कनुप्रिया विचार-बोध और काव्य-बोध के अंतर्द्वद्व की उपज
धर्मवीर भारती हिंदी के सफलतम नाटककार, उत्तम कहानीकार, लोकप्रिय उपन्यासकर, अस्पष्ट और आग्रही आलोचक, सत्ता-पसंद पत्रकार और मूलतः प्रेम-श्रृंगार भाव के कवि हैं। इस प्रेम और श्रृंगार भाव का शिखर 'कनुप्रिया' है। यह भाव 'कनुप्रिया' में जितना खिलकर और खुलकर विन्यास पाता है, कदाचित अन्यत्र नहीं। वैसे उनके पहले काव्य संग्रह 'ठंडा लोहा' से लेकर 'सात गीत वर्ष' और 'कनुप्रिया' तक में प्रेम के विविध और विलक्षण रूपों से साक्षात्कार सुखद है। आलोचकों ने इनके प्रेम कविताओं में कैशोर्य भाव को प्रमुख माना है। उनका पहला उपन्यास 'गुनाहों का देवता' भावुक किशोर प्रेम की उत्कट अभिव्यक्ति है। यह उपन्यास किशोरों और युवाओं में जितना लोकप्रिय हुआ शायद हिंदी का दूसरा उपन्यास नहीं। सौ से अधिक संस्करण इसके प्रमाण हैं। भारती निरंतर प्रेमाभिव्यक्ति में विविधता लाते रहे, किंतु कविता में भी 'गुनाहों का देवता' समूलतः उनका पीछा कभी छोड़ नहीं पाता है। कनुप्रिया में भी प्रेम का यह रूप हुलकी मार ही जाता है। वैसे किशोर प्रेम उतना निंदनीय नहीं है जितना वरिष्ठ आलोचकों ने उसे बना दिया है। 'लरिकाई का प्रेम' किशोर, युवा-युवती को स्वाधीनता का पहला एहसास कराता है। पहली बार वह किसी 'अन्य' को (परिवार, कुटुंब और दोस्त के अलावा) स्वयं से अधिक महत्त्व देता है और यह 'अन्य' उसका व्यक्तिगत चुनाव है। पहला व्यक्तिगत निर्णय। पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में कहें तो "केशौर्य प्रेम से जुड़ी स्मृतियाँ, ऑब्सेशन, उन्माद अच्छे और बुरे दोनों अर्थों में केवल परंपरा और संस्कार की ट्रेनिंग का नतीजा नहीं है। वह कहीं न कहीं किसी ऐतिहासिक समय में स्थित मनुष्य का एक मूलभूत और निर्णायक जीवन अनुभव है।"[i]
इस 'मूलभूत और निर्णायक जीवन अनुभव' का काव्यान्तरण कोई गुनाह नहीं। क्योंकि हिंदी साहित्य में इस तरह की कविताओं
की आलोचना में गुनाह भाव ही प्रधान रहा है। दूसरी तरफ केशौर्य प्रेम की सबसे बड़ी सीमा होती है-दूसरे को
अपने में विलीन कर देने की उत्कंठा। अर्थात 'एकत्त्व' की माँग। यद्यपि इस 'एकत्व' की मांग वयस्क और प्रौढ़ क्या प्रेम की ही एक
विशेषता या लक्षण है। लेकिन किशोर वय के प्रेम में यह भाव अधिक उदग्र रूप में रहता
है। 'एसीड प्रकरण’ इसी उदग्र भाव की विकृति है। भक्तिकालीन
प्रेमभाव में 'भक्ति' के आवरण में यह 'एकत्त्व' असुविधाजनक प्रतीत नहीं होता। लेकिन आधुनिक
युग में इस तरह के ‘आत्मार्पण’ का औचित्य समझना कठिन है। भारती जी के समकालीन कवि
राजकमल चौधरी,
जो प्रेम-कविता
के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं, इस तरह की प्रेमाभिव्यक्ति की तीखी आलोचना करते हैं। रामकिशोर द्विवेदी को दिए
अपने एक साक्षात्कार में विशुद्ध 'राजकमलीय'
अंदाज में कहते हैं, "मेरे भाइयो और बहनो, मुझे सिर्फ मीराबाई से छुटकारा दिलाओ। प्रेम कविताओं के मीराबाई-पन से जो
सच्चिदानंद वात्सायन 'अज्ञेय' की कविताओं से लेकर गोपालदास नीरज तक व्याप्त
है,
मैं मुक्त होना
चाहता हूँ।
और यह कोई नैतिक
प्रश्न नहीं है,
बल्कि केवल
मूल्यों का प्रश्न है- कविता के मूल्यों का, जिसमें प्रेम एक मूल्य के रूप में नहीं, एक शारीरिक और सामाजिक परिस्थिति के रूप में
शामिल है।"[ii] कनुप्रिया में अनेक स्थलों पर राधा का 'आत्मार्पण', कृष्ण के विराट व्यक्तित्व में अपने को विलोपित कर देने की आकांक्षा से इनकार
नहीं किया जा सकता है। अपनी कविताओं में किशोर रूप के प्रेम सौंदर्य के प्रति
आसक्ति और प्रेमजन्य नैराश्य भाव को स्वीकार करते हुए 'ठंडा लोहा' की भूमिका में धर्मवीर भारती लिखते हैं, “किशोरावस्था के प्रणय, रूपाशक्ति और आकुल निराशा से अपने मन के अहम का संबंध अपने से बाहर की व्यापक सचाई हृदयंगम करते हुए संकीर्णताओं और कट्टरता से ऊपर एक जनवादी भावभूमि की खोज मेरी इस छंद-यात्रा
के यही प्रमुख मोड़ रहे हैं।"[iii] अब उनकी कविताओं में जनवादी भावभूमि कितनी है
यह तो अनुसंधान का विषय है किंतु प्रणय, रूपाशक्ति और आकुल निराशा की छाया तो कनुप्रिया में भी पर्याप्त मात्रा में
देखने को मिल जाती है।
धर्मवीर भारती का द्वंद और अंतर्विरोध
मात्र उनके विचारों में ही मिलता हो, ऐसा नहीं है। कविता में भी उनके दुचित्तेपन को हम तलाश सकते हैं। ‘कनुप्रिया’ की राधा
कभी अत्यंत चेतस और पितृसत्ता से सवाल करती नजर आती है तो कभी अपने को कनु में
विलुप्त कर देने की ख्वाहिश से लैस भी। कहा जा सकता है कि यही प्रेम की अद्वितीयता
है। 'स्वत्व' की रक्षा भी और आत्मार्पण की ख्वाहिश भी। 'एकहि संग न होहि भुआलू, हँसब ठठाय फुलायब गालू'। कनुप्रिया' के साथ उनके वैचारिक निबंध को मिलाकर पढ़ने से उनके इस प्रचंड फर्क और
द्वंद्व को समझ सकते हैं। धर्मवीर भारती ईश्वर की अनुपस्थिति और मानवीय गरिमा की
प्रतिष्ठा को आधुनिकता का प्रधान लक्षण मानते हैं। वे अपनी पुस्तक 'मानव मूल्य और साहित्य' में लिखते हैं कि "मानववाद के उदयकाल
में ईश्वर जैसी किसी मानवोपरिसत्ता या उसके प्रतिनिधि धर्माचार्यों को नैतिक
मूल्यों का अधिनायक न मानकर मनुष्य को ही इन मूल्यों का विधायक मानने की प्रवृत्ति
विकसित होने लगी थी।... माननीय गौरव के अर्थ यह है कि मनुष्य को स्वतंत्र, सचेत, दायित्वयुक्त माना जाए जो अपनी नियति, अपने इतिहास का निर्माता हो सकता है।"[iv]
लेकिन 'कनुप्रिया' में कृष्ण का 'देवत्व' स्पष्ट है। प्रेम कविता के लिए कृष्ण का
चुनाव ही देवत्व के स्वीकार की घोषणा है। वैसे भारतीय माइथोलोजी में कृष्ण प्रेम
के प्रतीक रूप में भी समादृत हैं, इसलिए प्रेमकाव्य के लिए कृष्ण के चुनाव को
अनुचित नहीं कहा जा सकता। किंतु इस प्रेम प्रतीक राधा और कृष्ण पर 'देवत्व' का आरोपण 'कनुप्रिया' को आधुनिक चित्त से दूर ले जाता है।
मध्यकालीन कवि विद्यापति और सूरदास के प्रेमकाव्य में भी राधा-कृष्ण का देवत्व रूप
लगभग ओझल ही रहता है। लेकिन कनुप्रिया मैं ऐसा नहीं है-
यदि सारे सृजन, विनाश,
प्रवाह
और अविराम जीवन
प्रक्रिया का
अर्थ केवल
तुम्हारी इच्छा है
तुम्हारा संकल्प
भारती जी की प्रेम कविता में एक आधुनिक
चित्त की पुकार भी है और रहस्य, रोमांस की छाया भी। तात्पर्य है कि रहस्य, रोमांस और आधुनिकता की त्रयी से इनकी प्रेम कविता
आकार ग्रहण करती है। यह तीनों भाव आपस में इतने गुँथे हुए हैं कि उनको अलगाना संभव
नहीं। जब इनका रहस्य, रोमांस आधुनिकता से चालित-परिचालित होता है तब कविता में एक विशेष प्रकार की
कौंध पैदा होती है, मसलन-
सुनो मेरे
प्यार!
प्रगाढ़
केलिक्षणों में अपनी अंतरंग
सखी को तुम ने
बाहों में गूँथा
पर उसे इतिहास
में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु?
लेकिन जब इनका
आधुनिक मन रहस्य और आलौकिकता की अनुगामिनी बन जाती है तो इनकी कविता मध्यकालीनता
का आभास देने लगती है-
उस समय मैं
बिल्कुल भूल गई हूँ
कि मैं कितनी
छोटी हूँ
और तुम वही कान्हा हो
जो सारे वृंदावन
को
जल प्रलय से
बचाने की सामर्थ रखते हो
भारतीय कला और काव्य-परंपरा में श्रृंगार भाव की प्रधानता रही है, और आनंदभाव इसके केंद्र में रहा है। संस्कृत काव्य-परंपरा में श्रृंगार के जितने विविध रूपों की झाँकी हमें देखने को मिलती है, वह विश्व साहित्य में अनुपम है। हिंदी में भी विद्यापति से लेकर रीतिकाल के कवियों तक में प्रेम और श्रृंगार की समृद्ध परंपरा रही है। ध्यान देने की बात यह है कि श्रृंगार की इस पूरी परंपरा में समाज, सामाजिकता और पारिवारिकता साथ-साथ चलती है। रीतिकालीन प्रेम कविता न तो नितांत एकांतिक है और ना ही अलौकिक। इहलौकिकता इन प्रेम कविताओं का वैशिष्ट्य है। पहली बार यहाँ प्रेम और श्रृंगार की कविता के लिए न तो राजा की अनुमति और न ही 'राधा-कृष्ण के सुमिरन को बहानो' की जरुरत है। 'कनुप्रिया' के प्रेम और श्रृंगार को इसी भारतीय परंपरा में देखने की कोशिश की जानी चाहिए। वात्सायन के कामसूत्र से लेकर एलोरा और खजुराहो में उत्कीर्ण उद्दाम श्रृंगारिक शिल्प जैसे कई आकर्षक शाब्दिक चित्र-बिम्बों से 'कनुप्रिया' को कवि ने सजाया है। ऐसे अवसरों पर भारती जी की कलम तूलिका ने कमाल कर दिया है। दुनिया भर की कलाओं पर अगर दृष्टिपात किया जाए तो हम कह सकते हैं कि ये कलाएँ देहभाषा का कलात्मक रूपांतरण है। 'कनुप्रिया' में राधा ही नहीं बोलती है बल्कि राधा की उन्मुक्त देह भी बोलती है। कनुप्रिया को देहभाषा की कविता के रूप में भी पढ़ा जा सकता है-
और यह मेरा कसाव निर्मम है
और अंधा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें नगरवधू की
गुंजलक की भांति
कसती जा रही है
और तुम्हारे कंधों पर, बाँहों पर, होठों पर
नगरवधू की शुभ्र
दंत-पंक्तियों के नीले नीले चिह्न उभर आए हैं
राधा के इस कथन में उसकी देह अत्यंत मुखर है। कनुप्रिया में 'देह के टेक्स्ट के भीतर
चलनेवाली अभाषिक अन्तरपाठीयता' अत्यंत सशक्त है। कनुप्रिया
को स्त्री विमर्श की दृष्टि से भी पढ़ा जा सकता है, पढ़ा भी जाना चाहिए। किंतु
उद्दाम श्रृंगारिकता के बचाव के लिए 'कनुप्रिया' का स्त्री-पाठ उचित नहीं। क्योंकि काम-भावना सिर्फ
आदिम वृत्ति ही नहीं है बल्कि प्राणी मात्र का अक्षय ऊर्जा स्रोत भी है।
"देह-भाषा-वृत्त में इच्छाओं के अंतर्गत सेक्स एक बुनियादी अर्थात मूलवृत्ति (बेसिक इंस्टिंक्ट) और एक 'सुख-सिद्धांत' भी है। यह संपूर्ण मानवीय अनुभवों का आनंदप्रदायक तथा परमसुखपूर्ण हिस्सा है। इसकी ही असंख्य
देहभाषिक गतियाँ-अभिव्यंजनाएँ-मुद्राएँ यहाँ से वहाँ तक परिव्याप्त हैं। यह एक ओर सौंदर्य तथा
श्रृंगार से संलिप्त है, तो दूसरी ओर शरीर की शक्ति
और देह की उन्मत्त ऊर्जा से।"[v]
'कनुप्रिया' में धर्मवीर भारती ने
स्त्री-देह और उसके सौंदर्य को गहरे उतर कर देखने की कोशिश की है। इस देखने में
उनका परिमार्जित सौंदर्यबोध से भी हमारा साक्षात्कार होता है। इस सौंदर्यबोध में श्रृंगार की भारतीय परंपरा
का नख--सिख वर्णन भी आता हैं। इस नख-शिख वर्णन में राधा के कंधे-
अगर यह उत्तुंग हिमशिखर
मेरे ही रूपहली ढलान वाले
गोर कंधे हैं, जिस पर तुम्हारा
गगन-सा चौड़ा और साँवला और
तेजस्वी माथा टिकता है
से लेकर जिस्म का उतार-चढ़ाव, केशराशि और राधिका के
जँघाओं तक का सौंदर्य खुलकर सामने आता है-
अगर सूर्यास्त वेला में
पच्छिम की ओर झरते हुए ये
अजस्त्र-प्रवाही झरने
मेरे ही स्वर्ण-वर्णी
जंघाएँ हैं
इस नख-शिख वर्णन में संस्कृत काव्य-परंपरा, जायसी के पद्मावती का
सौंदर्य वर्णन से लेकर रीतिकालीन कवियों की श्रृंगार कविताओं का विराट अनुभव संसार
सिमटा हुआ है।
काम-क्षेत्र से लेकर श्रृंगारपरक कविताओं में पुरुष-दृष्टि
की प्रधानता को लक्षित किया जाता रहा है। यह स्वाभाविक भी है।
अधिकांश पुरुषों ने ही श्रृंगार कविताएँ लिखी हैं, तो उनमें उनकी दृष्टि तो
आएगी ही। आधुनिक कविता में पुरुष कवियों ने इस प्रवृत्ति की सीमाओं
को समझा और अपने अनुभव को बदलने का प्रयास किया। 'कनुप्रिया' में भी इस बदलाव को लक्षित
किया जा सकता है। चूँकि पूरी कनुप्रिया में
राधा का एकालाप है, इसलिए उसमें स्त्री-स्वर का आना लाजमी है। लेकिन 'कनुप्रिया' में प्रेम, श्रृंगार और काम -दृष्टि
में पुरुष-दृष्टि की व्याप्ति से आँखें नहीं मूंदी जा सकती हैं। इस अंतर्विरोध से
कवि को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती। सेक्स में 'अक्षत स्त्री'
की अवधारणा से हम सभी परिचित हैं। साहित्य में भी पुरुष की इस
चाहत और 'अक्षत स्त्री' के ‘महात्म्य’ से हम सभी परिचित हैं| । ‘कनुप्रिया’
में भी राधा को इसी रूप और इसी रूप की चाहत से हमारा सबाका पड़ता है-
आम का वह बौर
मौसम का पहला बौर था
अछूता, ताजा सर्वप्रथम !
मैंने कितनी बार तुम में
डूब-डूब कर कहा है
कि मेरे प्राण ! मुझे कितना
गुमान है
कि मैंने तुम्हें जो कुछ
दिया है
वह सब अछूता था, ताजा था,
सर्वप्रथम प्रस्फुटन था।
नई कविता ने लघुमानव की
अवधारणा प्रस्तावित की और इसे छायावादी कविता के बरक्स स्थापित किया। लघुमानव का अर्थ
है-‘वह सामान्य मनुष्य जो अपनी सारी संवेदना, भूख, प्यास और मानसिक आँच को
लिए-दिए उपेक्षित था|’ इन उपेक्षितों का महत्व
प्रतिपादन नई कविता का वैचारिक आधार माना गया| विजयदेव नारायण साही 'लघुमानव के बहाने' अपने अत्यंत महत्त्वपूर्ण
आलेख में इसी अवधारणा के आधार पर अज्ञेय को अपने समय का 'बड़ा' कवि सिद्ध करते हैं। साही अपने
उक्त लेख में लिखते हैं "लघु और महत्व का सम्मिलन प्रतीकात्मक स्तर पर होता
है। शाब्दिक रूप में हम महत की तीन अवस्थाएँ मान लें, छायावाद में उसका रूप लघु
की महानता का है, तीसरे दशक में लघु की 'महिमा' का है और उसके बाद की कविता
में लघु के 'महत्व' का है।"[vi]
धर्मवीर भारती नई कविता के एक
बड़े कवि ही नहीं बल्कि नई कविता और लघुमानव के प्रमुख भाष्यकार भी हैं। यहाँ हम देखने की कोशिश
करेंगे कि भारती जी की लघुमानव की अवधारणा क्या थी? और इस अवधारणा से उनकी
कविता विशेषकर 'कनुप्रिया' कितना जुड़ पाती है? भारती अपने महत्त्वपूर्ण
वैचारिक पुस्तक 'जीवन मूल्य और साहित्य' में लिखते हैं,
"मानवीय गौरव की प्रतिष्ठा किसी एक व्यक्ति की सुखानुभूति या उसके
कलाव्यक्तित्व की मौज की समस्या नहीं है। अंततोगत्वा वह भी एक व्यापक सामाजिक तत्व
है और इसलिए यदि व्यापक मानवीय गौरव की स्थापना हो सकती है तो उसी स्थिति में कि
समाज के प्रत्येक छोटे से छोटे व्यक्ति के गौरव को वही महत्त्व दिया जाए जो बड़े से
बड़े व्यक्ति को मिलता है। जब महामानव और लघुमानव का भेद कर एक के गौरव का बलिदान
कर दूसरे के गौरव की वृद्धि न की जाए। किसी को भी विशिष्ट मानव
मान कर चाहे वह आर्थिक आधार हो पर हो, चाहे सौन्दर्यानुभूति के आधार पर, चाहे जाति के विकास के आधार
पर, उसे सामान्य नैतिक धरातल से परे का जीवन मान लेना वस्तुतः
व्यापक मानवीय गौरव और अंतरात्मा की प्रतिष्ठा के विरुद्ध पड़ता है। उसकी स्थापना तो तभी हो
सकती है जब हम सामाजिक समानता के सिद्धांत को प्राथमिक मान्यता प्रदान करें, मनुष्य और मनुष्य को समान
मानें, महाजन के समक्ष लघुजन को रखें और दोनों के लिए
समान नैतिक मूल्य और समान अधिकार और समान गौरव की घोषणा करें।"[vii]
इस लंबे उद्धरण में भारती जी
जिस लघुमानव की वकालत करते हैं, वह उनकी कविता में कितना है
और कितनी संभावनाओं के साथ उपस्थित होता है, कहने की आवश्यकता नहीं। प्रेमकाव्य के
लिए उन्होंने किसी लघुमानव का चुनाव न कर महामानव का ही चुनाव किया। चुनाव ही नहीं
किया कनु का 'महामानवत्व' भी बरकरार रखा। 'कनुप्रिया' का कनु अपने प्रेम का
विस्तार लघुमानव के साथ नहीं कर पाता। वहाँ बतौर प्रेमिका सिर्फ़ राधा की ही मौजूदगी है, कहना चाहिए कि राधा ही वहाँ
अकेली है| लेकिन ‘अनुपस्थित’ कृष्ण अपने सारी अलौकिकता और महामानवत्व के साथ वहाँ
मौजूद हैं। ‘अंधायुग’ भी अनुपस्थित
कृष्ण के ‘देवत्व’ की आभा सर्वत्र मौजूद है| लघुमानव की बात किए बगैर
सूरदास के कान्हा के प्रेमोत्सव में
राधा तो हैं हीं, सामान्य गोपियाँ भी हैं, गोप बालक भी हैं, गायों के साथ-साथ वृंदावन
के कारीलों, कुंजों, निकुंजों, तालाबों आदि की सजग उपस्थिति से
प्रेम का विलक्षण सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष उद्घाटित होता है। राधा को अगर लघुमानव
मान लें तो भी 'कनुप्रिया' में दर्ज प्रेम के स्वरूप
में लघुमानव की कोई अवधारणा नजर नहीं आती। राधा
गो-पालक थी, पशुचारण उसका पारिवारिक पेशा था। दूध दुहने से लेकर मक्खन
निकालने और उसे बेचने तक का कार्य भी राधा के दैनंदिन प्रक्रिया में शामिल रही
होगी। सूरदास ने श्रमिक कृष्ण का लाजवाब चित्र खींचा है-
धेनु दुहत अतिहीं रति बाढ़ी|
एक धार दोहनि पहुँचावत,
एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी।|
लेकिन कनुप्रिया में श्रम करती राधा या कृष्ण नजर नहीं आते। राधा के इस रूप की अवधारणा
से प्रेम का वर्गीय रूप शानदार तरीके से आ सकता था। यहाँ उसकी पूरी संभावना थी। क्योंकि कृष्ण भी उसी श्रमिक
समुदाय से आते हैं। मशक्क्ती समाज का प्रेम भी अधिक ऊर्जस्वी और गतिशील होता है | सामंती फुर्सती समाज के प्रेम में आडंबर, विलासिता और प्रेम का
पितृसत्तात्मक पक्ष अधिक प्रभावी होता है | विद्यापति की पदावली, सूरदास के वृंदावन, ईश्वरी के फागु, 'हर ख्वाहिश पर दम निकलने' वाली ग़ालिब की इश्क की
गजलें, संघर्षपूर्ण साझेपन से निकली फैज की प्रेम-कविता, भिखारी ठाकुर के बिदेसिया
तथा विभिन्न बोलियों के स्त्रीगीतों में अभिव्यक्त प्रेम का जीवन संघर्ष जितना
उन्नत और महिमाशाली बन पड़ा है 'कनुप्रिया'
के प्रेम में वह बात नहीं आ पायी है।
इस संदर्भ में भक्त कवयित्री जाना बाई की एक कविता यहाँ आशय को स्पष्ट कर सकता है-
हे माधव, देखो ना
कितने काम धरे हैं सिर पर
इतना आटा गूँधना है अभी
कितने कपड़े कूटने हैं-
आओ भी हाथ बंटा दो थोड़ा
या तुम हेर दो जूँ ही जरा
कुछ तो करो, कुछ करो
कनुप्रिया का
कनु भी
कुछ तो करते ही
हैं,
राधा के पाँव
में महावर लगाते हैं-
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़ कर, मसल कर,
उनकी लाली से
मेरे पाँवों को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो
तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ।
आटा सने हाथ और
कपड़ा कूटते,
पसीने से तर-बतर
राधा जब कृष्ण से जूँ हेरने का निवेदन करती है, तो प्रेम का अधिक सक्रिय और सांद्र रूप निखर
कर सामने आता है, और राधा का लघुमानव रूप भी।
एक तरफ छायावाद-रहस्यवाद और दूसरी तरफ
प्रगतिवादी कविता के विरोध से नई कविता की भावभूमि तैयार होती है। लेकिन विडंबना
यह है कि नई कविता के अग्रदूत अज्ञेय सहित धर्मवीर भारती की कविता ही नहीं बल्कि
काव्यभाषा भी छायावाद-रहस्यवाद से मुक्त नहीं हो पाती है। धर्मवीर भारती की कविता
में छायावाद और रहस्यवाद का प्रभाव प्रभूत मात्रा में है। 'कनुप्रिया' के राधा और कृष्ण पर भी इस रहस्य का झीना
पर्दा चढ़ गया है। नामवर सिंह अपनी पुस्तक 'कविता के नए प्रतिमान' में लिखते हैं "धर्मवीर भारती के कुछ गीतों और कनुप्रिया में
जहाँ छायावादी ढंग की काव्यभाषा का उपयोग किया गया है, उससे कविता के भावबोध की कच्चाई, बौद्धिक अपरिपक्वता और एवं कैशोर भावुकता का
पता चलता है।"[viii] छायावाद की लाक्षणिकता, संकेतिकता और प्रतीक योजना के साथ लाक्षणिक
काव्यभाषा 'कनुप्रिया' की विशिष्टता है-
तो क्या तुम्हारे पास की डार पर खिली
तुम्हारे कंधों पर झुकी
वह आम की ताजी, क्वांरी,
तुर्श मंजरी में
ही थी
और तुमने मुझसे ही मेरी मांग भरी थी !
कनुप्रिया में
प्रेम,
रोमांस और
श्रृंगार के न जाने कितने रंग हैं। बहुरंगी प्रेम का गुच्छ है 'कनुप्रिया'। अकारण नहीं है कि हिंदी प्रेम-काव्य-परंपरा
में इसका अन्यतम स्थान भी है और सार्थक हस्तक्षेप भी। यहाँ उद्दाम संयोग श्रृंगार
का उल्लास है तो अंतहीन प्रतीक्षा की उदासी भी। इस प्रेम में 'सुख के क्षण' और 'आग्रह भरा गोपन' है तो 'एक अज्ञात भय' और 'अपरिचित संशय' ही नहीं 'घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी' भी है। वैसे प्रेम के साथ भय का 'भाईचारा' रहा है। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के
लिए प्रेम करना जितना साहस का काम है उतना ही अनागत भय का आमंत्रण भी। समाज के भय
के अतिरिक्त प्रेमी पुरुष के चंचल चित्त का भय। प्रेम के टूट कर बिखर जाने का भय। 'कनुप्रिया' में इस स्त्री-भय को भारती ने कई तरह से
दिखलाने की कोशिश की है-
और यह रात मेरी प्रगाढ़ता है
और दिन मेरी हंसी
और फूल मेरे स्पर्श
और हरियाली मेरा आलिंगन
तो यह तो बताओ मेरे लीलाबंधु
कि कभी-कभी मुझे भय क्यों लगता है?
* *
*
* *
क्यों मेरे लिए
लीलाबंधु
क्या वह आकाशगंगा मेरी माँग नहीं है?
फिर उसके अज्ञात रहस्य
मुझे डराते क्यों हैं?...
और इस तमाम सृष्टि में मेरे अतिरिक्त
यदि कोई है तो केवल तुम, केवल तुम
केवल तुम
तो मैं डरती किससे हूँ मेरे प्रिय!
*
*
*
* *
उद्दाम क्रीड़ा
की वेला में
भय का यह जाल किसने फेंका है?
कनुप्रिया में प्रेम के सघनतम क्षणों का
सूक्ष्म अंकन है तो प्रेमिका में मातृत्व का दर्शन भी। प्रेमिका में मातृत्वभाव का दर्शन प्रेम का
विरलतम अनुभव कहा जा सकता है। मेघ के घोर गर्जन और बिजलियों की कड़क में जब
सारे वनपथ धुँधला कर छुप गए हैं
तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दुबका लिया
है
तुम्हें सहारा दे-देकर
अपनी बाँहों में घेरे गाँव की सीमा तक
तुम्हें ले आई हूँ ...
और मुझे केवल यही लगा है
कि तुम छोटे-से शिशु हो
असहाय, वर्षा में भींग-भींग कर
मेरे आँचल में दुबके हुए
कनुप्रिया में
प्रेम की असीमता और नैरंतर्य को अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया गया है। कनु
और राधा से पहले भी प्रेम करने वाले हुए थे और आगे भी प्रेम के राहगीर होंगे।
प्रेम अहर्निश चलने वाली खूबसूरत एहसास का नाम है। दुनिया तभी तक खूबसूरत बनी
रहेगी जब तक स्त्री-पुरुष प्रेम का अस्तित्व बचा रहेगा-
पर जब मुझे चेत हुआ
तो मैंने पाया कि हाय सीमा कैसी
मैं तो वह हूँ जिसे दिग्वधू कहते हैं कालवधू------
समय और दिशाओं की सीमाहीन पगडंडियों पर
अनंत काल से
अनंत दिशाओं में
तुम्हारे साथ-साथ चलती चली आ रही हूँ चलती
चली जाऊंगी...
इस यात्रा का आदि ना तो तुम्हें स्मरण है ना
मुझे
और अंत तो इस यात्रा का है ही नहीं मेरे
सहयात्री !
कनुप्रिया का
विशेष महत्व स्त्री-प्रश्न को लेकर है। प्रेम में स्त्री-प्रश्न ही कनुप्रिया को
आधुनिक प्रेम कविता बनाता है। आधुनिककाल से पूर्व स्त्री-पुरुष संबंध में
स्त्री-प्रश्न का कोई मतलब नहीं था। प्रेम का मतलब था प्रेमी को 'शैय्या-सुख' उपलब्ध कराना। लेकिन ‘कनुप्रिया’ की राधा
कृष्ण से सवाल करती है। दूसरे स्तर पर यह सवाल इतिहास से भी है और साहित्य से भी।
इतिहास में पुरुष स्वर्णाक्षरों में दर्ज होते रहे और स्त्रियाँ कहाँ विलुप्त हो गईं? सुमन राजे को 'हिंदी साहित्य का आधा इतिहास' क्यों लिखना पड़ता है? इतिहास अपने को वस्तुनिष्ठ कहता है तो वह
इतना स्त्री विरोधी क्यों है? सारे इतिहास पुरुषदर्प से दीपित क्यों होते हैं? 'कन्याहरण' और 'सीमाविस्तार' के लिए किया गया युद्ध शौर्य और पराक्रम
(वीरगाथा) से सुशोभित क्यों होता है? कनुप्रिया के सवाल में इन सारे सवालों की अनुगूँज है-
और जन्मांतरों की अनंत पगडंडी के
कठिनतम मोड़ पर खड़ी होकर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।
कि, इस बार इतिहास बनाते समय
तुम अकेले ना छूट जाओ!
राधा दोटूक कनु
को कहती है कि तुम्हारे कृष्ण बनने में मेरा क्या कुछ छीज गया, कितना कुछ छूट गया, रीत गया, इसका हिसाब कौन-सा इतिहास करेगा? –
तुम्हारे महान बनने में
क्या मेरा कुछ टूट कर बिखर गया है कनु!
सवाल-दर-सवाल हैं राधा के। सिर्फ राधा के नहीं यह सवाल सभी स्त्रियों के
हैं। यह सवाल आज के स्त्रियों की भी हैं| 'कनुप्रिया' का वैशिष्ट्य कृष्ण यानी पुरुष को
प्रश्नबिद्ध करने में है। ‘कनुप्रिया’ का यक्षप्रश्न यह भी है कि क्या स्त्री अपनी
अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए भी प्रेम कर सकती है? क्या वह अपने अस्तित्व को पति, प्रेमी या किसी भी पुरुष में विलुप्त किए बगैर प्रेम की अधिकारिणी हो सकती हैं? धर्मवीर भारती की कविता में प्रेम के इसी
विविध रूपों को देखकर आलोचक देवीशंकर अवस्थी को इनकी प्रेम कविताएँ अद्वितीय लगती
हैं। वे
लिखते हैं, "भारती की कविताओं का एक चौथा स्तर भी है, जहाँ अर्थ, मूल्य, व्यंग्य, अनस्तित्व आदि की चर्चा छोड़कर सहज कवि के
रूप में वह हमारे सामने आते हैं। प्रकृति के कितने ही मधुर मोहक
चित्र...प्रणयानुभूतियों के सूक्ष्म संवेदन... प्रेमियों के पास बैठकर वह उसकी
रूखी मुक्त वेणी को उंगली में बार-बार प्यार से लिपटा कर अनबांधे छोड़ देता है...
वास्तव में भारती की कविताओं का यही क्षेत्र है और जहाँ वे अद्वितीय हैं... इस
रोमांटिक स्तर से हटकर जब वह स्थापना करने लगते हैं, मानो रोमांटिक कृति वेश बदल कर आ गई हो।[ix] देवीशंकर अवस्थी भारती जी को मूल रूप से रोमांटिक कवि ही
मानते हैं।
इसी रोमांटिक
भाव का सर्जनात्मक विस्फोट है 'कनुप्रिया'।
कनुप्रिया का महत्व राधा का इतिहास से
मुठभेड़ में भी है। इतिहास खंड में राधा ने कृष्ण के युद्धोन्मादी छवि की तीखी
आलोचना की है। युद्ध को लेकर यह एक गंभीर स्त्री-प्रश्न ही है। क्योंकि युद्ध का 'पौरुष' स्वरूप उसे पितृसत्ता की स्थापना का
महत्त्वपूर्ण कारक बनाता है। युद्ध लड़ते पुरुष हैं किंतु शिकार औरतें होती हैं
ठीक गाली की तरह। गालियाँ दी तो पुरुषों को जाती हैं, किंतु जलील औरतें होती हैं। इसलिए युद्ध के
खिलाफ औरतें आवाज उठाती रही हैं। वैश्विक स्तर पर सर्वसत्तावादी युद्धोकांक्षा के
खिलाफ औरतों ने आवाज उठाई हैं। कनुप्रिया में कृष्ण के हाथों महावर लगाते लाज से 'कठौत' होनेवाली राधा युद्ध से हुई विनाशलीला के लिए
कृष्ण को लानतें भेजती हैं-
आज उस पथ से अलग हटकर खड़ी हो
बावरी!
लता कुंज की ओट
छिपा ले अपने आहत प्यार को
आज इस गाँव से
द्वारिका की युद्धोन्मत्त सेनाएँ गुजर रही हैं
राधा को आशंका
इस बात की भी है कि अठारह अक्षौहिणी कृष्ण की उन्मादी सेना इधर से गुजरेगी तो यहाँ
के सारे वृक्ष 'आज खंड-खंड हो जाएगा' और अगर ग्रामवासी सेनाओं के स्वागत में
तोरण नहीं सजाते
तो क्या सारा ग्राम नहीं उजाड़ दिया जाएगा?"
युद्ध की
विभीषिका,
आर्तनाद और
चीत्कार से व्यथित होकर राधा कृष्ण को लेकर एक व्यंग्य करती हैं- महा-व्यंग्य-
गर्व कर बावरी
कौन है जिसके महान प्रिय को
अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ हैं।
[i] आशय वर्ष 4 अंक 5 6 संतान सितंबर 2005 2006 पृष्ठ 31
[ii] राजकमल चौधरी रचनावली, खंड 8, संपादक-देवशंकर
नवीन, राजकमल प्रकाशन,2015, पृष्ठ 303
[iii] ठंडा
लोहा-धर्मवीर भारती, भूमिका से
[iv] जीवन मूल्य और साहित्य
धर्मवीर भारती भारतीय ज्ञानपीठ
[v] मानव देह और हमारी दे भाषाएं रमेश कुंतल मेघ लोक भारती प्रकाशन 2015 पृष्ठ 106
[vi] आधुनिक हिंदी समीक्षा, संपादक- निर्मला जैन , प्रेमशंकर, साहित्य अकादमी, 1985, पृष्ठ 166
[vii] जीवन मूल्य और साहित्य- धर्मवीर भारती, भारतीय ज्ञानपीठ, 1960, पृष्ठ 27-28
[viii] कविता के नए
प्रतिमान- नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, 1968, पृष्ठ 109
[ix] कल्पना मार्च 61
Comments
Post a Comment