आलोचक से संवाद : सम्पन्न इतिहास-दृष्टि का गोताखोर आलोचक : प्रदीप सक्सेना

मार्क्स, मार्क्सवाद और वाम विचारधारा के प्रति पूर्ण समर्पित प्रदीप सक्सेना की मूल चिंता मार्क्सवाद
की गहन पड़ताल है। मार्क्सवाद को जानना, समझना और उसे विस्तार प्रदान करना उनका परम लक्ष्य।
और इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु वे वैश्विक स्तर से लेकर हिंदुस्तान में वामपार्टी
और मार्क्सवाद को ‘पूज्य भाव’ के बरक्स आत्मालोचन की सघन और बीहड़ प्रक्रिया से गुजरते हैं।
उनकी प्रत्येक रचना में मार्क्सवाद की जमीन तलाशने की छटपटाहट मौजूद है।
प्रदीप सक्सेना की आलोचना का व्यापक फलक तीन रूपों में देखने को मिलता है। एक, पुस्तिका
(बुकलेट) लेखन के रूप में, दूसरा पत्रिका के
विशेषांकों एवं पुस्तकों के संपादन के रूप में और तीसरा मौलिक पुस्तकों के रूप
में। प्रदीप जी हिंदी के सर्वाधिक पुस्तिका लेखकों में एक हैं। विडंबना है कि
हिंदुस्तान में पुस्तिका लेखन को गंभीर कर्म नहीं माना जाता। जबकि कई देशों में पुस्तिका
लेखन ही नही बल्कि ब्राशर तथा पेम्पलेट तक को काफी गरिमा प्राप्त है। कई सार्थक
अंतरराष्ट्रीय बहसों में इन पुस्तिकाओं ने अहम भूमिका निभायी है। प्रदीप सक्सेना
के लिए पुस्तिका लेखन किसी भारी-भरकम ग्रंथ लिखने से कम नहीं। पुस्तिका मूल रूप से
जनवादी और परिवर्तनकामी मुद्दों को बहस के लिए आमंत्रित करती है। यही वजह है कि
प्रदीप जी ने लगभग दर्जन भर पुस्तिकाओं का
लेखन किया है। इन पुस्तिकाओं में पहल द्वारा प्रकाशित ‘क्या मार्क्सवाद पराजित हो गया है?’ ऐन उस वक्त आयी
जब मार्क्सवादवाद के खिलाफ चैतरफा हमला जोरों पर था। यह मार्क्सवाद के सैद्धांतिक
विश्लेषण की पुस्तक है। ठस्स और नीरस सैद्धांतिक विश्लेषण के विपरीत प्रदीप जी ने
सिद्धांत को व्यावहाकि रूप देने का प्रयास किया है। फलस्वरूप वे इस पुस्तिका में
सहज रूप से मार्क्सवाद की ‘विगत सार्थकता और वर्तमान अर्थवत्ता को रेखांकित करने में
सफल रहे हैं। अपनी दूसरी पुस्तिका ‘सांस्कृतिक संकट गहरा रहा है (1987) में उन्होंने साहित्येतिहास, राजनीति, दर्शन, सामाजिक विज्ञान
और विज्ञान को लेकर अपनी चिंताएँ सार्वजनिक बहस के लिए प्रस्तुत की हैं। दो वर्ष
बाद प्रतिक्रिया के उत्तर में दूसरी पुस्तिका ‘बहस और पूरक बहस यानी सांस्कृतिक संकट का घोषणा
पत्र’ प्रकाशित हुआ।
उक्त पुस्तिकाओं में मार्क्सवाद की कई पेंचीदी गुत्थियों को सुलझाने के साथ
हिंदुस्तान की बाम पार्टियों तथा कई घोषित-अघोषित मार्क्सवादियों की सीमाओं, मिथ्या अहंकारों
तथा शुतुरमुर्गी हरकतों को अत्यंत भेदक तर्क-दृष्टियों से टटोलने का प्रयास किया
गया है। पुस्तिका में बाम पार्टियों की असफलताओं, चूकों, असावधानियों को दो टूक लहजे में रखने का साहस
गौरतलब है।
सोवियत संघ के विघटन के पश्चात पेरेस्त्रोइका (पुनर्रचना) और ग्लासनोस्त (खुलापन) की धमक पूरे वैश्विक
रंगमंच पर सुनाई देने लगी थी। इसे विघटित सोवियत संघ को आर्थिक रूप से उबारने का
एकमात्र उपाय माना जा रहा था। ऐसे समय में प्रदीप सक्सेना ने साम्य की ओर से
पुस्तिका लिखी ‘पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त का सारतत्व (1991)। इस पुस्तिका
में एक ओर उन्होंने पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त की अवधारणा को यथासंभव सरल बनाकर
प्रस्तुत किया तो दूसरी तरफ पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त के प्रपंच को बिन्दुवार
उद्घाटित किया। पुस्तिका की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि ‘मूल उद्येश्य है
पेरेस्त्रोइका की लफ्फाजी का पर्दाफ़ाश करना।’ लेखक ने गोर्बाचेव की पुस्तक ‘पेरेस्त्रोइका’ के हवाले यह
दिखाने की चेष्टा की है कि किस तरह इसे जनक्रांति के रूप में स्थापित करने की
धूर्त चालें चली जा रही थीं। पुस्तक में पेरोस्त्रोइका का अर्थ सभी तरह के गतिरोध
की प्रक्रिया पर पार पाना और अवरोधक तंत्र को चकनाचूर करना बताया गया है। प्रदीप
सक्सेना ने उस समय विश्व प्रतिष्ठित चिंतकों, बुद्धिजीवियों, कवियों, दार्शनिकों, अर्थशास्त्रियों के माध्यम से पेरोस्त्रोइका और
ग्लासनोस्त के मुक्तिकामी मिथ को तोड़ने का प्रयास किया है। बकौल पुस्तिका ‘‘पेरोस्त्रोइका
विदेशी पूंजी का वैधीकरण है और बुर्जुआ राष्ट्रवाद की वापसी। यह अब सिर्फ नकरात्मक
परिणतियों की ओर ले जाएगा क्योंकि सार्वजनिक परिप्रेक्ष्यविहीन आलोचना ने आस्था के
समस्त केन्द्रों को ध्वस्त कर दिया है।’’ पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त के बाद जिस तरह से
सभी तरह की शक्तियाँ अमेरिका में सिमटती चली गईं, पुस्तिका की स्थापनाएँ बहुत हद तक सही साबित
हुईं। 1993 में इस पुस्तिका
में आहूत बहस को क्रेंद्रित करते हुए ‘मार्क्सवाद की जय और पराजय का वास्तविक अर्थ’ नाम से पुस्तिका प्रकाशित हुई। वाद-विवाद-संवाद की दृष्टि से इस पुस्तिका का
विशेष महत्व है। इस बहस में मधुरेश, रमेश कुंतल मेघ, भगवान सिंह, हृदयेश, सुवास कुमार, लल्लन राय तथा विश्वनाथ मिश्र ने भाग लिया। लल्लन
राय और मिश्रजी ने पुस्तिका लेखक प्रदीप सक्सेना के चिंतन की सीमाओं की ओर भी
संकेत किया। एक तरह से पुस्तिका अपने उद्येश्य में सफल रही क्योंकि तीखी जिरह से
ग्लासनोस्त की समाओं और संभावनाओं को समझने में मदद मिलती है।
अन्याय जिधर है उधर शक्ति आज की भारतीय राजनीति और समाज का सच है। दक्षिणपंथी विचार ने हिंदू
ध्रुवीकरण को अत्यंत खतरनाक ढंग से अपनी आगोश में ले लिया है। सत्तासीन पार्टी के
खिलाफ मुंह खोलना राष्ट्रद्रोह माना जाने लगा है। प्रदीप सक्सेना ने सन् 2000 में जब अटल
बिहारी बाजपेयी की सरकार बनी थी उद्भावना पत्रिका के लिए ‘संघ परिवार का
दार्शनिक आधार’ बुकलेट लिखा था। आज जब केंन्द्र के साथ-साथ देश
के कई राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकार अपने उत्कर्ष पर है, उक्त बुकलेट की
प्रासंगिकता बढ़ गई है। इसमें लेखक ने संघ परिवार के दार्शनिक विचारक डा0 हेगरेवार तथा
गुरु गोलवलकर के विचारों का पोल खोल कर दिया है। कठिनाई यह है कि आज लोग इनके
विचारों को वगैर पढ़े-जाने उन्हें नायकत्व प्रदान कर रहे हैं। अन्यथा स्त्रियों के
बारे में, दलितों के बारे
में, अन्य धर्मों
विशेषकर इस्लाम के बारे में उनके विचार घृणा और जुगुप्सा पैदा करने वाले ही हैं।
लेकिन लोग हैं कि धर्म और नस्ल के नाम पर, हिंदू लामबंदी के नाम पर उनके साथ कदमताल कर
रहे हैं। प्रदीपजी की यह बुकलेट इस कदमताल का
भीषण प्रतिवाद है।
प्रदीप सक्सेना ने दो व्यक्तियों पर भी पुस्तिकाएँ लिखी हैं। अज्ञेय के जन्मशताब्दी वर्ष पर जब अज्ञेय के प्रशंकसक
थे तो प्रशंसक निंदक भी उनके सारे अन्तर्विरोधों को भुलाकर
अज्ञेय के यशोगान में लगे थे, प्रदीपजी अपने स्टैंड पर टिके रहे। ‘कहां खड़े हैं
अज्ञेय और क्या क्या कहती हैं उनकी रचनाएँ : एक वैज्ञानिक प्रतिवाद की जरूरत-2011’ में प्रदीपजी ने व्यक्ति अज्ञेय की सजग किन्तु निर्मम पड़ताल
की है। अज्ञेयजी का क्रांतिकारी दल में शामिल होने, जेल जाने, जेल जाने के कुछ ही वर्ष बाद अंग्रेजी सेना में
भर्ती हो जाने जैसी घटनाओं की आपसी संगति तथा इन घटनाओं पर पड़े आवरण का
रहस्योदघाटन के साथ ही अज्ञेय की यशपाल-ग्रंथि का पर्दाफ़ाश पुस्तिका का केंद्रीय
विषय है। पुस्तिका में प्रमाण सहित अज्ञेय जी के अन्तरविरोधों, पाखंडों और उनके
अहंकारी मनोवृत्ति को दो टूक प्रस्तुत किया गया है। पुस्तिका के नामानुसार ‘क्या क्या कहती
हैं उनकी रचनाएँ’ के मामले में प्रदीपजी कुछ नहीं लिखते। इस चुप्पी के लक्षणा-व्यंजना को समझना
कठिन है। मार्क्सवादी लेखक, विचारक और कार्यकर्ता सव्यसाची पर लिखी गई पुस्तिका ‘एक कार्यकर्ता का
ज्योतिस्तंभ बनना’ प्रदीपजी के एक्टिविस्ट रूप का परिचायक है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रदीप जी लम्बे समय से जनवादी लेखक संघ के सक्रिय
कार्यकर्ता रहे हैं। बाम कार्यकर्ता का टेंपरामेंट उनकी सभी पुस्तिकाओं में देखने
को मिलता है। अन्यथा सिर्फ विद्वता और बौद्धिकता से पुस्तिका नहीं लिखी जा सकती।
ज़मीनी हकीकत की दरकार और आमजन से संवाद-दक्षता पुस्तिका लेखन की अनिवार्य शर्त
होती है।
2
प्रदीप सक्सेना को अकादमिक पहचान और प्रतिष्ठा पत्रिका के विशेषांकों के संपादन से मिली।
पत्रिका के किसी विशिष्ट अंकों का संपादन अकूत धैर्य और कठोर अनुशासन के साथ गहरी
संपादकीय दृष्टि की मांग करती हैं। प्रदीप जी द्वारा संपादित अंकों में उक्त तीनों
विशेषताओं को लक्षित किया जा सकता है। इन्होंने सुनियोजित ढंग से हिंदी पत्रिका
को उसके सीमित चैखटे से निकालकर
अन्तरअनुशासनिक बनाने का प्रयत्न किया है। हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘पहल’ के दो विशेषांकों का संपादन किया- इतिहास अंक और मार्क्सवादी आलोचना अंक।
उक्त दोनों अंकों में उनकी संपन्न इतिहास दृष्टि से साक्षात्कार होता है। इतिहास
और संस्कृति के मूल्यांकन में लोकधर्मी प़द्धति का प्रयोग कितना सफल है, कहां तक तथ्यों
की विवेचना की जा सकती है, इसे पहल के
इतिहास अंक से समझा जा सकता है। उक्त दोनों अंकों को अकादमिक दुनिया में काफी प्रतिष्ठा मिली। साहित्य की समझ को
दुरुस्त करने और लोकोन्मुखी बनाने के लिए मार्क्सवादी आलोचना कितनी अर्थवान और
कारगर हो सकती है, इसे समझने के लिए ‘मार्क्सवदी आलोचना अंक’
को पढा जाना चाहिए।
प्रदीप जी की इतिहास दृष्टि की विशेषता विगत, वर्तमान और भविष्य की आवाजाही में है। उनकी यह
दृष्टि हिंदी की गतिशील परंपरा में जितनी धंसी हुई है उतना ही वर्तमान को भी
थाम्हे हुए है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे ‘परंपरा का सर्जनात्मक उपयोग वर्तमान को संवारने
और भविष्य को संभावनाशील’ बनाने के लिए करते हैं।
‘1857: परिवर्तन और निरंतरता’
1857 के 150वीं जयन्ती के
अवसर पर उद्भावना के
महत्वाकांक्षी विशेषांक का संपादन प्रदीप सक्सेना ने किया। 1857 की क्रांति के
विभ्रमों, मिथ्या प्रवादों
के गर्दो गुबार को झाड़ पोछकर नये सूत्रों, दबे तथ्यों तथा
लोकचित्त में बसे 1857 की यादों की खोजबीन इस परियोजना का मुख्य लक्ष्य है। अंक
के उद्येश्य को संपादक प्रदीप सक्सेना उद्घाटित करते हुए लिखते हैं, ‘‘हमारे लिए महज एक
अंक तैयार करना ही नहीं है, एक लंबी बहस में योग्य हस्तक्षेप करना है। हमारे लिए 1857 की 150वीं जयंती का अवसर उत्सवधर्मिता से भिन्न
उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दौरान अर्जित राष्ट्रीय मूल्यों और भावनाओं की परिणति
को, राष्ट्रीय
स्वाधीनता संघर्ष में अनुभव करते हुए, आज के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में उसकी
सार्थकता और प्रासंगिकता तलाश करना है।’’ इसी उद्येश्य को ध्यान में रखते हुए प्रदीप
सक्सेना ने एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हमारे इतिहास में 1857’ का भी संपादन
किया है। इसमें इन्होंने कुछ ऐसे विरल और मानीखेज आलेखों का संकलन किया है जो 1857 संबंधी अध्ययन
को व्यापकता प्रदान करने में सहायक हो सकते हैं। सोवियत संघ, चीन, ब्रिटेन के
चिंतकों के साथ सर सैय्यद अहमद खाँ का ऐतिहासिक भाषण और पी सी जोशी का अत्यंत
महत्वपूर्ण और सुदीर्घ आलेख पुस्तक को गरिमापूर्ण बनाते हैं।
प्रदीप सक्सेना के प्रिय आलोचक रामविलास शर्मा हैं। वैसे प्रदीपजी रामविलास शर्मा के विरोधी आलोचक
के रूप में ‘कुख्यात’ रहे हैं। लेकिन स्वंय प्रदीप जी ऐसा नहीं मानते। रामविलास शर्मा के जयंती वर्ष
पर इनके द्वारा संपादित महाविशेषांक का नामकरण (प्रतिरोध ही सौंदर्य है), संपादकीय तथा 723 पृष्ठों में विन्यस्त सामग्री रामविलास शर्मा की विशद्, अचूक और गंभीर आलोचना-कर्म
को रेखांकित कर पाने में सफल रही है। अपने संपादकीय में प्रदीप जी ने रामविलास
शर्मा के कार्य को पचास वर्षीय युद्ध की संज्ञा दी हैं, और उन्हें अपना शिक्षक-प्रशिक्षक माना है।
इसमें दो राय नहीं कि प्रदीप सक्सेना अपने तई रामविलास शर्मा के अन्तरविरोधों, वैचारिक फांकों
तथा जहां-तहां उनके चिंतन में पड़ी दरारों को उद्घाटित करने में संकोच नहीं करते।
प्रदीप जी की मानें तो यह पद्धति भी उन्होंने डा0 शर्मा से ही सीखी है। अब कोई इसे ‘भस्मासुरी
प्रवृत्ति’ भी समझ सकता है। रामविलास शर्मा के संदर्भ में रवि श्रीवास्तव और प्रदीप
सक्सेना के बीच ‘वृषभ भिडंत’ सदृश प्रचंड विरोध-प्रतिरोध-अंतरविरोध ने रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि को
काफी विस्तार प्रदान किया है। पक्षधर पत्रिका में छिड़ी इस गहमा गहमी बहस ने
रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि के कई पहलुओं को बहुत साफ और ‘फड़िच्छ’ किया है।
माक्र्सवादी आलोचक कुँवरपाल सिंह और वरिष्ठ आलोचक मधुरेश पर संपादित इनकी पुस्तक
उक्त दोनों आलोचकों की व्यवस्थित आलोचना प्रस्तुत करती है। ‘प्रो0 कुँवरपाल सिंह
स्मृतिग्रन्थ-कल हमारा है’ कुँवरपाल सिंह के उदार और जुझारू व्यक्तित्व ही नहीं बल्कि
उनके कृतित्व को भी अत्यंत सकारात्मक रूप में प्रस्तुत करती है। ‘आलोचना सदैव एक सम्भावना है-मधुरेश’ भी आलोचक मधुरेश
के नीर-क्षीर विवेकी आलोचना-दृष्टि को उजागर करने में सफल रही है।
3
प्रदीप सक्सेना की इतिहास दृष्टि और आलोचनात्मक विवेक का विन्यास उनकी दो
मौलिक पुस्तक में खुलकर सामने आया है। उनकी पहली मौलिक पुस्तक ‘अठारह सौ सत्तावन
और भारतीय नवजागरण’ हिंदी में 1857 संबंधी अवधारणाओं तथा हिंदी नवजागरण संबंधी कई
स्थापनाओं पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करती है। रामविलास शर्मा ने इस
क्षेत्र में इतना व्यापक, विपुल और सारगर्भित काम कर दिया था कि इस ‘डोमेन’ में घुसना अत्यंत
चुनौतीपूर्ण और साहस का कार्य था।
प्रदीपजी ने सत्रह वर्षों के अथक परिश्रम
से इस चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने इस पुस्तक में गहरे इतिहास बोध के साथ
देसी-विदेशी इतने सारे श्रोतों को खंगालने का प्रयास किया है कि पाठक 1857 संबधी अपने
ज्ञान को विस्तारित कर सकते हैं। दोनों पुस्तकों में प्रदीपजी के शोधार्थी रूप से
साक्षात्कार होता है। हिंदी में वैसे भी शोध की स्थिति अत्यंत दयनीय है। ऐसे शोध
विरोधी माहौल में वीरभारत तलवार, कर्मेन्दु शिशिर और प्रदीप सक्सेना की शोध-दृष्टि उम्मीद
जगाने वाली है। ‘अठारह सौ सत्तावन’ तथा ‘तिलिस्म साहित्य का साम्राज्यविरोधी चरित्र’ में वे तथ्यों और स्रोंतों को खोजने हेतु गोताखोर की शैली अपनाते हैं। अपने
हाइपोथेसिस के पक्ष में वे प्रमाणों, सूचनाओं और तथ्यों का अम्बार लगा देते हैं, जिससे असहमत होना
संभव नहीं। ‘1857 और भारतीय नवजागरण’ में लेखक ने अंग्रेजों द्वारा भारत को शिक्षित करने के पीछे
की धूर्तताओं, तथाकथित आधुनिक माने जाने वाली प्रजाति अंग्रेजों की कूपमंडूकता और घोर अंधविश्वासी
छवि, 1857 में सिखों की
सकारात्मक भूमिका, 1857 की सुनिश्चित और सुनियोजित विचारधारा, इस महाविद्रोह की
राष्ट्रीयता आदि विषय पर खुलकर विचार किया है और कुछ ठोस नतीजे पर पहुंचने में
सफलता हासिल की है। तत्कालीन लगभग पचास से अधिक दस्तावेजों और जनगीतों का हवाला
निष्कर्ष को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। नामवर सिंह समेत कई विद्वानों का मानना
था कि ‘नवजागरणकालीन
प्रकाशित साहित्य में राजनीतिक स्वाधीनता का स्वर कम ही सुनाई पड़ती है और समकालीन
शिष्ट साहित्य में उसकी गंूज सुनाई नहीं पड़ती। इस संदर्भ में डा0 सक्सेना की
स्थापना यह है कि अगर हम हिंदी जाति के नवजागरण
और शिष्ट साहित्य से उर्दू को बहिष्कृत कर दें, (जैसा आलोचक द्वय रामविलास शर्मा और नामवर सिंह
करते हैं) तो ये बातें सही हो सकती हैं, किंतु अगर हम उर्दू को भी इसमें शामिल कर लेते
हैं तो राजनीतिक स्वाधीनता के स्फुट स्वर ही नहीं बल्कि जबरर्दस्त धमक सुनाई पड़ती
है। उर्दू को हिंदी जाति के नवजागरण और शिष्ट साहित्य से बहिष्कृत करना
दुर्भाग्यपूर्ण ही है। लेखक ने सैकड़ों शायरों का नाम और उनकी रचनाओं के हवाले इसे
प्रमाणित किया है।
प्रदीप सक्सेना के कैनन निर्माण में 1857 के अतिरिक्त
तिलस्मी साहित्य का अध्ययन और
उसके साम्रज्य विरोधी स्वरूप की पहचान को
शामिल किया जाना चाहिए। देवकीनंदन खत्री के उपन्यास ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ का विशद अध्ययन, परीक्षण और नवीन मूल्यांकन इनकी आलोचना-दृष्टि
का परिपाक है। प्रदीपजी ने इस उपन्यास को ‘युगीन सत्य का उद्घाटक’
उपन्यास माना है। इनके
अनुसार ‘चंद्रकांता’ प्रचलित अर्थ में
तिलस्मी उपन्यास नहीं है। तिलिस्म यहां केवल शैली-शिल्प के रूप में है, उपन्यास का
स्थापत्य है। इसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने पारंपरिक फारसी दास्तान अलिफ़ लैला
तथा तिलिस्म होशरुबा आदि से इसका अंतर स्पष्ट
किया है। इनके अनुसार ‘चंद्रकांता’ चमत्कारिक और
असंभव घटनाएँ नहीं हैं बल्कि कुशलता से प्राप्त हाथ की सफाई, दक्षतापूर्ण
ऐयारी और उस समय की प्राद्योगिकी के उदाहरण भरे पड़े हैं। पुस्तक में यह सिद्ध करने
की कोशिश की गई है कि चंद्रकांता में तत्कालीन भारतीय राजनीति की आकांक्षा
अभिव्यक्त हो रही थी। उस समय की भारतीय राजनीति का मौजू सवाल था कि आगामी प्रशासक कैसा होना
चाहिए। ‘चंद्रकांता’ हिंदुस्तान के
लिए एक अच्छे प्रशासक की तलाश-गाथा है। लेखक के शब्दों में, ‘‘ये सभी प्रश्न
अंतिम परिणति में राजनैतिक हैं। ये सभी प्रश्न राष्ट्रवादी चेतना के अनिवार्य घटक
हैं। कितना दृढ़, कितना गहन और अटूट है वह देशप्रेम जो लेखक के हृदय में उमड़ता-घुमड़ता रहा। वीर
प्रसूत भारत भूमि के वीरों की यह कितनी प्रौढ़ सेवा है कि पूरे ढाई हजार पृष्ठों
में ब्रिटिश साम्राज्यवाद, उसके कभी न डूबने वाले सूरज और उसकी संस्कृति, न्याय के पाखंड, जनतंत्र के
मुखौटे यानी अंधियारी पर कोई बात न कहकर केवल उजाले की बात करते हुए भारत के विराट जनगणों के चित्त का
राष्ट्रीय संस्कार देवकीनंदन खत्री ने किया। प्रतिरोध के सैकड़ों रूपों को उन्होंने
पाठकों के दिलों-दिमाग में उतार दिया।
जनता द्वारा महानतम का स्वागत का कारण तिलिस्म नहीं था, वह पकड़ थी जिसने
उपन्यास में प्रतिरोध के सौंदयशास्त्र की आधारशिला रखी। भले ही वह प्रतिरोध अत्यंत
सीमित ही क्यों न था, उसने साम्राज्यवाद के उस दौर में बड़ी गंभीर भूमिका निभायी।’’ और इसलिए प्रदीप
सक्सेना की प्रस्तावना है कि उस दौर के उपन्यास का काल विभाजन और नामकरण ‘प्रेमचंद पूर्व
उपन्यास’ न होकर ‘देवकीनंदन खत्री
युग’ होना चाहिए।
4
प्रत्येक आलोचना-दृष्टि की अपनी सीमाएँ भी होती हैं। स्वभावतः प्रदीप सक्सेना
की भी कुछ सीमाएँ हैं। उनकी आलोचना-दृष्टि में यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती कि वे
साहित्य के आलोचक हैं या इतिहास के या दोनों के। इनकी आलोचना प्रक्रिया में इतिहास
इतना प्रबल रहा है कि साहित्य-दृष्टि इस प्रबलता में दब-सा गया। इतिहास और समाज
विज्ञान का उपयोग साहित्य की गुत्थियों को सुलझाने और साहित्य के सरोकार की पड़ताल
के लिए आवश्यक है, किंतु यह उपयोग साधन के रूप में तो श्रेयस्कर है किुतु साधन
यदि साध्य बन जाए तो कठिनाई होती है। आत्मशलाघा आलोचना-कर्म के गांभीर्य को क्षीण करता है। कई आलोचकों ने इनकी आलोचना में
इस अहमन्यता बोध को लक्षित किया है। कुछ ‘अति महत्वपूर्ण’, ‘रस्मी अध्ययन से परे’ अध्ययन करने का
आत्मबोध इनकी आलोचना से ताक-झांक कर ही जाता है। अन्य आलोचकों पर व्यंग्यात्मक
टिप्पणियाँ और उन्हें हास्यास्पद बनाने की मनोवृत्ति भी श्रेष्ठ आलोचना की कोटि
में नहीं आ सकती। संदर्भों और उद्धरणों के महासागर में कई बार लेखक की उक्ति और
उनके निज विचार को ढ़ँूढ पाना मुश्किल हो जाता है। कई संदर्भों के विस्तृत विवरण का
अभाव भी कहीं कहीं खटकता है। 1857 और रामविलास शर्मा संबंधी इनके चिंतन में आवृत्ति-दोष को
भी रेखांकित किया जा सकता है। इन कुछ सीमाओं के बावजूद प्रदीप सक्सेना हिंदी के एक
जरूरी बहसोन्मुख आलोचक के रूप में समादृत हैं और परिवर्तनकामी संभावनाशील
माक्र्सवादी आलोचना के पक्षधर भी।
(आलोचना महाविशेषांक, जुलाई-सितम्बर 2018 में प्रकाशित)
निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर इस आलेख को पढ़ते हुए अनायास ही याद आ जाता है कि -
ReplyDeleteहर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।
आपने प्रो. प्रदीप सक्सेना सर के शिक्षक, चिंतक , संपादक और आलोचक रूप के साथ ही उनके दृढ़ व्यक्तित्व को उनकी रचनाओं से गुज़रते हुए परिचय कराया। तिलिस्म साहित्य के साम्राज्यविरोधी स्वरूप का परिचय कराकर आपने चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति को इस दृष्टि से पढ़ने के लिए प्रेरित किया व अन्य भी महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करायी। शुक्रिया सर।
धन्यवाद नवीन
Deleteबहुत ही शानदार प्रिय गुरुवर....
ReplyDeleteआलेख पढ़ने के लिए शुक्रिया अकरम जी।
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रस्तुत आलेख में प्रो.कमलानंद झा द्वारा समकालीन हिंदी आलोचना के मार्क्सवादी आलोचक प्रो.प्रदीप सक्सैना के कृतित्व का आलोचनात्मक एवं समीक्षात्मक परिचय प्रस्तुत किया गया है। प्रो.सक्सैना के रचना कर्म का अध्ययन करने के रास्ते में मिले फूलों और शूलों का प्रो.झा द्वारा तटस्थ भाव से मूल्यांकन उल्लेखनीय है। साथ ही ध्यान देने योग्य बात यह है कि आलेख में प्रो.सक्सैना द्वारा उनके आलोचना कर्म में अपनायी गयी इतिहास दृष्टि को उन्होंने तीन बिंदुओं *(1.विगत, वर्तमान और भविष्य में आवाजाही। 2.हिंदी की गतिशील परम्परा में धंसकर वर्तमान को थामे रहना। 3.परम्पराओं का सर्जनात्मक उपयोग वर्तमान को संवारने और भविष्य को संभावनाशील बनाने में करना।)* में रेखांकित किया है। आलेख के शीर्षक को प्रो.सक्सैना की दो मूल आलोचनात्मक पुस्तकों *'1857 और भारतीय नवजागरण' एवं 'तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्य विरोधी चरित्र'* में उनकी शोधदृष्टि से जोड़ने का संकेत भी उल्लेखनीय है।
ReplyDeleteकिसी भी आलोचक का साहित्यिक अवदान उसके आलोचना कर्म में अपनाई गई इतिहास दृष्टि से तारतम्य स्थापित कर ही स्पष्ट किया जा सकता है। ऐसे में प्रो.सक्सैना की इतिहास दृष्टि के संबंध में आलेख में किया गया यह संकेत इस संभावना को आमंत्रित करता है कि अगर इतिहास दृष्टि के उपर्यांकित बिंदुओं को आधार बनाकर प्रो.सक्सैना की दोनों मूल पुस्तकों का विस्तारपूर्वक मूल्यांकन किया जाए तो कदाचित समकालीन हिंदी आलोचना के विकास में प्रो.सक्सैना के योगदान को परखा एवं समझा जा सकता है।
धन्यवाद सोनू जी। आपने काफी ध्यान से आलेख का पाठ किया है।
ReplyDeleteबहुत महत्वपूर्ण आलेख,प्रतिरोध को विकलांग बनाने वाले इस दौर में ये एक वैचारिक सम्बल प्रदान करता है ।
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