प्रेम और पाखण्ड को नापती कहानियाँ


                 
  
चन्द्ररेखा ढडवाल के ताज़ा संग्रह सीवनें उधडती हुईं  की कहानियाँ जितनी सीवनें उधेड़ती हैं उनसे अधिक जीवन की दरारों, फाटों और दरकनों को सिलती-बुनती चलती हैं| इनकी कथा दृष्टि में जीवन एक पहेली न होकर कहीं बिलकुल आसपास ही धमाचौकड़ी और हलचल मचानेवाली हैं| इनकी कहानियाँ कभी सीधे तो कभी चुपके से हताशा और अवसाद से निराश नहीं होतीं बल्कि अपनी पूरी चेतना में उससे मुठभेड़ करती हैं| स्वाभाविक है कि इस मुठभेड़ में मनुष्य कहीं पराजित होता है तो कहीं जीतता भी है| लेकिन जीवन के अंतिम छोर तक वह अपनी लड़ाई जारी रखता है| दूसरी बात जो रेखांकित करनेवाली है वह यह है कि इनकी कहानियाँ चमत्कृत या हतप्रभ नहीं करतीं, धीरे-धीरे वह आपके जेहन में उतरती जातीं हैं और आपसे जबाव-तलब करतीं हैं| स्त्री-विमर्श की क्रांतिकारी स्थापनाओं के बरक्स चंद्रेरेखा की स्त्रियाँ पुरुषों की द्विविधाओं और उनकी मानसिक दुचित्तापन को संवेदनशीलता के साथ समझने की कोशिश करतीं हैं| इस समझने-बुझने में वे परिस्थितियों से समझौता नहीं करतीं हैं बल्कि परिस्थितियों को उलट-पुलट कर उसकी गहरी छानबीन करतीं हैं और ख़ुद बगैर किसी दबाव और विवशता के ठोस निर्णय लेने में कामयाब होती हैं| इस कामयाबी को वह जश्न के तौर पर नहीं लेतीं बल्कि जीवन के स्वाभाविक टूट-फूट के तौर पर इसे स्वीकार करती हैं| कहने का आशय यह कि जीवन की गति हो या स्त्री का मन इनकी कहानियाँ विचारों के समानांतर अपनी परम्परा और अपने बोध से उदात्त जीवन रस खीचकर ले आती हैं|
संग्रह की पहली कहानी असलम से जुदा करके देखा समकालीन दौर की एक भयावह  सच को उजागर करती है| उजागर ही नहीं बेपर्द करती है| बहुसंख्यक ध्रुवीकरण की दुर्नीत राजनीति ने भारतीय मुसलमानों किस हद तक डरा दिया है और वे किस तरह सहमे हुए हैं, की व्यथा-कथा है असलम से जुदा करके देखा| मिन्दी के जिगरी दोस्त असलम की बहन की शादी में कुछ गाने-वाने होते हैं| लेकिन पड़ोसी दयानंद मिश्रजी को यह खुशियाँ झेली नहीं जाती| वे इस गाने को बंद करने का फ़रमान जारी करते हैं और न मानने पर कई लफ़ंगे घर में घुसकर औरतों-बच्चों  से लेकर  बुजुर्गों तक की बुरी तरह धुनाई कर देते हैं| पुलिस उन लुच्चे-लफंगों को पकड़ने के बदले असलम परिवार के लोगों को ही पकड़कर ले जाती है, साथ ही मिन्दी को भी| पुलिस चाहती है की असलम इस बात की गवाही दे कि मिश्राजी को जेल में ‘सड़वाने’ की नीयत से असलम के परिवार वाले ने ही ऐसा करवाया है| मिन्दी को यातनाएँ दी जातीं हैं, लेकिन वह इस झूठ में शामिल नहीं होता| यातना सहकर भी असलम के साथ तनकर खड़ा होता है| मिन्दी का असलम के पक्ष में खड़ा होना ही दरअसल ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ है| नफ़रत की राजनीति को ठेंगा दिखाकर आपसी प्रेम और और भाईचारा ही अंततः हिन्दुस्तान बनने और एक सच्चा हिन्दुस्तानी होने की सार्थकता है| प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि  के सूरदास को याद करें| सूरदास से यह पूछने पर कि ‘अगर वे फिर तुम्हारा घर जला देंगे तो तुम क्या करोगे?’ सूरदास कहता है ‘फिर बना लेंगे’| ‘अगर फिर जला देंगे?’ सूरदास कहता है ‘फिर बना लेंगे’| ‘अगर हजार बार जला देंगे?’ ‘तो हजार बार बना लेंगें’| असलम से  कहानी हमें पूरे आत्मविश्वास से साथ कहती है कि तुम लाख नफ़रत के बीज बो दो, हवा में घृणा के विष घोल दो, जब तक समाज में मिन्दी है वह तुम्हारी नफ़रत की हवा निकाल देगा| तुम बात-बात पर उसे पकिस्तान जाने को कहोगे मिन्दी असलम के आगे पहाड़ की तरह खड़ा हो जाएगा| तुम्हारी कोई भी चालें मिन्दी को असलम से जुदा नहीं कर सकती| क्योंकि हिन्दुस्तान जितना मिन्दी का  है उतना ही असलम का भी|
वक्त तो लगेगा, सीवनें उधडती हुईं, अपनी शर्तों पर, धर्म के लिए ही तो जी रही हूँ तथा बात भी न करूँ आदि कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंधों और सामान्य जीवन के घात-प्रतिघात, नेह-छोह को लेखिका ने अत्यंत बेबाकी से उद्घाटित किया है| इन कहानियों में पति रूप में पुरुष प्रेम के छल-छद्म और उसके काइयांपन और उसके प्रेम-पाखण्ड को अत्यंत बोल्ड रूप में रखने की कोशिश की गई है| वक्त तो लगेगा की कथा-नायिका को अपने शातिर और कामुक पति से मुक्त होने में काफ़ी वक्त लग जाता है| एक ही  घर में रहते हुए पता नहीं कब और कैसे पति से उसकी दूरी कुछ यूँ बढ़ती चली गई कि, पति धर्म, लोकलाज और तुम्हारे साथ बीते कुछ मीठे पलों की परतों तले मैं रोज-रोज दफनाती रही, तुम्हारे और अपने बीच के रिश्ते की टुकड़ा-टुकड़ा लाश| कोई नहीं जान पाया और किसी ने नहीं देखा कि समय बीतते तुम्हारे और मेरे बीच रिश्ता नहीं एक साबुत लाश पसर गई| (पृष्ठ 20) वक्त लेकर ही सही, लेकिन वह निर्णय करती है कि पति के साथ रहते हुए, उससे अलग अपने कमरे में रहेगी- तुम्हें मुक्त रखूँ यही चाहा है तुमने, पर आज मैं तुम्हें मुक्त करने की कोशिश में नहीं हूँ| बल्कि स्वयं मुक्त होने की शुरुआत कर रही हूँ|...मेरे भीतर फुंकारते अजगर की जिह्वा का तांडव तुम देख सको उससे पूर्व ही तुम्हारे सामने से हट गई|     
चन्द्ररेखा की स्त्रियाँ बाहरी रूप से बहुत ही साधारण सी दिखाती हैं, किन्तु ज़िन्दगी के निर्णायक मोड़ पर ‘हाँ’ और ‘ना’ तथा  इस पार या उस पर के कश्मकश में निर्णय लेने में क्षण भर की देरी नहीं करतीं| खुद के विवेक से निर्णय लेना इन्हें शब्द से सही अर्थों में चेतनशील प्राणी बनाता है| लज्या ‘अपनी शर्तों’ पर इस तरह जीती है कि गाँव के सबी दबंग पुरुषों के प्राण सांसत में पर जाते हैं| लज्या का पति अपने दबंग चाचा से भय खाता है और वह अधेड़ दबंग लज्या को अपना शिकार बनाने से बाज नहीं आता| एक दिन भरी पंचायत में लज्या कहती है, दो मर्द हैं इस घर में| आपके साथ बैठा यह अधेड़, मेरे पति का चाचा| दूसरा मेरा पति...| मुझे बताया जाए कि किसके साथ ब्याहता धर्म निबाहूँ मैं| सभा सन्न| काटो तो खून नहीं| पति के चिल्लाने और इस मुद्दे पर मुझसे बात करने की धमकी पर लज्या बिफरती हुई कहती है, तुमसे बहुत बात कर ली मैंने| आज इनसे करने दो| आपकी हुकुम बजाऊंगी| पर रहूँगी एक के साथ| चाहे इस नामर्द के साथ, चाहे इस जोरावर के साथ| पर रहूँगी इस तरह कि एक के साथ रहते दूसरा मुझे छूना तो दूर, टेढ़ी आँख से देखेगा भी नहीं| प्रसिद्ध कथा लेखिका नमिता सिंह ने इनकी कहानियों के बारे में सही लिखा है कि, उनके पात्र संघर्ष से भागते नहीं बल्कि विपरीत परिस्थितियों में अपनी राह बनाते हैं और जीने का हौसला देते हैं| पात्रों के साथ कथाकार की संलग्नता सामाजिक प्रश्नों को विस्तार देकर प्रभावी बनाती हैं| उनकी अधिकांश कहानियाँ स्त्री-केन्द्रित हैं जो विशेष रूप से प्रभावित करती हैं| गाँव से हों या शहरी मध्यवर्गीय परिवेश से आनेवाली अतिसाधारण स्त्रियाँ, अपने अस्तित्व के प्रति सजग हैं और उनकी जिजीविषा उनके व्यक्तित्व को यादगार बनाती हैं| (संग्रह के फ्लैप से)
धर्म के लिए ही तो जी रही हूँ  कहानी में हमेशा पर्दे में रहनेवाली बड़ी चौधराइन जब पति के खिलाफ़ अनाथ दलित बच्चे को गोद लेने का ठोस निर्णय लेती है, तो सभी के पाँव तले की जमीन खिसक जाती है| उस बच्चे के माँ-बाप के हत्यारे अपने पति के लिए इससे बड़ी सजा और ऐसे पति का पत्नी होने के नाते प्रायश्चित स्वरुप उस बच्चे को गोद लेने का मजबूत इरादा ही बड़ी चौधराइन को ‘स्त्रीयर्थ’ प्रदान कर जाता है| बात भी न करूँ दाम्पत्य प्रेम की विलक्षण कहानी है| आज की कहानियों ने दाम्पत्य प्रेम से अपना पिंड छुड़ा लिया है| आज की कहानियाँ ही क्यूँ, पूरा साहित्य ही परकीया प्रेम के सहारे फला-फूला है| कहा जाता है कि दाम्पत्य प्रेम में वह रस-रोमांच नहीं जो कहानी को सरसता का खाद-पानी मुहैय्या कराए| बात भी न करूँ में बस की एक सहयात्री दूसरी अधेड़ स्त्री से पति की शिकायत सुनते-सुनते तंग आकर कहती है, ‘तालाक क्यों नहीं दे देतीं उन्हें?’ ‘तालाक’ सुनते ही वह अधेड़ स्त्री पहले तो खूब हँसती है और बाद में हँसी पर काबू कर कहती है, मैं तो दे ही दूं| बहुत मजे में रहूँगी| लेकिन वह कैसे रहेगा अकेला? इस अधेड़ पत्नी की चिंता यह है की जिसे टाई मिलाने भी नहीं आता, वह भला अकेला ज़िन्दगी कैसे काट सकता है? कहानी का क्लाइमेक्स यह है कि उस सहयात्री स्त्री को दो दिन बाद अचानक रूप से पता चलता है कि उस अधेड़ स्त्री का पति तो दो महीना पहले ही मर चुका है| उस सहयात्री स्त्री के यह पूछने पर कि आप बस में तो कह रहीं थीं कि....| अधेड़ स्त्री का उत्तर प्रेम का अथाह सागर उड़ेल देता है-‘अब उसकी बात भी न करूँ?’ यह कहानी हठात प्रेम के विरल कवि आलम की उस प्रेम कविता की याद दिला जाती है, जिसमें प्रेमी मृत प्रेमिका को याद करते हुए कहता है- जा रसनासँ करि बहु बातिन, ता  रसनासँ चरित्र गिनो करि
                                नयनन में जो सदा रहते तिनके अब कान कहानी सुन्यो करि
मेरे लिए जियो पापा  शिक्षण संस्थानों में रैंगिंग की समस्या ही नहीं आतंक को बयां करनेवाली अत्यंत अर्थपूर्ण और मार्मिक कहानी है| कानून की नज़र में तो  रैंगिंग अपराध है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर रैगिंग रुपी ‘गुलशन का कारोबार’ शैक्षिक संस्थाओं में चल ही रहा है| रैगिंग सीनियर-जूनियर मानसिकता की देन है| लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि यह मानसिकता वर्णव्यवस्था का शैक्षिक संस्करण है, जहाँ पूर्व में नामांकित विद्यार्थी बाद में नामांकित विद्यार्थियों का शोषण करने का जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त कर लेता है| ब्राह्मण होने की तरह ही सीनियर होना प्रदत्त है न कि अर्जित| प्रदत्त अधिकार प्राप्त सीनियरों ने मिट्ठू का इतना जघन्य और अश्लील रैगिंग किया कि इस दुख,पीड़ा और अपमान को मिट्ठू की माँ बर्दाश्त नहीं कर पाती है और आत्महत्या कर लेने पर विवश हो जाती है| इन दोनों घटनाओं से आहत मिट्ठू के पिता इतने गहरे अवसाद में चले जाते हैं कि उन्हें अपने जीवित रहने की कोई लालसा नहीं रह जाती| उनकी लालसा को जगाते हुए बीमार मिट्ठू कहता है –‘मेरे लिए जियो पापा’|
संग्रह में कुछ अन्य भाव-बोध और महत्वपूर्ण मुद्दों की और संकेत करनेवाली कहानियाँ भी हैं| ये कहानियाँ एक और अपने समय के मूल्य-तंत्र से तो टकराती ही हैं तो दूसरी और जड़ीभूत पतोन्मुख स्त्री प्रश्नों से लहुलूहान भी होती हैं| प्रेम की जटिलता, दुर्बोधता और असाध्यता को व्यक्त करने में लेखिका की कहानी-कला पूर्ण सफल रहीं हैं| उदाहरण के लिए ‘पितृतंत्र, वर्णतंत्र और अर्थतंत्र की चक्की में पिसती स्त्रियाँ अपनी मानसिक उदात्तता से और अपने दृढ़ इरादों से बिगड़ती सामाजिक ताने-बाने को सुलझाती ही नहीं है बल्कि कई बार सर्वथा नए रास्ते की खोज भी कर लेती है|’ ‘सीवनें उधडती हुईं की कहानियाँ आपकी ज़िन्दगी की कई छोटी-मोटी किन्तु निहायत जरूरी मसलों को हल भले न कर पाए किन्तु उसे समझने में, उससे जूझने में आपका संग-साथ जरूर दे सकतीं हैं|
उक्त कथासंग्रह में लेखिका ने अपनी निजी कथा-भाषा निर्मित की हैं| इस तरह की कथा-भाषा अन्यत्र दुर्लभ है| कहानी लिखते-लिखते चन्द्ररेखा कई बार कविता करने लगती हैं| इस तरह इनकी भाषा गद्य और पद्य के बीच की दूरी पात देती है| बात पर बात करते-करते वह लिखती हैं, मन की मिट्टी पर धुप पड़े तो चटकती दरारें बातें| पानी की बूँद पड़ी तो सोंधी सी गंध बातें| कभी शब्दों के जाल में जकड़ी जातीं, तो कभी चिड़िया की चोंच में दबे तिनके संग उड़ती बातें| (पृष्ठ 52) प्रेम के कठिन डगर को अभिव्यक्त करने में इनकी भाषा सफल रहीं हैं| मितकथन में लेखिका के भाषा सौन्दर्य को तलाशा जा सकता है| आधे-अधूरे वाक्य से पाठक को अनकहा समझने में कठिनाई नहीं होती| ऐसे-ऐसे वाक्य जिसे व्यक्त करने के लिए कई पृष्ठों की दरकार हो सकती है, चन्द्ररेखा कुछ हर्फों में कह जातीं हैं- ‘बेटे पर माँ की कुर्बानियों का असर इतना कि उसके लिए औरत होना उसकी माँ होना है|’ इनकी कहानियाँ भाषा की सघन बुनाई और कताई पर खड़ी होतीं हैं, लेकिन उसे भाषाई चमत्कार का प्रदर्शन नहीं बनने देतीं| लेखिका की भाषा सबसे पहले पाठक को सहज बनाती हैं, उनसे संवाद करती हैं और तब धीरे-धीरे कहानी में प्रवेश कराती हैं|     

  
                               ( बया, अप्रैल सितम्बर 2019 में प्रकाशित)



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