साहित्य का इतिहास : तनातनी की उर्वरा भूमि
साहित्य का इतिहास जितना
निर्दोष और निरापद दिखने की चेष्टा करता है, उतना होता नहीं| इस बीहड़ में जब
आप अपनी सचेत इतिहास-दृष्टि के साथ प्रवेश करेंगे तो वहाँ आपको ‘ऑल इस वेल’ नहीं
देखेगा| आपको इन इतिहासों में जितनी आवाजें सुनने को मिलेंगी उससे अधिक मौन और
चुप्पी भी मिलेगी| आप इन मिटे चिह्नों और चुनी हुई चुप्पियों का निहितार्थ खोलने
का प्रयास करेंगे तो इन इतिहासकारों के कई रंग और मुखौटे दिख जाएंगे| कितनी आवाजों
को दबाने और चिह्नों, संकेतों को मिटाने का सायास प्रयास भी दिखेगा और कितनी सारी
‘मिमयाती’ आवाज़ों को ‘कोलाहल’ के रूप में प्रस्तुत करने का कौशल भी दिखेगा| पूरे
हिंदी साहित्य से शैव भक्ति का विलोपन इसका एक उदाहरण मात्र है| ऐसा लगता है जैसे
दक्षिण भारत से केवल आलवार भक्ति ही हिन्दी क्षेत्र में वैष्णव भक्ति के रूप में
आयी| नायनार भक्ति का सोता जैसे रास्ते में ही कहीं सूख गया| वैष्णव भक्ति की
सामन्ती छवि के सामने शैव भक्ति की क्रांतिधर्मिता और उसका जन स्वरुप हिन्दी
साहित्य के इतिहासकारों के लिए कंठाग्र
करना कठिन था| यह अनायास नहीं है कि हिंदी
साहित्य का इतिहास वैष्णव भक्ति से ‘आक्रान्त’ है| बिहार, बंगाल और उड़ीसा में
शैव-शाक्त भक्ति की प्रधानता होते हुए और बनारस में बाबा विश्वनाथ के सानिध्य में
हिन्दी साहित्य का इतिहास रचे जाने के बावजूद शैव भक्ति का विलोपन एक अलग
शोध-अध्ययन का विषय है|

एक
विशुद्ध इतिहास भी उतना
वस्तुनिष्ठ, सत्य और समग्र नहीं होता, जितने का का वह दाबा करता है, साहित्य का
इतिहास तो इसका दाबा भी नहीं कर सकता क्योंकि कहा जाता है कि साहित्य का ‘चरित्र’
एकनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ हो ही नहीं सकता| लेकिन इसके विपरीत इतिहास की एक नयी धारा ‘नव्य
इतिहासशास्त्र’ साहित्य को इतिहास का दर्ज़ा देने पर आमदा है| नब्बे के दशक में
अस्तित्व में आया यह इतिहास दर्शन साहित्य को इतिहास की पृष्ठभूमि नहीं बल्कि
इतिहास को साहित्य की पृष्ठभूमि मानता है| इस नए इतिहास-दर्शन के जनक स्टीफेन
ग्रीनब्लाट बौद्धिक इतिहास को साहित्य के माध्यम से जानने-समझने की कोशिश करते हैं
और साहित्य को एक ठोस सांस्कृतिक सन्दर्भ देते हैं| साहित्य को इतिहास बनाते-बनाते
नव्य इतिहासशास्त्र साहित्य के अत्यंत विस्तृत-वृहत भूभाग को संस्कृति का काव्यशास्त्र
में रिड्यूस करने का प्रयास भी करता है| नव्य इतिहासशास्त्र के प्रतिमान पर हिन्दी
साहित्य को जाँचने-परखने की कोशिश करने पर आश्चर्यजनक और क्षुब्द्धकारी
नतीजों से साक्षात्कार भी होता है| ये
क्षुब्द्धकारी नतीजे आपको अपने प्रिय और चहेते साहित्य के इतिहास के प्रति
बनी-बनायी पूर्व धारणाएँ खंडित कर देंगीं| नव्य इतिहासशास्त्र ने इन इतिहासों पर
इतने सवाल खड़े कर दिए हैं कि इन सवालों के आगे आप अपने को कातर और असहाय ही पाएंगे|
हिन्दी के उत्तर
आधुनिकतावादी लेखक सुधीश पचौरी की नयी पुस्तक तीसरी परम्परा की खोज नव्य इतिहासशास्त्र
की कुंजी से हिन्दी साहित्य के इतिहास पर लगे बंद ताले को खोलने की कोशिश करती है|
पुस्तक में जिस नामवर सिंह को ‘अयोग्य गुरु के अयोग्य शिष्य’ के रूप में शिनाख्त की
गई है गई है, अपनी नयी पुस्तक तीसरी परम्परा की खोज का नाम भी
उन्हीं ‘अयोग्य शिष्य’ के किताब से ‘मार’ लिया है| इस व्यंग्यात्मक लहज़े का यह
अर्थ कतई नहीं कि यह पुस्तक अच्छी नहीं है| पुस्तक निःसंदेह अच्छी है और
‘उत्तेजना’ पैदा करती है| वैसे सुधीश पचौरी समकालीन हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक
‘उत्तेजक’ लेखक हैं| उनकी पुस्तक रीतिकाल : सेक्सुअलिटी का समारोह हिन्दी दीर्घा में खासे ‘उत्तेजना’ पैदा की है| पुस्तक
की सीमाएँ अपनी जगह किन्तु रीतिकाव्य को नए अंदाज में पढ़ने की उनकी पेशकश
प्रशंसनीय है| स्त्री यौनिकता की सजग और निर्द्वंद्व अभिव्यक्ति रीतिकाव्य की बड़ी
ताक़त है| वैसे फूको अपनी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ रीतिकाव्य में भी हैं और तीसरी
परम्परा में भी हैं| वहाँ भी, यहाँ नही| वहाँ स्त्रीसत्ता के साथ यहाँ
साहित्येतिहास की सत्ता के साथ| फूको के अनुसार साहित्य ही में नहीं जीवन-जगत की
सारी चीजें सत्ता-संचालित और सत्ता-केन्द्रित होतीं हैं| आचार्य रामचंद्र शुक्ल जब
1929 ई. में हिन्दी साहित्य का इतिहास लिख रहे थे और जब द्विवेदी जी
1954 में हिन्दी साहित्य की भूमिका लिख रहे थे तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सत्ता-संजाल
से मुक्त नहीं थे| एक नहीं बल्कि कई तरह की सत्ता उनसे यह इतिहास लिखवा रहीं थीं|
सत्ता के अपने-अपने एजेंडे होंते हैं| फूको की अवधारणा में ये दोनों इतिहासकार
(हिन्दी के सभी इतिहासकार) किसी ज्ञात-अज्ञात परियोजना के लिए किसी सत्ता के
चाहे-अनचाहे एजेंट के रूप में हिंदी साहित्य का इतिहास लिख रहे थे|
उत्तरसंरचनावादी और इसकी नींव पर अवस्थित नव्य इतिहासशास्त्र के अनुसार इन दोनों
इतिहासकारों का मंतव्य ‘छात्रों के लिए इतिहास लेखन’ कथित है ‘अकथित’ या ‘अनकहा’
कुछ और|
नव्य इतिहासशास्त्र
के अनुसार हिन्दी साहित्य के इन इतिहासकारों के ‘अकथित’ को जानने से पहले
भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में नव्य इतिहासशास्त्र के औचित्य की पड़ताल आवश्यक है|
विगत तीन-चार दशकों से उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तर संरचनावाद तथा नव्य इतिहासशास्त्र
(1990) साहित्य सिद्धांतों की धमक सुनी जा रही है| लेकिन भारतीय भाषाओं के साहित्य
को जानने-समझने की कोई मुक्कमल वैकल्पिक दृष्टि इन सिद्धांतों से नहीं मिल पायी
है| और न ही इन सिद्धांतों से भारतीय भाषाओं के साहित्य का किसी तरह का विस्तार हो
पाया है| तात्पर्य यह कि यह आयातित सिद्धांत कदाचित हिन्दुस्तान के साहित्य के
अनुकूल नहीं जान पड़ता| आधुनिक शब्दावली में ये सिद्धांत भारतीय साहित्य फ्रेंडली
नहीं है| अथवा इन सिद्धांतों को भारतीय साहित्य के अनुकूल बनाकर प्रस्तुत नहीं
किया गया है| दूसरी ध्यान देनेवाली बात यह है कि ये सारे सिद्धांत पश्चिम की ऐसी
भूमि पर पैदा हुए हैं, जो आर्थिक रूप से अत्यंत संपन्न हैं, साथ ही और अधिक
सम्पन्नता की लालसा में हैं| बाज़ार पर प्रभुत्व इनका ‘अनकहा’ मकसद है| इन
सिद्धांतों की गुणवत्ता और नवीनता पर
संदेह तो नहीं किया जा सकता किन्तु ये सारे सिद्धांत भूमंडलीकरण के गर्भ से
निकले हैं| प्रकाशनों और विचारों का गहरा रिश्ता व्यापक स्तर पर बाज़ार से होता ही
है| सब कुछ का ‘अंत’ जैसे चौंकाऊ पदबंध अनायास नहीं है| सामाजिक संरचना पर भाषिक
संरचना का जोर भी संयोगात नहीं है| इन सिद्धांतों को इन्हीं की शब्दावली में डिकोड
करने पर सामाजिकता, सामजिक संघर्ष, आमजन की अदम्य जीवनेच्छा को हाशिए पर ले जाने
की अप्रत्यक्ष कोशिश यहाँ दिख जाती है| प्रसिद्ध चिन्तक एडवर्ड सईद इनके इन
इरादों से लगातार संघर्ष करते रहे हैं| उनके विचार से “रूपवादी संरचनावादी परियोजना अपने जन्म और प्रवृत्ति में
मानवता में मौजूद मनुष्य की केन्द्रीयता जिसे अट्ठारहवीं शताब्दी की प्रबोधन
परियोजना ने और अधिक पुख्ता बना दिया था
के विरोध में घोषित रूप से भले ही न खड़ी हो लेकिन किसी साहित्यिक क्षेत्र
में ही नहीं बल्कि अन्य अनुशासनों में भी इसका पूरा जोर पद्धतियों पर है न कि
व्यक्ति के जीवनानुभवों की कलात्मक अभिव्यक्ति पर| सश्योर, लेबी स्त्रा, रोलां
बार्थ किसी न किसी रूप में मानवता विरोधी या कम से कम उसके आलोचक थे|”[i]
दो
तीसरी परम्परा की खोज
के लेखक इस बात से चिंतित-परेसान हैं
कि दुनिया भर में इतिहास की इतनी अवधारणायें आईं, चलीं, और गईं भी किन्तु हिन्दी
साहित्य के इतिहास पर उसका कोई असर नहीं पड़ा| बकौल सुधीश पचौरी, “नव्य इतिहासशास्त्र ने नए-नए इतिहास लेखन की पूरी
सैद्धांतिकी ही दे डाली| सबल्टर्न अध्ययन शुरू हुए| अस्मितामूलक इतिहास लिखे जाने
लगे| लेकिन हिन्दी के पुराने इतिहासों के पुनर्पाठ तक नहीं हो सके| वे जस के तस
पुजते रहे| पहली ‘परम्परा’ की जगह ‘दूसरी’ बना दी गई| लेकिन तत्वतः माल एक ही रहा|”[ii]
“शुक्लजी के इतिहास के नमूने पर ही इतिहास जमाते हुए हजारी प्रसाद
द्विवेदीजी ने शुक्लजी के तुलसी को कबीर से रिप्लेस किया और उनके शिष्य इतने से
धन्य-धन्य करने लगे| इसको दूसरी परम्परा नाम इस अदा से दिया मानो इतिहास की सभी
समस्याएँ निपट गईं हों|... न शुक्लजी से कोई झगड़ा न उनकी इतिहास-दृष्टि की सीमाओं
को बताया गया और साहित्य का कारोबार जस का तस चलता रहा|”[iii] सवाल यह है कि बगैर किसी झगड़े और तनाव के हिन्दी
साहित्य के इतिहास की वैचारिकी में दो स्कूल हैं- शुक्ल स्कूल और द्विवेदी स्कूल?
हिन्दी के सबसे बड़े दो आलोचक रामविलास शर्मा और नामवर सिंह बिना किसी झगड़े के इन
दोनों स्कूलों का प्रतिनिधित्व करते हैं? अब इससे अधिक कौन सा झगड़ा पचौरीजी देखना
चाहते हैं कि द्विवेदीजी को बनारस से दर-बदर होना पड़ा, नौकरी से हाथ धोना पड़ा| यह दूसरी
परम्परा कितनी जानलेवा और झन्नाटेदार रही होगी इसकी कल्पना मात्र की जा
सकती है| शुक्ल स्कूल की सारी मेधा द्विवेदीजी के विरुद्ध ताल ठोककर खड़ी हो गई थी|
जिसे पचौरी जी मात्र ‘तुलसी’ से ‘कबीर’ का रिप्लेस कहते हैं, वही सबसे बड़ा
इतिहास-बोध का फर्क था| सोच और पद्धति का अंतर एवं अभिजात्य और अभिजन का द्वंद्व था| सबसे बड़ा झगड़ा
था| यही शुक्लजी के इतिहास का सबसे भीषण पुनर्पाठ भी| यह ठीक है कि द्विवेदीजी के
पास उत्तर आधुनिक शब्दावली नहीं हैं किन्तु हिन्दी साहित्य की भूमिका शुक्लजी के
इतिहास का जबर्दस्त पुनर्पाठ है|


नितांत मौलिक
स्थापना की तरह पचौरीजी का यह लिखना कि ‘शुक्लजी के नमूने पर ही द्विवेदीजी
ने अपना इतिहास जमा दिया’ अत्यंत पुरानी स्थापना है| घिसी-पिटी| पिष्टपेषण| रामविलास
शर्मा ने सन 1985 में ही लोक जागरण और हिन्दी साहित्य में इसे
अत्यंत व्यवस्थित तरीके से स्थापित करने की कोशिश की थी| उन्होंने तुलनात्मक
पद्धति से कई उदाहरण देकर लिखा कि द्विवेदीजी की कोई दूसरी परम्परा नहीं है, वह
शुक्लजी वाली पहली परम्परा ही है- “हिन्दी आलोचना की
परंपरा को महान बनानेवालों में सबसे ऊपर नाम है रामचंद्र शुक्ल का द्विवेदीजी इस
परम्परा से अच्छी तरह परिचित थे| उसका सहारा लिए बिना न वह सूर साहित्य लिख सकते
थे, न हिन्दी साहित्य की भूमिका, न अपनी अन्य पुस्तकें | जहाँ वह इस परम्परा से
उलझे, वहाँ नुकसान अपना ही किया|”[iv]
अब यह दीगर मसला है
कि रामविलास शर्मा अकादमिक चतुराई से द्विवेदीजी की दूसरी परम्परा को ख़ारिज
करते हैं| ख़ारिज करने की पद्धति यह है कि शुक्लजी ने कबीर को साधारण कोटि का कवि
कहा और उनकी कई कमियाँ दिखालायीं| द्विवेदीजी ने भी कबीर की कुछ कमियाँ दिखालायीं|
रामविलास शर्मा इन दोनों कमियों को आमने सामने रखते हैं और निष्कर्ष निकलते हैं कि
एक ही परम्परा है और यह परम्परा शुक्लजी की है| शुक्लजी ने जो कबीर के सन्दर्भ में एक-दो सकारात्मक बातें
कहीं हैं उनकी तुलना द्विवेदीजी की ढेर सारी सकारात्मक बातों से करते हुए कहते हैं
कि कबीर के सन्दर्भ में जो शुक्लजी कह रहे हैं वहीँ द्विवेदीजी भी कह रहे हैं|
परम्परा एक ही है-शुक्लजी की| लेकिन हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर का विस्तृत अध्ययन
प्रस्तुत कर कबीर को निष्कर्ष स्वरुप भक्तिकाल का सर्वाधिक प्रासंगिक कवि सिद्ध
करते हैं, इसे रामविलास शर्मा नजरंदाज कर जाते हैं| महत्वपूर्ण यह है कि अपने-अपने
अध्ययन से शुक्ल जी कबीर को हाशिए का कवि बनाते हैं तो द्विवेदी जी मुख्यधारा के|
और यही है दूसरी परम्परा| आदिकाल का नाथ-सिद्ध साहित्य हो या पराजित मानसिकता,
रीतिकाल सम्बन्धी मान्यता हो या सूरदास सम्बन्धी आलोचना, सभी में रामविलासजी इसी
पद्धति से दूसरी परम्परा को स्वीकार नहीं करते| सुधीश पचौरी भी रामविलास शर्मा के
लाइन पर शुक्लजी की इतिहास-दृष्टि और द्विवेदीजी की इतिहास-दृष्टि में कोई अंतर
नहीं पाते हैं|
यहाँ रेखांकन योग्य
बात सिर्फ़ यह नहीं है कि शुक्लजी कबीर को हाशिये पर डालकर तुलसीदास
का महिमामंडन करते हैं और द्विवेदीजी कबीरदास को डंके की चोट पर स्थापित करते हैं|
इन दोनों कवियों की रस्साकसी में मूल बात इतिहास-बोध का है| दरअसल यही है हिस्ट्री
फ्रॉम बिलो| सुधीश पचौरी लिखते हैं, “नव्य इतिहास- हिस्ट्री
फ्रॉम बिलो या आम जनता के इतिहास पर बल देता है| इसकी अवधारणा इतिहास लेखन
के क्षेत्र में एक नयी शुरुआत करती है, साथ ही कुछ नए सवाल भी पैदा करती है, जैसे इस ‘बिलो’ के अंतर्गत
क्या-क्या आता है|”[v] इतिहास की इसी
अवधारणा के अंतर्गत हम देख सकते हैं कि किस तरह द्विवेदीजी की परंपरा दूसरी
परम्परा है| शुक्लजी के चित्त में हमेशा ‘शिक्षित जनता रही है जो कम से कम ‘बिलो’
नहीं है| शुक्लजी लिखते हैं, “छात्रों के उपयोग ले
लिए मैंने कुछ संक्षिप्त नोट तैयार किए थे जिनमें परिस्थिति के अनुसार शिक्षित
जनसमूह की बदलती हुई प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके हिन्दी साहित्य के इतिहास के
कालविभाग और रचना की भिन्न-भिन्न शाखाओं के निरूपण का एक कच्चा ढाँचा खड़ा किया था|”[vi] सुधीश पचौरी पाठकों
से सवाल करते हैं, ‘बिलो का मतलब क्या, निचली जनता है? उदाहरण के लिए निचली का
मतलब क्या है, कौन से जनता इसमें शामिल की जा सकती है, वह किस जाति या इनकम ग्रूप
की हो सकती है? उसका भूगोल क्या है?”[vii] जिस शिक्षित
जनसमूह की प्रवृत्तियों की पड़ताल शुक्लजी करते हैं वह हिस्ट्री फ्रॉम बिलो तो
नहीं हैं| दूसरी तरफ़ जिस सिद्ध-नाथ साहित्य को शुक्लजी ने दरकिनार कर दिया यह हिस्ट्री
फ्रॉम बिलो का अस्वीकार है| द्विवेदीजी के यहाँ ‘बिलो’ का अर्थ है, निम्न
जाति की जनता, निम्न इनकम ग्रूप के लोग, पारम्परिक ज्ञान क्षेत्र से महरूम जनता-
तात्पर्य शब्द के सही अर्थों में द्विवेदीजी की इतिहास-दृष्टि हिस्ट्री
फ्रॉम बिलो है| वे सिद्धो-नातों के माध्यम से जनता का इतिहास लिख रहे
थे-सबाल्टर्न हिस्ट्री|
नव्य इतिहास लेखन के
अनुसार “एक इतिहास में कई आवाजें, कई स्वर
मौजूद रहते हैं| जरूरी है कि उनको सुना-पढ़ा जाए| इतिहास का हिटरोग्लासिया यानी
इतिहास की ‘बहुस्वरता’ और उसमें निहित परस्पर विरोधी स्वरों पर जोर देता है|”[viii] हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘भूमिका’ में अत्यंत
तफ़सील से यही काम करते हैं| सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य की जो आवाजें दब गई थीं, उन
आवाजों को सुनने के प्रयास का ही दूसरा नाम है- हिन्दी साहित्य की भूमिका|
वीरगाथा के बरक्स यह उसी बहुस्वरता की तलाश है, यहाँ परस्पर विरोधी और प्रतिवादी
स्वरों पर बल है|
नव्य इतिहास के
सिद्धान्तकारों ने हर प्रकार के लेखन को एक टेक्स्ट माना- “टेक्स्ट चाहे वह इतिहास हो या कविता या आत्मकथा या कुकरी की
किताब या शिष्टाचार के मैन्युअल या युद्ध के संस्करण या सर्जिकल टेक्स्ट, सब ख़ास
सामाजिक स्थितियों के प्रोडक्ट होतीं हैं और वे अपने वक्त की विचारधाराओं,
पूर्वाग्रहों, थीम्स आदि के साथ हिस्सेदारी करती हैं|”[ix] सन 1990 में विकसित नव्य इतिहासशास्त्र की यह
व्यख्या 2019 की है| अब द्विवेदीजी एक वक्तव्य हम गौर करें, “इस अन्धकार युग (आदिकाल) को प्रकाशित करने योग्य जो भी
चिन्गारी मिल जाए उसे सावधानी से जिलाए रखना कर्तव्य है, क्योंकि वह बहुत बड़े आलोक
की संभावना लेकर आई होती है, इसके पेट में केवल उस युग के रसिक ह्रदय की धड़कन ही
नहीं, केवल सुशिक्षित चित्त के संयत और सुनिश्चित वाक्-पाठ का ही नहीं, बल्कि उस
युग के सम्पूर्ण मनुष्य को उद्भासित करने की क्षमता छिपी होती है|”[x] इन दोनों वक्तव्यों
में अंतर सिर्फ शब्दों का है, मूल भाव दोनों का एक ही है| यह है हजारी प्रसाद
द्विवेदी का इतिहास चिंतन|
एक बार फिर लौटकर
चलते हैं सुधीश पचौरीजी की मूल चिंता पर- “इस लम्बे समय के उपलब्ध साहित्य को जिस तरह दिखाया गया
उसमें तनावों पर कम, सुलह्सफाई और सहमति के नेरेटिव पर जोर अधिक है|...इसलिए उपलब्ध
दोनों बड़े इतिहास के मिज़ाज एक जैसे दिखते
हैं|...उनके बीच कोई टूट-फूट या दरार नहीं नज़र आती मानो सारा इतिहास किसी एक हाथ
ने सीधा करके रख दिया हो|”[xi] ऊपर देखने की कोशिश
की गई है कि किस तरह दोनों इतिहास में भारी अंतर है| किस तरह शुक्लजी और
द्विवेदीजी के अप्रोच में ही अंतर है| तीसरी परम्परा की खोज में
बहुत आत्मविश्वास के साथ यह बात भी बार-बार कही गई है कि उक्त दोनों इतिहास की
सुलह सफाई और सहमति को बाद के विद्वानों ने भी आत्मसात कर लिया| तीसरी
परम्परा पहली बार नव्य
इतिहासशास्त्र के ‘मन्त्र’ से उन दरारों की शिनाख्त कर रही है| जबकि सचाई यह है कि
हिन्दी साहित्य के इतिहास में टूट-फूट और दरारों पर सर्वाधिक बहस हुई है| यह सच है
कि उस रूप में कोई हिन्दी साहित्य का व्यवस्थित इतिहास नहीं लिखा गया है| किन्तु
इतिहास के अलग-अलग कालखंडों, मुद्दों और रचनाकारों को लेकर प्रचंड अंतर्विरोध रहे
हैं और ये दुर्निवार विरोध इसी टूट-फूट और दरारों-दरकनों को दिखाते रहे हैं| ये
सारे साहित्य के इतिहास ही हैं| शिवदान सिंह चौहान का हिंदी साहित्य
का अस्सी वर्ष इन दोनों इतिहास पर एक बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न है| द्विवेदी
जी के बाद नीलकांत ने रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास-दर्शन के फांकों और फाटों
को अत्यंत बेबाकी से रखा| रामविलास शर्मा के पूरे चिंतन का एक बड़ा हिस्सा
द्विवेदीजी की इतिहास-दृष्टि में विन्यस्त दरारों को दिखाने में लगा है| हिन्दी
साहित्य के इतिहास में हिन्दी-उर्दू विवाद एक पूरा रणक्षेत्र तैयार करता है|
शुक्लजी के रीतिकाल सम्बन्धी चिंतन से द्विवेदीजी भी टकराते हैं, इसके अतिरिक्त रमाशंकर
शुक्ल, भागीरथ मिश्र और विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि रीतिकाल को पतोन्मुख काल
नहीं मानते| स्त्री-यौनिकता की सकारात्मक
व्याख्या, काव्य कला की गरिमा और साहित्य के सेकुलर मिज़ाज के संकेत-सूत्र हमें
यहाँ देखने को मिलता है| हिन्दी नवजागरण की पूरी बहस हिन्दी साहित्य के इतिहास
लेखन की सीमाओं को बताते हुए एक बड़े अखाड़े
का रूप ले लेती है| मैनेजर पाण्डेय ने साहित्य की इतिहास दृष्टि को विकसित
करते हुए और साहित्य के समाजशास्त्र को समझते-समझाते हुए हिन्दी साहित्य की कई
समस्याओं, मुद्दों, और सवालों को हिलाया-डुलाया| जिस साहित्य-विवेक में चंद्रकांता
उपन्यास ‘परिवार बिगाडू’ उपन्यास था वहाँ लोकप्रिय सस्ता पाकेट बुक्स
उपन्यासों को भी मैनेजेर पाण्डेय ने महत्वपूर्ण माना| उसके समाजशास्त्री विश्लेषण
की आवश्यकता महसूस की| सूरदास को सिर्फ बाल मनोविज्ञान और श्रृंगार का कवि नहीं रहने
दिया| उन्होंने सूरदास के बहाने मध्यकाल की पशुचारण और कृषि व्यवस्था में ताक-झाँक
की| विजयदेव नारायण साही ने तो पद्मावती का सर्वथा नया पाठ
ही तैयार कर दिया| वीरभारत तलवार की तो किताब ही है रस्साकसी |
यह पुस्तक हिन्दी साहित्य के इतिहास के एक कालखंड विशेष की जबर्दस्त रस्साकसी है-
बिग फाइट| जिस भारतेंदु को शुक्लजी ने आधुनिक हिन्दी साहित्य का नायक बनाया और
राजा शिवप्रसाद को ‘इतिहास का खलनायक’, तलवार जी ने गहन शोध द्वारा पासा ही पलट
दिया| डॉ धर्मवीर ने शुक्लजी ही नहीं द्विवेदीजी के कबीर को भी अपदस्थ कर
कबीर का ताजा दलित पाठ तैयार किया| हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्त्री
अनुपस्थिति को सुमन राजे ने आधा इतिहास लिखकर उन गुमनाम
आवाजों को पकड़ने की चेष्टा की जिसे काल कवलित कर दिया गया था| दलित विमर्श और
स्त्री विमर्श हिन्दी साहित्य का समानांतर इतिहास ही है, जो पूर्व की
इतिहास-दृष्टि पर बज्र माफिक गिरता है| जिस चन्द्रकान्ता को शुक्लजी
ने मात्र मनोरंजन, रोमांस और ऐयारी तक सीमित कर दिया था, उसे राजेन्द्र यादव
आदि ने ‘मध्यवर्ग की चेतना’ का उपन्यास माना और प्रदीप सक्सेना ने उसमें
‘साम्राज्य विरोधी’ तेवर के दर्शन किए| ये तो थोड़ी सी बानगी मात्र है, इस तरह से
ढेर सारे अध्ययन पूर्व के अध्ययनों से टकराते, खरोंचते आगे बढ़े हैं| ये सारी
दृष्टियाँ हिन्दी साहित्य के इतिहास के दरारों को तलाशती-हेरती हैं| पूर्व की
इतिहास-दृष्टि से मुठभेड़ करती हैं और कई बार लहुलूहान भी होती हैं| हिन्दी साहित्य
के इतिहास में सुलह-सफाई कम तनाव और तनातनी ही अधिक देखने को मिलती है| हाँ, इतना
जरूर है कि पचौरीजी के पास उत्तर आधुनिक शब्दावलियाँ हैं, गहरी अंतर्दृष्टि है,
विलक्षण किस्म का स्पार्क है, रचनात्मक आलोचना-दृष्टि है और नवीन पाश्चात्य साहित्य
सिद्धांत का गंभीर अध्ययन है- वे इन सभी के संयुक्त रसायन से तीसरी परम्परा
की खोज करते हैं|
तीन
हिन्दी साहित्य का
भक्तिकाल सर्वाधिक विवादास्पद ही नहीं विचारोत्तेजक काल भी रहा है| इस विवाद
का मुख्य वजह मुगलकालीन शासन व्यवस्था की मौजूदगी रही है| इतिहास का एक पक्ष इस
काल को शोषण, दमन और अत्याचार का पर्याय मानता है तो दूसरा पक्ष मात्र
सत्ता-संघर्ष| दूसरे पक्ष पर यह आरोप लगता रहा है कि राजनितिक औचित्य (पोलिटिकल
करेक्टनेस) के कारण उस अन्धकार युग पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती रही है|
भक्तिकाल की कविता मुगलकालीन अत्याचार की तस्दीक नहीं करती| कबीर की कविता
हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य और धार्मिक वितंडावाद की बात तो करती है किन्तु
साम्प्रदायिक अत्याचार के प्रति मौन है| सूरदास, तुलसीदास सरीखे सगुण भक्त कवियों
की कविता में भी आम हिन्दुओं पर मुस्लिम अत्याचार का कोई प्रत्यक्ष संकेत नहीं
मिलते| नानक आदि कवियों में सिख धर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण इस अत्याचार
के संकेत अवश्य मिलते हैं| दूसरे पक्ष के साहित्येतिहासकार अपना पक्ष कबीर, सूर,
तुलसी आदि भक्त कवियों से ग्रहण करते हैं|
शुक्लजी के इतिहास में मुस्लिम अत्याचार के पर्याप्त संकेत हैं, द्विवेदीजी इसे
उचित नहीं मानते| रामस्वरूप चतुर्वेदी बल्लभाचार्य के एतिहासिक और चर्चित श्लोक
‘मलेछाक्रांत’ और निराला की कविता तुलसीदास के हवाले मुस्लिम
अत्याचार को रेखांकित करते हैं| उन्होंने हिन्दी साहित्य और संवेदना का
विकास में लिखा है, “यह सब आज अत्यंत
अप्रिय लग सकता है पर इतिहास हमारे प्रिय-अप्रिय लगने से नहीं बनता| इतिहास को
दबाने और झुठलाने से वर्तमान अधिक अप्रिय हो सकता है जो हमारे लिए ज्यादा बड़ी
समस्या है| मूल बात यह है कि आज इस्लाम के प्रति जो संतुलित ऐहिक दृष्टिकोण है, वह
मध्यकालीन जनजीवन में संभव नहीं था| इन दो परिस्थितियों के बीच एक लंबा इतिहास है
जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता| इस्लाम इस देश में जब आया तब आक्रामक होकर आया, आज
वह हमारे राष्ट्रीय जीवन का अंग है| इन दोनों बिन्दुओं को समझकर ही इतिहास को
वर्तमान में समरस किया जा सकता है|”[xii]
तीसरी परम्परा के लेखक
रामस्वरूप चतुर्वेदी से सहमत हैं और दूसरी परम्परा के लेखक नामवर
सिंह पर धारदार प्रहार करते हुए लिखते हैं, “सेकुलर होने का मतलब तथ्य चोर होना नहीं है बल्कि तथ्य के
सत्य से आँख मिलाना है| आँख मूँद लेने से या नजरें चुराने से आफ़त टला नहीं करती
बल्कि अधिक मारक हो उठती है| आफ़त तभी टलती है जब अपने अनचाहे मानियों को भी खुली
आँख देखा जाए| उनसे इंगेज किया जाए|”[xiii] पचौरीजी का तर्क यह
है कि इस तरह से “इतिहास को ‘छुपाने’ से
आज के हिन्दुत्ववादियों को स्वंय को इतिहास का ‘विक्टिम’ खेलने का तर्क मिलेगा कि
देखा हमारे ऊपर जो अत्याचार हुए, ये इतिहास इन अत्याचारों को दबाते हैं, छिपाते
हैं और इसकी प्रतिक्रिया में वे अत्याचारों को बढ़ा-चढ़ा कर और मिथक जैसा बनाकर
दिखाते हैं| ये इस्लाम से असर को कम करके आँकने का या छिपाने, ‘कवर’ करने का परिणाम है आज के अंध हिन्दुत्ववादी अपने हिसाब
से अतीत का हिसाब-किताब चुकता करना चाहते हैं|”[xiv] रामस्वरूप
चतुर्वेदी या सुधीश पचौरी से पूछा जाना चाहिए की क्या भक्तिकाल के प्रमुख कवि भी
‘तथ्य चोर’ थे या कि वे भी ‘सत्य से आँख मिलाने’ से बचना चाह रहे थे, या फिर वे भी
‘पोलिटिकल करेक्ट’ होने की कोशिश में थे? क्योंकि पचौरीजी ने अपनी पुस्तक में
मुगलकालीन 600 सौ वर्षों के समय में टूट, फूट दरार और तनाव आदि को देखने की बहुत
कोशिश की है, किन्तु किसी एक भक्तकवि की एक कविता इस आशय का तलाश नहीं पाए|
अप्रत्यक्ष, अनकहा, बिटवीन द लाइन्स आदि के सहारे ही अपनी स्थापना को आधार देने का
प्रयास करते रहे|
यहाँ यह कहने की
कोशिश नहीं की जा रही है कि मुसलमान शासकों ने अत्याचार नहीं किए| निश्चित
रूप से अत्याचार हुए हैं, किन्तु यह अत्याचार एक तो समान गति और समान क्रम में नहीं हुए हैं और उस अत्याचार का
स्वरुप वह नहीं रहा है जो इतिहास का पहला पक्ष रखने का प्रयास करता है| जहाँ तक ‘पोलिटिकल
करेक्टनेस’ का सवाल है तो उसका ऐतिहासिक सन्दर्भ है, और वह सन्दर्भ अत्यंत
महत्वपूर्ण है| औपनिवेशिक इतिहासकारों द्वारा मुगलकालीन शासकों के अत्याचारों का
अतिरंजित और दोनों कौम के बीच नफ़रत और घृणा के मकसद से तैयार इतिहास दृष्टि को
काउंटर करने के लिए या उसके घोर नकारत्मक प्रभाव को मिनीमाइज करने के लिए एक उदार
इतिहास-दृष्टि की जरूरत महसूस की गई| नफ़रत की नीयत से तैयार इस औपनिवेशिक
इतिहास-दृष्टि से किंचित परिचय आवश्यक है| क्योंकि गार्सा द तासी, मिश्रबन्धु,
सेंगर, शुक्लजी से लेकर रामस्वरूप चतुर्वेदी तक उस उपनिवेशवादी इतिहास-दृष्टि के
प्रभामंडल में है| उत्तर आधुनिकता, इतिहास का अंत या नव्य इतिहासशास्त्र जिसके
प्रभाव में पचौरीजी हैं के तार कहीं न कहीं उपनिवेशवादी इतिहास-दृष्टि से जुड़ते
प्रतीत होते हैं|
1876-77 में आठ
खण्डों में इतिहास पुस्तकों की एक श्रृंखला हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया एज टोल्ड
बाई इट्स ओन हिस्टोरियंस सर
हेनरी एलियट द्वारा तैयार की गई| एलियट उन दिनों ब्रिटिश विदेश मंत्री के पद
पर आसीन थे| सैंडहर्स्ट स्टाफ कॉलेज के प्रोफेसर जॉन डाउसन ने इस श्रृंखला का
सम्पादन किया| इस पुस्तक का उद्देश्य मुस्लिम शासनकाल को अत्याचारकाल और और
अंग्रेजों को उस अत्याचारकाल से मुक्तिदाता के रूप में स्थापित करना है| यह बात
पुस्तक के प्राक्कथन से ही स्पष्ट है, “एक ही खंड से संक्षिप्त उद्धरणों से जो हमें झलकियाँ मिलती
हैं मुसलामानों के विरोध करने के लिए हिन्दुओं की ह्त्या की, पूजा-पाठ, स्थान और
धार्मिक जुलूसों पर प्रतिबंधो की, असहिष्णुतापूर्ण आचरण की, मंदिरों के विधवंस की,
मूर्तीभंजन की, बालात विवाहों और धर्मांतरणों की, संपत्ति हरण की घटनाओं की,
हत्याओं और संहारों की, ‘क्रूर’ और अत्याचारी शासकों के व्यभिचार, सम्भोग और
दुराचार आदि, यह सिद्ध करती है कि यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है| इसमें अज्ञान
की यह धुंध छंटेगी जिसमें भारत के इतिहास का ज्ञान बहुत हद तक छिपा रहा है और यह
सिद्ध हो सकेगा कि मोहेमडेन काल का इतिहास अभी लिखा जाना बाकी है| इससे हमारे देश
की प्रजा हमारे उदार न्यायपूर्ण शासन के असीम लाभ और सुविधाओं का ज्यादा अच्छी तरह
एहसास कर सकेगी|”[xv] इस इतिहास लेखन का
घोषित लक्ष्य ही यह था कि समस्त मध्यकालीन भारतीय इतिहास का चित्रण ऐसे भयानक और विकृत ढ़ंग से किया जाए ताकि यह
प्रमाणित हो सके कि यह काल बर्बरतापूर्ण अत्याचार और धार्मिक उत्पीड़न का युग था और
बाबुओं को ‘राष्ट्रप्रेम’ विलाप से हतोत्साहित किया जा सके और उन्हें बताया जा सके
कि ब्रिटिश शासन के अधीन उन्हें यह स्वतन्त्रता प्राप्त थी, जो पहले कभी नहीं थी|
उनकी स्थिति जितनी अच्छी है वह इसके पहले कभी नहीं रही थी| उसने सिद्ध करना चाहा कि
भारत में दो ‘राष्ट्र’ थे, ‘देसी’ हिन्दुओं पर ‘विदेसी’ मुसलमानों ने विजय प्राप्त
की और यह विदेशी मुस्लिम अत्याचार 600 वर्षों तक जारी रहा| यहाँ तक कि अंग्रेजों
ने आकर भारत को आकर मुक्त किया|[xvi]
एलियट के यह आठ खंड
कई दशकों तक मध्यकाल के इतिहासवेत्ताओं के लिए मूल स्रोत-सामग्री रहे और इनका
साम्प्रदायवादी जहर फैलता गया| इतिहास के इस दृष्टिकोण का अनुकरण कई भारतीय
इतिहासकारों और साहित्येतिहासकारों ने किया| एलियट के इस ‘बुनियादी’ दृष्टिकोण को
हिन्दू एवं मुस्लिम साम्प्रदायिक इतिहासकारों ने ग्रहण किया क्योंकि यह दोनों के
लिए सुविधापूर्ण था| मुस्लिम साम्प्रदायवादियों के लिए सुविधाजनक था क्योंकि इससे
यह सिद्ध करना आसान था कि मुसलमान एक पृथक राष्ट्र थे और उनके बीच यह मिथ्या धारणा
बनाई जा सके कि 600 वर्षों तक हम इस देश के शासक रहे हैं| हिन्दू साम्प्रदायवादियों
के लिए भी यह सुविधाजनक था क्योंकि इस विचार को प्रसारित किया जा सकता था कि
मुसलमान भारतीय राष्ट्र का न कभी अंग थे, न कभी बन सकते हैं| इसी इतिहास-दृष्टि ने
अंततः देश का विभाजन कर दिया और आज भी फिरकापरस्त ताक़त इस इतिहास-दृष्टि से
खाद-पानी ग्रहण करते हैं| इसलिए रामस्वरूप चतुर्वेदी और सुधीश पचौरी की यह चिंता
ग़लत है कि उदारवादी इतिहासदृष्टि के कारण दक्षिणपंथ अतीत का हिसाब चुकता में जुटा
है|
इस विकृत
इतिहास-दृष्टि का गहरा प्रभाव हिन्दी साहित्य और इतिहास पर पड़ा है| बाबू
श्यामसुंदर दास की कबीर ग्रंथावली एक अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक है| कबीर का
विश्वसनीय और प्रामाणिक पाठ इसमें संकलित हैं| कई राज्यों और केंद्र के प्रशासनिक
सेवाओं की परीक्षा के पाठयक्रमों यह पुस्तक संकलित है| रोचक मामला यह है कि जिस
भाव-बोध के एक भी पद पूरी ग्रंथावली में नहीं है, उस भाव-बोध पर प्रस्तावना का अधिकांश
हिस्सा जाया किया गया है, “कबीर का जन्म ऐसे
समय में हुआ जब मुसलामानों के अत्याचारों से पीड़ित भारतीय जनता को अपने जीवित रहने
की आशा नहीं रह गई थी और न उसमें अपने आपको जीवित रखने की इच्छा ही शेष रह गई थी|
उसे मृत्यु या धर्म परिवर्तन के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं देख पड़ता था|...नाम
मात्र के अपराध के लिए किसी की खाल खिंचवाकर उसमें भूसा भरवा देना एक साधारण बात
थी|... प्रजा दाने-दाने को तरसने लगी| सोने-चांदी की तो बात ही क्या, हिन्दुओं के
घरों में ताम्बे, पीतल के थाली लोटों का रहना सुलतान को खटकने लगा|... 1373-77
(खिलजी के बेटे कुतुबुद्दीन मुबारक) के समय मंदिरों को गिराकर उसके स्थानों पर
मस्जिदें बनाने का लग्गा तो बहुत पहले ही लग चुका था, अब स्त्रियों के मान और
पतिव्रत की रक्षा करना भी कठिन हो गया| ”[xvii] इस इतिहास दृष्टि
पर एलिएट के इतिहास चिंतन का सीधा प्रभाव है| यह पुस्तक सर्वप्रथम 1928 में
प्रकाशित हुई| शुक्लजी का इतिहास एक वर्ष बाद यानी 1929 ई में शब्द सागर की
भूमिका के रूप में प्रकाशित होता है| भक्तिकाल के सन्दर्भ में ‘पराजित
हिन्दू जाति’ की अवधारणा के मामले में शुक्लजी श्यामसुंदर दास का अनुकरण करते
प्रतीत होते हैं| इसी प्रस्तावना में आगे दासजी लिखते हैं, “तैमूर के आक्रमण ने देश को जहाँ-तहाँ उखाड़कर नैराश्य की चरम
तक पहुंचा दिया| हिन्दू जाति में से जीवन शक्ति के सब लक्षण मिट गए| विपत्ति की
चरम सीमा तक पहुंचकर मनुष्य पहले तो परमात्मा की ओर ध्यान लगाता है और अनेक कष्टों
से त्राण पाने की आशा करता है|”[xviii]
सोचने की बात है कि
विद्यार्थियों को हम किस तरह का इतिहास-बोध दे रहे हैं| उदारवादी
इतिहास-दृष्टि इसी परिप्रेक्ष्य को थोड़ा सही करने का प्रयास भर है| तथ्यों को
छुपाना नहीं| तथ्य को कोई छुपा भी नहीं सकता| इस दृष्टि के अनुसार मुसलामानों का
हिन्दुस्तान में आगमन, उनके अत्याचार और यहाँ की जनता के साथ उनका सामंजस्य एवं
संश्लेषण अलग-अलग कालखंडो में अलग-अलग तरीके से हुआ| सम्प्रदायवादी दृष्टि मुस्लिम
आगमन और अत्याचार को एक जैसा मानता है| समयान्तराल की भिन्नता का इस दृष्टि में
कोई स्थान नहीं है| मुहम्मद गज़नी और मुहम्मद गोरी की तुलना बाद के मुग़ल बादशाहों
से नहीं की जा सकती| उनका अत्याचार और लूट-खसोट असंदिग्ध है, किन्तु उसके बाद जो
मुसलमान शासक यहाँ आए उनका मन, मिज़ाज और मकसद भिन्न था| इतिहासकार मोहम्मद हबीब
अपने एक महत्वपूर्ण आलेख ‘महमूद के कार्यों का चरित्र और मूल्य’ में
वे इस भिन्नता को दर्शाते हुए लिखते हैं, “15 वर्ष बाद हिन्दू पुनरुत्थान के आगे वे नष्ट हो गए ‘जिसने तलवार उठाई वह
तलवार से ही मारा गया’| लाहौर के पूरब में मुसलमान का कोई चिह्न बाकी नहीं रहा|
हिन्दू विश्वास की जड़ें तो वे नहीं हिला सके पर अपने धर्म पर अमिट कलंक जरूर लगा
दिया| दो सदियों बाद इस्लाम एस देश में फिर आया- उन लोगों के साथ जो महमूद से उतने
ही भिन्न थे जितने भिन्न कोई दो इन्सान संभव हो सकते हैं| पर ज़माना बदल चुका था|
फिर वह नया रहस्यवाद सामने आया| जिसकी प्रवृत्तियाँ विश्ववादी थी और जिसके
सिद्धांत प्राचीन भारत के हिन्दू ऋषियों की मूल शिक्षाओं से भिन्न न थे| इस
रहस्यवाद के कारण दोनों धर्मों के लोगों के बीच विचारों का वह आदान-प्रदान संभव
हुआ जिसकी आशा लगाए ही अल बैरूनी इस दुनिया से चला गया| मध्यकालीन भारत के बौद्धिक
इतिहास का आरम्भ अजमेर शरीफ़ के शेख मोइद्दीन चिश्ती से साथ और राजनीतिक इतिहास का
आरम्भ सुलतान अलाउद्दीन खिलजी से हुआ| दो विशेषताएं ऐसी हैं जो इस काल को पहले
की पीढ़ियों से भिन्न ठहराती हैं, और वे
हैं; संत चिश्ती द्वारा किया गया सूफीवाद का प्रचार तथा खिलजी जैसे क्रांतिकारी
सम्राट द्वारा किये गए प्रशासनिक और आर्थिक उपाय|”[xix]
यह इतिहास-दृष्टि यह
मानती है कि बाद के मुग़ल बादशाहों का हिंसा-कर्म सत्ता-संघर्ष का परिणाम था, न कि
हिन्दू –मुसलमान का| जो भी इनकी सत्ता को चुनौती देता या जिनसे चुनौती की संभावना
नज़र आती वे इनके दुश्मन हो जाते| अगर ऐसा नहीं होता तो कई मुसलमान इस हिंसा के
शिकार नहीं होते| हिन्दू राजाओं के काल में भी भारी पैमाने पर हिंसा हुई अत्यधिक
हिन्दू मारे गए| सम्प्रदायवादी इतिहास-दृष्टि इस हिंसा और अत्याचार को
सत्ता-संघर्ष न मानकर आम हिन्दू पर हुए अत्यचार का नेरेसन तैयार करता है| लोक
चित्त में धंसे मध्यकाल के भक्त कवि इस महीन फ़र्क को समझ रहे थे| वे बादशाहों और
सामन्तो के सत्ता-राग और सत्तापेक्षी लड़ाइयों से परिचित थे| इसलिए उनकी कविताओं
में इन बादशाहों की आलोचना मिल जाती है किन्तु हिंसक अत्यचारों की नहीं| रही
मासूम रजा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ का नितांत अनपढ़ पात्र छिकुरिया
अपने सहज उत्तरों से ऐसे साम्प्रदायवादी इतिहास दृष्टि वालों की बोलती बंद कर देता
है| ये तत्व छिकुरिया को समझाने की चेष्टा करते हैं कि मुसलमानों ने हिन्दुओं पर
बहुत अत्यचार किया है| इस पर छुकिरिया कहता है, “हम औरंजेब को ना जानी ला...हम न मानब आपकी बात, आ ऊ जकर आप
नाम लेत बाड़ी, ऊ साला होई कोनो बदमास| जमींदारन के जुलम के हम न कहत बाड़ी| बाकी
जेके पास जमींदारी होई, उइके जुल्म करे के पड़ी| न करी त जमींदारी न चली| और
मियाहूँ लोग जमिन्दारे होवन|” छुकिरिया में भक्ति
कवियों वाली संवेदना है| भक्तिकाल के
कवियों की काव्य-दृष्टि और इस काव्य-दृष्टि से निर्मित इतिहास-दृष्टि यही है| अब
इसे आप सत्य से आँखें चुराना कहें तो दूसरी बात है|
चार
साहित्य के इतिहास का अर्थ है कि हम साहित्य को उसके ऐतिहासिक
परम्परा और उसके विकासमान प्रक्रिया को लक्षित करें| नव्य इतिहासशास्त्र इस
परम्परा और निरंतरता की अवधारणा को एक सिरे से खारिज करता है| मिसेल फूको के
अनुसार परम्परागत इतिहासों में एक तर्क संगत सातत्य खोजना एक प्रकार
से असंभव ही है क्योंकि मनुष्य की प्रकृति और चेतना अखंड नहीं होती, न की एक युग
एक युग होता है और न अलग-अलग युग एक दूसरे से जुड़ सकते हैं और यह कहना भी ठीक नहीं
कि पिछला युग अगले युग के बीज लिए रहता है| नया युग कुछ इस तरह से आता है कि उसको
पूरी तरह से बताया नहीं जा सकता क्योंकि हर नया युग एक विमर्शात्मक निर्मिति होता
है| इतिहास विकास का कोई नमूना पेश नहीं करता, हर अतीत ‘असातत्य’ और असम्बद्ध
घटनाओं का परिणाम होता है|[xx] ऐतिहासिक विकास को नकारना
इतिहास चेतना को नकारना है| क्योंकि ‘इतिहास मनुष्य की जययात्रा’ का इतिहास
है| विज्ञान से लेकर समाज तक मनुष्य विकासमान रहा है| नव्य इतिहास की इस व्याख्या
पर शुक्लजी से लेकर द्विवेदीजी तक की इतिहास-दृष्टि निरर्थक साबित हो जाती
है| क्योंकि द्विवेदी जी के अनुसार इतिहास मानव समाज के संघर्ष और विकास की कथा
है| इसलिए वह केवल राजाओं और महाराजाओं की जीवनगाथा नहीं है| इतिहास जनता के
संघर्ष और विकास का सूचक है| द्विवेदीजी ने आदिकाल में लिखा है कि “इतिहास जीवंत मनुष्य के विकास की जीवन कथा होता है, जो
काल-प्रवाह से नित्य उद्घाटित होते रहने वाली नव-नव घटनाओं और परिस्थितियों के
भीतर से मनुष्य की विजययात्रा का चित्र उपस्थित करता है, जो काल के पर्दे पर
होनेवाले नए-नए दृश्यों को हमारे सामने सहज भाव से उद्घाटित करता है|”[xxi]
नव्य इतिहासशास्त्र
के हवाले सुधीश पचौरी निष्कर्ष निकालते हैं कि द्विवेदीजी की ‘हजार वर्षों से
मेघखंड एकत्र हो रहे थे’ वाली थीसिस इतिहास में मौजूद नाना फाल्ट लाइनों को नकार
कर चलती है और एक तरह से एक ‘अटूट’ इतिहास की वकालत करती है| यह थीसिस इतिहास की
शाश्वतवादी सातत्यवादी समझ से जुड़ती नज़र आती है जो कि आज के संघवादी दृष्टि से भी
मिलती जुलती है|”[xxii] हजारी प्रसाद
द्विवेदी को ‘संघ’ थक पहुंचा देना नव्य इतिहास का ‘चमत्कार’ है| सुधीश पचौरी को
फाल्ट लाइन के रूप में द्विवेदीजी का ‘चार आना’ अपर्याप्त लगता है|
द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य में ‘चार आना’ इस्लाम के योगदान को मानते हैं| साहित्य
का एक चौथाई हिस्सा फाल्ट लाइन के रूप में स्वीकार करना भला कम कैसे है?
तीसरी-चौथी शताब्दी से जो भक्ति परम्परा पूरे देश में अखिल भारतीय स्तर पर
जनाकांक्षा के रूप में विस्तार पा रही थी, उसको द्विवेदीजी क्या करते? भक्ति
साहित्य की जो परम्परा अपनी पूरी चेतना में वर्णसत्ता, पितृसत्ता, राजसत्ता और
भाषाई सत्ता से मुठभेड़ करते हुए, भेदवादी दृष्टि से दो दो हाथ करते हुए विकसित हो
रही थी, उसका साकारत्मक रेखांकन किस तरह संघवादी दृष्टि से मेल खा रही थी, समझना
कठिन है| परम्परा का रेखांकन संघ से जुड़ना नहीं होता बल्कि महत्वपूर्ण यह होता है
कि आप किस तरह की परम्परा से जुड़ रहे हैं? विकासवादी इतिहास-दृष्टि के प्रति नकार
भाव कहीं न कहीं मनुष्यता के विकास के प्रति नकार भाव को संकेतित करता है| इस
सन्दर्भ में वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय की चिंता अधिक जायज़ लगती है, “मानव समाज का इतिहास मनुष्य की सोद्देश्य जीवन यात्रा का
इतिहास है| साहित्य की रचना और उसके बोध का इतिहास भी मनुष्य के सोद्देश्य व्यापक
जीवन यात्रा के इतिहास का अंग है| अतीत की चिंता वर्तमान और भविष्य की चिंता से
जुड़ी हुई होती है| इतिहास की प्रक्रिया में अतीत, वर्तमान और भविष्य परस्पर
सम्बद्ध होते हैं| इनके विकासशील सम्बन्ध का बोध ही इतिहास-बोध है|”[xxiii]

इसमें दो राय नहीं
कि इतिहास कई बार ‘एक्सिडेंटल’ भी होता है| अचानक उत्पन्न किसी घटना
का प्रभाव इतिहास की दिशा मोड़ देता है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि परम्परा,
विकास और सातत्य का इतिहास से कोई मायने मतलब नहीं होता| दिनकर की प्रसिद्ध रचना ‘संस्कृति
के चार अध्याय’ की प्रस्तावना में जवाहरलाल नेहरु सातत्यवादी
इतिहास और परिवर्तनवादी इतिहास दृष्टि के
पारस्परिक संबंधो को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, “इतिहास के अन्दर हम दो सिद्धांतों को काम करते देखते हैं|
एक तो सातत्य का सिद्धांत और दूसरा परिवर्तन का| ये दोनों सिद्धांत परस्पर विरोधी
से लगते हैं, परन्तु ये विरोधी हैं नहीं| सातत्य के भीतर भी परिवर्तन का अंश है|
इसी प्रकार परिवर्तन (एक्सिडेंटल, फाल्ट लाइन) भी अपने भीतर सातत्य का कुछ अंश लिए
रहता है|”[xxiv]
नव्य इतिहासशास्त्र भले
ही दरारों, तनावों और टूट-फूट को महिमामंडित करता हो कितु इतिहास में जोड़,
सांमजस्य और संतुलन को देखना भी कम महत्वपूर्ण नहीं| आखिर हम इतिहास से सीखना क्या
चाहते हैं? अतीत के टूट-फूट और विभिन्नता से वर्तमान और भविष्य को तोड़ना चाहते हैं
या सामंजस्य, संतुलन के निशानों को देखकर अपने भविष्य को सामंजस्यपूर्ण बनाना
चाहते हैं? हाजारी प्रसाद द्विवेदी जब भक्ति साहित्य की संवेदना को अखिल भारतीय कह
रहे होते हैं और उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक उस संवेदना के
अंतर्चिह्नों को जोड़ने का प्रयास कर होते हैं तो इसका मकसद क्या है? कालजयी
कृतियों में युग सापेक्षता और युग निरपेक्षता का विरोध ही नहीं होता, उसकी एकता भी
होती है| अपने परिवेश और अपनी परम्परा से सर्जनात्मक सम्बन्ध स्थापित करने वाली
कृति ही रचनाकार की सृजनशीलता के कारण कालजयी भी होती हैं| गहरे स्तर पर समकालीन
होकर, समकालीन जीवन से सम्बद्ध होकर ही कोई कृति सर्वकालिक बनती है न कि परम्परा
और परिवेश से विछिन्न होकर|[xxv] हिन्दी साहित्य के इतिहास
में कई इतिहासकारों ने विशेषकर धर्म की आड़ में अनेकता और भेद को रेखांकित किया है|
उर्दू भाषा के स्वरुप, पद्मावती तथा चन्द्रकान्ता आदि उपन्यास के सन्दर्भ में इस
इतिहास दृष्टि को परखा जा सकता है| इस विभाजनवादी
इतिहास-दृष्टि के सन्दर्भ में नेहरु जी लिखते हैं, “भारत के समग्र इतिहास में हम दो परस्पर विरोधी और
प्रतिद्वंदी शक्तियों को काम करते देखते हैं| एक तो वह शक्ति है, जो बाहरी उपकरणों
को पचाकर समन्वय और सामंजस्य पैदा करने की कोशिश करती है, और दूसरी वह जो विभाजन
को प्रोत्साहन देती है, जो एक बात को दूसरों से अलग करने की प्रवृत्ति को बढ़ाती
है|”[xxvi]
नव्य इतिहासशास्त्र
का अत्यधिक जोर वर्तमान पर है, ‘नव्य इतिहासशास्त्र का काम इतिहास को
वर्त्तमान से वर्तमान के लिए बनाना है|’ अतीत का विलोपन और विकासमानधारा की
उपेक्षा इसके केंद्र में है| इतिहासकार कलिंगवुड अतीत और वर्तमान के
पारस्परिक रिश्ते को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं| उनके अनुसार, “इतिहास-दर्शन का सम्बन्ध न तो ‘अपने आप में अत्तीत से’ होता
है न ही ‘अपने आप में अतीत के बारे में इतिहासकार के विचारों से’ बल्कि उसका सम्बन्ध
इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध से होता है| अतीत जिसका इतिहासकार अध्ययन करता है
मृत अतीत नहीं होता बल्कि ऐसा अतीत जो किन्हीं अर्थों में वर्तमान में भी जीवित
रहता है|”[xxvii] दरअसल इसी इतिहास-बोध से हम अतीत की रचनाओं की
समकालीनता सिद्ध कर पाते हैं और उसकी प्रासंगिकता या निरर्थकता को जान-समझ सकते
हैं| इस सन्दर्भ में इतिहासकार ईएच कार की मानें तो इतिहासकार का काम न तो
अतीत को प्यार करना है और न खुद को अतीत से मुक्त करना बल्कि वर्तमान को समझने के
लिए उसे अतीत के अध्ययन में दक्षता प्राप्त करनी चाहिए और अपनी समझ को वर्तमान की
कुंजी के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए|[xxviii] जब हम किसी पुरानी रचना
पर मुग्ध होकर विचार करने लगते हैं तो वह हमारा अतीत के प्रति अतीत के मूल्यों के
प्रति ‘प्यार’ की भावना को प्रदर्शित करता है और हमारा अतीत राग कुलबुलाने लगता
है| जितना ही खतरनाक अतीत राग है, उससे कम नव्य इतिहासशास्त्र का वर्तमान के प्रति
आक्रान्त भाव नहीं है| अतीत और वर्तमान के बीच इस आवाजाही की सार्थकता की और संकेत
करते हुए साहित्य और इतिहास-दृष्टि के लेखक मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं, “रचना का मूल्यांकन रचानाकालीन कन्दर्भ हो या समकालीन
सन्दर्भ में? इन प्रश्नों से कलाकृति के अतीत और वर्त्तमान की, रचनाकाल और आस्वादन
काल की एकता और अंतर्विरोध की व्यंजना होती है| आलोचक इतिहासकार रचना के अतीत और
वर्तमान को, उसके सृजन और आस्वादन को, एक दूसरे से अलग करके नहीं देख सकता| रचना
के केवल अतीत की मीमांसा करना विधेयवादी इतिहास की कमजोरियों का शिकार होना है और
रचना के केवल वर्तमान को या उसके वर्मान आस्वादन रूप की मीमांसा करना नई समीक्षा
की प्रवृत्ति को स्वीकारना है| रचना की उत्पत्ति और उसकी वर्तमान सार्थकता दोनों
पर विचार कारना इतिहास का उद्देश्य है|”[xxix]
नव्य इतिहासशास्त्र
साहित्य केन्द्रित इतिहास-दृष्टि है| इसे जानना समझना आज के साहित्य के
विद्यार्थियों, प्रेमियों और आलोचकों के लिए आवश्यक है| यह इतिहास-दृष्टि रचना,
रचनाकार और रचना-समय किसी को भी आदर और आनंदपूर्वक देखेने की सिफारिश नहीं करता,
बल्कि सबकी निर्मम आलोचना करना, किसी भी रचना या रचनाकार के प्रभामंडल में न आना,
इसके प्रमुख लक्षण हैं| साथ ही समयांतराल के दरकनों और फाल्ट लाइन्स को तलाशना भी
जरूरी है| नव्य इतिहासशास्त्री हैडेन व्हाइट कहते हैं, “इसलिए हमें एक इतिहासशास्त्र की जरूरत होती है, हम अतीत की
‘अराजकता’ और दहशतों (हरर्स) से मुठभेड़ करते हैं| यह बात हमें तैयार करती है कि हम
अपनी जिन्दगी भविष्य की पीढ़ियों के लिए बना सकें| जब हम ऐसा करेंगे तभी हम इतिहास
के ‘बोझ’ से मुक्त हो पाएंगे|”[xxx]
[i] वर्चस्व और प्रतिरोध- एडवर्ड सईद, प्रस्तुति और अनुवादक-
रामकीर्ति शुक्ल, नयी किताब,2015, भूमिका से
[ii] तीसरी परम्परा की खोज-सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, नयी
दिल्ली, 2019, पृष्ठ 2
[iii] उपरियुक्त, पृष्ठ 4
[iv] लोक जागरण और हिन्दी साहित्य –रामविलास शर्मा, पृष्ठ 18
[iv] उपरियुक्त, पृष्ठ 4
[vi] हिन्दी साहित्य का
इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, बाइसवाँ संस्करण, संवत 2045,
प्रथम संस्करण का वक्तव्य,पृष्ठ 1
[vii] तीसरी परम्परा की
खोज-सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019, पृष्ठ 46
[viii]
उपरियुक्त, पृष्ठ 46
[ix] उपरियुक्त, पृष्ठ
58
[x] आदिकाल- हजारी
प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 27
[xi] तीसरी परम्परा की खोज-सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, नयी
दिल्ली, 2019, पृष्ठ 30
[xii] साहित्य संवेदना और
स्वरुप का विकास- रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृष्ठ 22
[xiii]
तीसरी परम्परा की खोज-सुधीश पचौरी, वाणी
प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019, पृष्ठ 122
[xiv] उपरियुक्त, पृष्ठ
120
[xv] इतिहास की राजनीति, सम्पादक-रामजीराय , समकालीन जनमत, पटना,
2003, पृष्ठ 26
[xvi] उपरियुक्त, पृष्ठ 29
[xvii]
कबीर ग्रंथावली, सम्पादक- श्यामसुंदर दास, नागरी
प्रचारिणी सभा, संवत 2041, प्रस्तावना से
[xviii]
उपरियुक्त पृष्ठ 8
[xix] मध्यकालीन भारत, अंक 4, सम्पादक- इरफ़ान हबीब, राजकमल प्रकाशन,
दिल्ली 1992, पृष्ठ 22
[xx] तीसरी परम्परा की खोज-सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, नयी
दिल्ली, 2019, पृष्ठ 122
[xx] उपरियुक्त, पृष्ठ
21
[xxi] आदिकाल-हजारी
प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 78
[xxii]
तीसरी परम्परा की खोज-सुधीश पचौरी, वाणी
प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019, पृष्ठ 122
[xxii] उपरियुक्त, पृष्ठ
123
[xxiii]
साहित्य
और इतिहास-दृष्टि- मैनेजर पाण्डेय, पीपुल्स लिटरेसी, 1981, पृष्ठ 38
[xxiv]
संस्कृति के चार अध्याय- दिनकर, लोकभारती
प्रकाशन, संस्करण 2010, प्रस्तावना से
[xxv] साहित्य और इतिहास-दृष्टि- मैनेजर पाण्डेय, पीपुल्स
लिटरेसी, 1981, पृष्ठ 13
[xxvi]
संस्कृति के चार अध्याय- दिनकर, लोकभारती
प्रकाशन, संस्करण 2010, प्रस्तावना से
[xxvii]
इतिहास क्या है- ईएच कार, मैकमिलन द्वितीय
स्न्स्कर्ण 1979, पृष्ठ 13
[xxviii]
उपरियुक्त, पृष्ठ 17
[xxix]
साहित्य और इतिहास-दृष्टि- मैनेजर पाण्डेय,
पीपुल्स लिटरेसी, 1981, पृष्ठ 12
[xxx] तीसरी परम्परा की खोज-सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, नयी
दिल्ली, 2019, पृष्ठ 122
[xxx] उपरियुक्त, पृष्ठ
44
(अदहन, जनवरी-जून 2019 में प्रकाशित)
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