विद्यापति : परबस जनु हो हमर पिआर

 

                 

     कुल गुन गौरव सील सोभाओ |

    सबे लए चढ़लिहुँ तोहरहि नाओ ||

     (कुल का गुण-गौरव और अपना शील-स्वभाव सब लेकर तुम्हारा संग-साथ कर लिया है)

विद्यापति की पदावली में श्रृंगार और उससे भी बढ़कर 'अश्लीलतातो रेखांकित हुई किंतु प्रेम के बेहद्दी मैदान में स्त्रियों का अपार साहस रेखांकित नहीं हुआ। जिस प्रकार मीरा राणा की राजसत्ता और सिसोदिया कुल की मर्यादा यानी कुल-कानि को धता बताकर कृष्ण के प्रेम में मतवाली होकर घर से निकल जाने का साहस दिखलाती है, उसी प्रकार विद्यापति की नायिका ने आज अपने प्रेमी को वचन दिया है। आज उसने अपने प्रेमी से मिलने का ठान लिया है। आज उसे न घर का डर है न गुरुजन का।  आत्मविश्वास से भरी हुई वह कहती है- हे सखी! आज मैं अवश्य जाऊँगी। घर के गुरुजनों (माँ-पिता आदि) का भय नहीं मानूँगी। अपने वचन से नहीं चूकूँगी। स्वच्छ वस्त्र से अपना शरीर ढक लूँगी और धीरे-धीरे प्रियतम के पास जाऊँगी। यद्यपि समूचे आकाश में हजार के हजार चंद्रमा उग  जाएँ,   मेरा जाना स्थगित नहीं हो सकता। ना मैं किसी की दृष्टि का निवारण करूँगी न किसी से ओट करूँगी|   चोरी-चोरी प्रेम करना प्रेम की निम्नता है| अर्थात जिसका प्रेम ऊँचा है वह छुपकर प्रेम नहीं करती/करता है। विद्यापति कहते हैं, अरी  युवती! साहस से ही कार्य सिद्ध होते हैं-

       सखि हे,

       आज   जायब    मोहीं |  

         घर गुरुजन डर न मानब  

          वचन  चूकब     नहीं ...

           धवल  वसनें तनु झपाओब

             गमन          करब         मंदा।

             जअओ सगर गगन उगत

              सहसें  सहसें   चंदा ||

                           न हमें काहुक डीठि  निबारबि

                                   हमँ करब ओते।

                      अधिक चोरि  पर सओं  करिअ

                                      इहे सिनेहक लोते|

                            भने विद्यापति सुनह जुवति

                              साहसें सकल  काजे|[i]

सामंती समाज में प्रेम पर लगी पाबंदी के बरक्स विद्यापति की इस नायिका का साहस देखते ही बनता है। 14-15वीं शताब्दी में प्रेम की परवशता  के खिलाफ हैं-विद्यापत|  वयस्क  प्रेम दूसरे की इच्छा-अनिच्छा  पर निर्भर न हो। विद्यापति ऐसे समाज का यूटोपिया खड़ा करते हैं जिस समाज में प्रेम पर बंदिशें न हो। विद्यापति की नायिका ऐसा प्रेमी चाहती है जो दूसरों के वश में न हो। और अगर किसी कारण से परवश भी हो तो विचारवान हो, कारण विचारवान पति की पत्नी को पराजय नहीं झेलना पड़ती-

                मिलिह सामि नागर रसधार|

                परबस जनु  होअ  हमर पियार||

                होइह परबस बुझिह विचारि|

            पाए  विचार हार  कओन  नारि||[ii]  

एक दूसरी पदावली में विद्यापति की नायिका तो दिन में ही नायक से मिलने का साहस जुटाती है| विद्यापति दरबार में थे, किंतु उनकी कविता दरबारी नहीं है। आलोचना में सामान्यीकरण कितना खतरनाक होता है इसे हम रामविलास शर्मा के इस वक्तव्य से समझ सकते हैं,  “नारी उपभोग की वस्तु थी, उससे प्रेम याचना करने वालों की कमी न थी|  लेकिन उसे भी अपनी रूचि के अनुसार प्रेम करने का अधिकार है, यह बात दरबारी कवियों की समझ से परे थी|  नारी के इस दबे  हुए व्यक्तित्व को सूर और मीरा ने वाणी दी,  उसकी निर्भीकता लगन  और प्रेम के लिए त्याग और बलिदान को उन्होंने वाणी दी|[iii]   ‘दरबारी कवि’ विद्यापति की पदावली का अवलोकन करे, जिसमें नायिका अदम्य साहस और निर्भीकता का परिचय देते हुए कहती है गुरुजन, दुरजन, परिजन को छोड़ दिया| अपनी ‘हीनता’ के कारण  कुल को गाली दी जाएगी, इसकी चिंता भी नहीं की| प्राण  के फूल से प्रेम की पूजा की है, उस प्रेम को तुम कैसे भूल गए! तुम्हारा स्नेह किस प्रकार छलक गया-

             गुरुजन   दुरजन    परिजन    बारि

                  गुनल   लाघब कुल के    गारि|

             जीव  कुसुम कए    पूजल      नेह

            भरि   डभकल अबे  तोहर सिनेह|[iv]


विद्यापति की राधा का प्रेम साहसिक प्रेम है| यह निर्भीक और निर्द्वंद्व है|  वह न तो शास्त्र की रूढ़ि मानती  है न समाज की बंदिशें, न गुरुजन-परिजनों का भय|  विद्यापति का प्रेम विधि-निषेध से मुक्त मानवीय आकांक्षाओं का मूर्त रूप है| मीरा और सूरदास से पहले विद्यापति की कविता में स्त्री की रूचि और उसके साहस को विलक्षण ढंग से रेखांकित किया गया है। ध्यान देने की बात यह है कि उक्त पदावली में नायिका के लिए गुरुजन और दुर्जन एक समान हैं  क्योंकि गुरुजन यानी माता-पिता-भाई उसके प्रेम के आगे दीवार खड़ी करना चाहते हैं तो दुर्जन को भी यह प्रेम रास नहीं आता। विद्यापति नायिका को साहस दिलाते हुए कहते हैं कि बगैर साहस के आशा पूरी नहीं हो सकती|-

           गुरुजन  दुरजन  डर  कर दूर

           बिनु    साहसें   आसा  नहि पूर|

           एहि    संसार   सार  बथु    सेह

        तिला एक मेलि   जाब जिव नेह||[v]  

विद्यापति की नायिका का अपार साहस तथा प्रेम के विविध स्वरूप का महत्व रेखांकित करते हुए विद्यापति साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डॉ शिवप्रसाद सिंह लिखते हैं, “प्रेम के विषय में विद्यापति की धारणाएं इतनी ऊँची हैं,  वे उसे इतनी महत् वस्तु मानते हैं कि उसे केवल मांसल इंद्रिय तृप्ति का साधन समझ ही नहीं सकते|  मैं यह नहीं कहता कि विद्यापति प्लेटॉनिक प्रेम के पक्षपाती थे, बिल्कुल नहीं|  वे  आंगिक मिलन के सुख की भी कम अभ्यर्थना नहीं करते। किंतु यह सब शरीर व्यापार है, प्रेम यहीं तक सीमित नहीं है| विद्यापति कहते हैं कि प्रेम तो फूल का पौधा है| इस फूल को गोपाल ले आए और फुलवारी में लगा दिया। प्रेम-पूर्ण वार्ता के जल से निरंतर यह सींचा गया| शील और मर्यादा के घेरे बांधकर इसकी रक्षा की गई, फूल का नन्हा पौधा प्राण के खंभे पर अवलंबित रहा। और एक दिन इसमें अभिनव प्रेम का पुष्प फूला|  जो अमूल्य था,  लाखों स्वर्ण मुद्राएं इसके सामने कुछ नहीं थी|  यह अत्यंत सुंदर पुष्प और भी विकसित हुआ तब दो जीव जो अलग-अलग थे सदा के लिए एक हो गए। इस फूल को सदा निंदा और असूया के कीड़ों से बचाया गया, साहस ने इसको फल दिया-

             फूल एक फुलवारी लाओल  मुरारि

              जतने पटाओल सुवचन वारि...

             पिसुन कीट    नहि  लागल  ताहि

         साहस  फल देल  विहि  निरवाहि[vi]   

विद्यापति जब प्रेम की बात करते हैं तो वह असाधारण प्रेम की बात करते हैं। वैसे भी प्रेम साधारण होता ही नहीं। प्रेम में देह  क्या और मन क्या?  प्रेम तो किसी प्रकार की सीमा रेखा मानता ही नहीं। लेकिन विस्मरण प्रेम का दुश्मन है| विद्यापति कहते हैं कि प्रिय का विश्वमरण मरण से भी बढ़कर होता है -

‘पिय बिसरन मरनहुँ तह आगर’|  विद्यापति के प्रेम में जहाँ  एक ओर तल्लीनता और प्रतीक्षा की पराकाष्ठा है वहीं दूसरी ओर नायिका का अपना स्वाभिमान भी। एक पद में विद्यापति की नायिका कहती है कि तुम्हारा अनुराग लिए सारी रात जग कर पेड़ के नीचे भींगती रही| अंततः वह कस्तूरी कुमकुम आदि से किए  प्रसाधन को मिटाकर केले के पूरे पत्ते पर अपना नाम लिख गई। आगे वह कहती है आग  में पैठकर मर जाना अच्छा है, पर वह काम नहीं करना चाहिए जिससे खुद का उपहास हो, इससे अच्छा आग में पैठ कर मर जाना

    तुअ अनुराग लागि सअल रअनि जागि

                  तरु तरं तीन्तलि रामा रे  

          अलक  तिलक मेटि केआदल भरि

                 लिहि गेल अपनुक नामा रे ||...

                 से  न करिअ जे पर उपहासए

               धाए  मरिअ   बरू    आगी ||[vii]

विद्यापति की नायिका यह कहने पर विवश होती है कि पृथ्वी पर ऐसे बहुत कम लोग (पुरुष) हैं जिसे स्त्री अपना दुख बता सके- ‘अपन वेदन जाहि निवेदओ, तैसन मेदनी थोल’|  पृथ्वी पर बहुत कम लोग हैं जो प्रेम का मूल्य और महत्व समझ पाते है|  विशेषकर स्त्री प्रेम को समझना और उसका सम्मान पितृसत्तात्मक समाज में अत्यंत दुष्कर है|

सामंती समाज स्त्री-प्रेम पर कठोर पाबंदी लगाकर स्त्री को अपने वश में रखना चाहता है|  शुचिता, पवित्रता आदि  की प्रदत्त अवधारणा पितृसत्तात्मक सामंती समाज की पहचान है| विद्यापति की प्रेम-दृष्टि सामंती समाज की इस अवधारणा को एक सिरे से खारिज कर देती है| विद्यापति की नायिका कहती है कि समूची दुनिया में प्रेम के समान दूसरा कुछ नहीं| प्रेम की तुलना अगर किसी से हो सकती है तो वह  प्राण ही है- ‘प्रीतिक सम हे  दोसर नहि  आन,  जाहि  तुलना दिअ  अपन परान|’[viii]

प्रेम को सर्वोपरि मानना सामाजिक सत्ता का बहिष्कार है| बकौल आलोचक मैनेजर पाण्डेय,  “प्रेम स्वभाव से ही सत्ता विरोधी और स्वतंत्र होता है। वह अपने प्रिय को छोड़कर किसी और की सत्ता  स्वीकार नहीं करता। सत्ता से प्रेम के संघर्ष की कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी प्रेम की कविता की परंपरा। यह आवश्यक नहीं कि प्रेम की कविता में विरोधी सत्ता हमेशा सामने हो | वह कहीं अप्रत्यक्ष होती है और कहीं प्रत्यक्ष।[ix]  प्रेम ही विद्यापति की नायिका के सामाजिक संघर्ष का साधन है और साध्य भी। कबीर जब कहते हैं कि प्रेम का घर कोई खाला का घर नहीं है तब विद्यापति की इन पंक्तियों का महत्व हम समझ सकते हैं-‘प्रीतिक सम है दोसर  नहि  आन’ | विद्यापति  की नायिका प्रेम के  कठिनतम  डगर से भलीभांति वाकिफ है। अगर एक बार कोई सही अर्थ में प्रेम में पड़ जाए तो फिर वह अपना सारा अस्तित्व दूसरे के हवाले कर देता/देती है। इसलिए नायिका कहती है कि प्रेम का परिणाम बहुत बुरा होता है| खुद से खुद का जीवन दूसरे के अधीन कर देना होता है-

            सखि  हे!    मन्द पेम       परिनामा|

                बड़  कए जीवन  कएल पराधिन

                नहि   उपचर    एकठामा||[x]

कठिनाई यह है कि इस प्रेम रूपी बीमारी का कोई उपचार भी नहीं है। प्रेम की वजह से संसार भर की उपेक्षा झेलनी पड़ती है,  संसार में इसे कौन नहीं जानता है?

              पेमक कारन  जीउ   उपेखिअ|

          जग   जन    के नहि       जाने ||[xi] 

प्रेम करने के कारण सामंती समाज से मिलने वाले कठोर दंड से भी विद्यापति की नायिका भलीभांति परिचित है। वह एक सामाजिक विडंबना की ओर संकेत करते हुए कहती है कि प्रेम की विलक्षणता   की तारीफ तो सभी करते हैं किंतु प्रेम करने वाली स्त्री को लोग पसंद नहीं करते हैं। यहाँ  तक कि लोग उसे  ‘छिनाल’,  कुलटा  न जाने क्या-क्या कह जाते हैं-

प्रेमक गुन कहइ सब कोइ

जे प्रेमे कुलवति  कुलटा होइ|[xii]

 विद्यापति यहाँ  प्रेम के संबंध में एक कठोर सचाई का उद्घाटन करते हैं|  उदाहरण के लिए लोग मुग़ल-ए-आज़म, एक दूजे के लिए जैसी प्रेमपरक  फिल्में देखना पसंद करते हैं, धर्मवीरभारती का ‘गुनाहों का देवता’ जैसा उपन्यास पढ़ना पसंद करते हैं, लेकिन घर की कोई लड़की या लड़का अपनी मर्जी से प्रेम करने लगे तो वह ना-काबिले-बर्दाश्त| विद्यापति के लिए प्रेम दुनिया की  दुर्लभतम भाव है| इसकी दुर्लभता यह है कि प्रेम कभी पुराना नहीं होता। प्रेम कितना ही पुराना क्यों न हो उसका एक-एक क्षण, एक-एक आवेग,  पूर्व के क्षण, आवेग अन्य  भाव से नया होता है| वह पल-पल नूतन होता चलता है| पुनर्नवा प्रेम की पहचान है। प्रेमी- प्रमिका कितना भी एक दूसरे को निहार ले, निहारने की क्रिया कभी पूरी नहीं होती|  हमेशा थोड़ा और निहारना, थोड़ा और बतियाना, थोड़ा और साहचर्य  शेष रह ही जाता  है| यही शेष ‘तिल-तिल  नूतन होए’ की निशानी है-

सखि हे! कि पूछसि अनुभव मोए  

सेहे पिरीत अनुराग बखानिअ

तिले  तिले नूतन होए|

जनम अवधि हम रूप निहारल

 नयन न तिरपित  भेल|[xiii]

विद्यापति साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डॉ शिवकुमार बंदोपाध्याय इस तरह के पदों के आधार पर विद्यापति की प्रणय-दृष्टि की विलक्षणता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, “प्रेम की महिमा और आकर्षण के सुर इस कविता में आश्चर्यकारी  रूप में अभिव्यक्त हुए हैं|  इन कारणों से  पृथ्वी के श्रेष्ठ गीत समूह में इनको स्थान मिलना उपयुक्त है। कीट्स की सौन्दर्योपासक अपरितृप्ति  और शैली के आदर्श संधान में पिपासी हृदयावेग मानो इस महागीत में निविड़ एकात्मकता में मुक्त हो गए हैं|[xiv]  

चूँकि प्रेम का प्रत्येक अनुभव नया होता है,इसलिए वियोग का प्रत्येक क्षण भी नया ही होता है|  विद्यापति कहते हैं ‘प्रेम की पीर’ जिसको लगती है वही जान सकती/सकता  है, दूसरा नहीं-दूसरे का दुख दूसरा नहीं समझ सकता-

 

मरमक  वेदन बान  समान

आनक दुख सखि  आन  न जान|[xv]

 

विद्यापति सर्वांगतः प्रेम के कवि हैं| पदावली में प्रेम के विविध रूपों से ही साक्षात्कार नहीं होता बल्कि प्रेम करनेवाली विविध स्त्रियों से भी मुलाक़ात होती है|  आलोचकों की निगाह इनकी कविता में विन्यस्त परकीया प्रेम पर ही टिकी और रमी है| क्योंकि परकीया प्रेम में जो ‘थ्रिल’ है वह स्वकीया-प्रेम में कहाँ? इसके विपरीत हिंदी में कुछ वरिष्ठ आलोचक ऐसे भी हैं जो स्वकीया-प्रेम को ही कविता का प्रतिमान मानते हैं| रामविलास शर्मा कुछ कवियों को श्रेष्ठ कवि उनकी कविता में स्वकीया-प्रेम की उपस्थिति के कारण मानते हैं| किन्तु उनकी नज़र विद्यापति के स्वकीया प्रेम पर नहीं जा सकी|  विद्यापति की कई पदावलियों में स्वकीया प्रेम की विलक्षण अभिव्यक्ति हुई है| इन  रचनाओं से अनुमान लगाया जा सकता है कि उन दिनों (वैसे आज भी) आशिकों के दूत (दूती) ऐसी स्त्रियों की टोह में होते थे, जिनके पति लम्बे समय के लिए ‘परदेस-गमन कर गए थे| ऐसी स्त्रियों को रिझाना और प्रेम के वश में करना आसान था| जिनका दाम्पत्य प्रेम दृढ़ था, वे इन दूतियों के झाँसे में नहीं आतीं थीं| विद्यापति  की एक पदावली में स्त्री दूती से दो टूक कहती है, “पालानिहार पति दूसरी जगह चले गए हैं तो तुम्हें जो नहीं बोलना चाहिए, वह भी बोलोगी? हे सखी! अनुचित करने के लिए प्रेरित मत करो| पिया हाथ धरकर तुम्हारे ही भरोसे मुझे घर पर छोड़ गए हैं| कुलटा की तरह यदि अन्य से प्रेम करूंगी तो क्षण-भर के लिए रंग-रभस का सुख तो मिलेगा किन्तु उम्र भर की लज्जा साथ जाएगी| ऐसी ज़िन्दगी का क्या मतलब? कुलकामिनी को अपने पति के साथ विलास करना चाहिए , गलत रास्ता नहीं पकड़ना चाहिए| विद्यापति कहते हैं कि रखने से ही कुल का मान रहता है-

पिआ परवास आस तुअ पासहिं

                           तें कि बोलह जदि आन |

जे पतिपालक से  भेल पावक

                          इथीं (क) कि बोलत आन||

साजनि अघट न घटाबह मोहिं ...

कुलटा भए जदि पेम बढ़ाइअ

                          तें जीवने की काज|

तिला एक रंग रभस सुख पओब

  रहत जनम भरि लाज||...[xvi]

विद्यापति के कुछ पदों में दाम्पत्य प्रेम का अत्यंत प्रखर रूप देखने को मिलता है| ऐसे पदों में पत्नी पर-पुरुष से प्रेम करने से बेहतर  मर जाना  समझती है| वह कहती है कि स्वामी के रूठकर बैठने से मर जाना अच्छा है| अपने स्वामी को छोड़कर पर-पुरुष से  प्रेम करना कतई अच्छा नहीं  है| क्योंकि पर-पुरुष का प्रेम बुरा होता है| विद्यापति को प्रसन्नता इस बात की है कि सुन्दरी कुल का व्यवहार रखती है-

पहु सओं उतरि बोलब बोल

अइसन मन न मानए मोर|...

पर पुरुसक सिनेह मन्द|...

सरस भन कवि  कंठहार

सुंदरि राख कुल (क) बेबहार|[xvii]

 

प्रेम-परिसर में विद्यापति अधीरता के नहीं धीरता के कवि हैं| उनकी चिंता लाखों-लाख ऐसी स्त्रियों के प्रति है, जिनके पति परदेस वास करते थे| विद्यापति ऐसी प्रोषितपतिका नायिकाओं को ढांढस बंधाना अपना कवि-कर्म  समझते हैं| विरह से सबंधित लगभग सभी पदों में विद्यापति नायिका को धीरज रखने का संदेश देते हैं|  यह ‘धीरज विद्यापति का मनोवैज्ञानिक उपचार है|  संभव है कई स्त्रियों के धैर्य की सीमा ख़त्म ही न हो| किन्तु कई स्त्रियाँ इस  ‘धीरज’ के कारण टूटने से बच जाती होंगीं|  विद्यापति दाम्पत्य-प्रेम में आशा और उम्मीद के कवि हैं|  मध्यकालीन हिन्दी कवियों में विरहिणी नायिकाओं के चित्त को अशांत होने से बचाने  और ‘धीरज  धरु’ कहनेवाले एकमात्र कवि-

सबहि साजनि धैरज सार

नीरसि कह कवि कंठहार

कुछ पदावलियों में तो विद्यापति ‘भविष्यवक्ताओं’ के तरह विरहिणी नायिका को संबल रखने का आग्रह करते हैं और कहते हैं कि बस, अब तो कुछ महीने भर की बात है तुम्हारा ‘पिआ’ आता ही होगा-

विद्यापति कवि गाओल रे/ 

धनि धरू मन आस

आओत तोर मनभाओन  रे/ 

एहि साओन मास||[xviii]

पति-प्रवास-जन्य विरह-वेदना की जितनी कविताएँ हैं वे सभी दाम्पत्य-प्रेम की कविताएँ हैं और इन सभी कविताओं में विद्यापति स्त्री को धीरज धारण करने का संदेश देकर उसके विरह ताप को कम करने का उपाय रचते हैं|

    (बनास जन, अगस्त, 2023 में प्रकाशित)



[i] विद्यापति पदावली, दूसरा खंड, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1967, पृष्ठ- 183- 184,   पद-35  (रामभद्रपुर, दरभंगा)                                                        

[ii] जुवती भए जनमए जनु कोइ, संपादक कुणाल, अंतिका प्रकाशन, 2023, पद -07,  पृष्ठ 18   (ने.प./ वि. प., बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पद संख्या 54)

[iii] परंपरा का मूल्यांकन- रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकशन, संस्करण - 2004,  पृष्ठ 50

[iv]जुवती भए जनमए जनु कोइ, संपादक कुणाल, अंतिका प्रकाशन, 2023, पद -64 , पृष्ठ 86    (ने.प./ वि. प., बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पद संख्या 46 )

[v] विद्यापति पदावली, दूसरा खंड, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1967, पृष्ठ 48 ,   पद-37  (रामभद्रपुर, दरभंगा)

[vi] विद्यापति- डॉक्टर शिवप्रसाद सिंह,  लोकभारती प्रकाशन,  प्रथम संस्करण  - 1957,  25वां संस्करण- 2020, पृष्ठ-30 

[vii] विद्यापति पदावली,  दूसरा खंड,  बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1967, पृष्ठ 40-41,   पद-31   (रामभद्रपुर, दरभंगा)

[viii] जुवती भए जनमए जनु कोइ , संपादक-कुणाल, अन्तिका प्रकाशन, 2023, पद-24  (त..प./ वि. प,/ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पद संख्या-226 )

[ix] भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य मैनेजर पांडे वाणी प्रकाशन चतुर्थ संस्करण 2003 पृष्ठ 42

[x]  जुवती भए जनमए जनु कोइ , संपादक-कुणाल, अन्तिका प्रकाशन, 2023,पद-22,  पृष्ठ-36  (त.प./ वि. प.,/ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पद संख्या 126 )

[xi] उपरियुक्त

[xii]  जुवती भए जनमए जनु कोइ , संपादक-कुणाल, अन्तिका प्रकाशन, 2023, पद- 65, पृष्ठ-87  (बं.प./ वि. प.,/ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पद संख्या 46 )

[xiii] जुवती भए जनमए जनु कोइ, संपादक-कुणाल, अन्तिका प्रकाशन,  2023,  पद 28, पृष्ठ-43

[xv]  जुवती भए जनमए जनु कोइ , संपादक-कुणाल, अन्तिका प्रकाशन, 2023 पद-32

[xvi] विद्यापति पदावली, दूसरा खंड, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1967, पृष्ठ 31 ,   पद-175-176

[xvii] उपरियुक्त, पद-55, पृष्ठ- 70

[xviii] जुवती भए जनमए जनु कोइ , संपादक-कुणाल, अन्तिका प्रकाशन, 2023, पद 33,

Comments

  1. महाकवि विद्यापति को इस रूप में पढ़ाने के लिये साधुवाद सर जी। विश्वास कि इसी तरह की नई दृष्टि से हम आगे भी अवगत होते चलेंगे।

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  2. सर्वथा नयी और सामयिक दृष्टि से विद्यापति की प्रेम-भावना की व्याख्या।

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  3. महाकवि विद्यापति पर देश विदेश के अध्येताओं के गहन विमर्श में और वह भी अपनी भाषा भाव भंगिमा में ( ज्यादा समकालीन व चर्चित ऑक्सफोर्ड आदि से प्रकाशित के बीच डाक्टर वियोगी पंडित गोविंद झा… शताधिक उमेर वला ) डाक्टर कमलानंद झा विभूति का यह आलेख उल्लेखनीय है… बधाई व शुभकामनाएं

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