भक्ति आन्दोलन : मानुष जनम अनूप

 

धर्म विश्व का एक सिद्धांत है, एक विश्वकोषीय संग्रह हैएक लोकप्रिय रूप में तर्क है, एक आध्यात्मिक सम्मान बिंदु है, सांसारिक उत्साह है, नैतिक सहमति है, विधिपूर्ण पूरक है, सांत्वना और औचित्य का सार्वभौमिक स्नोत। यह मनुष्य के जीवन-सार का खूबसूरत एहसास है , क्योंकि जीवन का सार परम-सत्य नहीं है। धर्म के विरुद्ध संघर्ष इसलिए परोक्ष रूप से उस दुनिया की लड़ाई है जिसमें धर्म एक आध्यात्मिक सुगंध है। धार्मिक संकट एक ही समय में असल संकट की अभिव्यक्ति भी है और विरोध भी। धर्म उत्पीड़ित प्राणी का उच्छवास है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्महीनों की आत्मा है।  यह जनता की अफीम है।" 

                                                                                      कार्ल मार्क्स[i]


"भक्तिकाल की मूल भावना साधारण जनता के कष्ट और पीड़ा से उत्पन्न है।... इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भक्ति भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दुखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दुःस्थिति छिपी हुई है।"

                                                                                        मुक्तिबोध[ii]


कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ

दुखहि जनम  भेल दुखहि  गँवाओल

सुख सपनहुं नहिं भेल हे भोलानाथ

कखन हरब दुख मोर...

                                                                                      विद्यापति


भक्ति कविता में आमजन के दुख को निजी दुख बनाकर भक्त कवियों ने इन दुखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर को पुकारा है। विद्यापति शिव से प्रार्थना करते हैं कि तुम मेरा दुख कब दूर करोगे। दुख में ही जन्म पाया और दुख में ही जीवन बीत गया। सुख का एक कतरा भी नसीब नहीं हुआसपने में भी नहीं। भौतिक सम्पन्नता सुख का कारण नहीं हो सकती।


हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के उदय, उसकी पृष्ठभूमि, उसके कथ्यकथ्य की समानता और भिन्नता आदि पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। यहॉं लक्ष्य उसकी पुनरावृत्ति नहीं है। लक्ष्य यथासंभव संदर्भों को सही दिशा देने का प्रयास और हिंदी साहित्य में भक्ति आलोचना के कुछ चुने हुए पूर्वाग्रहों की ओर संकेत करना है। हिंदी के अधिकांश विद्वान इस मत से सहमत हैं कि उत्तर भारत में भक्ति का आगमन वाया दक्षिण हुआ। बाद के शोध और चिंतन इस स्थापना को प्रश्नांकित भी करते रहे हैं। आलोचना के अंक (अप्रैल जून 2022)  मैं रमेश बर्णवाल  ने सवाल उठाया है कि "जब भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण से हुई और वही भक्ति उत्तर भारत में आई तो  उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन की शुरुआत निर्गुण भक्ति से क्यों हुई?[iii]


लेखक इसी स्थापना को भक्ति आंदोलन संबंधी बहस का 'तीसरा पहलू' मानते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर उक्त आलेख के लेखक की यह स्थापना एक बड़े भक्त कवि के विलोपन की नींव पर टिकी हुई है। हिंदी की संपूर्ण आलोचना में उत्तर भारत के प्रथम भक्त कवि विद्यापति को सायास विस्मृत कर इस सिद्धांत की  जमीन तैयार की गई है। विद्यापति के माध्यम से उत्तर भारत में शिव भक्ति के रूप में सगुण भक्ति का आरंभ कबीर से पहले होता है। इसलिए निर्भ्रांत  रूप से  यह कहना कि उत्तर भारत में निर्गुण धारा से भक्ति की शुरुआत होती है पूर्ण सत्य प्रतीत नहीं होता है। विद्यापति के समकालीन या पूर्व के नाथों और सिद्धों में अधिकांश ने शिव  को ही अपना उपासक माना।  निर्गुण और सगुण का भेद 'आकारको लेकर उतना नहीं है जितना आचार और विचार को लेकर है। वर्णव्यवस्था और धार्मिक बाह्याडंबर आदि को लेकर यह फर्क ज्यादा स्पष्ट है। कदाचित इसलिए हिंदी के वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह निर्गुण और सगुण नामकरण से कभी सहमत नहीं हो पाए। उन्होंने निर्गुण कविता को  'पोएट्री ऑफ प्रोटेस्ट' ( प्रतिरोध की कविता) और सगुण भक्ति को 'पोएट्री कॉन्टेक्स्ट' (संदर्भ की कविता) कहना अधिक समीचीन माना है। 'संदर्भ' कहने से बहुत सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं।


भक्ति आन्दोलन और भक्तिकाव्य से दर-बदर

 

विद्यापति को भक्ति विमर्श से सायास अलग कर दिया गया। भारतीय भक्ति साहित्य के वृहद आख्यान में  विद्यापति को निष्कासित कर देने में तीन शक्तियाँ अधिक कारगर रहीं। पहली शक्ति थी-  विक्टोरियन युग की नैतिकता, जिससे प्रभावित होकर रामचंद्र शुक्ल ने विद्यापति को भक्त कवि मानने से साफ़ इनकार कर दिया। हिन्दी आलोचना में रामचंद्र शुक्ल 'वेद मत' की तरह स्वीकार्य रहे हैं। जब उन्होंने एक बार कह दिया तो फिर बाद के अधिकांश आलोचकों ने विद्यापति को पाठ्यक्रम से अतिरिक्त पढ़ने की जहमत ही नहीं उठाई। आचार्य शुक्ल ने उनके काम को आसान जो कर दिया था। दूसरी शक्ति थी मिथिला के विद्वान पंडितों की, जिन्हें संस्कृत का सरस श्रृंगार साहित्य पढ़ने में तो आनंदानुभूति होती थी किंतु विद्यापति के शृंगारिक पद उनके गले से नीचे नहीं उतर पाते थे। वे शृंगारिक पदों का ‘भक्तिपरक पाठ’ तैयार करने लगे। जिसके कारण विद्यापति का वास्तविक संदर्भ पूरे सामर्थ्य के साथ उद्घाटित नहीं हो पाया। तीसरी शक्ति थी मार्क्सवादी आलोचको की। स्वयं दरबार  (विश्वविद्यालय की चाकरी) में रहते हुए भी विद्यापति के साथ 'दरबार' के जुड़े होने  के कारण उन्हें तिरस्कृत करना उनकी 'विवशता' थी। सामंतवाद और सामंती प्रवृत्ति की 'ऑफिसियल' समझ की सीमा। उन्हें दरबारी कवि कहा गया और उनकी कविता को दरबारी कविता। विद्यापति की शृंगारिकता को दरबार की विलासिता से जोड़कर देखा गया। यह देखने की कोशिश नहीं की गई कि विद्यापति की पदावली में दरबार अपने पूरे विन्यास में कहीं है भी या नहींदेखने का प्रयास यह किया जाना चाहिए था कि विद्यापति की कविता किस तरह दरबार को अतिक्रमित  कर जाती है। इस पृष्ठभूमि में वरिष्ठ आलोचक शंभूनाथ की टिप्पणी  पर गौर किये जाने की आवश्यकता है,  "यह समझना भी जरूरी है कि वे न स्थानीयतावादी हैं और न उनमें ब्राह्मणवादी मतांधता  है। वे एक  लिबरल कवि हैं।  आमजन की चिंता करने वाले प्रेमोल्लास से भरे कवि। उनके काव्य का संबंध सत्ता विमर्श से नहीं लोक संस्कृति के उत्थान से है।"[iv]

 


हिंदी साहित्य-परिसर में भाव और विचार-बोध की निर्मिति में भारतेंदु हरिश्चंद्र (और उनका युग)  महावीर प्रसाद द्विवेदी (उनका युग)  और रामचंद्र शुक्ल की भूमिका असंदिग्ध रही है।  हिंदी पट्टी में साहित्य की समाझ  कमोबेश इन्हीं  विद्वानों द्वारा बनती नजर आती है। इन सभी विद्वानों पर  नवजागरणकालीन विक्टोरियन नैतिकता का गहरा असर था।  साहित्य के चौखट पर शृंगारिकता, श्लीलता और अश्लीलता की 'कड़ी पहरेदारी' थी। यह वही समय है जब हिंदी साहित्य में पहली बार व्यापक पैमाने पर दाखिल-खारिज अभियान चलाया जा रहा था। हिंदी की  पत्रिकाएं निकल रही थीइतिहास लिखा जा रहा था, सदाचार और स्त्रियों के लिए नैतिक आचरण की पुस्तकें लिखी जा रही थी। इस दाखिल- खारिज में कबीर खारिज हो रहे थे तो तुलसी दाखिल। विद्यापति को भक्ति साहित्य से खारिज करने में इस अभियान दृष्टि की महती भूमिका रही है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल महावीर प्रसाद द्विवेदी युग की उपज हैं। कई मुद्दों पर सहमति-असहमति के बावजूद शुक्ल जी पर महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रभाव को लक्षित किया जा सकता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी की नैतिकता इतनी 'कड़ी' थी कि उनकी बस चलती तो वे  विद्यापति को पढ़ने-पढ़ाने  पर ही  प्रतिबंध ही लगा देते। नायिका भेद के बारे में उनके विचार देखें, " हिंदी की तरह बंगाली, मराठी, गुजराती भी संस्कृत से निकली हैं लेकिन जितना नायिका भेद हिंदी में मिलता है उतना किसी भाषा में नहीं मिलता। इन किताबों में क्या लिखा जाता हैपरकीया और वेश्याओं केकुंवारी कन्याओं के पाप कर्म होते हैं। उनके घिनौने कामों का वर्णन होता है। निर्लज्ज और विलासिनी औरतों के प्रलाप हैं जो आदमी को भ्रष्ट कर सकते हैं। कहीं कोई नायिका अंधेरे में अपने प्रियतम के लिए यमुना के किनारे दौड़ रही है।  क्या इससे बढ़कर कोई और आदमी का नैतिकता को नष्ट करने का औजार हो सकती हैमैं ऐसी रचनाओं के लेखन को तुरंत लिखने को रोक देने की मांग करता हूँ और जो उपलब्ध हैं उन्हें प्रतिबंधित करने की मांग करता हूँ|”[v]  विद्यापति की भक्ति कविता इसी अकादमिक नैतिकता की भेंट चढ़ गई। विद्यापति की चरम भक्तिपरक कविता को नजरअंदाज करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा,  "आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत गोविंद के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।" [vi]


आचार्य रामचंद्र शुक्ल का विद्यापति अध्ययन देखकर लगता है कि उन्होंने विद्यापति के कुछ श्रृंगारिक  पदों का ही अवलोकन किया था। शिव और गौरी से  संबंधित 'नचारी' और 'महेशवाणीका अध्ययन वे नहीं कर पाए होंगे। इन पदों में पारिवारिकतागार्हस्थ- जीवन और भक्ति भावना है, श्रृंगारिकता  नहीं। लेकिन शुक्ल जी अपने इतिहास में लिखते हैं, " विद्यापति  शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना श्रृंगार काव्य की दृष्टि से की है।"[vii] विद्यापति के विद्यार्थी जानते हैं कि उनके शिवभक्ति से संबंधित पदों में श्रृंगार भाव नहीं है। अत्यल्प  पदों में शिव और गौरी का पारिवारिक दांपत्य प्रेम जरूर है।


मध्यकालीन हिंदी आलोचना में भक्ति और श्रृंगार को एक दूसरे के आमने-सामने रखकर और एक दूसरे का विरोधी मानकर देखने की प्रवृत्ति रही है। जबकि भारतीय धर्म साधना और भक्ति परंपरा का श्रृंगार भाव एक दूसरे का पूरक रहा है। कृष्ण भक्ति परंपरा में राधा-कृष्ण का युगल रूप शृंगारिक ही है। शिवभक्ति में योनि में स्थापित लिंग की पूजा से अधिक शृंगारिक भाव और क्या हो सकता हैवैदिक ऋचाओं से लेकर भारतीय मूर्ति और स्थापत्य कला आदि में भक्ति और श्रृंगार का विलक्षण समन्वित  रूप से हम सभी परिचित हैं।


विद्यापति की जिस भक्ति-भावना पर संपूर्ण हिंदी आलोचना में संदेह व्यक्त किया गया, पहले उस भक्ति की संक्षेप में चर्चा आवश्यक मालूम पड़ती है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि चैतन्य महाप्रभु ; जयदेव, विद्यापति और चंडीदास के पदों को गाते हुए भक्ति-भाव में मूर्छित हो जाते। कृष्णभक्ति का आकर ग्रंथ :'चैतन्य चरितामृत' के 'आदिलीला' के तेरहवें अध्याय के अनुसार ' विद्यापति, जयदेव, चंडीदास गीता अस्वादेन रामानंद-स्वरूप-सहित।' श्री भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर इस संदर्भ में टिप्पणी करते हैं कि भगवान चैतन्य महाप्रभु ने विद्यापति , चंडीदास और जयदेव की पुस्तकों (पदों) से आनंद लिया। बंगाल की अकादमिक दुनिया में प्रसिद्ध 'राय रमानंद  और चैतन्य महाप्रभु की वार्तामें भी इसके संकेत हैं, " चैतन्य महाप्रभु सुना करते थे, जगन्नाथ पुरी में कृष्ण कर्णामृत को  सुनते थे, गीतगिविंद को सुनते थे, विद्यापति की कविता  सुनते थे और श्रीमद्भागवत का भी श्रवण करते थे।" [viii]
कदाचित इन्हीं वार्ताओं के संदर्भ में 'बंगला साहित्य का इतिहास' में सुकुमार सेन लिखते हैं "श्री चैतन्य जयदेव, विद्यापति और दूसरे कवियों के प्रेमी थे।  उन्होंने अपने इस प्रेम को कुछ सहयोगियों से साझा किया था। दरअसल उस दौर में मधुर गीतों की रचना शुरू ही हुई थी जिससे साहित्य और संगीत में नई जीवनी शक्ति आ गई थी।"[ix]  इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी भी इन तथ्यों की तस्दीक करते हैं, “चैतन्य सबसे ज्यादा चंडीदास और विद्यापति से प्रभावित थे| ‘चैतन्य चरितामृत’ से यह स्पष्ट होता है चैतन्यदेव जयदेव, चंडीदास और विद्यापति के ऋणी थे|[x]


कृष्ण भक्ति संप्रदाय के सबसे बड़े भक्त, भक्तों के बीच साक्षात कृष्ण के अवतार चैतन्य महाप्रभु  विद्यापति के पद गाया करते थे, तो फिर विद्यापति को  किसी आलोचक के 'भक्ति सर्टिफिकेट' की क्या आवश्यकता? आधुनिक काल के श्रेष्ठ कवि 'कवि गुरु' रवींद्रनाथ टैगोर अपनी काव्ययात्रा विद्यापति और चंडीदास की पदवाली की नकल से शुरू की।  इक्कीस  कृष्णभक्ति गीतों का यह संग्रह 'भानुसिंह ठाकुरेर पदावली' आधुनिक बंगला साहित्य में अत्यंत प्रसिद्ध है। टैगोर के गहरे आध्यात्मिक चिंतन पर विद्यापति और चंडीदास के प्रभूत प्रभाव को बंगला भाषा और साहित्य के आलोचकों ने खुले दिल से  स्वीकार किया है। इसी आध्यात्मिक चिंतन का सर्जनात्मक फिस्फोट 'गीतांजलि' है। मध्यकाल के भक्त (चैतन्य महाप्रभु) और भक्तकवि (चंडीदास) से लेकर आधुनिककाल के बड़े कवि रविन्द्रनाथ टैगोर की आध्यात्मिकता को प्रभावित करने वाले आदिकवि विद्यापति की भक्तिभाव पर संदेह करना या तो किसी प्रकार का  पूर्वाग्रह हो सकता है या फिर भाषा (मैथिली) की समझ का अभाव।


हिंदी क्षेत्र के आलोचकों को विद्यापति की भक्ति भावना पर भले संदेश रहा हो किंतु बंगाल, उड़ीसा, आसाम और नेपाल की सुदीर्घ भक्ति परंपरा में विद्यापति आरंभिक 'बड़े' भक्त कवि के रूप में समादृत हैं। बहुत कम भक्त कवियों को यह गौरव प्राप्त है जो अपने प्रांत की सीमाओं के पार भक्त कवि के रूप में लोकप्रिय रहे हों। बंगाल  के आरंभिक कई भजन संग्रहों में विद्यापति की पदावलियों का संकलन इस बात के प्रमाण हैं कि उन्हें वहाँ उच्च कोटि का भक्त कवि माना जाता रहा है। 18वीं  शताब्दी के आरंभिक दशकों में तैयार किया गया  'क्षणदा गीत चिंतामणि' में कुल 135 पद हैं, जिनमें 37 पद विद्यापति के भणिता वाले हैं। 18वीं शताब्दी में ही स्वर्गीय राधामोहन ठाकुर ने 'पदामृत  समुद्र' भजन संकलन तैयार किया। 746 गीतों वाले इस संग्रह में विद्यापति के 64 गीत संकलित हैं। इस 'पदामृत समुद्रसंकलन के बाद 18वीं शताब्दी में ही गोकुलानंद सेन उर्फ़ 'वैष्णवदास ' ने 'पद कल्पतरुनाम का भजन संकलन तैयार किया। इसमें अन्य सभी वैष्णव पदों की तुलना में विद्यापति के पदों की संख्या सर्वाधिक है। इसमें विद्यापति के भणिता युक्त 161 पद हैं। 'संकर्तनाममृतनाम से सन 1771 ईसवी में दिनबंधु दास ने भजनावली तैयार की।  इसमें 24 भक्त कवियों के कुल 491 पद संकलित हैं  जिनमें विद्यापति के 10 गीत संग्रहित हैं। इसी तरह 'कीर्तनांद'  'पंडित बाबा जी का संग्रह' आदि  बंगला भजन संग्रह में विद्यापति के गीत सुशोभित हैं।[xi]



हे सखि, मानुष जनम अनूप

 

ईश्वर के आगे भक्तों का संपूर्ण समर्पण भाव नवधा भक्ति का वैशिष्ट्य है। दास्य भाव और आत्मनिवेदन आत्मसमर्पण का सूचक है। विद्यापति  एक भगवती गीत 'जय-जय भैरवि असुर भयाउनि' में  अपने को माँ काली के  चरणों में पूर्णतः समर्पित कर देते हैं। कवि 'माँका सचित्र और ध्वन्यात्मक स्वरूप का स्मरण  करते हुए अपने को उनका पुत्र बताते हैं-

 


सामर बरन नयन अनुरंजित, जलद जोग फुल कोका

कट कट विकट ओट पुट पांड़रि, लिधुर फेन उठ फोका।...

विद्यापति कवि तुअ पद सेवक

पुत्र बिसरि जनि माता।


इस भक्ति पद में विद्यापति माँ भगवती से 'सहज सुमति' का वरदान मांगते हैं। भारतीय भक्ति परंपरा में 'सुमति' अत्यंत महत्वपूर्ण है। विद्यापति को 'सुमतिभी चाहिए जो 'सहज' और 'सरल' भी हो।   विद्यापति 'माँके चरणों में ही अपनी गति-मति मानते हैं-

सहज सुमति वर दियउ हे गोसाउनि

अनुगति गति तुअ पाया।


इस पदावली में विद्यापति की भक्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है। 'जय-जय  भैरवि' सम्पूर्ण मिथिलांचल में भगतवती गीत का पर्याय बन गया। वैष्णव भक्ति में 'कीर्तन'  (नवधा भक्ति)  का विशेष महत्व है। बंगाल के विद्वानों ने स्वीकार किया है कि विद्यापति की पदावली यहां कीर्तन के रूप में व्यापक स्तर पर गाए जाते हैं। विद्यापति अपने एक कीर्तन में माधव को कहते हैं कि हम तुम्हारी  कितनी बड़ाई करेंतुम्हारे लिए सारी उपमाएँ फीकी पड़ जाती हैं। क्योंकि तुम अपने सामान अकेले  ही हो-

माधव कत तोर करब बड़ाई

उपमा तोहर ककरा सँ करितहुँ

कहितहुँ अधिक लजाई

तोहर सरिस एक तोहीं माधब

मन होइछ अनुमान।

बंगाल में विद्यापति के राधा-कृष्ण संबंधी पदावली को उच्च कोटि की  भक्ति पदावली मानी गई है| भारतीय भाषा एवं साहित्य के आरम्भिक विद्वान ग्रियर्सन भी विद्यापति की भक्ति पदावली के मुरीद थे| उन्होंने ‘मैथिली क्रेस्टोमेथी’ में लिखा है,   Even when the Sun of  Hindu-religion is set  when belief and faith in Krishna and in that  medicine of ‘disease of existence’ the hymns of Krishna’s love, is extinct, still the love borne of Vidyapati  in which he tells of Krishna and Radha will never be diminished.”[xii]


कवि के आत्मनिवेदनपरक गीतों में जीवन का समस्त विषाद और पश्चाताप द्रवित होकर करुणा का रूप धारण कर लेता है। विद्यापति के भजन 'तातल सैकत  वारि विन्दु सन',  'जतने जतेक  धन पाप बटोरलहुँ', 'माधव, हम परिनाम  निराशा' आदि पदों में   जैसा आत्मसमर्पण और अतीन्द्रीयता  है वह अद्भुत और विलक्षण है। बंगला भाषा के विद्वान  दिनेशचंद्र सेन विद्यापति की भक्ति की तीव्रता और गहराई को लक्षित करते हुए लिखते हैं, "इहा... भक्तिर  पराकाष्ठा| साधारण भक्त उपास्य देवतार निकट स्वीय अभाव अभियोगेर कथाइ जानाइया थाकेन| किन्तु एखाने उपासक निजके सम्पूर्ण रूपे भुलिया स्वीय उपास्य देवतार दुखे विगलित हइते छेन, एरूप निजेर सुख-दुःख विस्मृत एवं देवतार प्रति तन्मय-भाव भक्तिर ओ कवित्वेर श्रेष्ठतम उपादान|[xiii]


शिवभक्ति-पदावली में विद्यापति अपनी आत्मा उड़ेल कर रख देते हैं। इन पदों में शिव अधम-उद्धारक, अशरण-शरण, अनाथ के नाथ, मुक्तिदाता, संकटत्राता, दयासागर और भगत-बछल रूप में प्रकट होते हैं। भक्त के हृदय का भाव-गुच्छ शिव के चरणों में अर्पित होने के लिए आतुर-आकुल हो उठता है। भक्त विद्यापति अपने समग्र अहं का परित्याग कर शिवशरणापन्न  हो जाते हैं। उगना (शिव) की खोज में विद्यापति बौरा जाते हैं, दोनों आँखों से अश्रु की अविरल धारा फूट पड़ती है

उगना रे मोर कतए  गेलाह

कतए गेला शिव कीदहू भेला।

उन्हें दुनिया का कोई ऐश्वर्य नहीं चाहिए। चाहिए तो सिर्फ उगना (शिव)

भनहिं विद्यापति उगना सँ काज

नहि हितकर मोरा त्रिभुवन राज


भक्ति की विभिन्न अंतर्धाराओं में  समन्वय की चेष्टा भक्तिकालीन कवियों की उदार दृष्टिको  परिलक्षित करता है। आचार्य शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर रामविलास शर्मा तक ने तुलसीदास को समन्वयवादी कवि के रूप में रेखांकित कर उनकी महानता को दिखाया है। इसमें दो राय नहीं कि एक समय शैव और वैष्णव भक्ति का द्वंद अपने चरम पर था।  तुलसीदास ने लिखा

'शिव द्रोही मम दास कहावा

सो नर मोहि सपनेहुँ नहि भावा।


अधिकांश आलोचकों ने  समन्वय की इस  चेष्टा को ही देखने का प्रयास किया है।  भक्ति की अंतर्धाराओं में दरारों, फाटों  और असहमतियों को नजरअंदाज किया। नजरअंदाज कर देने से समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि समस्याएं अधिक विकराल रूप धारण कर सामने उपस्थित हो जाती हैं। समन्वय की चेष्टा तभी होती है जब समन्वय का भारी अभाव होता है। मजे की बात यह है कि इन भक्त कवियों के यहाँ  यह समन्वय भी काफी उथला और सतही है।  इस समन्वय के भीतर वैमनस्य की अंतर्धारा को ढकने का प्रयास  आलोचकों द्वारा किया गया। तुलसीदास जिस स्वर में शिव और वैष्णव की 'समन्वय-साधना' करते हैं, उसी स्वर में कह जाते हैं-

जाके प्रिय न राम वैदेही

ताजिये ताहि कोटि बैरी सम

जदपि परम सनेही।


इतना ही नहीं उनका मस्तक सभी भगवान के आगे नहीं झुकता। वह  तभी झुकता है जब उनके आराध्य के हाथ में धनुष-बाण आता है। दूसरी तरफ रामचरितमानस में बगैर नाम लिए कबीरी परंपरा के निर्गुणियों   की खूब खबर तुलसीदास ने ली है। सूरदास ने भी उद्धव गोपी संवाद में निर्गुण की ऐसी-तैसी की है। कबीर का वैष्णव के प्रति घोर आदर का भाव था किंतु शाक्तों के प्रति उत्कट घृणा।  उन्होंने शाक्तों को कुत्ता तक कह डाला है- 'साकत सुनहा  दोनों भाई, एक नीदै एक भौंकत जाई।' एक दूसरी कविता में उन्होंने सूअर को शाक्त से श्रेष्ठ बताया है-' साकत ते सूकर भला, सूचा राखे गाँव।'

 


इस विमर्श में हम देखेंगे कि विद्यापति की पदावली में शब्द के सही अर्थों में समन्वय की विराट चेष्टा के दर्शन होते हैं। भक्ति की किसी भी शाखा के प्रति उनकी पदावली में कहीं कोई वैमनस्य का भाव नहीं दिखता है।  उन्होंने उतनी ही श्रद्धा से काली (शाक्त मत)  की आराधना की है जितनी भक्ति भाव से कृष्ण (वैष्णव)  की और शिवभक्ति तो अपनी सारी संभावनाओं के साथ वहां मौजूद है ही। कुछ पदों में विद्यापति ने शैव, शाक्त और वैष्णव भक्ति का समन्वित रूप में स्मरण किया है। इस दृष्टि से उनका एतिहासिक पद है-

भल हर भल हरि भल तुअ काला| खन पित बसन खनहिं बघछाला|

खन   पंचानन खन भूजचारि|  खन  संकर   खन देव   मुरारि|| 

अपने कई पदों में उन्होंने कहने के कोशिश की है कि शिव, विष्णु,  गौरी, लक्ष्मी, काली सब एक ही हैं, उनमें कहीं कोई भेद नहीं है| भक्ति की विभिन्न धाराओं में अभेद-तत्व को जितनी शिद्दत से विद्यापति उपस्थित करते हैं, वह विरल और विलक्षण है-

कज्जल रूप तुअ काली कहिअए, उज्जल रूप तुअ बानी|

रविमंडल    परचंडा    कहिअए,  गंगा    कहिअए   पानी||

पुरुष में स्त्री तत्त्व और स्त्री में पुरुष तत्त्व की शाश्वत मौजूदगी को रेखांकित करनेवाले  अर्धनारीश्वर रूप की वंदना वाले पद में आधा पुरुष और आधी स्त्री रूप की ही वंदना नहीं की गई है बल्कि वैष्णव  और शैव के शाश्वत ऐक्य को भी दरसाया गया है-

जय जय संकर जय त्रिपुरारि

जय अध पुरुष जयति अध नारी।

आध हड़माल आध गजमोती

आध चानन सोह आध विभूति।

एक पद में होली का विलक्षण दृश्य है और इस होली में सभी भगवान मिलकर होली खेलते हैं। कहीं गौरी लक्ष्मी को रंग लगा रहीं  हैं तो कहीं शिव विष्णु को रंग से तोप देते हैं-

संझाये  सिंदूरे भरू सरूसति लाछीहि भरलि गौरी

दूसरे भसम भब नारायन पीत वसन बोरी||

 
''शिवद्रोही मम दास कहवामें तुलसीदास की समन्वय भावना कथित है। तुलसीदास राम से कहलवाते  हैं कि   शिवद्रोही मेरा भक्त नहीं हो सकता। लेकिन विद्यापति की पदावली में भक्ति का समन्वय रूप अंतर्भुक्त है। वह भक्ति की पूरी संरचना में विन्यस्त है। इस रूप  में तुलसीदास की समन्वय भावना जहाँ वाह्य  है वहीं  विद्यापति की समन्वय भावना आंतरिक।  तुलसीदास की समन्वय भावना सायास  है विद्यापति की अनायास। समन्वय  उनकी भक्ति का अंतर्निहित हिस्सा है।  मिथिला की पारंपरिक  धार्मिक चेतना में अधिकांश लोग एक साथ वैष्णवशिव और शाक्त की आराधना करते हैं। इस महीने सत्यनारायण भगवान की पूजा तो अगले महीने 'एक लाख महादेवकी पूजा। मिथिला के लगभग सभी घरों में गोसाउनि (शाक्त) की पीढ़ी होती है।  विद्यापति इसी बहुलतावादी स्थानीय धार्मिक चेतना की उपज हैं।  वह किसी 'एजेंडे' के तहत समन्वय-साधना नहीं करते हैं। इसलिए विद्यापति की धार्मिक समन्वय भावना उनका स्व-भाव है। "श्रृंगार के साथ भक्ति और भक्ति में भी कृष्ण, शिव, शक्ति, गंगा इन सबकी। इसका अर्थ है, विद्यापति ने दीवारें तोड़कर सांस्कृतिक समिश्रण किया।"[xiv]  

 

भक्ति कविता में भगवान और भक्त के बीच की दूरी सिमट जाती है। ईश्वर के बरक्स मनुष्य और भगवान के बरक्स भक्त की प्रतिष्ठा भक्ति कविता की दुर्लभतम विशेषता है- ‘भगवान ने बड़े भक्त बड़े जो भगवान से काम करायो है|’ भक्तकवि चंडीदास तो घोषणा के अंदाज में कहते हैं-

शुनो रे मानुष भाई

सबार उपरे मानुष सत्य

 ताहारउपरे नाई|

विद्यापति इन भक्त कवियों से पहले मनुष्य जीवन की सार्थकता का एलान कर चुके थे-

हे सखि, मानुष जनम अनूप| भक्ति, प्रेम, श्रृंगार आदि इसी ‘मानुष का विलक्षण जीवन्तोसव है| सखा भाव में भक्त अपने भगवान  से कुछ भी कह सकने की छूट ले लेता है। ईश्वर की पारलौकिकता  यहाँ क्षणभंगुर साबित होती है, भक्तों के आगे वह तहस-नहस हो जाती है। ईश्वर का  निपट लौकिक रूपांतरण भक्ति कविता को लोकग्राही बनाता है। सूरदास तो अपने आराध्य कृष्ण को चुनौती तक दे डालते हैं

बाँह छुड़ावत जात हो निबल जानि के महि

हिरदै  से जब जाइगो तो मर्द बदौगों तोहि।


तुलसी के राम पत्नी वियोग में जार-बेजार आंसू बहाते हैं। विद्यापति ने अपने शिव को 'बौड़म' बना दिया है, भिखारी बना दिया है, किसान बना दिया है। विद्यापति के शिव पत्नी गौरी को बेइंतहा प्यार भी करते हैं और डांट-फटकार भी सुनते हैं। शिव जब मिथिला में शादी करने आते हैं तो उनकी दुर्दशा हो जाती है। मैथिल ललनाएँ  उन्हें बैरंग वापस करने पर तुली हुई हैं। और शिव हैं कि अपने सारे 'बौड़मपनके साथ  मोर्चे पर डटे हुए हैं और गौरी हौले-हौले मुस्करा भर रही हैं। जिस शिव को प्राप्त करने के लिए वह 'अपर्णा' हो गईं वही शिव जब मिले तो उनका रूप-रंगचाल-ढाल देखकर गौरी की माँ बेहाल हो जाती है।  मैना शिव को गौरी की आँख  से नहीं देख पा रही हैं।  शिव  के प्रति गौरी की चाहत और  मां का बेटी के प्रति ममता-  दोनों का द्वंद यहां देखते बनता है। माँ अपनी बेटी को एक दरिद्र के हाथ भला कैसे सौंपे! अपूर्व सुंदरी और गुणी सुकमारी बेटी के लिए उसने क्या-क्या सपने नहीं देखे थे। मिथिला ही नहीं हिंदुस्तान की सारी माएँ  'चंद्रमुखी सन गौरी' के लिए 'सुरुज सन जामाई' करना चाहती हैं-
चंद्रमुखी सन गौरी हमर छथि

सुरुज सन  करितओं जामाई गे माई। 


किंतु गरीब माओं  की लालसा लालसा ही रह जाती है। और एक-से एक योग्य कन्यायों को अयोग्य और अनमेल पति नसीब हो जाता है। मध्यकाल के इस  दुःखद यथार्थ की सचेत अभिव्यक्ति  विद्यापति की भक्ति कविता को गरिमापूर्ण बनाती है।  मैना ने ठान लिया है कि वह  गौरी को लेकर नैहर भाग जाएगी। लेकिन इस बूढ़े भिखारी से गौरी की शादी नहीं होने देगी; भले बेटी ताउम्र कुमारी रह जाए-

हम नहि शिव सँ गौरी बिहायब

मोर गौरी रहती कुमारि गे माई।

मैना चुकटे गाल और बिवाई फटे पैर वाले उम्रदराज से बेटी की शादी हरगिज़ नहीं होने देगी-

गालो चोकटल केसो पाकल,

पैयरो मे फाटल बेमाइ गे माई।

दूसरी ओर बेटी गौरी अपनी भोली माँ  को कैसे समझाए?  विद्यापति को यहां सामाजिक यथार्थ को उद्घाटित जो करना था। यह पूरी  काव्य-उक्ति  सामाजिक सच्चाई को उद्घाटित करने के लिए रची गई है। यहीं विद्यापति विशिष्ट भक्त कवि के रूप में चिन्हित किए जा सकते हैं। विद्यापति के लिए भक्ति भाव और सामाजिक सरोकार वैसे ही अलग-अलग चीजें नहीं है जैसे श्रृंगार और भक्ति।


तुलसीदास बाल्यावस्था में चार चने के मोहताज थे-

"बारे ते ललात बिललात द्वार-द्वार  दीन

जानत हो चारि फल चारिही चनक को।


विद्यापति की कविता हृदयहीनों का हृदय इस अर्थ में है कि उनमें  निर्धनों की दीनता को दूर करने उत्कट  विकलता  देखने को मिलती है-

भनहि विद्यापति सुनु है महेस

निर्धन जन के हरहूँ कलेस

शिव हो उतरब पार कोन बिधि।

विद्यापति के आराध्य शिव निरन्न समाज के प्रतिनिधि हैं।  माँग-चाँगकर लाये गए अन्न के दाने का समायोजन गौरी को करना है। गौरी की चिंता यह है कि 'निर्धन आदर कोई न देई।'  समाज में निर्धनों को कोई आदर नहीं देता। इसीलिए शिव पर आक-धतूर चढ़ाए जाते हैं, और विष्णु पर चम्पा फूल-

तोहें शिव पाओल आक धुथुर फुल

हरि पाओल फुल  चम्पा ||


विद्यापति दरबार में थे, उन्हें अभाव का दंश नहीं झेलना पड़ा। किंतु दरबार में नित आनेवाले याचकों और  मिथिला के गाँवों में पसरी अभाव की भयावह दुनिया से एक संवेदनशील कवि आँख कैसे मूँद सकता था! उनकी नचारी 'नचारी' नहीं 'लाचारी' है। मिथिला में ग्रामीण स्त्रियाँ '' का उच्चारण '' करती हैं। विद्यापति के शिवगीत लाचार दुनिया का कड़वा सच है। इन गीतों को 'लिखनावाली' के पत्रों के साथ मिलाकर पढ़े जाने की आवश्यकता है। तभी इन पदों की 'विगत सार्थकता और वर्तमान अर्थवत्ता' से हम परिचित हो सकते हैं। नचारी की लोकप्रियता का यह आलम है कि आज भी मैथिली  में नचारी लिखे जाते हैं, जो अत्यंत लोकप्रिय हैं| नचारी के काव्य-शिल्प में नये कथ्यों के समावेश की पूरी गुंजाइश बनती है| कवि वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री (नागार्जुन)  ने मैथिली में ‘नब नचारी के नाम से  एक विलक्षण नचारी लिखी है-

अगड़ाही लागउ, बज्र खसउ

बरु किच्छु होउक...

नहि नबतई तोरा खातिर किन्नहु हमर माथ

पाथर भेलाह तों सरिपहुँ...

बेत्रेक अन्न भ रहल आंट नेना-भुटका

मकड़ाक जालसँ बेढ़ल  छई  चुलहाक मूँह

थारी-गिलास सब बेचि बिकिनि खा गेलइ,

दुबरैल आंगुरे कल्लर सभ बीछए झिटुका

(भूख से अतरी भले एंठ जाए, बज्र गिरे, चाहे कुछ भी हो जाए तम्हारे खातिर/तुम्हारे आगे सर बिल्कुल नहीं झुकेगा| तुम सही में पत्थर हो गए हो| अन्न के बिना बच्चे बेहाल हैं, चूल्हे के मुँह पर मकड़ी के जाले पड़े हुए हैं| थारी,लोटा, ग्लास सब बेचकर खाने की नौबत आ गई| पतली अँगुलियों से भुक्खर सब ...................चुन रहे हैं)  यहाँ  ‘नचारी फॉर्म’ में नचारी का विलोम रचा गया है|  कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ भक्ति से मोहभंग की स्थितियाँ नजर आती हैं| किन्तु विद्यापति की  नचारी और नागार्जुन की ‘नब  नचारी में असहाय लोगों की दीनता और अभाव की समानता है| लाचार लोगों की लाचारी का यथार्थ वर्णन दोनों नचारी को जन सरोकार-सम्पन्न बनाता है|

 यह अकारण नहीं है कि मिथिला के ‘लाचार दीन-हीन निम्नवर्ण के लोगों ने विद्यापति की पदावली को आधार बनाकर  एक अपनी शैली ही विकसित कर ली-‘ बिदापत नाच|’  मिथिला के गाँव में आज भी विद्यापति की सघन उपस्थिति निम्नवर्णों के बीच ‘बिदापत नाच’ के रूप में है| फणीश्वरनाथ रेणु अपने  रिपोतार्ज़ ‘बिदापत नाच में इसके वैशिष्ट्य को रेखांकित  करते हुए लिखते  हैं, “दुखी-दीन अभावग्रस्तों ने घड़ीभर हँस गाकर जी बहला लिया, अपनी ज़िन्दगी पर भी दो-चार व्यंग्य बाण चला दिए, जी हल्का हो गया| अर्धमृत वासनाएँ थोड़ी देर के लिए जगीं, अतृप्त जिंदगी के कुछ क्षण सुख से बीते| मेहनत की कमाई  मुट्ठी भर अन्य के साथ-साथ आज उन्हें थोड़ा-सा मोहक प्यार भी मिलेगा इसमें  संदेह नहीं| आप खोज रहे हैं- आर्ट, टेक्निक और न जाने क्या-क्या और मैं आपसे चलते-चलाते फिर भी अर्ज करता हूँ कि यह महज विदापत नाच था|” देखा जा सकता है कि विद्यापति की कविता कहाँ से कहाँ तक की यात्रा करती है! मुसहर, धाँगड़, दुसाध जैसे अन्त्यज जाति अपने दुखों और उससे क्षण-दो-क्षण की मुक्ति की तलाश  ‘बिदापत नाच के बहाने विद्यापति की कविता में ढूंढते हैं और उसे अपने अनुरूप गढ़ लेते हैं-

 

बाप रे/ कोन दुर्गति नहि भेल

सात साल हम सूद चुकाओल

तबहूँ उरिन नहि भेलौं

कोल्हुक बरद सन खटलौं रात-दिन

करजा बाढत ही गेल|

बारी बेच पटवारी के देलियेन्ह\

लोटा बेच चौकीदारी| बकरी बेच सिपाही के देलियन्हि

फाटकनाथ गिरधारी|  

अपने विशुद्ध जीवन के अभावों और अनुभवों से  रचा बिदापत नाच;  जिसमें विद्यापति के पदों और उन्हीं  पदों की तर्ज पर नये पद रचे जाते हैं, जिसमें तात्कालिक समय के  विकृत चहरे को देखा जा सकता है| विद्यापति की धरती के कथाकार रेणु के कथासाहित्य में उदासी धुन की तरह बिदापत नाच मौजूद है| उनकी कहानी ‘रसप्रिया’ को इस दृष्टि से भी पढ़ा जाना चाहिए| 

 


भक्तिकाल के कवियों की भाषायी चेतना अद्भुत थी। दक्षिण से लेकर उत्तर तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक के  भक्त कवियों ने अभिजात्य भाषा संस्कृत के बरक्स जनभाषा का चुनाव किया। अपनी-अपनी मातृभाषाओं में ईश की वंदना की। हिन्दी क्षेत्र में विद्यापति ने ही सर्वप्रथम जनभाषा की शक्ति और सामर्थ्य को समझा। उन्होंने मैथिल पंडितों की परवाह न करते हुए आमलोगों की भाषा में आमजनों के दुख को ईश्वर के दरबार तक  पहुँचाने का बीड़ा उठाया। बकौल हिंदी के वरिष्ठ आलोचक शंभूनाथ, "उल्लेखनीय है कि जिस क्षेत्र में संस्कृत का बोलबाला हो और पंडित होना ज्यादा बड़ी बात मानी जाती हो वहां विद्यापति ने संस्कृत ज्ञान के बावजूद लोकभाषा की ओर रुख किया और शास्त्रज्ञ होते हुए भी कविता का पथ चुना। यह उस समय के बदलते रुझान के चिह्न हैं। आज यदि हिंदी प्रांत में मैथिली पहचान एक अर्थ रखती है तो इसमें विद्यापति का एक बड़ा योगदान है। लेकिन विद्यापति का एक परिचय यह भी है वह कभी एक भाषा तक नहीं रुके। संस्कृत से अवहट्ट और मैथिली तक बढ़े।  वे दार्शनिक आस्था के स्तर पर भी एक गतिशील भाव प्रवण चिंतक थे, शैव- वैष्णव की दीवारों से मुक्त। वे एक सांचे में बंधे अहंकारी व्यक्तित्व नहीं थे। वे समावेशी थे। भक्ति में दीवारें नहीं होतीं, विद्यापति के साहित्यिक-बोध में मौजूद इस खूबी से शिक्षा ली जानी चाहिए।" [xv]

 
विगत कुछ दशकों से जब से धर्म और राजनीति की गलबहियाँ  कुछ अधिक मजबूत हुई है गंगा प्रेम में  अभूतपूर्व उछाल आया है। इस उछाल में धार्मिक कर्मकांड भी हैं और राजनीतिक रणनीति भी। विद्यापति का गंगा प्रेम एक तरफ गंगा के प्रति भक्ति की पराकाष्ठा में  है तो दूसरी तरफ नदी-प्रेम में। गंगा हिंदुओं के लिए एक पवित्र नदी ही नहीं है बल्कि हिंदुस्तान की एक विलक्षण सांस्कृतिक विरासत भी है और रोजी-रोटी का साधन भी। विद्यापति गंगा किनारे के सुख से वंचित नहीं होना चाहते। वे गंगा-प्रेम से अभिभूत हैं, आप्लावित हैं और उस 'गंगा तीरेको छोड़ते हुए उनकी आंखों से अश्रु  की अविरल धारा प्रवाहित हो रही है-

बड़ सुख सार पाओल तूअ तीरे

छोड़ैत निकट नयन बह नीरे।

कविता के अंत में वे कहते हैं, तुम मुझे अंतकाल में भूलना नहीं

भनई  विद्यापति समदओं ताही

अंतकाल जनु बिसरहु मोही।

कहा जाता है कि वे अपने अंतिम समय में गंगा से मिलने आये  थे।  उनके गंगा-प्रेम को देखते हुए लोगों ने एक रोचक कथा गढ़ ली| कथा यह कि, अपने अंतिम समय में जब विद्यापति गंगा से मिलने जा रहे थे, कुछ दूर पहले ही उनकी तबियत काफी बिगड़ गयी| वे वहीं रुक गए और अपने परिजनों से कहा ‘मैं उनसे मिलने इतनी दूर आया हूँ तो कुछ दूर गंगा मुझसे मिलने नहीं आ सकतीं हैं क्या?’ कहते हैं गंगा की एक धारा फूटकर विद्यापति के निकट आ गयी| चमत्कारिक कथाओं का भी अपना महत्व है| वह सच तो कदापि नहीं हो सकतीं, किन्तु इन कथाओं का  आशय सच होता है|   जिस तरह हम अतिशयोक्ति का आशय ग्रहण करते हैं, उसी तरह इन कथाओं का भी आशय स्पष्ट है और यहाँ उक्त कथा का आशय है विद्यापति का बे-इन्तहां गंगा-प्रेम|  नदी को  बारिश का जल भी चाहिए, गंगा को भी चाहिएकिसानों को भी चाहिए, आमजन को भी चाहिए। बारिश पर निर्भर किसान समाज के दुख को विद्यापति समझते हैं-

जलधर  जल  घन गेल असेखि

करए कृपा बड़  पर दुख देखि।

'बड़ सुख सार' गंगा-गीत के बाद आधुनिक काल के गीतकार / गायक भूपेन हजारिका  का 'ओ गंगा तुमि' रोमांचित करनेवाला गीत है। यह गंगा प्रेम से भरा अद्भुत उलाहना गीत है, जिसमें गंगा से सवाल-दर-सवाल   पूछे गए हैं-

विस्तार है अपारप्रजा दोनों पार

करे हाहाकार निशब्द सदा

गंगा तुम बहती हो क्यूँ ?...

इतिहास की पुकारकरे हुंकार

गंगा की धार निर्बल  जन को

सबल संग्रामी समग्रगामी बनाती नहीं हो क्यूँ?

आधुनिक गीतकार गंगा से निर्बल जनों को ताकतवर बनाने की याचना करता है और 15वीं शताब्दी का कवि विद्यापति गंगा को धारण करने वाले  शिव से निर्बलों का दुख दूर करने की याचना करता है- 'निर्धन जन के हरहु कलेस'

           (प्रयाग-पथ के संयुक्तांक 10-13, अक्टूबर  2023 में प्रकशित) 

 

सन्दर्भ-सूची



[i] कार्ल मार्क्स के इस लेखन का अनुवाद नार्वे प्रवासी पेशे से चिकित्सक और चर्चित लेखक लेखक (कुली माइंस) डॉक्टर प्रवीण झा का अनुवाद है। www.jankipul.com. 6 मई 2017 एक कंट्रीब्यूशन ऑफ द रिटर्न ऑफ रिबेल  पुस्तक का अंश

[ii] मुक्तिबोध रत्नावली, खंड 5,  राजकमल प्रकाशन, द्वितीय आवृत्ति, 2007,  पृष्ठ 293

[iii] भक्ति आंदोलन संबंधी बहस का तीसरा पहलू- रमेश बर्णवाल, आलोचना, अप्रैल-जून 2022, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-64

[iv] भक्ति आंदोलन और उत्तर-धार्मिक संकट, वाणी प्रकाशन, 2023, पृष्ठ-253

[v] रीतिकाल: सेक्सुअलिटी का समारोह-सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, 2017, पृष्ठ -15

[vi] हिंदी साहित्य का इतिहास-आचार्य रामचंद्र शुक्ल, संस्करण-नवीनतम, कमल प्रकाशन, पृष्ठ-51

[vii] उपर्युक्त पृष्ठ 51

[viii]  loknathswami.com, जप चर्चा, 1व मई 2020

[ix] भक्ति आंदोलन और उत्तर धार्मिक संकट-शंभूनाथवाणी प्रकाशन,  2023, पृष्ठ 250

[x] विद्यापति युग का सामाजिक-सांस्कृतिक आधार-राधाकृष्ण चौधरी, विद्यापति : अनुशीलन एवं मूल्यांकन, संपादक- वीरेंद्र श्रीवास्तव, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी, पटना- 2011, पृष्ठ-14

[xi] बंगाल के भजन संग्रह में विद्यापति के पद पूनम मिश्रhttps://ignca.gov.in/coilnet/vp011.htm

[xii] विद्यापति की पदावली, संपादक-रामवृक्ष बेनीपुरी, पुस्तक भण्डार, लहेरियासराय, दरभंगा, पृष्ठ 33 ( हिन्दू धर्म के सूर्य का अस्त भले हो जाए- वह समय भी आ जाए जब राधा और कृष्ण में मनुष्यों के विश्वास और श्रद्धा न रहे; और, कृष्ण के प्रेम की स्तुतियों के लिए, इहलोक में हमारे अस्तित्व  के रोग की दव्बा हा, अनुराग आता रहे, तो भी विद्यापति के गान के लिए जिसमें राधा और कृष्ण का उल्लेख है- लोगों का प्रेम कम न होगा)

[xiii] मैथिली शैव साहित्य-डॉ. रामदेव झा, मैथिली अकादमी, पटना , 1979, पृष्ठ 79

[xiv] भक्ति आंदोलन और उत्तर धार्मिक संकट-शंभूनाथ, वाणी प्रकाशन, 2023, पृष्ठ-253

[xv] भक्ति आंदोलन और उत्तर धार्मिक संकट- शंभूनाथ, वाणी प्रकाशन, 2023,  पृष्ठ- 249

Comments

  1. अत्यधिक प्रशंसनीय,विद्वत्तापूर्ण आलेख

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  2. सुन्दर समालोचना

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  3. बहुत सटीक तथ्यात्मक विवेचनापूर्ण आ तर्कसम्मत आलेख। हिन्दी साहित्यक भक्ति युगमे महाकवि विद्यापतिक भक्ति साहित्यक परवर्ती काव्यपर आ एकक्षत्र समभाव वा समन्वयवादी प्रभावक विश्लेषणसँ बहुतरास बात समक्ष आबि गेल अछि। समालोचक कोना एकपक्षीय भऽ रचना करैत रहलाह अछि, पूर्वाग्रहसँ ग्रस्त भऽ पठनीय होइत रहलाह अछि आ एहन परम्पराक श्रृंखला बनैत चल जाएब केहन स्वभाविक लगैत अछि।

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