्य सुरेंद्र झा ‘सुमन’ पांचवे संपादक के रूप सन 1935 से ‘मिथिला मिहिर’ को अपनी खास विद्वत-दृष्टि से सुनियोजित करने का प्रयास किया।
रेखांकित करने की बात यह है कि
संपादन का गुरुतर दायित्व लेते ही उन्होंने पत्रिका में मैथिली के स्थान और महत्व को यथासाध्य विस्तारित किया और एक वर्ष के बाद ही यानी सन 1936 में मिथिलांक
नाम से अलग-अलग हिंदी और मैथिली में विशेषांक का प्रकाशन किया। 193 पृष्ठ का हिंदी खंड कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस अंक के माध्यम से कदाचित पहली बार समग्रता से मिथिला
भूभाग की सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक इतिहास की
जानकारी हिंदी पाठकों तक पहुंची। अपने समय के प्रसिद्ध हिंदी लेखकों को संपादक ने मिथिला की ओर आकर्षित किया और उनके आलेख प्रकाशित किए। मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, सुनीति कुमार चटर्जी, राहुल
सांकृत्यायन, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी एवं शिवपूजन सहाय सरीखे उन दिनों के लीजेंड हिंदी रचनाकारों से
लिखवाना साधारण कर्म नहीं रहा
होगा। युवा संपादक सुरेंद्र झा सुमन की गंभीर संपादकीय दृष्टि के अतिरिक्त पत्रिका के प्रति उनकी गहरी लगनशीलता के
बगैर यह संभव नहीं था।
यहां
मिथिलांक विशेषांक के हिंदी खंड के बहाने
किसी भी समाज में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका और
गुणवत्तापूर्ण पत्रिका की विशिष्टताओं की गहरी छानबीन करने की कोशिश की जाएगी। मिथिलांक के मैथिली
खंड को प्रोफेसर भीमनाथ झा ने 'अप्रतिम' और विलक्षण अंक की संज्ञा दी है। उन्होंने सही स्थान पर उंगली रखते हुए एक उत्कृष्ट पत्रिका की विशेषताओं को बताते हुए लिखा कि "उसमें तत्कालीन जीवंत
समाज की नाड़ी के स्पंदन से लेकर अतीत गौरव, वर्तमान का वैभव और भविष्य का
दिशा-दर्शन का यथासंभव समुचित
संकेत होना चाहिए।"[i] इसके साथ ही उन्होंने आगे बड़े मार्के की बात लिखते हुए कहा कि
संपूर्ण समाज का चित्र, व्यष्टि और समष्टि दोनों रूपों में
जिस पत्रिका में जितना अधिक संगठित, सुनियोजित, सुविचारित होकर आएगा वह उतनी ही
उत्कृष्ट पत्रिका होगी। भीमनाथ झा के इस वक्तव्य के अनुसार एक अच्छी पत्रिका को सर्वप्रथम तत्कालीन जीवंत समाज की चिंता, अतीत के प्रति लगाव, वर्तमान के सरोकार और भविष्य के
प्रति सचेत दृष्टि अपेक्षित है। इसके
अतिरिक्त संपादक की उदात्त दृष्टि संपूर्ण समाज के प्रति एक समान होनी चाहिए। इस प्रतिमान पर प्रोफ़ेसर भीमनाथ झा गुरुभार से मुक्त हो हृदय पर हाथ रख कर बताने की कृपा
करें कि मिथिलांक में तत्कालीन समाज कहां है? भविष्य की कौन सी दृष्टि पत्रिका दे पाने में सक्षम हुई है। संपादक का लक्ष्य समूह सायास या अनायास
संपूर्ण समाज है या समाज का एक
हिस्सा। कहीं ऐसा तो नहीं कि संपादक अपने समाज को ही संपूर्ण मिथिला समाज का पर्याय मान बैठे हों। जब मैथिलीशरण गुप्त भारत
भारती लिखते हैं-
हम कौन थे, क्या हो गए हैं क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिलकर, यह समस्याएं सभी।
गौर करने की
बात यह है यहां 'हम' भारतीयता का
प्रतीक नहीं बल्कि 'हिंदू' मात्र का प्रतीक बन जाता है। लेकिन गुप्तजी अनायास इस 'हम' को 'सभी' कह जाते
हैं। इसी प्रकार जब हम मिथिला के अतीत को सभी के लिए अत्यंत गौरवशाली प्रमाणित करते हैं तो इसमें वे 'सभी' नहीं होते
बल्कि कहने वाले अपने को 'सभी' मान लेते हैं। जब आचार्य प्रवर संपादकीय के अंत में वर्तमान दशा से आहत होकर यह लिखते हैं, "प्राचीन तपोभूमि मिथिला आज गंदी हवा में सांस ले रही है। उसके गौरव के स्तंभ
खंडहर से बन रहे हैं। और यह 'वह' नहीं मालूम
होती।"[ii] इन पंक्तियों को थोड़ा ‘डिकोड’ करके पढ़ने का प्रयास करते हैं। प्राचीन तपोभूमि क्या थी? मिथिला के
उस तपोभूमि में रहने वाले कौन थे और कितने थे? क्या मिथिला की आम जनता यानी चारों वर्ण और आम स्त्रियां भी इस तपोभूमि की हकदार थीं? कौन सी 'गंदी हवा' सन 1936 के आसपास
चलने लगी थी, जिसमें मिथिला नगरी सांस लेने के
लिए अभिशप्त थी। अंग्रेजों का अंत समीप
था, जमींदारी प्रथा की चूलें हिलने लगी थी, गांधी और
अंबेडकर के प्रयास से निम्न वर्ण अपने हक की लड़ाई के लिए तैयार हो रहे थे, स्त्रियां अपनी पितृसत्ता की सुदीर्घ दासता को जानने-समझने लगी थी, लोकतंत्र की धमक चंहुओर सुनाई पड़ने लगी थी। इस पृष्ठभूमि में साधारण समझ के लोग भी 'तपोभूमि' और 'गंदी हवा' के प्रतीकार्थ को समझ सकते हैं। किसके गौरव के स्तंभ
खंडहर से बन रहे थे? आज की तारीख में भी अधिकांश अशिक्षित मैथिलजनों को इस गौरव-गाथा के बारे में अता-पता ही नहीं तो उसके खंडहर बनने पर उन्हें क्यों चिंता होगी? उन्हें इस 'गौरव' के बारे में कभी बताने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की गई। अधिकांश
निम्न जाति के श्रमिक मैथिलों को उस 'गौरव' के नाम पर यातना-कथाएं स्मृति में
कौंधती हैं, बाप-दादों से सुनी डरावनी 'सत्य-कथाएं' उन्हें सपने में भी विचलित करती हैं। संपादक अवचेतन में आम मैथिल के
गौरव स्तंभ की बात कहते हैं दरअसल वह कुछ चुने हुए मैथिलों के गौरव
स्तंभ रहे हैं और उसके टूटने-दरकने की उनकी
पीड़ा भी
स्वाभाविक है।
सन 1936 के आसपास हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की जितनी अच्छी पत्रिकाएं निकल रही थी उनकी मुख्य
चिंता राष्ट्रीय आंदोलन और नवजागरण
की थी। क्योंकि 1936 में राष्ट्रीय आंदोलन अपने शुमार पर था, मिथिला में भी उसकी धमक पुरजोर सुनाई दे रही थी। देश में भूचाल मचाए हुए राष्ट्रीय आंदोलन पर पूरी
दुनिया की निगाह टिकी हुई थी लेकिन मिथिलांक उससे नजर फेरे हुए है। राष्ट्रीय आंदोलन के साथ पूरे देश में नवजागरण की लहर चल रही थी। अछूत आंदोलन, स्त्री-जागरण, धार्मिक पुनर्जागरण तथा किसान असंतोष की गहमागहमी से पत्रिकाएं लवरेज रहतीं। मिथिला क्षेत्र में भी इस नवजागरण की अनुगूंज सुनाई दे रही थी। मिथिलांक
के इस विशेषांक में नवजागरण के
प्रति मुर्दानगी-चुप्पी छाई हुई है। कहने का आशय यह कि वर्तमान को सुनने और अकानने की आकांक्षा मिथिलांक को
नहीं थी। जहां हिंदी की पत्रिकाएं
(चांद) 1936 से बहुत पहले फांसी विशेषांक, अछूत विशेषांक, विदुषी विशेषांक और विधवा विशेषांक आदि निकाल रही थी और वर्तमान की समस्याओं से दो-दो हाथ कर रही थी वहीं मिथिला मिहिर ‘मिथिलांक’ में अतीत की शरण में जाकर अपने की सुरक्षित महसूस कर रही थी।
मिथिलांक का 90 फ़ीसदी
हिस्सा सम्पादकीय सहित अतीत-रागसे भरा है। प्राचीन मिथिला की गौरवशाली परंपरा पर लेखकगण अभिभूत हैं। इस अभिभूति में पुनरावृति भी खूब हुई है। प्राचीन मिथिला (पंडित श्री गौरी नाथ झा), आदिकाल की मिथिला (श्री अच्युतानंद), मिथिला के प्रति (श्री जय नारायण झा), मिथिला की एक झलक (श्री यदुनंदन शर्मा), पुराण में मिथिला (श्री सीताराम झा व्या.तीर्थ), रामायणकारों की दृष्टि में मिथिला (पंडित श्री रघुनाथ उपाध्याय
व्यास) आदि लेखों में मिथिला की
प्राचीनता सिद्ध करने की कोशिश की गई है। इनमें अधिकांश विद्वानों ने मिथिला से ही दुनिया की सृष्टि के आरंभ
को प्रमाणित करने का प्रयास किया
है। संभव है उनकी स्थापना सही हो। किंतु इसमें दो राय नहीं कि अधिकांश विद्वानों की पद्धति गलत है। अधिकांश
विद्वानों ने प्रमाण स्वरूप
संस्कृत ग्रंथों विशेषकर धार्मिक ग्रंथों का हवाला दिया है। साथ ही मिथक कथाओं और दंत कथाओं आदि को भी प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया है। जबकि यह सामान्य सी बात है कि प्राचीन ग्रंथ इतिहास के
एकमात्र स्रोत नहीं होते। इन ग्रंथों में रचनाकारों की अपनी कल्पनाएं और पूर्वाग्रह भी समाए होते हैं। सृष्टि का आरंभ बहुत पहले हुआ, ग्रंथों की रचना बहुत बाद में हुई। ग्रंथों के अतिरिक्त इतिहास के कई स्रोत होते हैं और सभी स्रोतों को एक दूसरे से मिलाया जाता है, इन स्रोतों को एक दूसरे से क्रॉस वेरीफाई भी कराना आवश्यक होता है। व्यावहारिक अनुभव और अभिलेखीय
साक्ष्य की पड़ताल करनी होती है। ठोस तथ्यों के साथ
खुदाई से प्राप्त अवशेषों की वैज्ञानिक जांच भी अनिवार्य होती है। और सबसे महत्वपूर्ण है पैटर्न का अध्ययन। असल में उपर्युक्त लेखक पेशेवर इतिहासकार नहीं है। मिथिला के प्रति आत्ममुग्धता और धार्मिक ग्रंथों को
अकाट्य मानने की उनकी समझ से निष्पत्ति गलत भी हो सकती है। किस प्रकार के इतिहास विरोधी चमत्कारिक घटनाओं के हवाले से मिथिला के उद्भव को प्रमाणित किया गया है उसकी एक
रोचक बानगी द्रष्टव्य है, 'आदिकाल की मिथिला' शीर्षक लेख में श्री अच्युतानंद जी लिखते हैं, " इस बात की पुष्टि शतपथ ब्राह्मण
में उल्लिखित एक गाथा से भली भांति होती है। उसमें लिखा है विदेह माथव ने मुख में अग्नि को छुपा रखा था। गौतम रहूगण उनके पुरोहित थे। एक बार गौतम ने माथव को पुकारा। मुख में अग्नि रहने से वह बोल नहीं
सके। तब 'बीति होत्र' इत्यादि मंत्र से बुलाया। फिर भी कुछ उत्तर ना मिला तदन्तर पुरोहित ने 'तंत्वा घृतस्नवी महे' इत्यादि मंत्र पढ़ा। घृत के नाम से अग्निदेव माथव के मुख में नहीं रह सके, निकल पड़े। इसके बाद अपनी ज्वालामयी जिह्वा लपलपाते हुए अग्निदेव ने पूर्व की ओर
प्रस्थान किया। माथव रहूगण अग्निदेव के पीछे पीछे चले। नदियों ने उधर की भूमि को दलदल बना रखा था। अग्निदेव ने नदियों को सुखाकर भूमि को कठोर बनाया। केवल सदानीरा जो कोशल की पूर्वी सीमा पर बहती थी, जलपूर्ण रह सकी। अग्निदेव के कहने से माथव और रहूगण
सदानीरा के पूर्व की भूमि में जा बसे, जिसका नाम विदेह वा तीरभुक्ति पड़ा।"[iii]
अतीत का
महिमामंडन कोई नई बात नहीं है। राष्ट्रीय आंदोलन
और नवजागरण काल के कई बड़े लेखक भी अपने को इस अतीत राग से बचा नहीं पाए। इस अतीत महात्म्य का मनोविज्ञान हीनताग्रंथि में निहित है। 'हम भी किसी से कम नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ हैं' का भाव अपनी कमियों और सीमाओं को ढकने का अकादमिक
आवरण होता है। इस संदर्भ में हिन्दी के वरिष्ठ चिंतक पुरुषोत्तम अग्रवाल के कथन ध्यान आकृष्ट करते हैं, "सांस्कृतिक हीनताग्रंथि प्रभुजाति
(अंग्रेज या अन्य श्रेष्ठ समुदाय) की सांस्कृतिक श्रेष्ठता की मूढ़ स्वीकृति में ही नहीं, अतीत गौरव
की काल्पनिक दम्भोक्तियों में भी व्यक्त होती
है। ऐसी दम्भोक्तियाँ करने वाला समाज या व्यक्ति प्रभुवर्ग की श्रेष्ठता को अवचेतन में
पहले ही मान चुका होता है। उसकी
उत्कंठा इस श्रेष्ठता के प्रमाण अतीत के स्वर्ण युग में भी खोज निकालने की ही रह जाती है।"[iv]
मिथिलांक
अतीत राग से इस कदर ग्रस्त है कि मिथिला में हुए भूकंप पर लिखते हुए लेखक पंडित श्री युत गिरींद्र मोहन मिश्र 'मिथिला और भूकम्प’ शीर्षक आलेख' में भूकंप की तथ्यात्मक पड़ताल करना भूल जाते हैं और पौराणिक ग्रंथों में भूकंप के कारणों
के बारे में लिखे गए श्लोकों की
वर्षा करने लगते हैं। वे लिखते हैं कि "हमारे पुराणों में यह बात प्रसिद्ध है कि पर्वतों के डैने हुआ करते थे और डैनों
के बल से वह आकाश में उड़ा करते थे, और नीचे गिरते थे[v]| आलेख
मिथिला में 1833 में हुए भीषण भूकंप के बारे में
है। लेकिन उस भूकंप के बाद क्या हुआ? उसकी परिणति किस तरह की हुई? किन तबके के लोगों में किस तरह की क्षति हुई, सरकार का
रवैया कैसा रहा, भूकंप से वहां के जनजीवन और फसल
आदि पर क्या असर पड़ा, भूकम्प आहट के साथ किन बातों का ख्याल रखना चाहिए, इसके सेफ्टी मेजर क्या हो सकते हैं, जैसे निहायत जरूरी विषयों बात न कर पौराणिक आख्यान में लेखक का विचरण पुराण-राग के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? सन 1936 तक भूकंप के
वैज्ञानिक कारणों की पर्याप्त जानकारियां उपलब्ध थी, लेकिन इन वैज्ञानिक कारणों से पाठकों को परिचित कराना और भूकंप पूर्व तैयारी का संकेत देना लेखक का उद्देश्य नहीं है।
अतीत-राग
का रोचक
उदाहरण है राज पंडित श्री बलदेव मिश्र का
आलेख 'खेल में ब्रह्म विद्या'। सभी विद्याओं में ब्रह्मविद्या को खोज लेना और अतीत का
अनावश्यक महिमामंडन उक्त आलेख की
विशेषता है । बलदेव मिश्र जी मिथिला के बच्चों में प्रचलित ढेहालेलछू, कबड्डी और सतधारा जैसे खेल में
अप्रत्यक्ष रूप से अनुस्यूत ब्रह्मविद्या
की पांडित्यपूर्ण तलाश करते हैं। जीवन में खेल का क्या महत्व है ; उसके व्यक्तित्व विकास में, नेतृत्व क्षमता में, प्रतित्वपन्नमतित्व को बढ़ाने में, शारीरिक-सौष्ठव को विकसित करने में इसकी भूमिका कितनी अधिक है, इन सबसे अनजान लेखक इसलिए गदगद हैं कि इन खेलों की जड़ में ब्रह्मविद्या है। अगर ब्रह्मविद्या इतनी
महत्वपूर्ण और चमत्कारिक होती तो हमारे मिथिला के खिलाड़ी भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी होते। झारखंड के धोनी ने क्रिकेट की दुनिया में अपना परचम लहराया। लेकिन मिथिला खेल में कदाचित पहले भी फिसड्डी था और आज भी फिसड्डी
है। यह कहना अनावश्यक नहीं कि खेल
के प्रति आज भी यहां के लोगों में घोर उपेक्षा का भाव है। इसलिए अपने यहां एक हिंदी-कहावत भी प्रचलित है
खेलोगे
कूदोगे होगे खराब,
पढ़ोगे-लिखोगे बानोगे नवाब।
यह कितनी बड़ी विडंबना है
कि जिन ब्रह्मविद्या अनुरागी पंडितों ने खेल को कभी दो कौड़ी का
महत्त्व नहीं दिया वे खेल में भी ब्रह्मविद्या की उपस्थिति को सायास सिद्ध
करने का 'दंडप्राणायाम' करते हैं।
मिथिला के राजा
हरसिंह देव ने रक्त की शुद्धता को अक्षुण्ण रखने के उद्देश्य से पंजी-प्रथा
चलाई थी, जो कमोवेश
मैथिल ब्राह्मणों और कायस्थों में आज भी प्रचलित है। जिस प्राचीन काल में
यह प्रथा चलाई गई थी, संभव है उसकी उपयोगिता रही हो। उस समय वर्ण, धर्म, लिंग, आदि को लेकर
इतनी प्रगतिशील सोच नहीं थी। लेकिन आधुनिक काल में भी अगर इस प्रथा
को महिमामंडित किया जाए तो यह रुढिगत परंपरा के प्रति अतिरिक्त मोह को
उद्घाटित करता है। इस पंजी-प्रथा ने वर्णाश्रम व्यवस्था को और अधिक
मजबूत किया। ब्राह्मणों में भी ऊंच-नीच का पदानुक्रम इस प्रथा ने बनाया।
सन 1936 में पंडित
श्री कपिलेश्वर मिश्र 'हरसिंह दैवीय समाज पद्धति' नामक निबंध
में इस प्रथा से
अभिभूत दिखते हैं। अभिभूति का पता उनके इन शब्दों से चलता है, "मिथिला की
सामाजिकता एक ऐसी स्थिति पर खड़ी है जो युग की आंधी में एक सी अटल
है। (यहाँ भी कुछ खास लोगों को सम्पूर्ण मिथिला समाज का पर्याय मान लिया गया है) यह
परिवर्तन इस युग में चाहे और अस्वाभाविक ही जचे पर है एक विलक्षण
और विशेषता युक्त।[vi]
दुनिया भर का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि जो समाज जितना
उन्मुक्त, घुला-मिला
और समावेशी रहा है वह उतना ही सचेत, समृद्ध और स्वस्थ समाज
रहा है। बंद समाज बेहतर समाज के रूप में अपने को स्थापित नहीं कर सकता। सन 1936 में लिखे इस
लेख की तुलना
अगर 1880 में लिखित
मिथिला के इतिहास आईना-ए-तिरहुत
(1882 में प्रकाशित) के इतिहासकार बिहारीलाल 'फितरत' से किया जाए
तो आश्चर्य होता है। 1880 में लिखित इस पुस्तक की चेतना काफी
प्रखर मालूम होती है। पंजी-प्रथा की विसंगतियों पर प्रकाश डालते हुए
बिहारीलाल 'फितरत' लिखते हैं, "इसका परिणाम यह हुआ कि उच्च कोटि के ब्राह्मण
रुपैया लेकर निम्न दर्जे के ब्राह्मणों की बेटियों से 25-25 बल्कि 50-50 शादियां
करने लगे और इसी वजह से अब प्रायः उच्च दर्जे के ब्राह्मण अपने लड़कों
की शादी छोटे दर्जे के ब्राह्मणों की लड़कियों से करते हैं और उनसे रुपैया
लेते हैं।"[vii] लगभग 15 साल पूर्व 1867 में रियाज-ए-तिरहुत नाम से
मुंशी अयोध्या प्रसाद 'बहार' ने मिथिला का इतिहास लिखा। इन्होंने भी
पंजी- प्रथा एवं सौराठ-सभा की सीमाओं को उसी समय भांप लिया
था। सौराठ- सभा
के संबंध में उनके वक्तव्य पर गौर कीजिए, "इस जिला में एक विचित्र बात है, लगन ब्याह
के दिनों में मौजा-सौराठ, परगना-हाटी में सभा के नाम से
उत्सव होता है बाजार लेन-देन का गरम होता है।[viii]
1867 से पहले ही सौराठ-सभा 'बाजार' के रूप में तब्दील हो गयी थी। पंजी-प्रथा की विद्रूपताओं को
उद्घाटित करते हुए रियाज-ए-तिरहुत में लिखा गया है, "किसी का घर
आबाद किसी की बर्बादी होती है। जो (पांज) में ऊंचा होता है, रुपया लेता
है और जो जाति में नीचा होता है रुपया देता है। अर्थात लेनदेन रुपए
के कारण से ज्यादा ऐसे है कि कभी कोई रोजगार नहीं करते। हर साल 1-2 विवाह करते
हैं। यही आमदनी
है। 20-22 वाले से
लेखक को भी मुलाकात है।[ix] उपर्युक्त
दोनों उर्दू में लिखे इतिहास की पुस्तकों के लेखक कोई
मुसलमान नहीं बल्कि कुलीन कायस्थ हैं। उन दिनों पढ़ाई लिखाई का काम कायस्थ
ही किया करते थे। ब्राहमण तो पूजा-पाठ, यज्ञ कर्म, और भाष्य लिखने जैसे
महत्वपूर्ण काम में संलग्न थे। इस पृष्ठभूमि में हम 'हरसिंह देवीय समाज
पद्धति' के लेखक
श्री कपिलेश्वर मिश्र और उक्त दोनों इतिहासकारों की दृष्टि की तुलना की
जाय तो सहज ही ज्ञात होता है कि परंपरा-मोह हमारी चेतना को किस तरह
अपहृत कर लेता है।
पूरे मिथिलांक
को पढ़ने के
बाद जो मैथिल की छवि निर्मित होती है वह धर्म-निष्ठ पांडित्यपूर्ण मैथिल की
बनती है। लेकिन यह सर्वविदित है कि ऐसे मैथिल उस समय उंगलियों पर गिने
जाने वाले थे। आम मैथिल की कोई छवि उकेरने में पत्रिका सफल नहीं रही
है। 1867 ईस्वी में 'रियाजे-तिरहुत' ने जो आम मैथिल की
छवि निर्मित की है वह बहुत हद तक सही छवि है। इस छवि से असहमति हो
सकती है लेकिन इसे एक सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है। मिथिला के
इस इतिहास पुस्तक में 'बहार' लिखते हैं, "हाथापाई
नहीं करते। घरेलू झगड़ा कम करते हैं। बदकौल (संदेही) व खुशामदी
होते हैं। पीठ पीछे बुराई करने की आदत होती है। वैर-भाव पूजा (करने जैसा
आवश्यक) है। पहनावा मोटा-रुखड़ा और भोजन अधिक करते हैं।"[x]
कितना आश्चर्यजनक है कि
मिथिलांक का केंद्रीय
थीम मिथिला का
इतिहास, संस्कृति और
परंपराएं हैं। किंतु सही अर्थों में इतिहास दृष्टि के साथ
इतिहास लिखने वाले अयोध्या प्रसाद 'बहार' या
बिहारीलाल 'फितरत' का नाम उल्लेख तक मिथिलांक में नहीं है। इन दोनों
इतिहासकारों को स्थान दिया जाना इसलिए आवश्यक था क्योंकि उस समय पूरे
देश में इतिहास लेखन की परंपरा न के बराबर थी। मिथिलांक के कई आलेखों
में विद्वानों की लंबी सूची प्रस्तुत की गई है। वहां भी उक्त दोनों
इतिहासकार अनुपस्थित हैं। दरभंगा (आईना-ए-तिरहुत) और मुजफ्फरपुर (रियाज-ए-तिरहुत)
से प्रकाशित
उक्त दोनों महत्वपूर्ण ग्रंथ सुरेंद्र झा सुमन जैसे
अध्ययनशील और सचेत विद्वान से अलक्षित नहीं रहा होगा। यह अनुपस्थिति
अनायास नहीं सायास है।
मिथिलांक के इस अंक में दो सुदीर्घ लेख
हैं। एक लेख पंडित त्रिलोकीनाथ मिश्र का है, जो लगभग 20 पृष्ठों का
है - 'मिथिला के
विद्वान-1,2,3' और दूसरा लेख
पंडित श्री बदरीनाथ आ. कविशेखर का है जो 13 पृष्ठों का
है- 'मिथिला के
संस्कृत साहित्य महारथियों की तालिका'। उक्त दोनों आलेखों की 'विलक्षणता' यह है कि इसमें किसी
सरकारी गजेटियर की तरह विद्वानों की सूची भर दी गई है। सूचना के नाम पर
अधिकांश विद्वानों के नाम, निवास स्थान, और रचनाओं के नाम मात्र दिए गए हैं।
दोनों लेखों में स्वभावतः नामों की पुनरावृत्ति भी हुई है। रचनाओं के
नाममात्र से लेखकों की विद्वता लक्षित नहीं की जा सकती है। कुछ अज्ञात
नामों की विस्तृत चर्चा कर, उनकी रचनाओं की विशिष्टता रेखांकित कर उनकी
विद्वता को दर्शाया जाता तो आलेख की गुणवत्ता निश्चित रूप से बढ़ जाती। कहने
की आवश्यकता नहीं कि पुस्तक प्रकाशन व लेखन विद्वता का सूचक नहीं। किताब
से किताब बनाने की कला आज ही विकसित नहीं हुई है। यह प्रवृत्ति
प्रत्येक युग में कमोबेश रही है।
इसका प्रमाण यह है कि पंडित श्री
रामधन मोहन व्या
आचार्य का एक आलेख है- 'मैथिल कवियों के कुछ संस्कृत पद' (पृष्ठ 113) इसमें पंडित
खुद्दी झा झा का एक पद दिया गया है जो 12 वीं शताब्दी
के अपभ्रंश के कवि अब्दुल रहमान के पद का संस्कृत अनुवाद प्रतीत होता
है। आलेख में किसी भी रचनाकार का समय देना लेखक ने आवश्यक नहीं समझा
है। खुद्दी झा के इस पद का भावार्थ इस प्रकार किया गया है,
"जो महानुभाव प्रतिदिन अपनी अवदात प्रतिभा से
नवनवोन्मेषित व्याख्या करते हैं वे धन्य हैं, और जो अपनी
ऊंची बुद्धि से दूसरों को छोटा समझते हैं वह भी धन्य ही
हैं। वे दोनों मेरी इस
टीका पर दृष्टिपात ना भी करें तो भी हमारे यत्न व्यर्थ नहीं होने की, क्योंकि इस
जगत में मध्यस्थ बुद्धि वाले बहुत विद्वान मौजूद हैं उनकी दृष्टि में
मेरे परिश्रम की कीमत जरूर जंचे।"[xi] अब्दुल
रहमान रचित'संदेश रासक का अत्यंत
सुपरिचित पद है-
णहु रहइ बुहह कुकुवित्त रेसु
अबुहत्तणि अबुहह णहु पवेसु
जिण मुक्ख ण पण्डिय मज्झयार
तिह पुरउ पढिब्ब सव्ववार[xii]
पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पद का
अर्थ इस तरह किया है, "पंडितजन को कुकविता से
संबंध नहीं रहता और अब अबुधजनों का अबुद्धत्व के कारण कविता में प्रवेश
ही नहीं होता। इसलिए जो ना मूर्ख और न पंडित हैं बल्कि मध्यम कोटि के हैं, उनके सामने
इसे सर्वदा पढ़ना।"[xiii] दोनों
पदों के भाव बिल्कुल समान हैं।
मिथिलांक में गोरक्षण की चिंता पर
आधारित लेख कई प्रश्नों को जन्म देते हैं। गाय या किसी भी पशु पक्षी
की चिंता तभी सार्थकता प्राप्त कर सकती है जब समाज में उपेक्षित, शोषित उन
हजारों-लाखों पशुवत जिंदगी बिताने वाले लोगों की भी जेन्यूज चिंता
की गई हो। लेकिन इस लेख के अतिरिक्त अन्य किसी भी लेख में उन लोगों की
स्थितियों, चिंताओं से आंखें मूंदकर गौशाला की चिंता पुनर्विचार की मांग तो करती
ही है। विद्यापति
की लिखनावाली ऐसी दयनीय जिंदगियों की दास्तान है। राष्ट्रीय आंदोलन
के समय गोरक्षा एक राजनीतिक एजेंडा भी था, जैसे आजकल भी यह एजेंडा जोरों पर
है। 'जीवदया और
गोपालन' पत्रिका के
संपादक बाबू धर्मलाल सिंह की 'नई खोज' यह बताती है कि
देश (मिथिला) के पतन और गरीबी का कारण व्यापक पैमाने पर गोवध है। वे लिखते
हैं,
"इस बेशुमार वध के कारण मिथिला की भूमि की उर्वरा शक्ति घटती
जाती है। उपज कम होती है और गरीबी अत्यंत भयंकर रूप धारण कर रही है।"[xiv]
लेखक ने यह
सोचने की जरूरत महसूस नहीं की है कि भूमि की उर्वरा शक्ति का कोई
संबंध कीटनाशक दवाओं, खाद का दुरुपयोग तथा बीज, सिंचाई आदि से भी हो
सकता है। यह भी सोचने की जरूरत महसूस नहीं की गई है गरीबी का कारण
धन के असमान वितरण, श्रमिकों का न्यूनतम पारिश्रमिक, खेत का कम होते
जाना तथा व्यवस्था की उदासी से है न कि गोवध से। यह अतार्किक
सोच और मानसिकता की
हद है। आलेख परस्पर विरोधी विचारों से भरा हुआ है। एक स्थान पर
वे लिखते हैं कि 'सर्वप्रथम बुद्ध ने गौ रक्षा का आंदोलन शुरू
किया' लेकिन दूसरे
ही पृष्ठ पर बुद्ध के द्वारा भैंस को महत्व दिए जाने और उसका दुग्ध ग्रहण करने
को गोवंश की समाप्ति का एक महत्वपूर्ण कारण बताया गया है। यह
सर्वविदित है कि गोकशी भले कोई करें किंतु वृद्ध गाय
अधिकांशत गोपालक ही बेचते हैं। लेख में गोवध के लिए गोपालकों को क्लीन चिट
देते हुए इसे 'अन्य' के मत्थे मढ़ दिया गया है। मिथिलांक के अधिकांश
लेखों का तार्किक दृष्टि, वैज्ञानिक सोच, इतिहास विवेक और वस्तुनिष्ठता
से कोई सरोकार नहीं है। 'मैथिल कवियों के कुछ संस्कृत पद' के रचनाकार के
अनुसार 'कवि होना
ईश्वरीय वरदान है' तो 'रामायणकारों की दृष्टि में मिथिला' के लेखक
व्याकरणाचार्य 'विशारद यदुनाथोपाध्याय के अनुसार 'रामायणों की संख्या 1-2 नहीं किंतु
करोड़ों की है।' इन लेखों में टाइम, स्पेस और
संख्या आदि की न्यूनतम समझ की भी कमी दिखती है। जिस प्रकार आम आदमी 100 लोगों की
भीड़ को भी लाखों की भीड़ कह जाता है, उसी तरह इस लेख में करोड़
की संख्या पर विचार किए बगैर रामायण की संख्या करोड़ तक कह दी गई है।
एक अच्छी
पत्रिका जिस तरह अपने समाज को सचेत, साकांक्ष और अग्रगामी-प्रगतिशील
बनाती है, उसी तरह एक
साधारण पत्रिका समाज
को यथास्थितिवादी और परम्परावादी बनाती है। महान जर्मन दार्शनिक और भारतीय प्राचीन
वांगयम के ज्ञाता शॅापेन हॉवर ने साहित्यिक पत्रकारिता की महत्वपूर्ण
भूमिका का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “साहित्यिक पत्रों का कर्त्तव्य
है कि वे युग की युक्तिहीन और निरर्थक रचनाओं की बाढ़ के विरुद्ध मज़बूत बाँध
का काम करें। … यों कहें कि नब्बे फीसदी रचनाओं पर निर्दयतापूर्वक प्रहार करने की
ज़रूरत है। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ तभी अपने कर्त्तव्य का पालन कर
सकेंगे।"[xv] इसी प्रसंग
में वे आगे लिखते हैं कि, “अगर एक भी ऐसा पत्र है, जो उपर्युक्त आदर्शों का पालन करता
हो, तो उसके डर के मारे
प्रत्येक अयोग्य लेखक, हरेक बौड़म कवि, प्रत्येक साहित्यिक चोर, हरेक अयोग्य
पद-लोभी, प्रत्येक
छंद दार्शनिक और हरेक मिथ्याभिमानी तुक्कड़ काँपेगा ; क्योंकि उसे
इस बात का डर रहेगा कि छपने के बाद उसकी घटिया रचना खरी आलोचना
की कसौटी पर ज़रूर कसी जाएगी और उपहासास्पद सिद्ध होगी।"[xvi] शॅापन हॉवर की यह
मान्यता है कि इससे साहित्य का बड़ा हित होगा, क्योंकि साहित्य में जो चीज़ बुरी है, वह केवल निरर्थक ही नहीं, बल्कि सचमुच
बड़ी हानिकारक भी है।
वस्तुतः युग-विशेष की साहित्यिक पत्रकारिता से ही उस
युग के साहित्यिक आंदोलनों, बहस-मुबाहिसों, साहित्यिक समस्याओं, प्रश्नों
और चुनौतियों तथा इन सबके फलस्वरूप उस युग की नई-से-नई साहित्यिक प्रवृत्तियों के उभरने, उनके क्रमश:
विकास तथा विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों के आपसी अंतर्विरोधों
और अंतर्द्वंद्वों का भी अंतरंग परिचय हम पा सकते हैं। यह युग-विशेष की
साहित्यिक पत्रकारिता ही है, जो हमारे समक्ष उस युग-विशेष का भरा-पूरा और
कलात्मक प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है। इससे हमें अपनी समकालीन समस्याओं और
चुनौतियों को समझने में मदद मिलती है तथा भविष्य को सजाने-सवांरने
में सहायता मिलती है।
जिस तरह की
साहित्यिक पत्रिका की चिंता शॉपेन हावर ने व्यक्त की है वह संपन्न
इतिहास-बोध, स्पष्ट वैज्ञानिक-दृष्टि और आलोचनात्मक-विवेक के बगैर संभव
नहीं है। मिथिलांक अगर इस तरह की अच्छी पत्रिका की कसौटी
पर खरी नहीं उतर पायी है तो इसके पीछे अधिकांश रचनाकारों का
यथास्थितिवादी संस्कार है। परंपरा के प्रति आलोचनात्मक विवेक, आधुनिक
चुनौतियों के प्रति सहज उन्मुक्तता, और चित्त की उदारता पर
ही एक अच्छी
पत्रिका की भित्ति टिकी होती है, जिसका अभाव मिथिलांक में साफ नजर आता है।
मैथिल पंडितों-विद्वानों
की इस तरह की अनेतिहासिक-दृष्टि और अतीत-राग पेशेवर इतिहासकारों की दृष्टि से ओझल नहीं रही हैं। बिहार
और मिथिला के इतिहास पर पैनी
दृष्टि रखने वाले इतिहासकार रत्नेश्वर मिश्र ने इस प्रवृत्तिगत सीमा को उद्घाटित करते हुए 2006 के अपने एक अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि, "मिथिला में
इतिहास लेखन मौलिक रूप से स्थानीय परंपराओं में पले-बढ़े पंडितों-विद्वानों के हाथों में रहा और वह
मुख्य रूप से मिथिला के गौरवमय अतीत
के गुणगान में ही संलग्न रहे। औपनिवेशिक भारत में
हुए कृषज तथा जनजातीय आंदोलनों में भी एक स्वर्णिम
अतीत के चित्रण की प्रवृत्ति होती थी किंतु तब उसे पुनर्स्थापित करने के लिए औपनिवेशिक सत्ता के साथ आभ्यांतरिक रूप से
समाज में व्याप्त कुरीतियों के विनाश
को सर्वोपरि प्राथमिकता भी दी जाती थी। मिथिला में
दोनों में से प्रायः कुछ भी नहीं किया
जा सका और परिणामतः
इतिहास की जो पुस्तकें लिखी गई वह संतचरित-सी
हो गई।"[xvii]
मिथिलांक
विशेषांक का राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति
चुप्पी का निहितार्थ समझना
कठिन है। यह ठीक है कि दरभंगा महाराज का राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति रुख बहुत स्पष्ट नहीं था। ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि वे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समय-समय पर राष्ट्रीय
आंदोलन सेनानियों की आर्थिक मदद भी
किया करते थे। मिथिला के चंपारण आंदोलन (1917) और असहयोग आंदोलन (1919) की
धमक पूरे देश में सुनाई दे रही थी। चंपारण आंदोलन के कारण गांधी समेत कई प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों का मिथिला में
आना-जाना था। दरभंगा के वकील धरणीधर
प्रसाद चंपारण आंदोलन और असहयोग आंदोलन में गांधीजी के दाहिने हाथ से। इनके प्रयास से कुल 3455 काश्तकारों का बयान दर्ज किया गया। चंपारण सत्याग्रह के अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी धरणीधर
प्रसाद पर मिथिला को गर्व होना
चाहिए। इसी तरह 1919 के असहयोग आंदोलन में मिथिला की
सक्रियता अनोखी थी। असहयोग आंदोलन पर विशेष शोध कर चुकी रश्मि झा के अनुसार, "अगस्त 1920 में
बिहार के भागलपुर में आयोजित प्रांतीय कॉन्फ्रेंस में 180 किसान प्रतिनिधियों की उपस्थिति से असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव की विजय
सुनिश्चित हुई।"[xviii] भारत के
प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा के अनुसार इस असहयोग आंदोलन के कारण मौलाना मजहरूल हक, रविंद्र प्रसाद शफी अहमद तथा ब्रजकिशोर प्रसाद एवं धरणीधर प्रसाद ने आगामी
चुनाव में अपनी उम्मीदवारी वापस
ले ली।[xix] उन्होंने अपनी आत्मकथा में यह भी लिखा है कि
असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव के अनुसार
रविंद्र प्रसाद, श्री कृष्ण सिंह, अनुग्रह
नारायण सिंह, बिपिन बिहारी वर्मा, बिंदेश्वरी प्रसाद वर्मा, गोरख
प्रसाद, दीप नारायण सिंह, तेजेश्वर सिंह, नेमधारी सिंह,
ब्रजकिशोर प्रसाद तथा धरणीधर प्रसाद
आदि ने अपनी वकालत पेशे का परित्याग कर तन मन
धन से असहयोग आंदोलन में खुद को अर्पित
कर दिया।[xx] अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी कमलेश्वरी चरण सिन्हा
ने सरस्वती अकादमी के शिक्षक
पद से अपना संबंध तोड़ लिया इन्हीं
के प्रभाव से राधिका प्रसाद ने अपनी
सरकारी नौकरी छोड़ दी,
पंडित रामनंदन मिश्र ने कॉलेज की पढ़ाई
छोड़कर काशी विद्यापीठ में नामांकन करवाया और
पूर्णता असहयोग आंदोलन में गांधीजी के
साथ खड़े हो गए। दरभंगा टावर पर अवस्थित भग्नावशेष नेशनल स्कूल मिथिला के राष्ट्रीय आंदोलन का गवाह है। असहयोग आंदोलन की उपज थे ये नेशनल स्कूल। नेपाल के प्रधानमंत्री मातृका प्रसाद कोइराला के अतिरिक्त सर्व श्री डीएन झा, गोपीबल्लभ दास, ब्रजबल्लभ
दास एवं नागेशरी श्री चरण सिन्हा इसी
नेशनल स्कूल के विद्यार्थी थे। प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा से बीसी कॉलेजिएट स्कूल, मुजफ्फरपुर तथा सरस्वती अकादमी, लहरियासराय (अब एमएलअकादमी) को नेशनल स्कूल में
परिणत किया गया। राष्ट्रीय आंदोलन
में जिस दिन दरभंगा और बिहार के नेशनल स्कूल का इतिहास लिखा जाएगा वह दिन मिथिला के लिए वास्तव में अत्यंत
गौरवशाली दिन होगा। इन दोनों आंदोलनों
की सक्रियता मिथिला को गौरवशाली बनाती हैं। लेकिन
पत्रिका मिथिला के इस गौरव-गाथा को दर्ज करने में सायास-अनायास
चूक गई ।
मिथिलांक मिथिला के धवल-देदीप्यमान अतीत को ही अपने
परिप्रेक्ष्य में रख पाया है। कोशिश
यह की गई है इस गौरवशाली अतीत की चमक और कौंध से मिथिला के 'काले' अतीत
पर अभेद्य आवरण चढ़ जाए। यह वैसा ही प्रयास है जैसे किसी विदेशी राज्याध्यक्ष के आने पर सरकार अपने देश में
काली स्याह झुग्गी झोपड़ियों के चारों
तरफ अस्थाई घेराबंदी कर देती है। लेकिन इतिहास अत्यंत निर्मम और बेरहम होता है। वह इस 'प्रथम टेक्स्ट' के बरअक्स 'सेकंड टेक्स्ट' को भी खोज ही लेता है। जब हम मिथिला के इस ‘सेकंड टेक्स्ट’ की छानबीन करते हैं तभी हमें प्राचीन मिथिला में शूद्रों
की जहालत, स्त्रियों की अंतहीन दासता, बेशुमार दारिद्र्य, राजशाही
दमन.
बहुविवाह की विसंगति जैसे काले-स्याह
अतीत पर से पर्दा उठता है।
मिथिलांक की कोशिश तभी ईमानदार मानी जाती जब इस ‘सेकंड टेक्स्ट’ पर भी अपना पक्ष
स्पष्ट करती। विद्यापति की लिखनावली
तथा अन्य स्रोतों के हवाले इतिहासकार राधाकृष्ण
चौधरी इन द एज ऑफ विद्यापति नामक
इतिहास पुस्तक में लिखते हैं, "शूद्रों और दासों की स्थिति इतनी दयनीय थी कि
पशुओं के समान उनकी बिक्री
होती थी और उसके शरीर का हर तरह से उपयोग किया जाता था।"[xxi] स्थिति की
भयावहता का अंदाजा
इसी से लगाया जा सकता है कि शूद्र अपने
शरीर को बंधक रखकर कर्ज लेते थे। बंजर
भूमि को जोतने के लिए शूद्रों को ही भेजा जाता था किंतु जमीन जब उपज के लायक हो जाती थी तब जोतने वाले शूद्रों को
हटा दिया जाता था।[xxii]
उस समय गुलाम स्त्रियों की भी खरीद बिक्री होती थी। गुलाम स्त्री के प्रश्न को लेकर मिथिला में एक टाइटिल सूट लड़ा गया था, जिसका
फैसला अब भी संस्कृत में उपलब्ध है।[xxiii]
विद्यापति यूं ही नहीं कहते हैं 'स्त्रीक चरित्र अइसन दारुण' या ‘स्त्री भए जनमे जनु कोई'।
14वीं
शताब्दी के अप्रतिम राजनीतिवेत्ता और राजनीति रत्नाकर जैसे दुर्लभ पुस्तक
के रचयिता चंडेश्वर को भी मिथिलांक ने कदाचित ‘सेकंड टेक्स्ट’ का प्रतिनिधि मानकर उन पर विचार करना आवश्यक नहीं समझा। क्योंकि चंडेश्वर राजनीति में जाति को महत्व नहीं दिया करते। उनके अनुसार ब्राह्मण कृषि कर्म भी कर
सकते थे।... इनके अनुसार एक अच्छे शूद्र के यहां जमीन, गाय इत्यादि प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण भोजन ग्रहण कर सकते थे... शूद्र ब्राह्मणों को भोजन
बनाने के लिए चावल भी दिया करते
थे। इस कटु सत्य का साक्षात्कार चंडेश्वर के विद्वत समूह से निष्कासन के लिए पर्याप्त है। चण्डेश्वर ने अपने समय में
ऐसी क्रांतिकारी स्थापना की थी
जो उस समय के भारत में शायद ही किसी ने दी हो। उन्होंने कहा राजा उसी को
होना चाहिए जो प्रजा की रक्षा करें, चाहे
वह किसी भी जाति का हो। धर्मशास्त्र
के अप्रतिम विद्वान पी वी काणे ने चंडेश्वर की अद्भुत प्रतिभा को लक्षित करते हुए हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र में लिखा है "चंडेश्वर ठाकुर अपने समय के प्रख्यात विद्वान राजपुरुष (स्टेट्समैन) थे। मिथिला और बंगाल के क्षेत्र में चंडेश्वर के किए गए विचार और
व्यवस्था का व्यापक प्रभाव पड़ा।"[xxiv] मिथिला के
आधुनिक विद्वान हेतुकर झा भी चण्डेश्व की प्रतिभा के कायल हैं| विद्यापति के
युग का संकट नामक निबंध में वे लिखते
हैं, “चंद्रेश्वर ने 14वीं शताब्दी में
राजशाही संस्था में धर्म और धार्मिक समूहों की भूमिका से इनकार किया था| इस तरह से
उन्होंने धर्मनिरपेक्ष पद्धति को सही ठहराया था|[xxv]
प्राचीनकाल में ब्राह्मण अबध्य थे| किसी भी तरह
के अपराध की सजा उनके लिए नहीं थी| चण्डेश्वर ने इस व्यवस्था को बदलने की कोशिश
की| आशुतोष दयाल माथुर ने मीडिएवल हिंदू लॉ नामक पुस्तक में प्राचीन मैथिल
राजनीतिक सिद्धांतकार चंडेश्वर के विवाद रत्नाकर की तारीफ़ करते हुए लिखा है कि “चेन्डेश्वर के अनुसार केवल वही ब्राह्मण अवध्य है जो वेद-वेदांग, न्याय-इतिहास, पुराण में पारंगत हो, शास्त्र अनुकूल आचरण करता हो, सत्कर्म पालन करता हो, ऐसा ब्राह्मण भी तभी अवध्य है जब अपराध उससे गलती में हो गया हो, सोच विचार कर अपराध करने वाला ऐसा विद्वान, आचार्य
ब्राह्मण भी चंडेश्वर के अनुसार ना तो अवध्य है न उसे शारीरिक दंड से किसी छूट का
अधिकार है।"[xxvi] मिथिला के लिए गौरवशाली
विद्वान, राजनीतिक चिंतक चंडेश्वर के प्रति
मिथिलांक की उदासीनता विचारणीय
है।
मिथिला की लोकगाथाएं अतीत की अत्यंत गौरवशाली परंपराएं रहीं हैं। इस गरिमामय परंपरा पर मिथिलांक की निस्तब्ध खामोशी सर्वाधिक प्रश्नांकित करती है।
राजा सलहेश, दुलरा दयाल दीना-भद्री, लोरिकायन आदि अधिकांश लोकगाथाओं के नायक शूद्र और निम्न वर्ग
के हैं। स्वभावतः ये भी 'दूसरे टेक्स्ट' ही हैं।
लेकिन जब मिथिलांक की चिंता दूसरे टेक्स्ट की है ही नहीं तो फिर वह मिथिला के इस समानांतर और
ऊर्जस्वित इतिहास पर ध्यान क्यों और कैसे देती? लोकगाथाओं को मौखिक मानकर इसे ‘पहला टेक्स्ट’
इतिहास मानने से इनकार करता है। लेकिन ध्यान
देने की बात यह है कि वेद से लेकर रामायण
तक पूर्व में मौखिक परंपरा में ही थे। आदिकालीन हिंदी-मैथिली साहित्य कन्याहरण करने वाले राजाओं के शौर्य से
लकदक है लेकिन आमजन को शोषकों के चंगुल से छुड़ाने, पशुओं को मुक्त करने, स्त्री को मात्र घर की शोभा सजावट और स्थूल सौंदर्य का पर्याय नहीं मानने वाले इन शूद्र लोकनायकों के लिए विद्वानों की वाणी अवरुद्ध हो
जाती है। ये लोकगाथाएं नितांत काल्पनिक नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि
इन लोक गाथाओं में भी समय-समय
पर अतिशयोक्ति और चमत्कार की गुंजाइश बनती
गई है लेकिन कई गंभीर इतिहासकारों
ने इनके ऐतिहासिक साक्ष्यों की तलाश की है। के पी जायसवाल इंट्रोडक्शन : राजनीति रत्नाकर ऑफ़ चण्डेश्वर
में लिखते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि चंडेश्वर की इस व्यवस्था (राजा के लिए उच्च
वर्ण का ना होना) के चलते बहुत
सी जातियों (जिन्हें हम अभी निम्न या दलित वर्गों के मानते हैं) के लोग भी अलग-अलग इलाकों में राजा या चीफ
(प्रधान) बने, अपने शासन चलाये।[xxvii] समाजशास्त्री हेतुकर झा 1882 में प्रकाशित आईना-ए-तिरहुत के लेखक बिहारीलाल 'फितरत' द्वारा किये गए एक फील्ड सर्वे के हवाले निम्नलिखित गढ़ों के अवशेषों का जिक्र करते हैं। मधुबनी जिला में परगना हाटी और परगना
जरैल में राजा कठेश्वरी के गढ़ों के अवशेष, राजा गंध की
गढ़ी का अवशेष हाटी में, राजा भर की गढ़ी का अवशेष परखनी में एवं परगना हावी में दुसाध राजा के गढ़ का खंडहर।[xxviii] 1933 ईसवी में 'भागलपुर दर्पण' में लेखक झारखंडी झा अपने फील्ड सर्वे के दौरान प्राप्त सूचनाओं के आधार पर इस जिले में गंगा
पार के उत्तर खासकर खतौरी केवर्त
और भर राजाओं/ प्रधानों के दुर्गों, महलों
और मंदिरों के अवशेषों का जिक्र
करते हैं। और मौखिक परंपराओं की चर्चा करते हैं जिसके अनुसार खतौरी राजाओं से पहले दक्षिण भागलपुर में नट और दुसाध
राजाओं का शासन था।[xxix] मिथिला
विशेषांक द्वारा एक तरफ पंडित परंपरा की आवृत्ति दर आवृत्ति और दूसरी तरफ इतने महत्वपूर्ण इतिहास
की चूड़ान्त उपेक्षा उसकी श्रेष्ठता
को संदिग्ध बनाती है।
मिथिलांक में निश्चित रूप से कुछ आलेख उत्कृष्ट हैं और इसके
लिए संपादक सुरेंद्र झा
सुमन की तारीफ की जानी चाहिए। इन आलेखों में सुनिश्चित इतिहास-दृष्टि और विज्ञान-बोध के दर्शन होते हैं। भाषाविद सुनीति
कुमार चटर्जी ने 'मैथिली भाषा और संस्कृति' में भारतीय भाषाओं और राष्ट्रीयता के
परिप्रेक्ष्य में
मैथिली के महत्व का रेखांकन किया है।
उनकी स्पष्ट धारणा है कि भारतीय संस्कृति
तभी स्वस्थ और समावेशी बन सकती है जब हिंदी के साथ सभी प्रांतीय भाषाओं का भी समुन्नत विकास हो। भोला लाल दास
जी ने अपने आलेख 'मैथिली की उत्पत्ति और विकास' में सार्थक ढंग से मैथिली के उद्भव और विकास को
लक्षित किया है। राहुल सांकृत्यायन ने 'बौद्ध नैयायिक विद्वानों' का संश्लिष्ट परिचय दिया है। उन्होंने खुले दिल से इस तथ्य
को स्वीकार किया है कि
"यद्यपि नव्य
न्याय के विकास में नवद्वीप (बंगाल) का भी हाथ है, तो भी हम निःसंकोच
कह सकते हैं कि वाचस्पति मिश्र (841 ईसवी)
के बाद से मिथिला (देश के
अर्थ में) न्यायशास्त्र (प्राचीन और नव्य दोनों ही) का केंद्र बन जाती है और हर एक काल में भारत के श्रेष्ठ नैयायिक
बनने का सौभाग्य किसी मैथिल को
ही मिलती है।[xxx] कहने की
आवश्यकता नहीं कि राहुल सांकृत्यायन
ने कई बौद्ध दर्शन के ग्रंथों का कायाकल्प किया। उन्हीं के सत्प्रयास से कई प्राचीन पांडुलिपियों
/पुस्तकों से हमारा साक्षात्कार संभव हो
पाया। उक्त आलेख में उद्भट बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन, विलक्षण प्रतिभा के धनी वसुबंधु (480 ई.)
मध्यकालीन भारतीय तर्कशास्त्र के जनक कहे जाने वाले दिंगनांग (425 ई.)
तथा अद्वितीय दार्शनिक धर्मकीर्ति (625ई.)
की रचनाओं के वैशिष्ट्य को रेखांकित किया
गया है। श्री बलदेव जी का आलेख 'वररुचि
और हलायुध मैथिल थे?'
संक्षिप्त किंतु गंभीर शोध आलेख है। इस
आलेख में उन्होंने अत्यंत तार्किक दृष्टि से
प्रमाणित किया है कि सभी शास्त्रों के
विशारद वररुचि और दुर्लभ कोशकर हलायुध मिथिला के निवासी थे। अतिशयोक्ति पूर्ण कथनों के बावजूद श्री नरेंद्र नाथ दास जी
का 'कविराज गोविंद दास झा' विद्वतापूर्ण आलेख है। इस आलेख में उन्होंने
गोविंद दास की रचनाओं की विलक्षणता, समुधुरता और अनुप्रास के अद्भुत चमत्कार को अकादमिक ढंग से उद्घाटित किया है। '17 वीं 18 वीं
शताब्दी के मैथिली नाटक'
निबंध में कुमार गंगानंद सिंह जी ने काशीनाथ कृत्य 'विद्या विलास' कृष्णदेव कृत
'महाभारत' और धनपति कृत 'माधवानलकामकंदला' को
मैथिली नाटक सिद्ध किया है
विभिन्न तर्कों और भाषा वैज्ञानिक
दृष्टि से इन नाटकों का अध्ययन कर यह शोध कार्य किया गया है। माधवानलकामकंदला
सूफी मत से प्रभावित विलक्षण नाटक है।
इसी नाम से मध्यकालीन कवि आलम ने भी महाकाव्य की रचना की है, जिसकी गिनती देशज प्रेमाख्यान काव्य में की जाती है। इन ग्रंथों पर मैथिली शोधार्थियों को विस्तार से काम करना चाहिए।
रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने
'विद्यापति और
हमारा कर्तव्य' में ऐसे कुछ ठोस कार्य योजनाओं की ओर
संकेत किया है जिससे विद्यापति और उनके
साहित्य की विगत सार्थकता और वर्तमान अर्थवत्ता की प्रतिष्ठा हो सके।
पूरे अंक में आलोचनात्मक विवेक से संपन्न रोचक व्यंग्य है-'गोनू झा की नोसदानी'। इसमें लेखक का नाम अंकित नहीं है। कदाचित यह 'मिथिला
मिहिर' का स्थाई स्तंभ रहा हो। इस आलेखमें
गोनू झा ने मैथिल ब्राह्मणों की वास्तविकता
उद्घाटित कर दी है। व्यंग्य विधा की एक सीमा यह बना दी गई है कि इसे लोग गंभीरता से नहीं लेते। हरिमोहन झा
के अचूक व्यंग्य और इस व्यंग्यजनित पीड़ा को सायास 'हास्य सम्राट'
में रिड्यूस कर दिया जाता है। आम मैथिल ब्राह्मणों की कई
स्वभावगत लक्षणों को लेखक ने अत्यंत
संक्षेप में बेहतरीन सर्जनात्मक भाषा के साथ प्रस्तुत कर दिया है, "हम तो ब्राह्मण ठहरे। हम या हमारे बच्चे पढ़ें
या ना पढ़ें, रात को भैंसों से लोगों के खेत भी चरा लें, दो को लड़ाकर कुछ कमाने की कोशिश करें अथवा सौराठ सभा में अपने बच्चे को ही बेच दें परंतु
दानदक्षिणा के अवसर पर 'नमो ब्रह्मणाय' किया हुआ द्रव्य हमारा ही होगा, क्योंकि
हम लोग 'जन्मजात ब्राह्मण' हैं, नवीन ब्राह्मण पंडित हैं। छत्तीस वर्णों के बिना ताज के राजा हैं और दूसरों को मारते व गालियां देते
हुए भी हम नमस्य हैं। और नहीं तो
मांग खाना हमारा कहीं नहीं गया। तब बताइए हम लोगों को आपके मिथिलांक से क्या?"[xxxi]
मिथिलांक की कविताएं अत्यंत सामान्य और महिमामंडन वाली दृष्टि से ही लिखी गई हैं।
हिंदी में उस समय (1920
1940) द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता के बरक्स सूक्ष्म-सांकेतिक
लाक्षणिक भाषा की छायावादी कविताओं का दौर चल रहा था। लेकिन संकलन में इतिवृत्तात्मक तुकांत कविताएं ही संकलित हैं। सुरेंद्र झा
सुमन की कहानी 'झोपड़ी' यद्यपि रोचक
है किंतु वहां भी संयोगजनित भाग्यवाद को ही स्थापित किया गया है।
एक अच्छी पत्रिका अपने समय से होड़ लेती
है- 'काल, तुझसे होड़ है मेरी' (शमशेर
बहादुर सिंह)। अपने समय और समाज के सुलगते सवालों से कन्नी काटकर, भविष्य के संभाव्य जिज्ञासाओं से बचकर और अतीत
के प्रति मात्र श्रद्धा और आस्था
का भावरख कर कोई पत्रिका सही अर्थों में अपना दायित्व पूरा नहीं कर सकती। एक जिम्मेदार पत्रिका सामाजिक संरचनाओं
में अनुस्यूत अंतर्विरोधों,
अन्तर्द्वंदों, असहमतियों, खरोचों और हाहाकारों को पढ़ने-सुनने का प्रयास करती है। बहुस्वरता और बहुवचनात्मकता एक
गुणवत्तापूर्ण पत्रिका की पहचान होती है|
भारती मंडन (सितंबर, 2023) में प्रकाशित
सन्दर्भ-सूची
[i]
भारती मंडान, पृष्ठ 11, 2021
[ii] मिथिलांक, संपादकीय, पृष्ठ 191
[iii] 'आदिकाल की मिथिला'-श्री अच्युतानंद दत्त, मिथिलांक,
पृष्ठ-36
[iv] आलोचना, अक्टूबर-दिसंबर 1986, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 134
[v] मिथिलांक, पृष्ठ 139
[vi] मिथिलांक, पृष्ठ 151
[vii]
आईना-ए-तिरहुत, बिहारीलाल 'फितरत', महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन, दरभंगा -2001,
हिंदी भाग, पृष्ठ-18
[viii] रियाज-ए-तिरहुत, अयोध्या प्रसाद 'बहार', महाराजाधिराज
कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन, दरभंगा-1997, पृष्ठ 55
[ix] वही पृष्ठ 55
[x] वही,पृष्ठ 54
[xi] मिथिलांक, पृष्ठ 116
[xii] संदेश रासक, संपादक-हजारी प्रसाद
द्विवेदी, राजकमल
प्रकाशन,1975, पृष्ठ-146
[xiii] वही, पृष्ठ-146
[xiv] मिथिलांक, पृष्ठ 102
[xv]
हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता, श्याम कश्यप , www.newsprint.in
[xvi] वही
[xvii] इतिहास सत्य और संदर्भ आधुनिक मिथिला का इतिहास
लेखन : दशा और दिशा- रत्नेश्वर मिश्र, पुस्तक-इतिहास तथ्य और संदर्भ, संपादक अवनींद्र कुमार झा, पंकज कुमार झा, शंकरदेव झा, शशि प्रकाशन, 2020,पृष्ठ 458
[xviii] मिथिला
में असहयोग आंदोलन-रश्मि झा, पुस्तक इतिहास तथ्य और संदर्भ, पृष्ठ
378
[xix] आत्मकथा-राजेन्द्र
प्रसाद, साहित्य संसार, पटना, पृष्ठ-27
[xx] आत्मकथा
राजेंद्र प्रसाद साहित्य संसार पटना 1940 पृष्ठ 27
[xxi] विद्यापति
आ मिथिलाक इतिहास- राधाकृष्ण चौधरी,
विद्यापति चेतना, संपादक-रामानंद
झा रमण, चेतना समिति पटना 201, पृष्ठ 26
[xxii] विद्यापति युग
का सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन-राधाकृष्ण चौधरी,
विद्यापति अनुशीलन एवं मूल्यांकन, प्रथम
खंड, संपादक- विरेंद्र श्रीवास्तव' बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, पटना-
2011, पृष्ठ 10
[xxiii] वही
पृष्ठ 111
[xxiv] हिस्ट्री
ऑफ धर्मशास्त्र- पी वी काणे, वॉल्यूम 1,
पार्ट- 2, पुणे भंडारकर
ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट,1966, पृष्ठ 775
[xxv] विद्यापति, श्रृंखला सपादक-अजय तिवारी, संपादक-डॉ
सूर्यनारायण, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली-2020, पृष्ठ-66
[xxvi]
मीडिएवल हिन्दू लॉ :
हिस्टोरिकल इवोल्यूशन एंड एनलाइटेंड रिबेलियन, पृष्ठ 14
[xxvii] इंट्रोडक्शन
: राजनीति रत्नाकर ऑफ़ चण्डेश्वर-के पी जायसवाल, द बिहार एंड ओड़ीसा रिसर्च सोसाइटी,
: 28, उद्धृत-इतिहास तथ्य और संदर्भ, पृष्ठ-256
[xxviii] 14वीं-15वीं
सदी और उसके बाद मिथिला की सामाजिक स्थिति-हेतुकर झा, विद्यापति चेतना, संपादक-रामानंद झा रमण, चेतना
समिति पटना 201, पृष्ठ-256
[xxix] झारखंडी विरचित
भागलपुर दर्पण, संपादक- पंचानंद मिश्र और अजय कुमार झा, कामेश्वर सिंह
बिहार हेरिटेज-5, महाराजा कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन, दरभंगा, पृष्ठ
-136-37
[xxx] मिथिलांक, पृष्ठ
12
[xxxi] मिथिलांक
पृष्ठ 166
विद्वतापूर्ण समीक्षा
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत ही उत्तम आलोचना 👍
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteइस शोधसम्मत आलेख के लिए बधाइयाँ।
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